तेंदुला और सूखा

आज मैं एक अनसोचा और असाधारण आनंद अनुभव कर सका।

हम वर्धा से द्रुग आये हैं। आसपास के दो गांवों में राष्ट्रीय ग्रामशिक्षा (बेसिक एज्युकेशन) शुरू करने के लिए शिक्षक तैयार करने वाली एक संस्था का उद्घाटन करने को हम सुबह चार बजे यहां आ पहुंचे। नहा-धोकर नाश्ता किया और बालोड़ के लिए रवाना हुए।

द्रुग से बालोड़ ठीक दक्षिण की ओर 37 मील पर है। रास्ता सीधा है। मानों रस्सी से रेखाएं आंककर बनाया गया हो। मीलों तक सीधी रेखा में दौड़ते रहने में जिस प्रकार एक-सा पन होता है, उसी प्रकार एक तरह का नशा भी मालूम होता है। बालोड़ के पास पुहंचे तो किसी ने कहा कि यहां से पास ही तेंदुला बंद और केनाल है। मामूली-सी वस्तु भी स्थानिक लोगों की दृष्टि में बड़े महत्त्व की होती है। भाई तामस्कर ने जब कहा कि व्याख्यान के बाद हम यह बंद देखने चलेंगे तब विशेष उत्साह के बिना मैंने ‘हां’ कह दिया था। वहां कुछ देखने योग्य होगा, ऐसा मेरा ख्याल ही नहीं था। ‘हां’ कहा केवल स्थानिक लोगों के आतिथ्य का उत्साह भंग न होने देने की भलमनसाहत के कारण।

खासी 37 मील की जो यात्रा की उसमें गड्ढे आदि कुछ भी नहीं थे। जमीन सर्वत्र समतल थी। गुजरात की तरह यहां की जमीन में बाड़ों की अड़चन भी नहीं है। इस तरह की समतल जमीन देखने के बाद एकाध नदी-नाला देखने को मिले, एकाध बांध नजर के सामने आये तो मन को उतना व्यंजन मिलेगा, इस ख्याल से मैंने जाना कबूल किया था। जिसने पूना के बंडगार्डन से लेकर भाटघर के प्रचंड बाध तक अनेक बांध देखे हैं, उसका कुतूहल यों सहज जागृत नहीं हो सकता।

बेजवाड़ा में कृष्णा नदी का भव्य बांध, गोकाक के पास घटप्रभा का बाल्य-परिचित बांध, लोणावला के दो तीन आकर्षक बांध, मैसूर में वृंदावन का पोषण करने वाला बादशाही कृष्णसागर, दिल्ली के निकट यमुना का रमणीय ‘ओखला’ का बांध और नासिक से मोटर के रास्ते पचास मील दूर जाकर देखा हुआ ‘प्रवरा’ नदी का सुन्दरतम और रोमांचकारी बांध-ऐसे अनेक जलाशय जिसने देखें हैं, वह सिंहगढ़ की तलहटी का ‘खडक-वासला’ जैसा बांध देखकर संतुष्ट भले हो, मगर उसका कुतूहल बाल्यावस्था में तो हो ही नहीं सकता।

भावनगर के पास के बोर तालाब का वर्णन मैंने लिखा है। बेजवाड़ा की कृष्णा नदी को मैंने श्रद्धांजली अर्पित की है। दूसरों के बारे में अब तक कुछ लिखा नहीं है, इस बात का मुझे दुःख है। फिर भी आज किसी भव्य जलराशि के दर्शन होंगे, ऐसी उम्मीद मुझे नहीं थी। व्याख्यान, संभाषण और भोजन समाप्त करके हम तेंदुला केनाल देखने के लिए वाहनारूढ़ हुए और बांध की ओर दौड़ने लगे। बांध पर से मोटर ले जाने की इजाजत पाने के लिए एक आदमी आगे गया था। उसकी राह देखने का धीरज हममें न था। इजाजत मिल ही जायेगी, इस खयाल से हम तेज रफ्तार से आगे बढ़े और बांध के पास पहुंचे। बांध के ऊपर गये, और- मैं तो अवाक् हो गया!

कितना लंबा और चौड़ा पानी का विस्तार! और पानी भी कितना स्वच्छ!! मानो आकाश ही आनंदातिशय में द्रवीभूत होकर नीचे उतर आया हो! और पानी का रंग? जामुनी, नीला, फिरोजी, सफेद और गुलाबी!! और वह भी स्थायी नहीं। आकाश के बादल जैसे-जैसे दौड़ते जाते थे, वैसे-वैसे पानी का रंग भी बदलता जाता था। छोटी तंरगों के कारण पानी की तरलता तो खिलती ही थी; तिस पर ऊपर से उसमें यह रंग-परिवर्तन की चंचलता आ मिली। फिर तो पूछना ही क्या था? जहां देखों वहां काव्य डोल रहा था, चमत्कार नाच रहा था। अपना महत्त्व किसके कारण है, यह दोनों ओर के किनारे जानते थे। अतः वे अदब के साथ जलराशि के खुशामद करते थे।

