तालाब जितने सुन्दर व श्रेष्ठ होंगे, अनुपम की आत्मा उतना सुख पाएगी - राजेन्द्र सिंह

अनुपम मिश्र
अनुपम मिश्र


हम सभी के अपने श्री अनुपम मिश्र नहीं रहे। इस समाचार ने पानी-पर्यावरण जगत से जुड़े लोगों को विशेष तौर पर आहत किया। अनुपम जी ने जीवन भर क्या किया; इसका एक अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अनुपम जी के प्रति श्रद्धांजलि सभाओं के आयोजन का दौर इस संवाद को लिखे जाने के वक्त भी देश भर में जारी है।

पंजाब-हरियाणा में आयोजित श्रद्धांजलि सभाओं से भाग लेकर दिल्ली पहुँचे पानी कार्यकर्ता राजेन्द्र सिंह ने खुद यह समाचार मुझे दिया। राजेन्द्र जी से इन सभाओं का वृतान्त जानने 23 दिसम्बर को गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान पहुँचा, तो सूरज काफी चढ़ चुका था; 10 बज चुके थे; बावजूद इसके राजेन्द्र जी बिस्तर की कैद में दिखे। कारण पूछता, इससे पहले उनकी आँखें भर आईं और आवाज भरभरा उठी। कुछ संयत हुए, तो बोले- “यार, क्या बताऊँ, शाम को विजय प्रताप जी वगैरह आये थे। अनुपम भाई को लेकर चर्चा होती रही। उसके बाद से बराबर कोशिश कर रहा हूँ, नींद ही नहीं आ रही। अनुपम की एक-एक बात, जैसे दिमाग को मथ रही हैं। चित्त स्थिर ही नहीं हो रहा। क्या करुँ?’’

अनुपम जी- पानी..पर्यावरण की गहरी समझ वाले दूरदृष्टा, राजेन्द्र जी - पानी के अभ्यासक; मैं समझ गया कि दो पानी वाले रात भर आपस में मिलते रहे हैं। मैं एक लेखक हूँ। इस अनुपम मिलन को जानने और लिखने का लोभ संवरण करना मेरे लिये सम्भव नहीं हुआ। मैंने राजेन्द्र जी की स्मृति को कुरेदा। जो सुना, वह उसे आप तक पहुँचा रहा हूँ:

पंचतत्वों से बने शरीर का एक ही तो सत्य है - मृत्यु....और फिर अनुपम जी अपनी जीवन साधना में जितना कुछ कर गए, ऐसी उपलब्धि वाली देह के जाने पर आप जैसे व्यक्ति के मन में दुख से ज्यादा तो कुछ संकल्प आना चाहिए। आप दुखी होंगे, तो कैसे चलेगा?
नहीं यार, अभी तो अनुपम भाई की और ज्यादा जरूरत थी हम सभी को। सिद्धराज जी भाई साहब (प्रख्यात गाँधीवादी नेता) के जाने के बाद एक अनुपम ही तो थे, जो मुझे टोकते थे। काम से रोकते नहीं थे, लेकिन टोकते जरूर थे। कहते थे- तुम यह करो। यह मत करो। अब मेरा कुर्ता पकड़कर कौन खींचेगा? कौन टोकेगा?

(राजेन्द्र फिर भावुक हो गए।)

..अच्छा करो, तो पीठ भी थपथपाते थे। कैसा तो स्वभाव था उनका! काम की बात पूरी होते ही अक्सर कह उठते थे- “राजेन्द्र, अब अपन की सब बातें हो गईं। कुछ और हो, तो बताओ; नहीं तो अब जाओ। तुम्हें कई काम होंगे। तुमसे मिलने वाले तुम्हारा इन्तजार कर रहे होंगे।’’ ऐसे स्वभाव वाला व्यक्ति तो अनुपम ही हो सकता है। कमी तो खलेगी। इतना आसान तो नहीं है, जीपीएफ आने पर अनुपम को भूल जाना।

