हमारा वैदिक काल पर्यावरण के गूढ़ रहस्यों को ही समझने का हरियाला काल था। पृथ्वी को माता, आकाश को पिता, जल को देवता जैसे संबोधन उसी स्वर्ण काल की ही देन है। उस काल में धरती को बचाने की हजारों प्रार्थनायें संकलित की गईं। लेकिन वैदिक काल के ऋषियों ने प्रार्थनाओं को सिर्फ पुस्तकों तक ही सीमित नहीं रखा, उन्होंने इन प्रार्थनाओं को धरती के भीतर रोपा भी।
आज धरती मां का दु:ख सर्वविदित है। उसे संभाले रखने वाले तत्व- जल, वनस्पति, आकाश और वायु विकास की चिमनियों से निकलने वाले धुएं के कारण हांफ रहे हैं। भूमंडलीकरण की लालची जीभ ने इन सभी तत्वों को बाजार में सुंदर पैकिंग में भर व्यापार की वस्तु के रूप में पेश कर दिया है। इन चारों के कम होने से पांचवें अंग यानी अग्नि ने आज पूरी धरती को भीतर-बाहर से घेर लिया है। जिसके कारण धरती का भीतर-बाहर सब तपने लगा है। इसीलिए 'पृथ्वी दिवसों' की आड़ में संयुक्त राष्ट्र टाइप धरती के दूर के रिश्तेदार आईसीयू में डॉयलिसिस पर लेटी धरती को शीशों के कमरों से झांकते रहते हैं। धरती के बुखार की, दूर के रिश्तेदारों की तरह चिंता में दुबले हो रहे थर्मामीटर लेकर बैठे संयुक्त राष्ट्र ने हाल ही में 'सहस्त्राब्दि का पर्यावरण आकलन' छापा है।इस आकलन के अनुसार विश्व की प्रमुख नदियों में पानी की मात्रा निरंतर घट रही है। अफ्रीका की नील, चीन की यलो, उत्तरी अमेरिका की कोलराडो नदियों से लेकर भारत की प्रमुख नदियां भी हमारी आस्थाओं की तरह निरंतर सूखती जा रही हैं। इस भयावह रिपोर्ट के अनुसार धरती की शक्ति बढ़ाने वाले समस्त प्राकृतिक तत्व भी अस्त-व्यस्त हो चले हैं। धरती के गर्भ का निरंतर गिरता जल स्तर लगातार जीवन मूल्यों की तरह रसातल में उतरता जा रहा है। संसार के 15 प्रतिशत पक्षी, 30 प्रतिशत स्तनधारी जीव लगभग विलुप्त हो गये हैं। पृथ्वी का हरियाला तंत्र बिगड़ने के कारण बीमारियों के प्रकोप भी लगातार बढ़ रहे हैं। इसलिये विश्व के कुछ अमीरजादे पूरे संसार की वनस्पतियों पर नजर गड़ाये हैं। कुछ ऐसे ही बिगड़ैल अमीरजादे हमारे देश जैसे निकम्मे विकासशील राष्ट्रों की बेबस सरकारों तथा उनके पात्रों यानी राज्य सरकारों को मामूली लालच देकर स्थानीय संसाधनों की छीना-झपटी में लगी हैं। ऐसी छीना-झपटी करने वालों को देशों की सरकारें तथा राज्य सरकारें खूब उनकी सेवा में मस्त रहती हैं। ऐसी ही नपुंसक सरकारों के कंधों पर चढ़कर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्राकृतिक संसाधनों को लूटने का खेल जारी रहता है जिसके कारण पूरी धरती के जैविक तत्व अस्त-व्यस्त हो चले हैं।
आज धरती की प्रत्येक परत में यानी परत-दर-परत विकार बढ़ते जा रहे हैं। अजीबों-गरीब कीटनाशक, तरह-तरह की रासायनिक खादें धरती मां की रगों तथा जोड़ों में जहर बन घुल चुकी हैं। आज हममें से ज्यादातर लोगों के शरीर में खून के साथ-साथ पेस्टीसाइड की मात्रा लगातार बढ़ रही है। विकास की इसी होड़ में बड़ी कंपनियों के उच्चाधिकारी तथा नेतागण ही मस्त दिखते हैं, शेष पूरी जनता त्रस्त हैं।
पश्चिमी विकास की शैली को अपनाने की रेस में विश्व के समस्त प्राकृतिक संसाधनों को हड़पने की लूट मची है। पश्चिमी दृष्टि प्रकृति के प्रत्येक सौंदर्य को मात्र उपभोग की वस्तु मानती है। उनके लिये वन, नदियां, समुद्र, उपवन, जीव, वनस्पतियां सब ‘खाओ-पीओ मौज मनाओ' की वस्तुएं हैं। इसी को प्रगतिशीलता माना जाता है। मात्र भारतीय जीवन दृष्टि में ही प्रकृति का प्रत्येक तत्व देवतुल्य, मातातुल्य तथा पितातुल्य माना गया है। लेकिन अफसोस हमने यहां भी पश्चिमी नकल के कारण माता-पिताओं को भी वृद्धा आश्रमों में बिठा दिया है। भारतीय जीवन दर्शन अनादिकाल से ही कण-कण में भगवान देखने का आदि रहा है। गीता में भगवान कृष्ण ने तो प्रकृति से लेकर उतना ही वापस न देने वाले को ‘प्रकृति चोर' तक कहा है।
