ताकि हौसला बना रहे

बांध के प्रस्तावित निर्माण स्थल नुनथर में नदी का जल-ग्रहण क्षेत्र मात्र 2706 वर्ग किलोमीटर है जबकि इस का कुल जल-ग्रहण क्षेत्र 14,384 वर्ग किलोमीटर है। इस तरह से नदी का बांध के नीचे का जल-ग्रहण क्षेत्र 11,678 वर्ग किलोमीटर बैठता है जो कि नुनथर पर नदी के जल-ग्रहण क्षेत्र का लगभग साढ़े चार गुना (4.32 गुना) है। इसके अलावा इस बात को इंजीनियरिंग तबका भी स्वीकार करता है कि जलाशय वाले बांधों से बाढ़ सुरक्षा निचले इलाकों में बहुत दूर तक नहीं दी जा सकती।

अब लौट कर चलते हैं वापस अपने नेताओं के पास उनके विचार जानने के लिए। बिहार के भूतपूर्व जल-संसाधन मंत्री के विचार हमने समय-समय पर सुने हैं और उनके अनुसार नेपाल में बांध बनाये बिना बिहार की बाढ़ समस्या का समाधान हो ही नहीं सकता, यह बात बार-बार उन्होंने जोर देकर कही है। नेपाल में बांध निर्माण के दूसरे बड़े समर्थक पं. भोगेन्द्र झा ने अपना सारा जीवन इन बांधों की वकालत में गुजार दिया। उनकी इस मुहिम से मतभेद हो सकता है मगर लोगों की पीड़ा की उनकी व्याख्या और उनकी निष्ठा पर कभी सन्देह नहीं किया जा सकता। नुनथर बांध के मुद्दे पर इस पृष्ठभूमि में लेखक ने कई स्वनामधन्य नेताओं से बात की। एक लम्बी संसदीय पारी खेलने वाले वरिष्ठ नेता रघुनाथ झा का कहना है, ‘‘...नुनथर में बांध के निर्माण के लिए नेपाल का राजी होना जरूरी है। जब वे राजी होंगे तभी यह बांध बनेगा और इस समय तो उनके राजी होने का सवाल ही नहीं उठता। एक समय था जब वहाँ श्री 5 की सरकार थी और परिस्थितियाँ हमारे अनुकूल थीं। उसी समय अगर कोई समझौता हो गया होता तो सम्भव है बांध बन जाता पर उस समय प्राथमिकता में कोसी पर बराहक्षेत्र का बांध आता था।

बागमती की तो कोई बात ही नहीं थी। कोसी पर जब तटबन्ध बन गया तो प्राथमिकता बदल कर गंडक की ओर चली गयी। बीच वाला हिस्सा तो काफी समय तक छूटा पड़ा रहा। ठाकुर गिरिजा नन्दन सिंह, युगल किशोर सिंह, जानकी मठ के महन्त रघुनाथ दास आदि के प्रयासों से कुछ न कुछ होता रहा मगर जो होना चाहिये था वह तो नहीं हो पाया।’’ उनके अनुसार जो होना चाहिये था और नहीं हो पाया वह शायद नुनथर में बागमती नदी पर प्रस्तावित बांध था। परिशिष्ट-1 में दिये गए विवरण के अनुसार इस बांध द्वारा 99 क्यूमेक (3,500 क्यूसेक) पानी नहरों में भारतीय भाग में दिया जाना है जबकि नेपाल करमहिया बराज से कुल मिला कर 112.6 क्यूमेक क्षमता वाली नहरों को निर्माण कर चुका है। अपस्ट्रीम में स्थित होने के कारण वह इस पानी का इस्तेमाल कर भी लेगा और करता भी है। उस हालत में भारत में सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध भी होगा या नहीं, कह पाना मुश्किल है। शायद इसीलिए रमनगरा (गम्हरिया) में जो बराज बनना था उसका निर्माण शिलान्यास के आगे नहीं बढ़ पाया।

बांध के प्रस्तावित निर्माण स्थल नुनथर में नदी का जल-ग्रहण क्षेत्र मात्र 2706 वर्ग किलोमीटर है जबकि इस का कुल जल-ग्रहण क्षेत्र 14,384 वर्ग किलोमीटर है। इस तरह से नदी का बांध के नीचे का जल-ग्रहण क्षेत्र 11,678 वर्ग किलोमीटर बैठता है जो कि नुनथर पर नदी के जल-ग्रहण क्षेत्र का लगभग साढ़े चार गुना (4.32 गुना) है। इसके अलावा इस बात को इंजीनियरिंग तबका भी स्वीकार करता है कि जलाशय वाले बांधों से बाढ़ सुरक्षा निचले इलाकों में बहुत दूर तक नहीं दी जा सकती। बिहार सरकार द्वारा 2007 में नियुक्त बिहार की बाढ़ समस्या का अध्ययन करने वाली तकनीकी समिति यह स्पष्ट तौर पर कहती है कि ‘‘(बड़े बांधों से) बाढ़ की सुरक्षा प्राप्त करने के लिए जलाशय और बाढ़ से तबाह होने वाला क्षेत्र आस-पास में होना चाहिये।’’