जीपीएफ के वातावरण में इस कमी को कोई तो भरेगा ही? हम उम्मीद कैसे छोड़ सकते हैं?
मुझे याद है, मैं, 1972 में पहली बार रमेश शर्मा जी के साथ यहाँ, जीपीएफ (गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान) आया था। उससे पूर्व रमेश भाई एक स्वैच्छिक कार्यकर्ता के तौर पर हमारे गाँव डौला आते-जाते रहते थे। रमेश भाई के माध्यम से ही अनुपम जी से मेरा पहला परिचय हुआ था। 1984 आते-आते हमारा परिचय, गाढ़ी दोस्ती में बदल गया था। अनुपम, पहली बार 1986 में तरुण भारत संघ आये थे। तब से मैं जब भी दिल्ली आता हूँ, तो जीपीएफ जरूर आता हूँ। जीपीएफ में ही रुकने का प्रयास करता हूँ। जीपीएफ आऊँ और अनुपम व रमेश भाई जैसे मित्रों से ऊर्जा लिये बगैर चला जाऊँ, ऐसा शायद ही कभी हुआ हो।

सुबह उठकर अनुपम से मिलना तो मेरा मुख्य एजेंडा रहता था। टेबल पर आमने-सामने हम कभी शान्त नहीं बैठते थे। उनके साथ चर्चा से मैंने निरन्तर सीखा है। खासकर, अनुपम जी की सहिष्णुता ने मुझे बहुत सिखाया। अनुपम न हो, तो भी अनुपम के कक्ष में झाँककर मैं लौट आता था। उस कक्ष में जाने भर से मुझे ऊर्जा मिलती थी। जीपीएफ में अनुपम और रमेश..दोनों ही मेरे लिये ऊर्जा के केन्द्र थे।

आज आया हूँ, तो यहाँ अनुपम भाई नहीं हैं। रमेश भाई भी जीपीएफ से सेवामुक्त हो चुके हैं। मैं आशावान व्यक्ति हूँ। आशा करता हूँ कि अनुपम के नहीं रहने के बाद, जीपीएफ अनुपम के व्यवहार से सीखेगा। अनुपम के व्यवहार के कारण ही जीपीएफ में अच्छी लोगों की लाइन बनी रही। इसे आगे बनाए रखने की कोशिश करनी चाहिए। व्यक्ति के साथ संस्था न मरे, ऐसी सब गाँधीवादी कार्यकर्ताओं की इच्छा माननी चाहिए। अतः मैं तो यही मानता हूँ कि यदि गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान को जिन्दा रहना है, तो अनुपम के व्यवहार को यहाँ जिन्दा रखना होगा।

अनुपम, गाँधी मार्ग पत्रिका के सम्पादक मात्र नहीं थे; उनके खान-पान, आचार-विचार, पहनावे में भी गाँधीजी की जीवन पद्धति का दर्शन मौजूद था। उनके साथ घूमते हुए.. चिन्तन-मनन करते हुए एक सहज-सार्थक जीवन्तता का संचार महसूस होता था।

आप, अनुपम का सबसे बड़ा गुण क्या मानते हैं?
अनुपम, एक इनोवेटिव शब्दशिल्पी थे। पानी परम्परा के वह सच्चे शोधार्थी थे। मैं, अनुपम भाई को भारत में पर्यावरण शब्द व्यवहार का जनक मानता हूँ। पानी-पर्यावरण क्षेत्र में काम करने वालों के लिये वह किसी साहित्यिक गुरू से कमतर नहीं थे।

अनुपम की सबसे खास विशेषता यह थी कि लोग अपने जिस खो गए को शब्दों में व्यक्त नहीं कर पाते, अनुपम उसका एहसास करने व कराने वाले व्यक्ति थे। तरुण भारत संघ की पहली पुस्तक ‘जोहड़’ अनुपम जी ने मुझसे लिखवाई और खुद बैठकर उसे पढ़ने लायक बनाया।

शब्दों को रचना आसान हो सकता है, लेकिन वे लोक व्यवहार में भी उतरें, इसके लिये समाज की स्वीकार्यता हासिल करना आसान नहीं होता। इसके लिये शब्दों को समाज के मनोनुकूल परोसना भी आना चाहिए। बिहार की बाढ़, भारत के सुखाड़ व नदी जोड़ पर लिखे उनके तीन लेख तथा आज भी खरे हैं तालाब और राजस्थान की रजत बूँदें नामक पुस्तकें - अनुपम साहित्यमाला के इन मोतियों को हटा दें, तो पानी के क्षेत्र में कोई ऐसी पुस्तक या रचना नहीं है, जो लोक व्यवहार में हो।

