आज गंगा दशहरा है। 28 मई, दिन गुरुवार, पंचाग के हिसाब से ज्येष्ठ मास, शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि ! श्री काशीविश्वनाथ की कलशयात्रा का पवित्र दिन। कभी इसी दिन बिन्दुसर के तट पर राजा भगीरथ का तप सफल हुआ। पृथ्वी पर गंगा अवतरित हुई। ‘‘ग अव्ययं गमयति इति गंगा’’ - जो स्वर्ग ले जाये, वह गंगा है।
पृथ्वी पर आते ही सबको सुखी, समृद्ध व शीतल कर दुखों से मुक्त करने के लिए सभी दिशाओं में विभक्त होकर सागर में जाकर पुनः जा मिलने को तत्पर एक विलक्षण अमृतप्रवाह! जो धारा अयोध्या के राजा सगर के शापित पुत्रों को पु़नर्जीवित करने राजा दिलीप के पुत्र, अंशुमान के पौत्र और श्रुत के पिता राजा भगीरथ के पीछे चली, वह भागीरथी के नाम से प्रतिष्ठित हुई। जो अलकापुरी की तरफ से उतरी, वह अलकनन्दा और तीसरी प्रमुख धारा ‘मंदार पुष्प सुपूजिताय’ के नाम पर मंदाकिनी कहलाई। शेष धाराओं ने भी अलग-अलग संदर्भों में अलग-अलग नाम धारण किए। इन सभी ने मिलकर पंच प्रयाग बनाया। जब तक ये अपने-अपने अस्तित्व की परवाह करती रही, उतनी पूजनीय और परोपकारी नहीं बन सकी, जितना एकाकार होने के बाद गंगा बनकर हो गईं।
वाल्मिकी कृत गंगाष्टम, स्कंद पुराण, विष्णु पुराण, ब्रह्म पुराण, अग्नि पुराण, भागवत पुराण, वेद, गंगा स्तुति, गंगा चालीसा, गंगा आरती और रामचरितमानस से लेकर जगन्नाथ की गंगालहरी तक मैने जहाँ भी खंगाला, गंगा का उल्लेख उन्हीं गुणों के साथ मिला, जो सिर्फ एक माँ में ही सम्भव है, किसी अन्य में नहीं। त्याग और ममत्व ! सिर्फ देना ही देना, लेने की कोई अपेक्षा नहीं। शायद इसीलिए माँ को तीर्थों में सबसे बड़ा तीर्थ कहा गया है और गंगा को भी।
गंगा की स्मृति छाया में सिर्फ लहलहाते खेत या माल से लदे जहाज ही नहीं, बल्कि वाल्मिकी का काव्य, बुद्ध महावीर के विहार, अशोक-हर्ष जैसे सम्राटों का पराक्रम तथा तुलसी, कबीर, रैदास और नानक की गुरुवाणी सभी के चित्र अंकित हैं। गंगा किसी धर्म, जाति या वर्ग विशेष की न होकर, पूरे भारत की अस्मिता और गौरव की पहचान बनी रही है। हरिद्वार, देवभूमि का प्रवेशद्वार बना रहा। काशी इस पृथ्वीलोक से अलग लोक मानी गई। उसी तर्ज पर उत्तर हिमालय में उत्तर काशी स्थापित हुई। गंगा किनारे के तक्षशिला, नालन्दा, काशी और इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने जो ख्याति पाई, भारत का कोई अन्य विश्वविद्यालय हासिल नहीं कर सका है।
गंगा किनारे न जाने कितन आन्दोलनों ने प्राण अर्जित किए। राष्ट्र की हर महान आध्यात्मिक विभूति ने आकर गंगा से शक्ति पाई। यह कोरी कल्पना नहीं, इतिहास है। इस अद्वितीय महत्ता के कारण ही भारत का समाज युगों-युगों से एक अद्वितीय तीर्थ के रूप में गंगा का गुणगान करता आया है- ‘न माधव समो मा सो, न कृतेन युगं समम। न वेद सम शास्त्र, न तीर्थ गंगया समम।’
