तालाब से हरियाली और खुशहाली

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'तालाब बनाओ लाभ पाओ' का नारा महोबा में असर दिखाने लगा है। वर्षा जल संचयन और पानी के परंपरागत स्रोतों की तरफ यहां के लोगों का रुझान बढ़ा है। उनमें एक उम्मीद और विश्वास का भाव जगा है। वे यह मानने लगे हैं कि बुंदेलखंड का यह क्षेत्र उनके सार्थक पहल से पानी की कमी पूरी कर सकता है। चौपाल-गोष्ठियों में इसकी चर्चा हो रही है। नाउम्मीदी का वातावरण धीरे-धीरे खत्म हो रहा है। 'बूंदें ही रचेंगी बुंदेलखंड' विषय पर आयोजित मीडिया चौपाल में यही वातावरण था।

जिले के आला अधिकारी भी इस दिशा में कदम बढ़ाने वाले 'अपना तालाब अभियान समिति' के अब मुरीद हो गए हैं। वे भी मानते हैं कि पानी के संचयन से ही बुंदेलखंड में सूखा और पलायन पर काबू पाया जा सकता है। जल संकट को दूर कर खेतों में हरियाली और किसानों के चेहरे पर मुस्कान लाई जा सकती है।यह सालाना जलसा था, जिसमें महोबा के आला अधिकारी, समिति के कार्यकर्ता और देश के कई हिस्सों से सामाजिक कार्यकर्ता उपस्थित हुए थे।

अभी दो साल हुए हैं, अपना तालाब अभियान समिति के लोग महोबा के किसानों को निजी तालाब बनाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। अब तक इलाके में लगभग चार सौ तालाब बन चुके हैं। जिले में अपना तालाब अभियान समिति का साझा प्रयास आंदोलन का रूप ले चुका है। यह तथ्य विभिन्न कार्यों को देखने और स्थानीय लोगों से बातचीत में उभर कर आई है।

तालाब अभियान से महोबा के किसानों की स्थिति बदलती हुई दिख रही है। पहले किसानों को कम पानी से होने वाले मोटे अनाज से ही संतोष करना पड़ता था। एक फसल लेने के बाद खेती को पूरा मान लिया जाता था, लेकिन अब किसान दो-दो फसल लेने की तैयारी कर रहे हैं। काकुन, बरबई और सूपा जैसे गांवों की तो किस्मत ही बदलने लगी है। बरबई गांव के किसान बृजराज सिंह दो सौ बीघे के किसान हैं। पहले वे बरसात के भरोसे एक फसल लेकर ही अपनी खेती को पूरा समझ बैठे थे, लेकिन तालाब की बदौलत आज वह आंवला और अमरूद की खेती कर रहे हैं। उनके खेत में धान की फसल भी लहलहा रही है।

काकुन गांव के किसान प्रमोद मिश्र कहते हैं, 'इस गांव में हमारे पूर्वजों ने भी फलदार वृक्ष नहीं देखे।’ अपने बगीचे को दिखाते हुए वे कहते हैं कि तालाब बनाने के बाद मुझे खेती के लिए पर्याप्त पानी तो मिल ही रहा है, इसलिए आम, आंवला और बेर के पेड़ भी तैयार कर लिया हूं।' सूूपा गांव के किसान नरेंद्र रिछारिया ने अपने खेत में मात्र छह महीने पहले मनरेगा योजना के तहत तालाब खुदवाया था। आज वे मूंगफली की खेती कर रहे हैं।

बरबई गांव के जमींदार परिवार से संबंध रखने वाले अरुण पालीवाल का खेती से कोई खास नाता नहीं था। उनकी पूरी खेती नौकर-चाकर के भरोसे थी, लेकिन अब वे स्वयं खेती में रुचि लेने लगे हैं। अपना तालाब अभियान समिति के मनुहार पर पहले वे छोटा तालाब बनवाए। पहले साल ही उन्हें तालाब का फायदा नजर आया तो दूसरे साल वे एक हेक्टेयर क्षेत्र में तालाब बनाना शुरू कर दिया। वह तालाब अब बनकर तैयार है। उससे सौ बीघा जमीन की सिंचाई हो सकती है। उनके पास तीन सौ बीघा जमीन है।

