पानी मानव जीवन की पहली जरूरत है- फिर वह चाहे स्वास्थ्य और जीवित रहने के लिये हो या फिर खाद्य उत्पादन और दूसरी आर्थिक गतिविधियों के लिये। बढ़ती हुई जनसंख्या की खाद्यान्न आपूर्ति व तेजी से हो रहे औद्योगिक विकास के कारण जल उपलब्धता की स्थिति दिन प्रतिदिन अत्यंत विकट होती जा रही है। पानी की सर्वाधिक समस्या के संदर्भ में भारत में राजस्थान राज्य का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। भौगोलिक क्षेत्रफल की दृष्टि से राजस्थान भारत का सबसे बड़ा राज्य है लेकिन औसत वार्षिक वर्षा के आधार से यह सबसे अंतिम है।
भारतीय शुष्क क्षेत्र का 90 प्रतिशत हिस्सा उत्तर-पश्चिमी भारत में स्थित है जिसका 62 प्रतिशत राजस्थान में है। राजस्थान के 33 में से 12 जिले थार रेगिस्तान के अंतर्गत आते हैं। कम व अनियमित वर्षा, उच्च तापमान, उच्च वायुवेग तथा त्वरित वाष्पन थार रेगिस्तान की जलवायु को प्रतिकूल बनाने वाले प्रमुख कारक है। कम व अनियमित वर्षा के कारण यहाँ प्रति तीसरा वर्ष अकाल का होता है।
अकाल के दौरान न केवल खाने की अपितु पीने के पानी की भी भयंकर कमी हो जाती है। रेगिस्तानी क्षेत्रों में प्राय: पानी गहराई पर मिलता है व ऊँटों को जोतकर चरस से पानी निकाला जाता है। गहराई के कारण यहाँ के कुएँ सांठी के कहलाते थे। प्राचीन काल में आधुनिक साधनों के अभाव में भूजल दोहन बहुत मुश्किल होता था। अत: जल संग्रहण यहाँ की परम्परा रही। सन 1960 तक जल के संदर्भ में यहाँ की स्थिति ठीक रही। यहाँ के निवासियों ने जल संग्रहण के अनेक तरीके यथा टांका, नाडा, नाडी, कुई, कुंड, तालाब, बावड़ी, कुएँ खड़ीन आदि अपनाये। इन सभी संरचनाओं में टांके का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है।
पारम्परिक टांका : एक परिचय
टांका एक प्रकार का छोटा ऊपर से ढका हुआ भूमिगत खड्डा होता है इसका प्रयोग मुख्यत: पेयजल के लिये वर्षाजल संग्रहण हेतु किया जाता है। टांका आवश्यकता व उद्देश्य विशेष के अनुसार कहीं पर भी बनाया जा सकता है। परम्परागत तौर पर निजी टांके प्राय: घर के आंगन या चबूतरों में बनाये जाते हैं, जबकि सामुदायिक टांकों का निर्माण पंचायत भूमि में किया जाता है। चूँकि टांके वर्षाजल संग्रहण के लिये बनाये जाते हैं इसलिये इनका निर्माण आंगन/चबूतरे या भूमि के प्राकृतिक ढाल की ओर सबसे निचले स्थान में किया जाता है।
परम्परागत रूप से टांके का आकार चौकोर, गोल या आयताकार भी हो सकता है। जिस स्थान का वर्षाजल टांके में एकत्रित किया जाता है उसे पायतान या आगोर कहते हैं और उसे वर्ष भर साफ रखा जाता है। संग्रहित पानी के रिसाव को रोकने के लिये टांके के अन्दर चिनाई की जाती है। आगोर से बहकर पानी सुराखों से होता हुआ टांके में प्रवेश करता है। सुराख के मुहानों पर जाली लगी होती है ताकि कचरा एवं वृक्षों की पत्तियाँ टांके के अन्दर प्रवेश न कर सके।
बहुउद्देश्यीय उन्नत टांका : आज की जरूरत
बढ़ती हुई जनसंख्या की खाद्यान्न आपूर्ति व तेजी से हो रहे औद्योगिक विकास के कारण राजस्थान में जल उपलब्धता की स्थिति दिन प्रतिदिन अत्यंत विकट होती जा रही है। राज्य के पश्चिमोत्तर भू-भाग में अन्य वैकल्पिक जल स्रोतों के अभाव में जल की स्थिति और भी भयावह है। थार रेगिस्तान में बहुत बड़े भूभाग में आज भी पेयजल की उपलब्धता एक गंभीर समस्या है। महिलाएँ आज भी पेयजल के लिये मीलों दूर तपती दोपहरी में जाने के लिये विवश हैं। इस समस्या का स्थायी समाधान निजी तौर पर टांकों में स्थानीय वर्षाजल संचयन के द्वारा ही किया जा सकता है। केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान (काजरी), जोधपुर ने पिछले दो-तीन दशकों में शोध द्वारा टांके के परम्परागत स्वरूप को बहुउद्देश्यीय, उन्नत व परिष्कृत किया है।