इस बांध की खूबी उस के विस्तार के अलावा एक दूसरी विशेषता में है। तेंदुला और सुखा दोनों नदियां बहने हैं। तेंदुला बड़ी बहन है। वह 30-40 मील दूर से आती है। उसके मुकाबले में सुखा केवल बालिका है। तीन मील दौड़कर ही वह यहां आ पहुंचती है। ये दोनों जहां एक-दूसरे के पास आती हैं, वहीं यह प्रेममूर्ति बांध मानो यह कहकर कि ‘मेरी सौगंध हैं तुम्हे जो आगे बढ़ी तो!’ दोनों के सामने आड़ा सो गया है। करीब तीन मील लंबा बांध इन दो नदियों को रोकता है। और फिर अपनी मरजी के अनुसार थोड़ा-थोड़ा पानी छोड़ देता है। कच्ची मिट्टी का इतना लंबा बांध हिन्दुस्तान में तो क्या सारे संसार में और कहीं नहीं होगा! बांध के नीचे की 15 मील तक की अभिमानी जमीन ऐसा उपकार का पानी लेने से इनकार करती है। अतः यह नहर उसके बाद के 60-70 मील तक दोनों ओर के खेतों की सेवा करती है। बांध की वजह से ऊपर की बहुत-सी जमीन पानी में डूब गयी है इसकी कल्पना केवल आंखों से कैसे हो? तलाश करने पर पता चला कि करीब तीन सौ बीस वर्गमील जमीन पर गिरने वाला पानी यहां जमा हुआ है। पानी का विस्तार सोलह वर्गमील है। 1910 में इस बांध का काम आरंभ हुआ और पौन करोड़ से अधिक रुपया खर्च होने के बाद ही वह पूरा हुआ। बारिश में इन दोनों नदियों का पानी एकत्र होता है। और फिर तो सारा जलमग्न दृश्य देखकर ‘सर्वतः संप्लुतोदके’ का स्मरण हो आता है। जब बीच का टापू अपना सिर जरा ऊंचा करने का प्रयास करता है, तब उसकी यह परेशानी देखकर हमें हंसी आती है। आज इस टापू पर कुछ ऊंचे पेंड़ ‘यद् भावि तद भवतु’ वृत्ति से इस बाढ़ की प्रतीक्षा में खड़े हैं। उन्हें उस लाल किनारवाली किश्ती में बैठकर थोड़े ही भाग जाना हैं? ऐसे पेड़ जब तक टिक सकते हैं, शान के साथ रहते हैं। और अन्त में जड़ें खुली पड़ने पर पानी में गिर पड़ते हैं।

गर्मी में जब दो नदियों के पात्र अलग-अलग हो जाते हैं, तब धूप तथा विरह के कारण वे अधिक सूखने ने पायें, इस हेतु से बीच में एक नहर खोदकर दोनों का पानी एक-दूसरे में पहुंचाने का प्रबंध कर दिया जाता है।

जानने वाले जानते हैं कि नदियों का भी हृदय होता है। उनमें वात्सल्य होता है, चरित्र्य होता है और उन्माद तथा पश्चात्ताप भी होता है। ये दो बहने यहां जो कुछ करती हैं उसमें एक-दूसरे की शोभा की ईर्ष्या जरा भी नहीं करतीं। मत्सर या सापत्न-भाव उनके चेहरे पर बिल्कुल नहीं दीख पड़ता। उन्हें इस बात का भान है कि बांधरूपी जबरदस्त संयम के कारण उनकी शक्ति बहुत बढ़ी है। केवल बहते रहना ही नदी का धर्म नहीं है। फैलना और आशीर्वाद रूप बनना भी नदी धर्म ही है। तमाम नदियों को यह नसीहत देने के लिए ही मानों वे यहां फैली हुई हैं।

नदी के किनारे पेड़ खड़े हो, तो वहां एक तरह की शोभा नजर आती है। और ये पेड़ जब उसके पात्र को ढंकने का वृथा प्रयत्न करते हैं, तब इस विफलता में से भी वे सफल शोभा उत्पन्न करते हैं।

हम उस किनारों के पेड़ों की मुलाकात लेने गये। दोपहर का समय था। निद्रालु पेड़ नदी के साथ बातें करते-करते नींद में डूब रहे थे और चारों और उष्ण-शीतल शांति फैली हुई थी। सिर्फ तरह-तरह के पक्षी मंद मंजुल कलरव करके एक-दूसरे को इस काव्य का आनंद लूटने के लिए कह रहे थे।

और लाल मकोड़े, जिन्हें मराठी में ‘वाघमुंग्या’ या ‘उंबील’ कहते हैं, एक किस्म के चिकने पदार्थ से पेड़ों के चौड़े पत्तों को एक-दूसरे से चिपकाकर इस सारे काव्य को भरकर रखने के लिए थैलियां बना रहे थे। मेरी आंखे भी दिल की थैली बनाकर उसमें सामने का दृश्य भरने के लिए सारे प्रदेश को चूस रही थीं।

नदी को इसमें कोई एतराज नहीं था।

मार्च, 1940

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