पहली बरसात में ही उन्हें तालाब का फयादा नजर आने लगा है। वे तालाब से करीब दो सौ मीटर की दूरी पर लगे कई साल पुरानी बोरिंग और कुएं की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं कि पहले ट्यूबवेल चलते-चलते पानी कम होता जाता था। तीन इंच पानी की निकासी डेढ़ इंच में बदल जाती थी, लेकिन छोटे तालाब की वजह से इस साल पानी की निकासी थोड़ी भी कम नहीं हुई। कम समय में अधिक सिंचाई हो गई है। इससे बिजली की भी काफी बचत हुई। पहले वर्ष की तुलना में इस साल इसी ट्यूबवेल से डेढ़ गुना अधिक फसल की सिंचाई की गई है। उनके पुत्र अनुराग पालीवाल कहते हैं, 'अब हम लोग पानी के साथ कई तरह की योजनाएं बनाने लगे हैं। अगले साल तालाब में मछली पालन कर एक फसली खेती को दो फसली बनाकर किसानों के लिए नई खेती का मार्ग प्रशस्त करेंगे।”

उनका कृषि फार्म सागर-कानपुर राष्ट्रीय राजमार्ग से जुड़े बरबई गांव में स्थित है। दिसंबर में उन्होंने दूसरे खेत पर एक हेक्टेयर का तालाब बनाना शुरू कर दिया था। यह तालाब अब बनकर तैयार है। इस तालाब की गहराई बीस फुट है। उनका कहना है कि बरसात के समय तालाब में जो पानी एकत्र होगा, फव्वारा सिंचाई के माध्यम से सौ बीघे की फसल को सींचा जा सकता है। यह तालाब राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के सहयोग से बना है।

पानी के संकट से पूरा बुंदेलखंड जूझ रहा है, किंतु महोबा में समस्या कुछ ज्यादा ही गंभीर है। खेतों की सिंचाईं करने की बात तो दूर गई, कई इलाकों में पीने के लिए भी पानी नहीं है। भूमिगत जल की स्थिति दयनीय है। पानी न मिलने से लोग खेती-किसानी नहीं कर पा रहे हैं। काम न होने की वजह से बड़ी संख्या में युवक रोजी-रोटी की तलाश में महानगरों को पलायन कर जाते हैं। ग्रामीणों का पलायन रोकने और किसानों की दुर्दशा सुधारने के लिए कुछ समाजसेवियों ने पहल की है। इन लोगों ने सिंचाई के परंपरागत साधन यानी छोटे-छोटे तालाब बनवाने की योजना बनाई। आखिर इतने बड़े तालाब की जरूरत क्या है? यह पूछने पर वे कहते हैं कि, सीधा सा हिसाब है। एक गुना निकालो, दस-बीस गुना पालो। उनका मानना है कि खेत की एक गुना मिट्टी निकालने पर दस-बीस गुना भू-भाग की फसलों के लिए वर्षा जल संचित किया जा सकता है। जिससे गुणात्मक उत्पादन मिलना तय है। अपने दोनों तालाबों से पालीवाल को भरोसा है कि बमुश्किल तीन से चार क्विंटल प्रति एकड़ होने वाला अधिकतम उत्पादन आसानी से आठ से दस क्विंटल प्रति एकड़ में पहुंच जाएगा।

उनके पुत्र अनुराग पालीवाल जो एक समय खेती को अपने जीवन में बहुत उपयोगी नहीं समझ रहे थे। खेती की जगह कोई दूसरा व्यापार करने की कोशिश कर रहे थे। अब अनुराग का भरोसा लौटा है। उनमें यह विश्वास पैदा हो रहा है कि तालाब बनने से जमीन की उपज से ही परिवार की जरूरत के साथ-साथ सम्मान सहित जीवन जीया जा सकता है।

जिले में कृषि की संभावना के बारे में सवाल करने पर महोबा के उप निदेशक (कृषि) आरपी चौधरी कहते हैं, 'जिले में कुल कृषि योग्य भूमि 2,36,329 हेक्टेयर है, जिनमें 2,13,777 हेक्टेयर पर रबी और 98 हेक्टेयर पर खरीफ फसल की खेती होती है। पानी के अभाव में ज्यादातर जमीन पर एक ही फसल हो पाती है। वह भी रवि की फसल, जिसमें पानी कम लगता है।'