उन्नत टांका : संरचना एवं निर्माण
टांके या कुण्ड के निर्माण के लिये ऐसे स्थान का चुनाव करना चाहिए जहाँ वर्षाजल स्वत: इकट्ठा होता हो व संग्रहण के लिये प्राकृतिक रूप में पर्याप्त आगोर या पायतान मिल सके। साफ, कठोर व एक समान ढाल वाले आगोर से कम जगह में ज्यादा वर्षाजल संग्रहित किया जा सकता है।
परम्परागत चौकोर या आयाताकार टांकों के स्थान पर गोल, बेलनाकार टांके अधिक मजबूत होते हैं व समान क्षमता के लिये कम निर्माण सामग्री की आवश्यकता होती है। परिवार के सदस्यों की संख्या, पशुधन व विशिष्ट जल उपयोग जैसे पौधशाला, घरेलू बागवानी इत्यादि के आधार पर टांके की क्षमता का निर्धारण किया जाता है। जलशास्त्रीय सिद्धांत के अनुसार टांके में वर्षाजल संग्रहण स्थानीय वर्षामान, आगोर का क्षेत्रफल व आकार, आगोर की प्रकृति आदि पर निर्भर करता है। निजी या सार्वजनिक टांके की जल संग्रहण क्षमता का निर्धारण निम्न सूत्र द्वारा किया जा सकता है।
आवश्यकता (लीटर) = (परिवार के सदस्य × 2555) + (पशुधन × 9125) + (पौधों की संख्या × 120)
टांका क्षमता (लीटर) = आवश्यकता × 1.10
उपरोक्त सूत्र में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन का जल खर्च पीने व खाना बनाने की आवश्यकतानुसार 7 लीटर लिया गया है। पशुओं के लिये औसतन 25 लीटर पानी प्रति पशु प्रतिदिन के हिसाब से वार्षिक गणना की गई है। पौधों के लिये सामान्यता वर्षाऋतु का समय छोड़कर शेष समय के लिये जीवन रक्षक सिंचाई के आधार पर क्षमता का निर्धारण किया गया है।
टांके की क्षमता का निर्धारण करने के बाद टांके की गहराई व गोलाई (व्यास) का निर्धारण किया जाता है। सामान्यत: टांके 3 से 5 मीटर गहरे बनाये जाते हैं जो जमीन के अंदर की मिट्टी की प्रकृति पर निर्भर करते हैं। अधिक कठोर मिट्टी या मुड में ज्यादा गहराई के साथ खुदाई की लागत बढ़ जाती है व मजबूती प्रदान करने लिये अधिक निर्माण सामग्री की आवश्यकता होती है। एक बार गहराई का निर्धारण करने के बाद टांके की गोलाई (व्यास) निम्न सूत्र द्वारा निकाली जा सकती है।
गोलाई (मीटर)= क्षमता (लीटर) × 78.7 × गहराई (मीटर)
निर्माण कार्य में चूने के स्थान पर सीमेन्ट का प्रयोग करने से टांके की आयु बढ़ जाती है। पचास हजार लीटर तक क्षमता वाले टांकों के निर्माण में 1.25 से 1.5 फीट मोटी सीमेन्ट पत्थर की दीवार व 1 फुट मोटा सीमेन्ट कंकरीट का तला पर्याप्त मजबूती प्रदान कर सकता है। उन्नत टांकों में वर्षाजल के आगमन व अतिरिक्त पानी के निकास के लिये आवक व जावक का प्रावधान होता है। आवक स्थान पर बहाव के साथ आई मिट्टी को रोकने के लिये एक छोटी कुण्डी (सिल्ट ट्रेप) बनाई जाती है। आवक जावक स्थान पर छोटे अवांछित जानवरों के टांके में प्रवेश पर रोक के लिये उचित आकार की लोहे की जाली लगाई जाती है।