एक प्रेक्टिसनर को ज्यादा सटीक व्यावहारिक ज्ञान होना चाहिए। किन्तु मैं देखता हूँ कि अनुपम उस व्यवहार को एक प्रेक्टिसनर से भी ज्यादा सरलता से समाज को परोसना जानते थे। उसे समाज के मन में उतार देना, बिठा देना; यही अनुपम का अनुपम गुण था। इसी गुण के कारण अनुपम, नए जमाने के लोगों के बीच में भी पुरातन ज्ञान का लोहा मनवाने में सफल रहे। इसी गुण के कारण मैं अनुपम को सिर्फ लेखक-साहित्यकार न कहकर एक अभ्यासक भी मानता हूँ।

आपकी निगाह में अनुपम जी का सबसे बड़ा योगदान क्या रहा?
मेरी निगाह में अनुपम भाई का सबसे बड़ा योगदान सतत चलने वाली उनकी वह कोशिश थी, जिसके जरिए वह पानी का काम करने वाले दूसरे अनेक साथी बनाने और उन्हें बढ़ाने में सफल रहे। मुझे ध्यान है। गोपालपुरा की पश्चिमी पहाड़ी के तालाब से पानी निकालने के लिये तालाब की प्रकृति अनुकूल जगह छोड़ी थी। अनुपम ने देखा, तो बोले - “यहाँ एक छोटी सी, सुन्दर सी दीवार बना दो। उस पर ‘अपरा’ लिख दो।’’

मैने पूछा- “इससे क्या होगा?’’

अनुपम बोले- “यह दीवार पाल पर चढ़ने के काम आएगी। यह एक लाभ होगा। दूसरा बड़ा लाभ यह होगा कि इससे पानी का संस्कार आगे जाएगा। यदि हमें तालाबों को अगली पीढ़ी को दिखाना है, समझाना है, आगे बढ़ाना है तो तालाबों के अंग-प्रत्यंगों को शब्दों में प्रस्तुत करना भी सीखें।’’

अनुपम की बात गहरी थी। बाद में मैंने दीवार बनवाई और उस पर ‘अपरा’ भी लिखा।

मुझे भरोसा है कि अनुपम के बनाए लोग, अनुपम की अनुपस्थिति से तत्काल उभरे शून्य को आगे चलकर भरेंगे।

तरुण भारत संघ के काम में भी अनुपम जी का कोई योगदान रहा है?
तरुण भारत संघ आकर पानी का काम शुरू कराने और उसे आगे बढ़ाने में यदि सबसे ज्यादा किसी का योगदान है, तो अनुपम जी भाई साहब का। यदि मैं सबसे ज्यादा कहता हूँ तो इसका मतलब है, मुझसे भी ज्यादा। चाहे भांवता का सिद्धसागर हो या कोई और खास कार्य, अनुपम का शिक्षण व साथ हमें हर जगह मिला।

एक बार पाँच पेड़ लगाने को लेकर कलक्टर ने मुझ पर जुर्माना ठोक दिया था। अनुपम जी को पता चला, तो वह चण्डीप्रसाद भट्ट, प्रभाष जोशी और अनिल अग्रवाल को लेकर वहाँ पहुँच गए। प्रभाष जी के कहने पर मुख्यमंत्री द्वारा कलक्टर का ट्रांसफर आदेश भी जारी हो गया। मैं खुश हुआ कि देखो, यह कलक्टर ही गड़बड़ कर रहा था। इससे मुक्ति मिली।

अब अनुपम जी की कुशलता देखो। उन्हें हमारी व हमारे काम की छवि की भी चिन्ता थी। उन्होंने मुझे फोन करके कहा कि कलक्टर को सम्मान देकर विदा करना। उन्होंने मुझे समझाया- “तुम्हें अलवर में काम करना है। लोगों के बीच में प्रेम बढ़ाना है। इसलिये ऐसा करना अच्छा होगा।’’ मैंने वैसा ही किया। कलक्टर को खुद जाकर आमंत्रित किया। मांगू पटेल के चौक में खीर बनवाई। जिन बंजारों के कारण विवाद था, उन्हें भी न्यौता। कलक्टर को बाकायदा गणेश जी की प्रतिमा देकर विदा किया।

पग-पग पर टोकना, सम्भालना, थपथपाना। इसे मैं कम योगदान नहीं मानता। तरुण भारत संघ का मतलब ही है, अनुपम मिश्र। भाभी मंजुश्री, बेटा शुभम.. सभी का श्रम तरुण भारत संघ में लगा है। अनुपम नहीं होते, तो तरुण भारत संघ के काम को कोई नहीं जान पाता।