तालाब बना तो बनने लगा आशियाना


चिचारा गांव में जन्मा किसान का बेटा गोकुल पढ़ाई के लिए एक बार शहर गया तो गांव कभी-कभार ही आता था। वन विभाग में फॉरेस्ट गार्ड की नौकरी मिलने के बाद तो गांव से उसका रिश्ता नाम मात्र का ही रह गया। वर्तमान में वह महोबा के चरखारी रेंज में वन दरोगा है। 9 मई, 2013 को अपना तालाब अभियान की विकास भवन महोबा में आयोजित बैठक में गोकुल भी उपस्थित था। उसने भी अन्य किसानों के साथ अपना तालाब बनाने का संकल्प लिया। गोकुल के तालाब के प्रथम निर्माण कार्य का कुल खर्चा 43 हजार रुपए आया है। यह तालाब छह एकड़ जमीन की फसल को एक पानी देने का जरिया बन गया है।

गोकुल पहले अपनी सरकारी नौकरी से जाना जाता था, लेकिन अब वह किसान बन चुका है। पहले वह सिर्फ नाम का किसान था। गोकुल अपने हाथ से न तो किसानी करता था, न खेती को तवज्जो देता था। इसी कारण गोकुल को बटाईदार से जो भी चैत-बैशाख में मिलता मन मारकर ले लेता।

गोकुल को खेती में पानी की जरूरत तो महसूस होती थी। उसे भी लगता था कि अपने खेत पर पानी का पुख्ता प्रबंध हो जाए, तो खेती का उत्पादन बढ़ जाएगा। पर क्या करता, उस गांव में कुंआ और बोरिंग सफल ही नहीं हो पा रहे थे। यही वजह थी कि वह हिम्मत भी नहीं जुटा पाता था, लेकिन अब स्थिति बदल गई है। हालांकि गांव के बाशिंदे पहले गोकुल के इस निर्णय को उसका पागलपन ही समझते थे।

गोकुल के तालाब के आकार-प्रकार को देखकर यही कहते थे कि गोकुल ने ज्यादा पैसे कमा लिए होंगे, जिसे खेत में बर्बाद कर रहा है। पर अब गांव में उन्हीं बाशिंदों के नजरिए में बदलाव दिख रहा है। इस बदलाव की वजह गोकुल के खेत में हरी-भरी फसल है, जिसकी सिंचाई तालाब में संचित वर्षा के पानी से की गई है। इस साल गोकुल ने अपने खेत में तालाब के पानी की उपलब्धता का अनुमान लगाकर बीजों को तय कर बोया था।

अपने खेत के सवा एकड़ क्षेत्र में गेहूं, चार एकड़ में मटर, आधा एकड़ में देशी धनियां तालाब के भीटों पर अरहर की फसल बोई थी। इन फसलों को देखकर चिचारा गांव के किसानों पर भी असरकारी प्रभाव हुआ है। इसके लिए स्वयं गोकुल से पूछते नजर आ रहे हैं। तालाब बनाने में आई लागत और सिंचाई के खर्चों का विवरण चिचारा के किसानों को गोकुल बताते हैं। फिलहाल वह गांव में गिर चुके अपने पुराने मकान की जगह नया मकान बना रहा है।

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जवाहर का तालाब, गांधी की सौगात


सूपा गांव के कई परिवार जो अपनी रोजी-रोटी का ठिकाना दिल्ली में बना चुके है। अब वे तेजी से गांव वापस लौट रहे हैं। उन्हीं में से एक जवाहर है। वह अपने खेत में तालाब बनाकर खेती कर रहा है। दिल्ली या कहीं और जाकर कमाने की बात वह भूल चुका है। महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना की तरफ से जवाहर को तालाब बनाने के लिए पैसा मिला। वह दो एकड़ का भूस्वामी है।

जमीन के एक भाग में उसका अपना तालाब बनकर तैयार है, जिसके निर्माण में गांव के श्रमिकों के साथ स्वयं जवाहर ने अपने परिवार को लेकर फावड़ा चलाया है। ऐसे कई छोटे किसान इस समय काम करने के लिए रोजगार सेवक पर दबाव बना रहे हैं। ग्राम विकास अधिकारी कहीं भी दिख जाएं, तो बड़े ही सम्मान के साथ ये श्रमिक उनसे पूछते हैं कि कब से काम करना है।

इस गांव में अपना तालाब अभियान किसानों के जेहन में उनकी जरूरत बनता दिख रहा है। अब जवाहर को भी अपने खेत की जरूरत के लिए अपना तालाब सौगात में मिल गया है। तालाब का एक पाल बरसाती नाले से लगा है, उसे वह और मजबूत करना चाहता है। सभी पालों पर वह जरूरत के पेड़ भी लगाना चाहता है।

