ताकि सिर्फ खबर होकर न रह जाए ये खबरें

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“भारत, दुनिया के सर्वाधिक तेजी से बढ़ते बोतलबन्द पानी बाजारों में से एक’’ - यह खबर, बैसाख-जेठ में पानी का प्याऊ लगाकर जलदान को महादान बताने वाले भारत देश की है।

 

वाह सेन फ्रांसिस्को, वाह!


.दूसरी खबर सेन फ्रांसिस्को के देश, उत्तरी कैलीफ़ोर्निया से आई है - “सेन फ्रांसिस्को बना, बोतलबन्द पानी की बिक्री पर रोक लगाने वाला पहला नगर’’। सेन फ्रांसिस्को, उत्तरी कैलीफ़ोर्निया का एक जाना-माना सांस्कृतिक का व्यावसायिक केन्द्र है। जाने माने जल विशेषज्ञ श्री कृष्ण गोपाल व्यास जी द्वारा मेल से मुझे भेजी यह खबर सचमुच खुश करने वाली है। खबर के अनुसार, नौ महीने की चली बहस के बाद सेन फ्रांसिस्को ने यह निर्णय लिया। तय किया गया कि जीवन के लिये जरूरी पानी का व्यावसायीकरण अनुचित है। नागरिक, तय स्थानों पर लगी मशीनों के जरिए अपनी बोतल में मुफ्त पानी ले सकते हैं।

 

एक सकारात्मक कदम


आइए, उक्त दोनों खबरों के विरोधाभास पर हम सकारात्मक चिन्तन करें। चिन्तन करें कि सेन फ्रांसिस्कों में मुफ्त पेयजल के लिये लगाई मशीन, पानी के बाजार के खिलाफ एक औजार बनकर खड़ी हो सकती है, तो हमारा प्याऊ क्यों नहीं हो सकता? सई जल बिरादरी के एक पुराने, किन्तु नौजवान साथी आर्यशेखर ने इस पर चिन्तन किया है। सई को निर्मल बनाने का उनका काम, जन-जागरण तक सीमित होकर जरूर रह गया, किन्तु वह, इलाहाबाद में पिछले तीन वर्षों से हर गर्मी गुड़-पानी के प्याऊ लगा रहे हैं। उनसे प्रेरित हो, यह शृंखला आगे बढ़ी है। आर्यशेखर, आजकल कम्पनी की चाय बेचते हैं। कमाई से आए पैसे में से कुछ प्याऊ और कुछ हर रोज, सैंकड़ों चिड़ियों को नमकीन-लाई खिलाने में लगाते हैं। बधाई!

 

झील कब्जा मुक्ति अभियान, बंगलुरु


ऐसी सकारात्मक पहल को लेकर विरोधाभास का तो प्रश्न ही नहीं है। किन्तु आपके मन में फिर एक विरोधाभास, बंगलुरु की एक खबर पर भी हो सकता है। बंगलुरु प्रशासन ने स्थानीय झीलों पर हुए कब्जे को हटाने के लिये अभियान शुरू कर दिया है। हम सभी जानते हैं कि बंगलुरु की मशहूरियत एक वक्त में ‘झीलों के नगर’ के रूप में ही थी। जिनमें से अधिकतर आज कब्जे की शिकार हैं। ऐसे में कब्जा मुक्ति अभियान को लेकर हमें खुशी ही होनी चाहिए। किन्तु जिन मकान मालिकों को पता ही नहीं कि उनका मकान झील पर बना है; उनके लिये तो यह अभियान दुख की खबर ही है।

 

जागते रहो


यह विरोधाभास सतर्क करता है कि सम्पत्ति खरीदने से पहले, उसकी लागत व गुणवत्ता ही नहीं, भूमि की जाँच-पड़ताल भी जरूरी है। निजी ही नहीं, सरकारी विकास प्राधिकरणों द्वारा तालाब/झीलों की जमीनों पर बनाई इमारतों के उदाहरण, भारत देश में उदाहरण, एक नहीं, हजारों में हों, तो ताज्जुब नहीं। अतः सिर्फ सतर्कता तो जरूरी ही होगी। ऐसी ही सतर्कता की दृष्टि से राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने ग्रेटर नोएडा इलाके को लेकर कम सख्ती नहीं की। बिल्डरों द्वारा भूजल दोहन पर रोक से लेकर इंसान और पक्षियों के हित में आदेश कई दिए। तीसरी खबर के रूप में सुना है कि अब उत्तर प्रदेश सरकार भी चेती है।

