मेरे विवाह के बाद कुछ ही दिनों में हम शाहपुर से जमखंडी गये। पिताजी हम से पहले वहां पहुंच गये थे। रात को हम कुड़ची स्टेशन पर उतरे। वहां से रात को ही बैलगाड़ी से रवाना हुए। दोनों बैल सफेद और मजबूत थे। रंग, सींगों का आकार, मुखमुद्रा और चलने का ढंग सब बातें दोनों में समान थीं। हमारे यहां ऐसी जोड़ी को ‘खिल्लारी’ कहते हैं। इन बैलों ने हमें चौबीस घंटों में पैंतीस मील पहुंचा दिया।
जमखंडी जाते हुए रास्ते में इतिहास-प्रसिद्ध तेरदाल आता है। हम तेरदाल के पास पहुंचे तब मध्याह्न का समय था। दाहिनी ओर दूर-दूर तक खेत फैले हुए थे। काफी दूर, लगभग क्षितिज के पास, एक बड़ी नदी बह रही थी। पानी पर सख्त धूप पड़ने के कारण वह चमचमा रहा था। और पानी कितने वेग से बह रहा है इसका भी कुछ-कुछ खयाल होता था। इतनी सुन्दर नदी के किनारे पेड़ कम क्यों हैं, इसका कारण मैं समझ नहीं सका। मैंने गाड़ीवान से पूछा, ‘इस नदी का नाम क्या है? कितनी बड़ी दिखाई देती है! कृष्णा नदी तो नहीं है?’ गाड़ीवान हंस पड़ा। कहने लगा, ‘यहां नदी कहां से आयेगी? वह तो मृगजल है। पानी के इस दृश्य से बेचारे प्यासे हिरन धोखे में आ जाते हैं और धूप में दौड़-दौड़कर और पानी के लिए तड़प-तड़प कर मर जाते हैं। इसीलिए उसको मृगजल कहते हैं।’
मृगजल के बारे में मैंने पढ़ा तो था। मृगजल में ऊपर के पेड़ का प्रतिबिम्ब भी दिखाई देता है, रेगिस्तान में चलने वाले ऊंटों के प्रतिबिंब भी दिखाई देते हैं, आदि जानकारी और उसके चित्र मैंने पुस्तकों में देखे थे। मगर मैं समझता था कि मृगजल तो अफ्रीका में ही दिखाई देते होंगे। सहारा के रेगिस्तान की इक्कीस दिन की यात्रा में ही यह अद्भुत दृश्य देखने को मिलता होगा। हिन्दुस्तान में भी मृगजल दिखाई दे सकते हैं, इसकी यदि मुझे कल्पना होती, तो मैं इतनी आसानी से और इतनी बुरी तरह से धोखा नहीं खाता।
अब मैं देख सका की हम ज्यों-ज्यों गाड़ी में आगे की तरफ बढ़ते जाते थे, त्यों-त्यों पानी भी आगे खिसकता जाता था। मैंने यह भी देखा कि उस पानी के आसपास हरियाली नहीं थी, और पानी का पट आसपास की जमीन से नीचे भी नहीं था। जमीन की सतह पर ही पानी बहता था! ऊपर की हवा में धूप का असर दिखाई देता था। फिर तो मृगजल की मौज देखने में और उसका स्वरूप समझने में बहुत आनन्द आने लगा! बेचारे बैल अधमुंदी आंखों से अपनी गति के ताल में एक समान चल रहे थे। कोई बैल चलते-चलतें पेशाब करता, तो उसका आलेख जमीन पर बन जाता था और थोड़ी ही देर में सूख जाता था। हम आधे-आधे घंटे में सुराही में से पानी पीते थे। फिर भी प्यास बुझती नहीं थी।