पानी से सजाली पत्थरों में फसल


किसान जुगुल ने वैसे तो बचपन से ही पानी के महत्व को पहचाना है, लेकिन पानी की कमी के कारण अपने चार बीघे पथरीली जमीन को उन्होंने कभी भी जीवन का जरिया नहीं समझा, पर उनके अपने खेत में तालाब का पानी क्या मिला, वे पत्थरों पर भी फसल सजाने को सोच बैठे।

जुगुल ढीमर सलारपुर गांव के रहने वाले हैं। उनके खेत में मिट्टी की मात्रा तो गौर से देखने पर नजर आती है। हमेशा खाली मैदान दिखने वाले खेत में हरी-भरी फसल देखकर लोग अचंभित हैं कि आखिर इस किसान को क्या हो गया जो पत्थरों पर खेती करने चला। पड़ोसी किसान उस फसल को देखकर कहते थे कि फरवरी के बाद होने वाली तपन में फसल चौपट हो जाएगी। पर किसान जुगुल ने बड़े भरोसे के साथ अपने खेत में बोई जौ की अच्छी पैदावार ली। उसका कहना है कि मेरी फसल को पोषण नहीं मिलता तो अंकुरित होते ही मुरझा जाती। इस साल जुगुल ने बरसात के पानी को खेत पर ही रोकने का इंतज़ाम किया है, जिससे तेजी से होने वाले मिट्टी के कटाव में भी फर्क आने वाला है।

पहले बरसाती नाले तक कटान की मिट्टी बहकर चली जाती थी, वह अब खेत पर ही रुक सकेगी। अपने खेत पर बने तालाब से जुगुल को खेती के नए-नए प्रयोग नजर आने लगे हैं। जुगुल अपने तालाब में पानी की आवक देखकर और गहराई बढ़ाना चाहता है। जिससे अपनी चार बीघा जमीन में दो-तीन पानी देने की क्षमता बना सके और परिवार की जरूरत वाली फसलों का उत्पादन आसानी से कर सके। जुगुल के पड़ोस में तीन तालाब और भी बनाए जा चुके हैं। जिनसे फसलों को सिंचाई का लाभ हुआ है। इससे किसान जुगुल का हौसला और भी बढ़ा है। अब उसे यकीन है कि तालाब के पानी से वह अपनी खेती को संवार कर उसे परिवार के भरण-पोषण का माध्यम बना सकता है। जुगल कहते हैं, जौ की बाजार कीमत भले ही गेहूं की कीमत से अधिक नहीं रहती, पर जौ में उपलब्ध पौष्टिकता के सामने गेहूं बौना ही रहा है।'

किसान भुइयांदीन का अपना तालाब


किसान भुइयांदीन को अपनी दो एकड़ की जमीन से कभी भी लागत और मेहनत के बराबर भी उपज नहीं मिल पाई। ऊंची बांध के नीचे अपना खेत होने का फक्र जरूर था, पर महज कुछ ही बरस तक। जब उत्पादन में कोई इजाफा नहीं दिखा तो बांध के किनारे खेत होने की खुशी भी जाती रही। अपने खेत में भुइयांदीन दो-तीन क्विंटल अनाज की उपज ले पाता था। अच्छी फसल हुई तो चार-पांच क्विंटल गेहूं-चना।

Apna Talab Abhiyan, Jaladhikari Samman Samaroh, Kirat Sagar, Mahoba, 13 aug 2014कुल मिलाकर दो एकड़ खेत में इतनी भी फसल नहीं होती थी कि खेती की लागत भी निकल सके। ऊहापोह में फंसी जिंदगी के चलते अचानक उसके खेत में तालाब बनाने वाले पहुंच गए। उसे तालाब के फायदे समझाए, तो उसे आसानी से बात समझ में आ गई। 2013 के मई-जून में भुइयांदीन की रजामंदी के बाद तालाब बनकर तैयार हो गया। बरसात के समय तालाब में ऊपर तक पानी भर जाता है। यह देख किसान भुइयांदीन के मन में अपने भविष्य की खुशहाली नजर आने लगी।

अब भुइयांदीन अपना तालाब बनाने वाले किसान बन गए हैं। इससे किसान भुइयांदीन के परिवार को भी उम्मीद बंधी है। भुइयांदीन अब पहले की तरह गुमसुम होकर खेत की मेड़ पर नहीं बैठते, बल्कि खेत में अपनी लाठी के सहारे घूम-घूमकर अपनी हरी-भरी फसल देखकर खुश होते हैं। इनके परिवार को अब तालाब का सहारा मिल गया है।