 

जागी उ. प्र. सरकार


खबर है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने ‘मुख्यमन्त्री जल बचाओ अभियान योजना’ की शुरुआत की है। किन इलाकों में योजना पहले शुरू की जाए? इसका आधार विकास खण्डों की अतिदोहित, क्रिटिकल और सेमी क्रिटिकल श्रेणी की पहचान के रूप में तय होगा। नोएडा-ग्रेटर नोएडा, इस सूची में प्राथमिक स्थान पर हैं। इसके लिये जिलाधिकारी की अध्यक्षता में जिला स्तरीय ‘जल बचाओ समिति’ भी गठित कर दी गई है। मुख्य विकास अधिकारी, विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष, नगर आयुक्त, अधिशासी अभियन्ता, अधिशासी अभियन्ता (लघु सिंचाई), अधिशासी अभियन्ता (जल निगम), प्रभारी वनाधिकारी, प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के क्षेत्रीय अधिकारी, उपायुक्त (मनरेगा), एडीएम और एसडीएम आदि को इस समिति का मुख्य सदस्य बनाया गया है।

योजना केे तहत जलसंरचनाओं की डिजिटल डायरी बनाई जाएगी। यह सुनिश्चित करना पहला कदम होगा कि आगे कब्जा न हो। प्राकृतिक जल संरचनाएँ प्रदूषित न हो, यह सुनिश्चित करना दूसरा कदम होगा। तालाबों का सौन्दर्यीकरण और उनके किनारे पौधारोपण इस दिशा में तय तीसरा कदम है। सुखद है कि उत्तर प्रदेश शासन ने इसके लिये 31 अगस्त की समय सीमा तय कर दी।

अब ऐसे में हमारा दायित्व है सरकारी पहल में सहभागी बनें। सरकारें इसकी इच्छुक न हों, तो भी। आखिरकार, ऐसी योजनाओं में पैसा अन्ततः हम नागरिकों का तो ही लगता है। जरूरी है कि यह सिर्फ, ठेकेदार, नेता और अफसरों के हित का काम बनकर न रह जाए। प्रत्येक योजना में जन-निगरानी, जन-सुझाव तथा जन-सहयोग जरूरी है और जरूरत पड़े, तो विरोध भी। नतीजा आएगा ही। ठीक वैसे, जैसे 21 अप्रैल से चल रही खुदाई का आया।

 

सुरसती मैया की जै


प्रदेश हरियाणा, जिला - यमुना नगर, स्थान - रूल्लाहेड़ी। मनरेगा का फावड़ा चला। सलमा और रफीक का हाथ लगा। मात्र सात फीट की गहराई पर नीली बजरी, चमकता रेत और निर्मल.. बिल्कुल नदी जैसा पानी! भरोसा नहीं हुआ, तो 10 फीट तक गहरे कई गड्ढे खोदे गये। मालूम नहीं, धरती डोली या कुछ और हुआ; पानी इतना ऊपर कैसे आया? सबके मुँह से यही निकला - ‘सुरसती मैया की जै’ अखबारों में सरस्वती उद्गम स्थल ‘आदिबद्री’ की फोटो की फोटो छपी और साथ में खबर - “सरस्वती नदी की लुप्त धारा मिल गई है।’’ सरस्वती वर्ष 1998 से सरस्वती निधि शोध संस्थान बनाकर आस लगाए बैठे 88 वर्षीय दर्शनलाल जैन की कामना पूर्ण हुई। अब पूरी धारा को ऊपर लाने का काम हो। नदी के आसपास के कुएँ, तालाब और जोहड़ों का पेट भरे, तो माँ प्रसन्न हो और दर्शन दे।

 

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Post By: RuralWater
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