पानी-पर्यावरण और इससे इतर क्षेत्रों में शोषण, अत्याचार, अनाचार के खिलाफ कई आन्दोलन इस बीच देश में चले हैं। मुझे नहीं याद पड़ता कि उन्हें लेकर अनुपम जी कभी उत्तेजित हुए हों अथवा उन्होंने उनमें कभी सक्रिय योगदान दिया हो। इसकी वजह आप क्या मानते हैं - अनुपम जी का स्वभाव या आन्दोलनों को लेकर अनुपम जी का कोई खास दृष्टिकोण?
अनुपम जी की मान्यता थी कि राज पर विकास का भूत चढ़ा है। इस भूत की सवारी जब तक रहेगी, विकास के नाम पर विनाशक कार्य चलते रहेंगे। चूँकि वह अत्यन्त विद्वान और दूरदृष्टा थे, अतः वह जिन कामों के बारे में देखे लेते थे कि हम इन्हें रोक नहीं पाएँगे, उनमें सक्रिय नहीं होते थे। अपनी ऊर्जा का उपयोग अन्यत्र करते थे। लेकिन ऐसा नहीं था कि वह ऐसे कार्यों से बेखबर रहते थे। वे आन्दोलन व आन्दोलनकारियों का हालचाल बराबर रखते थे। यमुना नदी में खेलगाँव निर्माण के खिलाफ चले यमुना सत्याग्रह में यूँ वह कभी नहीं आये, लेकिन जब तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने लालकिले की प्राचीर से नदियों की शुद्धि की बात की तो खुद गए और कहा- “राजेन्द्र, तुम्हारी बात सरकार ने मान ली है। अब यह सत्याग्रह पूर्ण करो।’’

वह दूर रहते थे, लेकिन आन्दोलनों से विरत नहीं रहते थे। ऐसे कामों में लगे साथियों को समर्थन देते थे। जीत हो, तो पीठ थपथपाते थे। वैसे वह अत्यन्त विनम्र थे, लेकिन अच्छा काम करने वालों के बुरे वक्त में सहारा देने को लेकर अत्यन्त निर्भीक भी थे।

आपसे आखिरी मुलाकात में अनुपम जी ने कुछ ऐसा कहा, जो उनके चाहने वालों को आगे का काम बताए?
पता है, उन्हें अक्सर गुस्सा नहीं आता था। पिछली बार जब मैं उनसे मिलने गया था, तो बहुत गुस्से में थे। बोले- “यह सरकार कुछ भी कर ले, गंगा साफ नहीं कर सकती। ये तो सारे प्रोग्राम, सारा पैसा..सब ठेकेदारों के लिये हो रहा है। गंगा को प्रेम और समर्पण चाहिए। राजेन्द्र, यह कैसे सम्भव हो?

फिर शान्त हुए, तो बोले- “राजेन्द्र, तालाबों का काम ही टिकेगा; बाकी तो सब लुटेगा। तालाबों के काम पर ही जोर लगाने की जरूरत है।’’

वह लूट की छूट और समाज की टूट से भी दुखी थे। समाधान में वह बताते रहे कि जो समाज बन्धे-जोहड़ों को बनाता था, बन्धे-जोहड़ कैसे उस समाज को जोड़ने वाले साबित होते थे। बोले कि तालाबों का काम चलते रहना चाहिए। सरकार, तालाबों का काम आगे बढ़ाने के लिये कोई अथाॅरिटी ही बना दे। इसी से कुछ काम आगे बढ़े।

जैसी मेरी आदत है, मैंने कहा- “भाईसाहब, अथाॅरिटी बनाने से क्या होगा? रेनफेड अथाॅरिटी बनी तो है। उसका हश्र हम सभी देख रहे हैं। तालाबों की अथाॅरिटी भी ऐसे ही सरकारी रवैए वाली होगी, तो उसके भी प्लान और पैसे ठेकेदारों की जेब में रहेंगे।’’

खैर, मैं कह सकता हूँ कि जीवित अनुपम की आत्मा, उनकी देह से ज्यादा, तालाबों में वास करती थी। भारत ही नहीं, दुनिया में कहीं भी तालाब जितने सुन्दर व श्रेष्ठ होंगे, अनुपम की आत्मा उतना ही अधिक सुख पाएगी।

 

 

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