जब वर्षा का एकत्र पानी उनके दो एकड़ खेत की फसल को पहली बार पानी दे रहा था, तो पूरा परिवार अपने किसान होने का अहसास कर रहा था। उन्हें यह मालूम है कि इस मिट्टी में फसल को एक पानी देने पर उसका उत्पादन दो-तीन गुना बढ़ जाता है। भुइयांदीन बताते हैं कि तालाब के पानी से हमें पहली बार कई तरह के फायदे दिख रहे हैं। इस पानी से अब हम अपने परिवार की जरूरत वाली फसलें पैदाकर रोटी का इंतज़ाम कर सकेंगे।

भुइयांदीन को पहले कभी तालाब से होने वाले बदलाव का न तो पता था, न ही देखा था। आज अपने तालाब के होने से एक सपना सच होता दिख रहा है। बुंदेलखंड के किसान तालाब के नए अर्थशास्त्र को समझने लगे हैं। 'अपना तालाब अभियान समिति' के कार्यकर्ताओं ने पूरी संजीदगी से किसानों को तालाब होने का महत्व समझाया तो, उन्हें यह समझते देर नहीं लगी कि तालाब बनाकर हर साल होने वाली बारिश के पानी को एकत्र कर आसानी से अपने उत्पादन को कई गुना बढ़ा सकते हैं। तालाब बनाने का तरीका और साधन भी आसान है। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि तालाब बनाना उनकी पहुंच में है।


'अपना तालाब अभियान समिति' के संयोजक पुष्पेंद्र भाई के मुताबिक पहले तो कोई किसान तालाब बनाने को तैयार ही नहीं होता था। किसानों का मानना था कि तालाब बनाने से उनके खेत कम हो जाएंगे। काफी समझाने के बाद कुछ किसान तैयार हुए। फिर कलेजे पर पत्थर रखकर छोटे-छोटे तालाब बनवाए। बारिश हुई तो तालाब लबालब हो गए। यह देख किसानों के चेहरे खिल गए। उनके खेतों को सिंचाई का पानी मिलने लगा। पानी की कमी से जो खेत बंजर पड़े थे, उनमें फसलें लह-लहाने लगीं। फिर देखा-देखी अन्य किसान भी तालाब खुदवाने लगे। इनको सरकार की तरफ से भी अनुदान मिला। समिति से जुड़े केसर कहते हैं, 'आज पूरे जिले में छोटे-बड़े करीब 400 तालाब बन गए हैं। हम लोगों ने साल भर में एक हजार तालाब बनाने का लक्ष्य रखा था, लेकिन पूरा नहीं हो सका। शुरुआत में किसानों को तालाब बनाने के लिए राजी करना काफी मेहनत का काम था, पर अब स्थिति बदल गई है। जो किसान तालाब बनवाने को तैयार नहीं थे, वे अब पूछते हैं कि हमारे तालाब कब बनेंगे। किसानों का उत्साह देखकर वन विभाग ने भी 30 से अधिक तालाब जंगलों में बनवाए हैं। उनका कहना है कि समिति का प्रयास है कि हर खेत को तालाब का पानी उपलब्ध कराए जाएं।'

तालाब बनवाने की प्रेरणा के बारे में पूछे जाने पर ग्राम पंचायत कीरतपुरा के काकुन गांव निवासी व ग्राम प्रधान संगठन के जिला संरक्षक रामबाबू यादव बताते हैं कि पूर्व डीएम अनुज कुमार झा ने विभिन्न विभागों के अधिकारियों, समाजसेवियों और किसानों की गांव में बैठक की। इसमें पूछा कि कितने किसान अपना तालाब बनाने के इच्छुक हैं?

किसी किसान को तैयार न होता देखकर उन्होंने कहा कि हम चारो भाई चार तालाब बना लेंगे। हमें तैयार होता देख गांव के और किसान तैयार हो गए। बताया कि हमारे तो दो ही तालाब बने, किंतु पूरे गांव में छोटे-बड़े 36 तालाब बन चुके हैं। फिलहाल इस बार बारिश कम होने से तालाब पूरे तो नहीं भर पाए हैं, पर हमें आशा है कि बारिश हुई तो तालाब लबालब हो जाएंगे। तालाब भरे तो हमारे अच्छे दिन जरूर आएंगे।


