ताकि बचा रहे जीवनदायिनी का जीवन

वन एवं वनस्पति जीवन के संरक्षण में किसी संस्था से ज्यादा स्थानीय लोगों की जिम्मेदारी हो जाती है। ऐसे में यह आवश्यक है कि वनस्पति के महत्व, विभिन्न प्रजातियों की पहचान और उनके संरक्षण के पहलुओं की जानकारी लोगों तक पहुँचे।इन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय के कालिन्दी कॉलेज के वनस्पति उद्यान को देखने के लिए कॉलेज की छात्राओं में बेहद उत्साह है। वे यहाँ लगे रुद्राक्ष व रुहेड़ा के पौधों को देखने आती हैं। खास बात यह है कि ये दो पौधे कॉलेज को संसद की ओर से उपहार स्वरूप दिए गए हैं। कॉलेज के वार्षिक दिवस के मौके पर लोकसभा अध्यक्ष श्रीमती मीरा कुमार ने कॉलेज में पर्यावरण संरक्षण के प्रति सजगता को देखकर यह अनोखा उपहार कॉलेज को दिया। संसद के उद्यान विभाग ने देश भर के लुप्तप्राय पौधों को संरक्षित करने की अनोखी पहल की है। योजना के तहत, संसद के उद्यान में वह सभी पेड़-पौधों लहलहाएँगे जो अब अपने मूल स्थान से लुप्त हो रहे हैं। यह वन्य प्रजातियों के संरक्षण का पूर्व-स्वस्थानी तरीका है। इसमें वनस्पति की विभिन्न प्रजातियों को अपने स्थान से दूर, कृत्रिम वातावरण में संरक्षित किया जाता है। यकीनन विभिन्न उपयोगी वनस्पति प्रजातियों को बचाने की यह अद्भुत मुहिम है। अपने मूल स्वरूप में ये प्रजातियाँ तभी अस्तित्व में रह सकती हैं जब उनके मूल स्थान पर उन्हें संरक्षण के अवसर प्रदान किए जाएँ। यहाँ वन एवं वनस्पति जीवन के संरक्षण में किसी संस्था से ज्यादा स्थानीय लोगों की जिम्मेदारी हो जाती है। ऐसे में यह आवश्यक है कि वनस्पति के महत्व, विभिन्न प्रजातियों की पहचान और उनके संरक्षण के पहलुओं की जानकारी लोगों तक पहुँचे।

वनस्पति की महत्ता


पारिस्थितिकी में वृक्षों की अहम भूमिका है। वृक्षों व अन्य जीवों के बीच प्रकृति ने एक अनोखा सम्बन्ध स्थापित किया है। अपने-अपने जीवनवृत्त को पूरा करते हुए वृक्ष अन्य सभी जीवों में प्राण भरते हैं। कार्बन डाई-ऑक्साइड को नियन्त्रित करने और जीवन के लिए आवश्यक ऑक्सीजन की पूर्ति के लिए प्रकृति की यह अपनी ही सन्तुलन-व्यवस्था है। यही नहीं, क्लोरोफिल की मौजूदगी और उससे कार्बन गैस को जैव ईन्धन व जैविक तत्त्व में बदलने की क्षमता भी केवल पौधों में ही विद्यमान है। यही वजह है कि वे प्राथमिक उत्पादक कहे जाते हैं और खाद्य श्रृंखला की सबसे पहली कड़ी बनकर पृथ्वी पर जीवन का संचार करते हैं।

वन एवं वनस्पति जैव-विविधता का अभिन्न अंग है। वनस्पति की विभिन्न प्रजातियाँ मिलकर वनों को जैव-विविधता वाले समुदाय प्रदान करती हैं। यह वह नींव है जिस पर अन्य सभी जीव आश्रित हैं। दरअसल, जैव-विविधता को वृक्षों की विभिन्न प्रजातियों के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है जो हमें जैव-विविधता से जुड़ा सहज भौगोलिक वर्गीकरण प्रदान करता है। इसे सीधे तौर पर ऐसे समझा जा सकता है- वर्षा वन, उष्णकटिबन्धीय वर्षा वन इत्यादि और उससे जुड़ी विभिन्न वनस्पति प्रजातियाँ।