ऐसा करते-करते आखिर तेरदाल आया। धर्मशाला पत्थर की बनी हुई थी। देशी रियासत का गांव था; इसलिए धर्मशाला अच्छी बनी हुई थी। मगर सख्त धूप के कारण वह भी अप्रिय-सी मालूम हुई। मुकाम पर पहुंचने के बाद मैं तालाब में नहा आया। साथ में पूजा की मूर्तियां थीं। बेंत की पेटी में से उन्हें निकालकर पूजा के लिए जमाया। उनमें एक शालिग्राम था। वह तुलसीपत्र के बिना भोजन नहीं करता; इसलिए मैं गीली धोती से, किन्तु नंगे पैरों तुलसी पत्र लाने के लिए निकल पड़ा। एक घर के आंगन में सफेद कनेर के फूल भी मिले और तुलसी पत्र भी मिले। दोपहर का समय था। पेट में भूख थी, पैर जल रहे थे, सिर गरम हो गया- ऐसे त्रिविध ताप में पूजा करने बैठा। देवता कुछ कम न थे। ईश्वर एक अवश्य है; मगर सबकी ओर से एक ही देवता की पूजा करता तो वह चल ही नहीं सकता था। पूजा के समय मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया। बड़ी मुश्किल से मैंने पूजा पूरी की और खाना खाकर सो गया।
स्वप्न में मैंने हिरनों के एक बड़े झुण्ड को गेंद की तरह दौड़ते हुए मृगजल का पानी पीने जाते देखा।
ऐसा ही एक मृगजल दांडीयात्रा के समय नवसारी से दांडी के समुद्र-किनारे की ओर जाते समय देखने का मिला था। हमें यह विश्वास होते हुए भी कि यह मृगजल है, आंखों का भ्रम तनिक भी कम नहीं होता था। वेदान्त का ज्ञान आंखों को कैसे स्वीकार हो?
आजकल कलकत्ते की कोलतार की सड़कों पर भी दोपहर के समय ऐसा मृगजल चमकने लगता है, जिससे यह भ्रम होता है कि अभी-अभी बारिश हुई है। दौड़ने वाली मोटरों की परछाइयां भी उसमें दिखाई देती हैं। भगवान ने यह मृगजल शायद इसलिए बनाया है कि ज्ञान होने पर भी मनुष्य मोहवश कैसे रह सकता है, इस सवाल का जवाब उसे मिल जाय।
1925
जमखंडी जाते हुए रास्ते में इतिहास-प्रसिद्ध तेरदाल आता है। हम तेरदाल के पास पहुंचे तब मध्याह्न का समय था। दाहिनी ओर दूर-दूर तक खेत फैले हुए थे। काफी दूर, लगभग क्षितिज के पास, एक बड़ी नदी बह रही थी। पानी पर सख्त धूप पड़ने के कारण वह चमचमा रहा था। और पानी कितने वेग से बह रहा है इसका भी कुछ-कुछ खयाल होता था। इतनी सुन्दर नदी के किनारे पेड़ कम क्यों हैं, इसका कारण मैं समझ नहीं सका। मैंने गाड़ीवान से पूछा, ‘इस नदी का नाम क्या है? कितनी बड़ी दिखाई देती है! कृष्णा नदी तो नहीं है?’ गाड़ीवान हंस पड़ा। कहने लगा, ‘यहां नदी कहां से आयेगी? वह तो मृगजल है। पानी के इस दृश्य से बेचारे प्यासे हिरन धोखे में आ जाते हैं और धूप में दौड़-दौड़कर और पानी के लिए तड़प-तड़प कर मर जाते हैं। इसीलिए उसको मृगजल कहते हैं।’
मृगजल के बारे में मैंने पढ़ा तो था। मृगजल में ऊपर के पेड़ का प्रतिबिम्ब भी दिखाई देता है, रेगिस्तान में चलने वाले ऊंटों के प्रतिबिंब भी दिखाई देते हैं, आदि जानकारी और उसके चित्र मैंने पुस्तकों में देखे थे। मगर मैं समझता था कि मृगजल तो अफ्रीका में ही दिखाई देते होंगे। सहारा के रेगिस्तान की इक्कीस दिन की यात्रा में ही यह अद्भुत दृश्य देखने को मिलता होगा। हिन्दुस्तान में भी मृगजल दिखाई दे सकते हैं, इसकी यदि मुझे कल्पना होती, तो मैं इतनी आसानी से और इतनी बुरी तरह से धोखा नहीं खाता।