ऐतिहासिक कीरत सागर तट पर हर साल कजली मेले का आयोजन होता है। इसमें अपने खेत में तालाब बनाने वाले किसानों को जिला प्रशासन सम्मानित करता है। कजली मेला में आए उत्तर प्रदेश के पूर्व कैबिनेट मंत्री जमुना प्रसाद ने कहा, 'किसानों के लिए खेत तालाब योजना बेहद मुफीद साबित हो रही है। खेत तालाब बनवाने में लागत बेहद कम आती है। खेत में तालाब बनाने से किसानों को सिंचाई में आसानी होगी। वर्षा जल का संरक्षण भी हो सकेगा। खेत तालाब से ही बुंदेलखंड के बंजर खेतों में हरित क्रांति लाई जा सकती है।' वहीं जल प्रहरी पुष्पेंद्र ने कहा, 'बुंदेलखंड में किसानों की बदहाली को दूर करने को खेत तालाब सबसे बेहतर उपाय है। किसानों को भी जागरूकता के साथ आगे आकर इस पहल में सहयोग करना होगा। आगे उन्होेंने कहा कि कई किसानों ने इस योजना का लाभ उठाकर अपने खेत के उत्पादन में अभूतपूर्व इजाफा किया है। खेत तालाब योजना से भले ही खेत का कुछ हिस्सा जाता हो, मगर वर्षा का जल एक बार संचित होने के बाद इसमें वर्षभर फसलों की सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी उपलब्ध रहता है।'

पिछले कई दशकों से सरकारी और सामाजिक उदासीनता झेल रहे इस क्षेत्र के अधिकांश तालाब एवं जलाशय लुप्त होने की कगार पर हैं। महोबा में कीरत सागर, जय सागर और मदन सागर सैकड़ों एकड़ में फैला है। जय सागर तो लगभग एक हजार एकड़ में फैला है, लेकिन ये ऐतिहासिक तालाब दुर्दशा के शिकार हैं। इसकी वजह से गौरवशाली अतीत वाला बुंदेलखंड आज जल संकट से जूझ रहा है। पानी के संकट से न केवल कृषि प्रभावित है, बल्कि आदमी और मवेशियों के पीने के लिए पानी की भी कमी पड़ गई है। बुंदेलखंड का सूखा और पलायन राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों में भी बना रहता है।यूं तो पानी के संकट से पूरा बुंदेलखंड जूझ रहा है, किंतु महोबा में समस्या कुछ ज्यादा ही गंभीर है। खेतों की सिंचाईं करने की बात तो दूर गई, कई इलाकों में पीने के लिए भी पानी नहीं है। भूमिगत जल की स्थिति दयनीय है। पानी न मिलने से लोग खेती-किसानी नहीं कर पा रहे हैं। काम न होने की वजह से बड़ी संख्या में युवक रोजी-रोटी की तलाश में महानगरों को पलायन कर जाते हैं।

ग्रामीणों का पलायन रोकने और किसानों की दुर्दशा सुधारने के लिए कुछ समाजसेवियों ने पहल की है। इन लोगों ने सिंचाई के परंपरागत साधन यानी छोटे-छोटे तालाब बनवाने की योजना बनाई। योजना अच्छी देख प्रशासनिक अफसरों ने सहयोग का वादा किया। अब यह प्रयास रंग लाता दिख रहा है। महोबा के किसान निजी तालाब बना रहे हैं। इससे स्थिति में तेजी से सकारात्मक बदलाव आ रहे हैं।

हालांकि, बुंदेलखंड क्षेत्र में जल संकट कोई नई बात नहीं है, लेकिन पुराने समय में स्थानीय निवासियों और पूर्व राजे-रजवाड़ों ने इस संकट से निपटने के साधन स्वयं ढूंढ़े थे। सदियों से बुंदेलखंड में तालाब ही पानी का मुख्य स्रोत रहा है। वर्षाजल को सहेजना उनकी दिनचर्या का हिस्सा हुआ करता था। चंदेल और बुंदेला शासकों ने क्षेत्र में लगभग छह हजार तालाब बनवाए थे।

पिछले कई दशकों से सरकारी और सामाजिक उदासीनता झेल रहे इस क्षेत्र के अधिकांश तालाब एवं जलाशय लुप्त होने की कगार पर हैं। महोबा में कीरत सागर, जय सागर और मदन सागर सैकड़ों एकड़ में फैला है। जय सागर तो लगभग एक हजार एकड़ में फैला है, लेकिन ये ऐतिहासिक तालाब दुर्दशा के शिकार हैं। इसकी वजह से गौरवशाली अतीत वाला बुंदेलखंड आज जल संकट से जूझ रहा है।