पर्यावरण को सन्तुलित रखते हुए जीवनदायिनी बनने वाला वनस्पति संसार केवल इसीलिए महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि वह सीधे-सीधे मानवीय अर्थव्यवस्था से भी सरोकार रखता है। प्राचीन काल से इन वनस्पति प्रजातियों का इस्तेमाल औषधियों के रूप में होता आया है। जैव-विविधता पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन यह प्रावधान करता है कि इन संसाधनों से सम्बन्धित स्थानीय समुदायों की जानकारी, ज्ञान व व्यवहार को पहचान कर उन्हें वन, वनस्पति एवं वन्य प्राणियों के संरक्षण व संवर्द्धन के लिए प्रयोग में लाया जाए। कुछ पौधों के पत्ते, कुछ के तने, कुछ वृक्षों की छाल तो कुछ की जड़ें सभी का अपना आर्थिक मूल्य है। वृक्षों से मिलने वाले उत्पादों को कितनी ही वस्तुओं के लिए कच्चे माल की तरह भी इस्तेमाल किया जाता है। राष्ट्रीय उद्यानों व पक्षी विहारों की संकल्पना मात्र से इस बात का अन्दाजा लगाया जा सकता है कि यह ऐसा संसाधन है जिसे यथास्थिति में रखा जाए तो लगातार अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा अर्जित की जा सकती है। अर्थ-विशेषज्ञों की माने तो भविष्य में ईको-टूरिज्म का क्षेत्र सम्भावनाओं से भरा है।

भारत में वन एवं वनस्पति की स्थिति


भारत में पौधों की लगभग 49 हजार प्रजातियाँ मौजूद हैं। यह दुनिया भर के पौधों की पहचानी जा सकने वाली प्रजातियों का 12 प्रतिशत है। आयुर्वेद में औषधीय गुण वाले लगभग 2,000 पौधों का वर्णन मिलता है। विभिन्न रोगों के उपचार में सर्पगन्धा, जामुन, अर्जुन, नीम, कचनार, बबूल और ऐसे कितने ही पौधों व वृक्षों का उपयोग किया जाता रहा है। किन्तु अब देश के इस संसाधन में सम्मिलित लगभग 20 प्रतिशत वनस्पति प्रजातियाँ लुप्त होने के कगार पर है। कारण स्पष्ट है- तेजी से कटते जंगल, खत्म होते प्राकृतिक वास और वन संसाधनों का अन्धाधुन्ध दोहन।

इण्टरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) द्वारा जारी लुप्तप्राय प्रजातियों की ‘रेड लिस्ट’ (प्रकृति के संरक्षण के लिए अन्तरराष्ट्रीय संघ की लाल सूची) के अनुसार, भारत की 60 वनस्पति प्रजातियाँ गम्भीर रूप से संकटग्रस्त हैं और 141 वनस्पति प्रजातियाँ लुप्तप्राय हैं। दुखद बात यह भी है कि लुप्तप्राय प्रजातियों की इस फेहरिस्त में दो ऐसी प्रजातियों का नाम दर्ज है जो अब विलुप्त हो चुकी हैं। केरल में पनपने वाली यूफोर्बिया मयूरनथनी ऐसी ही वनस्पति प्रजाति है।

इण्टरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) द्वारा जारी लुप्तप्राय प्रजातियों की ‘रेड लिस्ट’ (प्रकृति के संरक्षण के लिए अन्तरराष्ट्रीय संघ की लाल सूची) के अनुसार, भारत की 60 वनस्पति प्रजातियाँ गम्भीर रूप से संकटग्रस्त हैं और 141 वनस्पति प्रजातियाँ लुप्तप्राय हैं।लुप्तप्राय वनस्पति की सूची पर नजर डालें, तो इसमें छोटे पौधों और झाड़ियों से लेकर विशाल वृक्ष, सभी किसी-न-किसी मानवीय कारण से अपने अस्तित्व को खोते दिखाई देते हैं। मसलन, तालीपोत पाल्म्स कोरिफा अथवा कोरीफ प्रजाति का लुप्तप्राय ताड़ का वृक्ष। यह वृक्ष बड़ा होने में 50 से 60 वर्ष तक का समय लेता है और खेतीबाड़ी वाले इलाकों में पाया जाता है। पिछले कुछ दशकों में इस वृक्ष की आबादी में लगातार कमी आई है। इसी प्रकार आन्ध्र प्रदेश में पाया जाने वाला सदाबहार पौधा पीरीठा अपने औषधीय गुणों के लिए जाना जाता है। किन्तु इसका यही गुण अब इसकी विलुप्ति का कारण बनता जा रहा है। व्यावसायिक लाभ के लिए इसकी अधिक मात्रा में दोहन के कारण अब यह वनस्पति खत्म होने के कगार पर है।