बागमती के मसले पर नुनथर में प्रस्तावित बांध से भारतीय सीमा (ढेंग) की दूरी लगभग 70 किलोमीटर और ढेंग से बदलाघाट की दूरी प्रायः 400 किलोमीटर है। तब इस बांध से किस इलाके की सुरक्षा की बात कही जाती है? ऐसी हालत में यह बांध बाढ़ नियंत्रण के लिए कितना असरदार होगा यह तो पहले से ही मालुम है। शायद इसीलिए इसमें बाढ़ नियंत्रण के लिए कोई स्थान भी निर्धारित नहीं है मगर यह बात जाने बिना राजनीतिज्ञों द्वारा इस बांध से बाढ़ नियंत्रण की अपेक्षा जरूर की जाती है। पूर्व केन्द्रीय मंत्री हरि किशोर सिंह का कहना है, ‘‘... नुनथर बांध के निर्माण के लिए तो सरकार के पास पैसा ही नहीं है। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी। यह संसाधन अगर जुटा भी लिया जाए तो नेपाल की आज की जो अन्दरूनी परिस्थितियाँ हैं उन्हें देखते हुए बांध का निर्माण या उसके लिए समझौता हो पाना थोड़ा कठिन लगता है। वहाँ का माहौल भारत के अनुकूल नहीं है। उसमें बाढ़ नियंत्रण के लिए फ्लड कुशन दिया गया है या नहीं यह तो किसी को भी पता नहीं होगा। शायद मंत्री लोग जानते हों। राजनीतिज्ञ तो इस बात को मान कर चलता है कि अगर किसी बांध का प्रस्ताव किया जा रहा है तो उसमें सिंचाई, बिजली का उत्पादन और बाढ़ नियंत्रण का प्रावधान होगा ही। अगर ऐसी व्यवस्था नहीं है तो यह बात तो टेक्निकल लोगों द्वारा उन्हें बताई जानी चाहिये थी।’’

अब टेकनिकल लोगों को यानी इंजीनियरों को क्या जरूरत है कि वह नेताओं के बयानों पर टीका-टिप्पणी करके या उसमें सुधार की सलाह देकर खुद के लिए परेशानी मोल लें। वह यह भी कह सकते हैं कि हमने अगर कोई बात आप को नहीं बतायी तो आप ने भी तो नहीं पूछा। आम धारणा यह है कि इंजीनियरों का जनता के साथ कोई वार्तालाप नहीं होता मगर उनका राजनैतिक नेतृत्व से भी वार्तालाप नहीं होता है और योजनाएं बस बनती चली जाती हैं, यह बहुत ही चिन्ताजनक स्थिति की ओर इशारा करता है। अब आम जनता के सामने उसके भले की बात न तो कोई कह करके पछतायेगा और न ही कोई चुप रह कर पछतायेगा। व्यवस्था इसी तरह चलती है। अपने पक्ष को बड़ी साफगोई से रखते हैं डॉ. जगन्नाथ मिश्र जो तीन बार बिहार के मुख्यमंत्री रहने के साथ-साथ केन्द्र में भी मंत्री रह चुके हैं। उनका कहना है, ‘‘...नुनथर, शीसापानी, या बराहक्षेत्र बांधों का निर्माण कर पाना और उन से बाढ़ का कोई स्थाई समाधान कर पाना सन्देहास्पद लगता है।

वैसे भी इन बांधों का बन पाना कोई आसान काम नहीं है। पॉलिटिकली हम लोग बोलते रहें, भाषण करते रहें, भारत सरकार को दोष देते रहें मगर इसकी संभावना आर्थिक रूप से, रचना की दृष्टि से और सामरिक दृष्टि को ध्यान में रखते हुए है नहीं। नेपाल से इसकी सहमति लेना भी कोई आसान काम है क्या? हम लोग बोलते रहते हैं? वोट लेना है तो भाषण भी चलता रहता है लेकिन यह सब संभव नहीं दिखता। यह स्थिति बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण है। जब हम सत्ता में होते हैं तब विपक्ष हमें दोष देता है, जब हम विपक्ष में होते हैं तो वही काम हम करते हैं। यह सारी बातें जनता के हितों के विरुद्ध जाती हैं। जनता जब किसी या सारी पार्टियों पर कुछ भी न करने का आरोप लगाती है तब वह एकदम सही होती है। इस पर राजनीति होनी नहीं चाहिये। पाँच साल लालू प्रसाद जी केन्द्र में मंत्री थे, 6-6 साल रामबिलास पासवान और नीतीश कुमार जी भी केन्द्र में मंत्री थे। क्यों नहीं तब कुछ हुआ? जनता खंडित है, उसका कोई संगठन नहीं है और इसलिए इन समस्याओं के प्रति कोई पार्टी भी गंभीर नहीं हैं क्योंकि उसे उनके वोट के अलावा और किसी चीज से मतलब नहीं है।

यह ठीक है कि सरकार को इस दिशा में प्रयास करते रहना चहिये मगर इसमें जनता और उसके हितों को घसीटना ठीक नहीं है।’’ यह सच है कि किसी भी शासन व्यवस्था में जनता और उसके हितों को घसीटना ठीक नहीं है मगर यह भी गलत नहीं है कि जानकारी के अभाव में घिसटना उसकी मजबूरी बन जाती है, कभी तटबन्धों के नाम पर तो कभी नेपाल मे प्रस्तावित बांध के नाम पर। यह दुष्चक्र जिस दिन टूटेगा उसी दिन से इस पूरे विषय पर कोई सार्थक चर्चा की शुरुआत होगी।

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Post By: tridmin
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