पानी के संकट से न केवल कृषि प्रभावित है, बल्कि आदमी और मवेशियों के पीने के लिए पानी की भी कमी पड़ गई है। बुंदेलखंड का सूखा और पलायन राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों में भी बना रहता है।

इन सबके बीच भारत सरकार ने उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में आने वाले बुंदेलखंड के 12 जिलों में एकीकृत सूखा शमन रणनीतियों के सुझाव के लिए एक अंतर मंत्रालयीन केंद्रीय टीम का गठन दिसंबर 2007 में किया था। नेशनल रेनफेड एरिया अथॉरिटी (एनआरएए) के सीईओ डॉ. जेएस. शर्मा इसके अध्यक्ष थे। केंद्रीय टीम की रिपोर्ट के आधार पर मंत्रिमंडल ने नवंबर 2009 में आयोजित बैठक में बुंदेलखंड से सूखा शमन के लिए 7,266 करोड़ रुपए का बजट आवंटित किया, जिसमें उत्तर प्रदेश के लिए 3,506 करोड़ रुपए और मध्य प्रदेश के लिए 3,760 करोड़ रुपए का विशेष पैकेज दिया गया।

2009-10 से शुरू होने वाली इस योजना की अवधि तीन साल रखी गई। पैकेज के कार्यान्वयन के लिए 3,450 करोड़ रुपए का एक अतिरिक्त केंद्रीय सहायता (एसीए) प्रदान करने की परिकल्पना की गई है। एसीए में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की हिस्सेदारी क्रमश: 1596 करोड़ और 1854 करोड़ रुपए है। इसके अलावा संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए-2) की सरकार ने ग्रामीण विकास राज्य मंत्री प्रदीप जैन और अन्य सांसदों की मांग पर 19 मई, 2011 को बुंदेलखंड को 200 करोड़ रुपए की अतिरिक्त केंद्रीय सहायता को मंजूरी दी थी। इसमें दोनों राज्यों के लिए सौ-सौ करोड़ रुपए हैं। अभी हाल ही में भारत सरकार ने 12वीं पंचवर्षीय योजना अवधि (2012-2017) के दौरान बुंदेलखंड विशेष पैकेज को जारी रखने को मंजूरी दे दी है, जिसके लिए 4,400 करोड़ रुपए का प्रावधान है।

Visit for Apna Talab Abhiyan Work, 14 august 2014, Mahobaउक्त आंकड़े बताते हैं कि बुंदेलखंड में सूखे और पलायन को रोकने के लिए केंद्र और राज्य सरकार बड़ी-बड़ी योजनाएं चला रही है, लेकिन वे योजनाएं नाकाफी साबित हो रही हैं। इसका सीधा कारण है कि सारी योजनाएं बुंदेलखंड से हजारों किमी दूर बैठकर तय की जाती है। जिसके कारण हजारों करोड़ रुपए खर्च करने के बाद भी समस्या जस-की-तस बनी हुई है। समस्या को दूर करने के लिए जो योजनाएं लागू किए गए, वे सभी हवा-हवाई साबित होते हैं।

एक अनूठा जलयज्ञ -


बुंदेलखंड में सूखे और पलायन की खबरों से विचलित कुछ युवाओं की चिंता ने अपना तालाब अभियान समिति की नींव डाली। वे सभी फरवरी-मार्च 2013 में प्रसिद्ध पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र से दिल्ली में मिले। अनुपम मिश्र ने सूखा या जल संकट से निपटने का सदियों पुराना तरीका बताया, जिससे भारतीय समाज पहले से परिचित है। फिर तालाब के जरिए जल संरक्षण के लिए किसानों को प्रेरित करने की बात तय हुई।

मध्य प्रदेश के देवास जिले में तालाब बनाकर जल संकट दूर करने का प्रयोग चल रहा था। महोबा के तत्कालीन डीएम अनुज कुमार झा ने उप कृषि निदेशक के नेतृत्व में जिले के कुछ अधिकारियों और समाजसेवियों की टीम को देवास भ्रमण के लिए भेजा। देवास में तालाब से आई खुशहाली देखकर उम्मीद की किरण नजर आई। तब से 'अपना तालाब अभियान समिति' महोबा और बांदा में किसानों को तालाब बनाने के लिए प्रेरित करने में लगी है।