इसी तरह नन्नारी अथवा सरीबा नामक झाड़ी से मिलने वाले अल्कालॉइड व ग्लाइकोसाइड का दवा एवं कीटनाशक में इस्तेमाल इस वनस्पति को खतरे में डाल रहा है। अब यह वनस्पति भी लुप्तप्राय प्रजाति की सूचि में शामिल है। इलेक्स खासियाना भी तेजी से लुप्त होती झाड़ी की प्रजाति है। चिन्ताजनक बात यह है कि पूर्वोत्तर में पाई जाने वाली इस प्रजाति के अब केवल चार-पाँच पौधे ही मौजूद हैं। वहीं, साइसीजियम त्रेवेंकोरिकम आर्द्र भूमि में पाई जाने वाली झाड़ियों की एक ऐसी प्रजाति है जो गम्भीर रूप से खतरे में है। यह इसलिए विलुप्त हो रही है क्योंकि आर्द्रभूमि को धान की खेती के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है और प्राकृतिक वन्य क्षेत्रों व वासों को खत्म कर दिया गया है।

उधर कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु के पहाड़ी वनों में पाए जाने वाले मलाबारी महोगनी के विशाल वृक्ष भी अब खत्म हो रहे हैं। आर्थिक लाभ के लिए वृक्षों की अन्धाधुन्ध कटाई इसका कारण है। वहीं दक्कन के पठार में पाई जाने वाली वृक्ष प्रजाति मधुका डिप्लोस्टिमॉन, लम्बाई में कम होने के बावजूद, मानवीय आबादी के बढ़ते घनत्व के कारण अपना अस्तित्व खो रहे हैं।

पश्चिमी घाट में मिरिस्टिका मैग्निफिसा एवं मिरिस्टिका मलाबारिका इस क्षेत्र को कृषि योग्य बनाए जाने के कारण विलुप्त हो रही हैं। दवाओं व प्रसाधनों में इस्तेमाल होने वाला लाल चन्दन भी पूर्वी घाट से विलुप्त होने लगा है। इसके अलावा, बड़ी संख्या में ऑर्किड, बुरुंश व अन्य औषधीय पौधों की प्रजातियाँ भी खतरे में हैं। विलुप्ति के हाशिये पर खड़ी वनस्पति प्रजातियों की यह केवल झाँकी भर है।

वनों व वनस्पति के लिए पर्यावरणीय अभियान


पर्यावरण व वन संरक्षण से जुड़ी जनचेतना की बात की जाए तो चिपको आन्दोलन का नाम जगजाहिर है। हालाँकि इसके इतर भी देश में वनस्पति संरक्षण को लेकर कुछ जागरुकता आ रही है और इस दिशा में देश के कुछ हिस्सों में मुहिम भी चलाई जा रही है, मसलन, गुग्गुल बचाओ अभियान, जिसकी शुरुआत डॉ. विनीत सोनी ने राजस्थान में पाई जाने वाली वनस्पति प्रजाति गुग्गुल को बचाने के लिए की। इस अभियान के लिए डॉ. सोनी ने सामुदायिक जागरुकता को हथियार बनाया।