लेकिन लगता है कि माँ गंगा ने अपनी कलयुगी संतानो के कुकृत्यों को पहले ही देख लिया था इसीलिए माँ गंगा ने अवतरण से इंकार करते हुए सवाल किया था- ‘मैं इस कारण भी पृथ्वी पर नहीं जाऊँगी कि लोग मुझमें अपने पाप धोयेंगे। फिर मैं उस पाप को धोने कहाँ जाऊँगी ?’ तब राजा भगीरथ ने उत्तर दिया था- ‘माता! जिन्होंने लोक-परलोक, धन-सम्पत्ति और स्त्री-पुत्र की कामना से मुक्ति ले ली है, जो ब्रह्मनिष्ठ और लोकों को पवित्र करने वाले परोपकारी सज्जन हैं, वे आप द्वारा ग्रहण किए गए पाप को अपने अंग के स्पर्श और श्रमनिष्ठा से नष्ट कर देंगे।’
सम्भवतः इसीलिए गंगा रक्षा सिद्धांतों ने ऐसी परोपकारी सज्जनों को ही गंगा स्नान का हक दिया था। गंगा नहाने का मतलब ही है- सम्पूर्णता ! जीवन में सम्पूर्णता हासिल किए बगैर गंगा स्नान का कोई मतलब नहीं। उन्हें गंगा स्नान का कोई अधिकार नहीं, जो अपूर्ण हैं- लक्ष्य से भी और विचार से भी। इसलिए किसी भी अच्छे काम के सम्पन्न होने पर हमारे समाज ने कहा- ‘हम तो गंगा नहा लिए।’
दुखद है कि गंगा आस्था के नाम पर, आज हम सभी सिर्फ स्नान कर सिर्फ मैला ही बढ़ा रहे हैं। गंगा दशहरा मनाने के नाम पर गंगा को मलीन ही बना रहे हैं। गंगा में वह सभी कृत्य कर रहे हैं, जिन्हें गंगा रक्षा सूत्र ने पाप कर्म बताकर प्रतिबंधित किया था।
माघ मेले से लेकर कुम्भ तक कभी हमारी नदियाँ प्रकृति व समाज की समृद्धि के चिंतन-मनन के मौके थे। हमने इन्हें दिखावा, मैला और गंगा माँ का संकट बढ़ाने वाला बना दिया। भगवान विष्णु और तपस्वी जह्नु को छोड़कर और पूर्व में कोई प्रसंग नहीं मिलता जब किसी ने गंगा को कैद करने का दुस्साहस किया हो किन्तु अंग्रेजों के जमाने से गंगा को बाँधने की शुरु हुई कोशिश को आजाद भारत ने आगे ही बढ़ाया है।
आज हम गंगा को माँ कहते तो जरूर हैं, लेकिन हमारा व्यवहार एक संतान की तरह नहीं है। गरीब से गरीब आदमी आज भी अपनी गाढ़ी कमाी का पैसा खर्च कर गंगा दर्शन को जाता है, लेकिन गंगा का रुदन और कष्ट हम सबको दिखाई नहीं देता। हमारे कान गंगा का रुदन सुनने में असमर्थ ही रहते हैं। हमारा सम्बोधन झूठा है। हर-हर गंगे की तान दिखावटी है, प्राणविहीन!
दरअसल, हमने गंगा को अपनी माँ नहीं अपनी लालच की पूर्ति का साधन समझ लिया है, भोग का एक भौतिक सामान मात्र ! माँ को कूड़ादान मानकर हम माँ के गर्भ में अपना कचरा-विष सबकुछ डाल रहे हैं। अपने लालच के लिए हम माँ को कैद करने से भी नहीं चूक रहे। हम उसकी गति को बाँध रहे हैं। अपने लालच के लिए हम माँ गंगा के गंगत्व को नष्ट करने पर उतारु हैं।
हम भूल गये हैं कि एक सन्तान को माँ से उतना ही लेने का हक है, जितना एक जन्मे शिशु को अपने जीवन के लिए माँ के स्तनों से दुग्धपान। हम यह भी भूल गये हैं कि माँ से सन्तान का सम्बन्ध संवेदनशील व्यवहार का होता है, व्यापार का नहीं। हमें गंगा मिलन के मेले याद हैं, स्नान और दीपदान याद हैं, लेकिन हम आयोजनों के मूल मंतव्य को भूल गए हैं।
जानबूझकर की जा रही हमारी इन तमाम गल्तियों के कारण माँ गुस्साती जरूर है, लेकिन वह आज भी भारत के 37 प्रतिशत आबादी का प्राणधार बनी हुई है।
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