'पर्यावरण आकलन' की आड़ में संयुक्त राष्ट्र ने तो 'द डे आफ्टर' फिल्म दिखा दी, लेकिन इसका इलाज क्या है, कैसे उतरेगा धरती का बुखार, किन-किन उपायों से धरती पुन: स्वास्थ्य को उपलब्ध हो सकती है, इसके बारे में कोई ठोस दलील नहीं सुझायी गई।
इन धरती की चिंता करने वालों को सिर्फ एक ‘पृथ्वी दिवस' टाइप कर्मकांडों से ऊपर उठना होगा, क्योंकि पृथ्वी का बुखार उतारने के लिये सिर्फ एक दिवस ही काफी नहीं। इसके लिये पूरे 365 दिन ही चाहिये होंगे, क्योंकि 'एक दिवस’ तो लगभग ऐसा ही है जैसे साल भर की भूख मिटाने के लिये मात्र एक ‘भोजन दिवस,' वर्ष भर की प्यास बुझाने के लिये कोई एक 'प्यास दिवस' वगैरह-वगैरह। आज धरती का माथा कहे जाने वाले ग्लेशियरों तक तापमान 30-32 तक पहुंच रहा है यानी धरती के माथे पर रखी ठंडी पट्टियां भी गर्म हो चली हैं।
पृथ्वी की चिंता करने वालों को 'भारतीय पर्यावरण दृष्टि' को ठीक से समझने की आवश्यकता है। हालांकि आज स्वयं भारत की आंख में ही विकास का मोतिया उतर आया है, लेकिन इसके बावजूद धरती का बुखार हरने के लिये ‘भारतीय पर्यावरण पद्धति' ही एक मात्र उपाय है। यह वाक्य कोई ‘कठमुल्लई फतवा' नहीं, बल्कि सत्य है, क्योंकि विश्व की किसी भी जीवन दृष्टि के पास पांचों तत्वों को संतुलित करने के लिये ऋग्वेद तथा भारतीय संत दर्शन के अलावा ज्ञान का दूसरा कोई स्रोत उपलब्ध नहीं। लेकिन हाय! आज भारत स्वयं पश्चिम के जेहादी तथा जहालती विकास की कपकंपाती छाया बनने को आतुर है। आज हमने स्वयं हमारी सांस्कृतिक ओजोन परत में छेद कर लिये हैं। जो पंचतत्व-दर्शन हमारी दिनचर्या का हिस्सा था उसे ही हमने दूर-दर्शन बना दिया है। आज हमारी ऋतुओं में वो सत नहीं जो ऋतुओं पर उपलब्ध हमारे हजारों वर्ष के साहित्य में झलकता है।
हमारा वैदिक काल पर्यावरण के गूढ़ रहस्यों को ही समझने का हरियाला काल था। पृथ्वी को माता, आकाश को पिता, जल को देवता जैसे संबोधन उसी स्वर्ण काल की ही देन है। उस काल में धरती को बचाने की हजारों प्रार्थनायें संकलित की गईं। लेकिन वैदिक काल के ऋषियों ने प्रार्थनाओं को सिर्फ पुस्तकों तक ही सीमित नहीं रखा, उन्होंने इन प्रार्थनाओं को धरती के भीतर रोपा भी। आज हम उन्हीं रोपी गई प्रार्थनाओं के कारण ही सांस ले रहे हैं। हमारी आज ली जाने वाली सांसें हमारे पूर्वजों द्वारा रोपा गया पुण्य ही हैं। लेकिन आज हम धार्मिक पुस्तकों की स्याही चाटने वाली भीड़ के अलावा कुछ नहीं, हमारे कंठों में धर्म की निरर्थक बलगम के अलावा कुछ नहीं। कुएं तो हमने बचाये नहीं, नेकियों से भी हाथ झाड़ लिये हैं। हम अपने दरियाओं में नेकियों की बजाय पॉलीथिन डाल रहे हैं।
आज पूरा विश्व अपने-अपने ढंग की जंग के माध्यम से शांति की तलाश में भटक रहा है। जिन लोगों ने सदियों से कुछ नहीं सोचा वे भी कह रहे हैं कि हम विचारधारा की जंग लड़ रहे हैं। इसी जंग के कारण हमारी धरती माता के बदन में बम, रासायनिक पदार्थ, सीमेंट, पॉलीथिन, पेस्टीसाइड और न जाने क्या-क्या और कौन-कौन-से पदार्थ धंसाये जा रहे हैं। क्या प्रकृति से लड़कर शांति का कोई झंडा फहराया जा सकता है? भूमंडलीकरण की बिना ब्रेक वाली स्पीड टाइप विकास ने पंचतत्वों को अशांत कर दिया है, तो आदमी को शांति की गलतफहमी में जी रहा है?
ऐसे में, विश्व पर्यावरण को सुधारने के लिये भारतीय मनीषा को अपने 'वैदिक सूत्र' विश्व के सामने पूरे साहस तथा धरती मां को बचाने के लिये अंतिम विकल्प के रूप में न केवल रखने होंगें बल्कि उन सूत्रों को 'परमात्म हस्ताक्षरों' की तरह रोपना भी होगा ताकि हमारी 'वसुंधरा' पुन: शस्य श्यामला हो उठे। इस कार्य के लिये हमारे संतों, हमारी धार्मिक, सामाजिक संस्थाओ को भी हमारी वैदिक प्रार्थनाओं, अरदासों को टेप-रिकार्डरों के दायरों से बाहर निकाल, धरती की नाभि में बोना होगा, क्योंकि पृथ्वी शांति, अंतरिक्ष शांति की समस्त कुंजियां भारत के हाथ में ही हैं, किसी विश्व व्यापार संगठन जैसे अजगर के पास नहीं।
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