राजस्थान के ही राणाराम बिश्नोई ने जोधपुर के समीप एक रेतीले टीले को हरे-भरे उद्यान में तब्दील कर दिया। एकलखोड़ी गाँव के निवासी बिश्नोई ने करीब 25 बीघा जमीन पर नीम, बबूल, रुहेड़ा, खेजड़ी, कंकड़ी, अंजीर और बोगनवेलिया लगाकर इसमें प्राण फूँक दिए। इसके लिए उन्होंने अपने घर व गाँव की महिलाओं की सहायता ली और आज वहाँ 27 हजार पेड़-पौधे लहलहा रहे हैं। अब गाँव की सभी महिलाएँ भी पर्यावरण को लेकर जागरूक दिखाई देती हैं। कुछ ऐसा ही उदाहरण असम के जादव पायंग ने भी लोगों के सामने रखा। 52 वर्षीय पायंग ने 30 वर्षों से अधिक समय की कड़ी मेहनत से 550 हेक्टेयर रेतीले टीले को घने जंगल में तब्दील कर दिया। ब्रह्मपुत्र नदी पर स्थित इस रेतीले टीले ‘अरुणा चापोरी’ पर आज विभिन्न वनस्पति प्रजातियों के साथ-साथ कितने ही वन्य प्राणियों का वास है।

चिपको आन्दोलन से प्रेरित होकर कर्नाटक के उत्तर-कन्नड़ जिले के लोगों ने वनों को बचाने के लिए अपिको आन्दोलन शुरू किया। पांडु राम हेगड़े द्वारा शुरू किए गए इस आन्दोलन का उद्देश्य यही था कि उत्पादों व कच्चे माल के लिए पेड़ काटे न जाएँ बल्कि केवल मृत पेड़ों, सूखे व झड़े पत्तों, तनों आदि का इस्तेमाल ही आर्थिक लाभ के लिए किया जाए।

पुणे, महाराष्ट्र में तो न केवल औषधीय पौधों को संरक्षित करने का अनोखा उपाय किया गया बल्कि उससे आर्थिक आय अर्जित करने के साधन पर भी ध्यान दिया गया। यहाँ ‘रूरल कम्यून’ नामक गैर-सरकारी संगठन ने सरकारी सहयोग से ‘मेडिसिनल प्लाण्ट्स कंजर्वेशन सेण्टर’ स्थापित किया। इसके लिए पूरे राज्य के 13 क्षेत्रों को चयनित कर, उनमें पाई जाने वाली वनस्पति प्रजातियों को संरक्षित करने के साथ-साथ उनकी पैदावार को बढ़ाने के उपाय भी किए गए। हाल में इस प्रयास को संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा पुरस्कृत किया गया।

बंगलुरु स्थित गैर-सरकारी संगठन ‘फाउण्डेशन फॉर रीवाइटलाइजेशन ऑफ लोकल हेल्थ ट्रेडिशंस’ और भारतीय विज्ञान संस्थान के पारिस्थितिकी विज्ञान केन्द्र ने जैव विज्ञान सम्बन्धी पारम्परिक ज्ञान को लिपिबद्ध करने के मकसद से एक ऐसे अभियान की शुरुआत की जिसमें लोग स्वयं अपने ज्ञान को शामिल करा सकें। ‘कम्युनिटी बॉयोडाइवर्सिटी रजिस्टर’ नाम से शुरू हुए इस परियोजना के तहत, कर्नाटक के कई गाँवों में ऐसे महिला-पुरुषों की पहचान हुई जिनके पास वनस्पतियों से सम्बन्धित जानकारियाँ थीं। ऐसी जानकारियों को स्थानीय भाषा में लिखा गया और वनस्पति सम्बन्धी ज्ञान से भरे ऐसे रजिस्टर सम्भालने की जिम्मेदारी गाँव के मुखिया को सौंपी गई। इस मुहिम की सफलता को देखते हुए इसे सरकारी तौर पर चलाए जाने वाले विकास-कार्यक्रमों का हिस्सा बनाया गया। अब यह परियोजना ‘पीपल्स बॉयोडाइवर्सिटी रजिस्टर’ के नाम से राष्ट्रीय स्तर पर चलाया जा रहा है और इसे देश के हर गाँव तक पहुँचाने की योजना है।