अब मैं देख सका की हम ज्यों-ज्यों गाड़ी में आगे की तरफ बढ़ते जाते थे, त्यों-त्यों पानी भी आगे खिसकता जाता था। मैंने यह भी देखा कि उस पानी के आसपास हरियाली नहीं थी, और पानी का पट आसपास की जमीन से नीचे भी नहीं था। जमीन की सतह पर ही पानी बहता था! ऊपर की हवा में धूप का असर दिखाई देता था। फिर तो मृगजल की मौज देखने में और उसका स्वरूप समझने में बहुत आनन्द आने लगा! बेचारे बैल अधमुंदी आंखों से अपनी गति के ताल में एक समान चल रहे थे। कोई बैल चलते-चलतें पेशाब करता, तो उसका आलेख जमीन पर बन जाता था और थोड़ी ही देर में सूख जाता था। हम आधे-आधे घंटे में सुराही में से पानी पीते थे। फिर भी प्यास बुझती नहीं थी।
ऐसा करते-करते आखिर तेरदाल आया। धर्मशाला पत्थर की बनी हुई थी। देशी रियासत का गांव था; इसलिए धर्मशाला अच्छी बनी हुई थी। मगर सख्त धूप के कारण वह भी अप्रिय-सी मालूम हुई। मुकाम पर पहुंचने के बाद मैं तालाब में नहा आया। साथ में पूजा की मूर्तियां थीं। बेंत की पेटी में से उन्हें निकालकर पूजा के लिए जमाया। उनमें एक शालिग्राम था। वह तुलसीपत्र के बिना भोजन नहीं करता; इसलिए मैं गीली धोती से, किन्तु नंगे पैरों तुलसी पत्र लाने के लिए निकल पड़ा। एक घर के आंगन में सफेद कनेर के फूल भी मिले और तुलसी पत्र भी मिले। दोपहर का समय था। पेट में भूख थी, पैर जल रहे थे, सिर गरम हो गया- ऐसे त्रिविध ताप में पूजा करने बैठा। देवता कुछ कम न थे। ईश्वर एक अवश्य है; मगर सबकी ओर से एक ही देवता की पूजा करता तो वह चल ही नहीं सकता था। पूजा के समय मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया। बड़ी मुश्किल से मैंने पूजा पूरी की और खाना खाकर सो गया।
स्वप्न में मैंने हिरनों के एक बड़े झुण्ड को गेंद की तरह दौड़ते हुए मृगजल का पानी पीने जाते देखा।
ऐसा ही एक मृगजल दांडीयात्रा के समय नवसारी से दांडी के समुद्र-किनारे की ओर जाते समय देखने का मिला था। हमें यह विश्वास होते हुए भी कि यह मृगजल है, आंखों का भ्रम तनिक भी कम नहीं होता था। वेदान्त का ज्ञान आंखों को कैसे स्वीकार हो?
आजकल कलकत्ते की कोलतार की सड़कों पर भी दोपहर के समय ऐसा मृगजल चमकने लगता है, जिससे यह भ्रम होता है कि अभी-अभी बारिश हुई है। दौड़ने वाली मोटरों की परछाइयां भी उसमें दिखाई देती हैं। भगवान ने यह मृगजल शायद इसलिए बनाया है कि ज्ञान होने पर भी मनुष्य मोहवश कैसे रह सकता है, इस सवाल का जवाब उसे मिल जाय।
1925
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