आगोर से वर्षाजल को सीधे टांके की बाहरी दीवारों में रिसने से रोकने के लिये टांके के चारों ओर 2 से 2.5 फीट चौड़ी सीमेन्ट कंकरीट की एक कालर बनाई जाती है। रेगिस्तान की औसत वर्षामान व सामान्य आगोर प्रकृति के अनुसार 50000 लीटर क्षमता के टांके के भरण के लिये 0.5 से 0.6 बीघा आगोर पर्याप्त होता है। टांके के आगोर को साफ, एक समान ढलान वाला व कठोर करके वर्षाजल के बहाव को बढ़ाया जा सकता है। पक्के मकानों या हवेलियों के निकट बने टांको में भू-स्थित आगोर के साथ-साथ छतों का पानी भी पाइपों के द्वारा टांके में डाला जा सकता है। भू-स्थित आगोर की तुला में पक्की छतों से वर्षाजल का जयादा बहाव होता है व संग्रहित पानी में अशुद्धियाँ भी कम होती है।
अत: अनुकूल परिस्थितियों में टांका निर्माण करते समय वर्षाजल संग्रहण के लिये छतों से वर्षाजल इक्ट्ठा करने का भी प्रावधान रखना चाहिए। उन्नत टांकों में संग्रहित जल की निकासी के लिये पारम्परिक रस्सी, बाल्टी के स्थान पर हैण्डपम्प लगाया जा सकता है। इससे न केवल जल की बचत होती है अपितु यह जल निकालने का एक सुरक्षित तरीका भी है। एक उन्नत व बहुउद्देश्यीय टांका बनाने पर लगभग 1.5 से 2.0 रुपये प्रति लीटर खर्चा आता है जिसमें संग्रहित जल का उपयोग घरेलू आवश्यकता के बाद आर्थिक रूप से लाभदायक पेड़, पौधों व पौधशाला इत्यादि में भी किया जा सकता है।
ठीक प्रकार से बनाये टांकों की यदि नियमित देखभाल की जाये तो ये कई पीढ़ियों की प्यास बुझाने के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण व अतिरिक्त आय का स्रोत बन सकते हैं। बढ़ती आबादी, कृषि योग्य भूमि पर आश्रितों की संख्या में वृद्धि, प्राकृतिक जल संसाधनों का अत्यधिक दोहन व निरन्तर गिरते भूजल स्तर के कारण मरुस्थल वासियों को वर्षाजल के परम्परागत स्रोतों को अपनाना व उन्नत करना होगा। नये स्रोतों के साथ-साथ इनका भी उचित प्रयोग करना होगा।
आगोर से अधिक वर्षाजल संग्रहण की तकनीके
आगोर को अधिक वर्षाजल संग्रहण के लिये एक सीमा तक ठीक भी किया जा सकता है। हालाँकि ये उपाय उपलब्ध निवेश और वर्षाजल के अपेक्षित उपयोग पर निर्भर करते हैं। ऐसे क्षेत्र जहाँ पानी का कोई अन्य वैकल्पिक स्रोत न हो वहाँ लंबे समय के आधार पर उच्च प्रारंभिक निवेश उचित है।
- समतल व कठोर आगोर अधिक वर्षाजल अपवाह में मदद करता है। तकनीक की सफलता दोमट मिट्टी पर आम तौर पर अधिक होती है।
- रेगिस्तानी मिट्टी में जहाँ वनस्पति न हो वहाँ थोड़ी मात्रा में सोडियम लवणों के छिड़काव से वर्षाजल अपवाह को बढ़ाया जा सकता है।
- पत्थर व अनुत्पादक वनस्पति जल के निर्बाध प्रवाह में बाधा करते हैं अत: पत्थर व अनुत्पादक वनस्पति को आगोर से निकाल कर वर्षाजल अपवाह बढ़ाया जा सकता है।
- रासायनिक उपचार जैसे मोम, डामर, कोलतार, सीमेन्ट आदि का प्रयोग करके भी आगोर से वर्षाजल अपवाह बढ़ाया जा सकता है।
- रेतीली मिट्टियों की जल धारण क्षमता कम होती है अत: इन मिट्टियों में तालाब की काली मिट्टी की एक परत लगा देने से वर्षाजल अपवाह बढ़ाया जा सकता है।
निर्मित टांका : देखभाल
- साल में कम से कम एक बार टांके की सम्पूर्ण सफाई। यदि उसमें कोई दरार आदि नजर आये तो सीमेन्ट द्वारा उसका उपचार।
- वर्षा पूर्व आगोर की सम्पूर्ण सफाई, एक समान ढाल व उसे दबाकर कठोर बनाना। आर्थिक क्षमता के अनुसार आगोर को सीमेन्ट कंकरीट द्वारा पक्का भी बनाया जा सकता है।
- आवक व जावक स्थान पर लगी जालियों की नियमित सफाई व जंग से बचाव के लिये रंग रोगन आदि।
- पानी में बदबू व जीवाणु आदि से बचाव के लिये वर्ष में एक बार लाल दवा व फिटकरी का प्रयोग।
- टांके के तले को टूटने/फटने से बचाने के लिये टांके में कुछ पानी हमेशा रखें।
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