वनस्पतियों के संरक्षण हेतु उठाए गए कानूनी कदम


वनस्पतियों के संरक्षण के लिए सरकारी योजनाओं व निजी उपायों के अलावा, वैधानिक प्रावधान भी किए गए हैं जो इस दिशा में कारगर साबित हो सकते हैं। देश में पर्यावरण संरक्षण से सम्बन्धित करीब 200 कानून हैं। इनमें वन्य-जीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 एवं राष्ट्रीय पर्यावरण नीति, 2006 सबसे महत्वपूर्ण हैं। वन्य-जीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 वन्य-जीवों एवं वनस्पति के संरक्षण और उनके जीवन से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े मसलों से सम्बद्ध है। यह देश की पारिस्थितिकीय एवं पर्यावरणीय सुरक्षा को सुनिश्चित करता है। इस कानून के तहत वनस्पति एवं वन्य-जीवों को सुरक्षा सम्बन्धी छह श्रेणियों में रखा गया है। वहीं, राष्ट्रीय पर्यावरण नीति, 2006 संविधान के अनुच्छेद 48 (राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्त) एवं अनुच्छेद 51(जी) (मौलिक कर्तव्यों) का समावेश प्रस्तुत करती है। इसके तहत पर्यावरण संरक्षण राज्य की जिम्मेदारी होने के साथ-साथ हर नागरिक का कर्तव्य भी है।

हालाँकि कुछ कानून इस दिशा में अब भी खास साबित नहीं हो पाए हैं और उन्हें देश में उपनिवेशवाद की विरासत ही समझा जाता है। मसलन, वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980। दरअसल, यह कानून ब्रिटिश शासन के दौरान पारित हुए भारतीय वन अधिनियम, 1927 के स्थान पर लाया गया था जो ब्रिटिश सरकार को वनों एवं वन्य उत्पादों पर आर्थिक आधार प्रदान करता था। उस कानून का मूल उद्देश्य पर्यावरण का संरक्षण नहीं बल्कि उसका दोहन था। विधि सलाहकारों के अनुसार, नये कानून का मूल स्वरूप लगभग वही है।

हालाँकि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर समन्वय स्थापित करने वाले कानून भी देश में क्रियान्वित किए गए हैं। इनके तहत वर्ष 2002 का जैव-विविधता कानून महत्वपूर्ण है। जैविक विविधता पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन का सदस्य होने के कारण, भारत में यह कानून लाया गया। यह कानून जैव-विविधता के संरक्षण, उसके तत्त्वों के टिकाऊ इस्तेमाल और जैविक संसाधनों के उपयोग से मिलने वाले लाभ के समान एवं उचित वितरण का प्रावधान करता है। यह ‘वन अधिनियम’ से भिन्न, ग्रामीण व जनजातीय लोगों की पर्यावरण संरक्षण में भागीदारी को महत्ता देता है। यह इस कार्य में उनके पारम्परिक ज्ञान एवं अनुभवों को पहचान कर उनके विस्तार को प्रोत्साहित करने का प्रावधान भी करता है।

देश की परम्पराओं में रची-बसी प्रकृति की यह धरोहर कभी हर घर के आँगन, पूजाघर या रसोई का हिस्सा हुआ करती थी। किन्तु बढ़ती मानव आबादी और आर्थिक लाभ व लोभ के कारण यह सबके घरों से ही नहीं बल्कि अपने मूल वास से भी गायब हो रही है। यकीनन, कुछ प्रयासों के साथ इस स्थिति में बदलाव आ सकता है। इसके संकेत हमें दिखने भी लगे हैं। हालाँकि असल बदलाव लाने के लिए हमें पर्यावरण के स्वस्थानी तरीके को ही अपनाना होगा क्योंकि विभिन्न वनस्पति प्रजातियाँ अपने अनुकूल वातावरण में ही फल-फूल सकती हैं। साथ ही, वनस्पति प्रजातियों के सम्बन्ध में स्थानीय जानकारी साझा करने, उनके दोहन को रोकने के उपाय सुझाने, कानूनों के उल्लंघन की खबरों का खुलासा करने और पर्यावरण को बचाने की मुहिम व निजी प्रयासों की प्रेरणा को लोगों तक पहुँचाने में फेसबुक, ट्विटर, यू-ट्यूब, ब्लॉग जैसे सोशल मीडिया टूल्स आज सभी को ऐसा मंच प्रदान करते हैं, जिनकी मदद से समाज में इस बदलाव का आह्वान सम्भव है।

(लेखिका कालिन्दी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग में असिस्टेण्ट प्रोफेसर हैं)
ई-मेल: rachna_130@yahoo.com

Path Alias

/articles/taakai-bacaa-rahae-jaivanadaayainai-kaa-jaivana

×