सर्वप्रथम 11 मई, 2013 को तत्कालीन जिलाधिकारी अनुज कुमार झा की अगुवाई में निजी तालाबों के निर्माण का शुभारंभ हुआ। स्वैच्छिक संगठनों, सरकारी विभागों के प्रमुख,पत्रकार और किसानों की उपस्थित में अपना तालाब बनाने वाले किसान के साथ भूमि पर बैठ कर हवन-पूजन करना और जिलाधिकारी द्वारा किसान को तिलक कर पहली कुदाल चलाना चर्चा का विषय बन चुका था। समिति के प्रयासों से दो वर्षों से भी कम समय में महोबा में लगभग चार सौ तालाब बन चुके हैं।

जिले में समिति का अभियान अब आंदोलन का रूप ले चुका है। समिति समाज और प्रशासन की मदद से इस काम में लगी है। इस समिति की स्थापना काल में महोबा में पदस्थ रहे डीएम अनुज कुमार झा इसके आजीवन संरक्षक हैं। समिति का गठन बहुत ही लोकतांत्रिक तरीके से किया गया है। चार स्तरीय समिति में अधिकारी, पत्रकार, किसान और समाजसेवी हैं। जिले का पदस्थ डीएम समिति का अध्यक्ष, मुख्य विकास अधिकारी उपाध्यक्ष, उप निदेशक (कृषि) सचिव और परियोजना अधिकारी कोषाध्यक्ष होते हैं। समाजसेवी पुष्पेंद्र भाई संयोजक, केसर सिंह, अरविंद खरे और पंकज बागवान संस्थापकों में हैं। जिले के तीनों ब्लाक से एक-एक किसान बृजपाल सिंह, धर्मेंद्र मिश्र और सूपा गांव के मुन्ना इसके सदस्य हैं। समिति का सदस्य वही किसान बन सकता है, जिसने खुद का तालाब बनवाया है। इसके अलावा उसी समाजसेवी को सदस्य बनाया जाता है, जिसकी प्रेरणा से पचास या उसके अधिक तालाब बने हों। कई स्थानीय पत्रकार समिति के विशिष्ट सदस्य हैं।

सात तरीके से बनाया जा रहा है तालाब


अपना तालाब अभियान समिति की प्रेरणा से न केवल किसानों ने तालाब बनाना शुरू किया है, बल्कि अब कई सरकारी एजेंसियां भी इस काम में मदद कर रही हैं। यह 'जलयज्ञ' नि:शुल्क संपन्न हो रहा है। समिति के प्रयास से लगभग चार सौ तालाब बन चुके हैं। महोबा में इस समय सात तरीके से तालाब बन रहे हैं। समिति तालाब बनवाने के इच्छुक किसानों के नामों की सूची जिला प्रशासन को दे देती है। जिला प्रशासन नेशनल हाई-वे अथॉरिटी,पीडब्ल्यूडी जैसी एजेंसियां जो सड़क बनाती हैं, उनकों किसानों की सूची देकर यह कहता है कि आप किसान के खेत से मिट्टी निकाल लीजिए। इस प्रक्रिया में किसानों का तालाब मुफ्त में बन जाता है। बरबई के किसान अरुण पालीवाल का तालाब इसी तरह बना है।

Visit for Apna Talab Abhiyan Work, 14 august 2014, Mahobaदूसरा तरीका यह है कि तालाब किसान अपने संसाधनों से स्वयं बनाता है। इसमें समिति केवल इतना सुझाव देती है कि तालाब किस स्थान पर बनाया जाए। मनरेगा से बनने वाले तालाब तीसरी श्रेणी में आते हैं। चौथी श्रेणी के तहत बुंदेलखंड को मिलने वाले विशेष पैकेज के तहत तालाबों का निर्माण हो रहा है। नेशनल रेनफेड एरिया अथॉरिटी तालाब बनाने वाले किसानों को 30 हजार का अनुदान देती है।

पांचवीं श्रेणी में आने वाला तालाब उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा मत्स्य पालन योजना के तहत मिलने वाले अनुदान से बनता है। इसमें मछली पालने के लिए बनने वाले तालाबों से सिंचाई का भी काम किया जा रहा है। महोबा क्षेत्र में काम कर रहे स्वयंसेवी संस्थाएं भी तालाब निर्माण में खासा योगदान दे रही हैं। समिति के कार्यकर्ता स्वयंसेवी संगठनों से मिलकर किसानों को कुछ पैसा दिलाते हैं। इसके तहत अभी तक 100 तालाब बने हैं।

सातवें तरह का तालाब वन विभाग का तालाब है। जंगल विभाग भूजल स्तर को ऊपर लानेे और जंगल में रहने वाले पशुओं को पीने के पानी के लिए कम गहरे तालाब बनाना शुरू किया है।

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Post By: Shivendra
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