तबाही के बांध

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ऐसा लगता है कि देश के प्रसिद्ध बांध भाखड़ा का, जिसे गोविंद सागर भी कहते हैं, संचालन तदर्थ और कामचलाऊ ढंग से किया जा रहा है, जो असंख्य लोगों और उनकी जीविका के लिए तो खतरनाक है ही, इस बांध से जिन क्षेत्रों में जलापूर्ति हो रही है, वहां भी भारी संकट उत्पन्न हो सकता है। इसका ताजा उदाहरण इसी महीने तब दिखा, जब बांध की दीवार पर झुकाव देखा गया। यह 1988 की विनाशकारी घटना का दोहराव लगता है, जब भीषण बाढ़ के कारण भाखड़ा ब्यास प्रबंधन बोर्ड के अध्यक्ष की हत्या कर दी गई थी।

दुर्योग देखिए, उस साल की तरह इस बार भी प्रबंधन ने बांध में जल भंडारण की क्षमता को तय सीमा से ज्यादा रखने की अनुमति दे दी। नतीजतन पांच सितंबर को शुरू हुआ जल भराव 14 सितंबर को चरम पर पहुंचकर 1,681.08 फीट हो गया। तब प्रबंधन को बांध में 1.07 इंच का झुकाव दिख रहा था। उल्लेखनीय है कि भाखड़ा में जल भंडारण की अवधि 20 सितंबर तक है। ऐसे में, यह सवाल उठता है कि तय अवधि के पहले और निश्चित सीमा से अधिक जल भंडारण क्यों और कैसे हुआ, पर इसका कोई स्पष्ट जवाब नहीं है।

आश्चर्यजनक तो यह भी है कि राजस्थान के जिन इलाकों को इस बांध से पानी मिलता है, वहां इस बार पंजाब से पर्याप्त पानी न छोड़े जाने के कारण खरीफ फसल की बुआई सामान्य से कम देखी गई। हालत इतनी बिगड़ गई कि पंजाब के मुख्यमंत्री को एक बैठक में राजस्थान के भाजपा नेताओं को पर्याप्त जलापूर्ति का आश्वासन देना पड़ा। पोंग बांध के मामले में भी भाखड़ा ब्यास बांध प्रबंधन दोषी है। पिछले महीने पोंग बांध 3.35 करोड़ यूनिट बिजली का उत्पादन ही कर पाया, जबकि पिछले साल अगस्त में सूखा होने के बावजूद बिजली उत्पादन लगभग दोगुना था। साफ है कि बांध प्रबंधन को कई सवालों के जवाब देने हैं।

गौरतलब है कि 1988 में भी भाखड़ा बांध में जल भंडारण सीमा से अधिक हुआ था और निचले क्षेत्रों में भारी वर्षा के कारण पंजाब में भीषण बाढ़ आई थी। उस बाढ़ से सबक लेकर भाखड़ा बांध में जल भंडारण की तय क्षमता घटाई गई थी। अगर उसके पीछे बांध के ढांचे की सुरक्षा की चिंता थी, तब इस बार तय सीमा से अधिक जल भंडारण की घटना स्तब्ध करने वाली है।

एक संकेत मिलता है कि प्रबंधन ने भाखड़ा बांध में जल भंडारण तय क्षमता से अधिक क्यों किया। दरअसल ऑल इंडिया पावर इंजीनियर्स फेडरेशन ने प्रबंधन से भाखड़ा और पोंग बांधों में जल स्तर बढ़ाने का आग्रह किया था। सूचना तो यह भी है कि प्रबंधन बांध में कुछ ऐसे जरूरी उपकरण लगाने वाला है, जिनसे लाखों लोगों की सुरक्षा प्रभावित हो सकती है। अगर प्रबंधन को इसी तरह के मनमाने फैसले लेने दिया जाए, तब यह आशंका सच होने में भी देर नहीं लगेगी।

यही समय है, जब इन जलाशयों के संचालन से जुड़ी हर बातों को परिभाषित किया जाए और स्पष्ट बताया जाए कि मनमाने फैसले लेने पर कौन जिम्मेदार होगा। इस दिशा में पहला कदम तो यही होगा कि दैनंदिन स्तर पर सूचनाओं के आदान-प्रदान में पारदर्शिता हो। जलवायु परिवर्तन के इस दौर में यह सजगता और जरूरी हो जाती है, जब वर्षा के पारंपरिक पैटर्न की जगह अतिवृष्टि की प्रवृत्ति देखी जा रही है।

पिछले साल भी बांध प्रबंधन ने अपने मनमानेपन का परिचय दिया था। तब मार्च से जून के बीच उसने इतना पानी छोड़ा कि जलाशय में पानी कम रह गया। जबकि उन तीन महीनों में कृषि गत्विधियां न्यूनतम होती हैं, लिहाजा खेतों में पानी की मांग भी कम रहती है। उस मनमानेमन का नतीजा यह हुआ कि कम बारिश के कारण जब बाद में किसानों की ओर से पानी छोड़ने की मांग की गई, तब बांध प्रबंधन ने मजबूरी जताई कि जलाशय में पर्याप्त पानी नहीं है। सवाल उठता है कि पिछली गरमियों में भाखड़ा का जल स्तर कम क्यों किया गया, जबकि ग्लेशियरों के पिघलने के कारण जल स्तर बढ़ना चाहिए था। इसका कोई आधिकारिक जवाब नहीं है। संभवतः एक कारण हो सकता है कि वह समय आम चुनाव का था, लिहाजा सरकार ज्यादा विद्युत आपूर्ति कर इलाके के मतदाताओं को यह एहसास कराना चाहती थी कि बिजली की कोई कमी नहीं है। हालांकि तब भी बांध प्रबंधन से कोई सवाल नहीं पूछा गया था।

एक तथ्य यह है कि भाखड़ा और पोंग, दोनों में तेजी से गाद भर रहा है। इस गाद के लिए हिमाचल प्रदेश के ऊपरी इलाकों में स्थापित हो रहीं उन जलविद्युत परियोजनाओं का बड़ा हाथ है। इन सभी बड़ी परियोजनाओं से कई लाख क्यूबिक मीटर मलबा निकलता है। उचित तो यही होता कि इस मलबे के निपटान के लिए योजना बनती, लेकिन कूड़ा-कर्कट को नदियों में डालना ही उन्हें सबसे आसान और सस्ता लगता है, जो नीचे की तरफ बने बांध के जलाशयों के लिए परेशानी पैदा करता है। न तो प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और न ही राज्य या केंद्र का पर्यावरण मंत्रालय इस गड़बड़ी पर नजर रखता है। ऐसे में भाखड़ा ब्यास बांध प्रबंधन से उम्मीद बंधती थी, पर उसे भी इसकी चिंता नहीं है।

ये सारी चीजें बताती हैं कि बांधों के संचालन में पारदर्शिता और जवाबदेही तय करना बेहद जरूरी है। अतीत पर नजर डालें, तो भाखड़ा ने 1988 में, गुजरात के उकई ने 2006 में, हीराकुड ने 2008 में और श्रीशैलम, तुंगभद्रा, ऊपरी कृष्णा और दामोदर नदियों पर बने बांधों ने पिछले साल विस्फोटक रूप धारण कर लिया था। बावजूद इसके किसी भी वरिष्ठ अभियंता को दंडित नहीं किया गया। ऐसा लगता है कि ढेरों आपदाएं हमारा इंतजार कर रही हैं।

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