वैसे तो जंगलों को जल और पर्यावरण संरक्षण के लिए काफी अहम माना जाता है, लेकिन अल्मोड़ा के शीतलाखेत में स्थित स्याही देवी में मिश्रित जंगल का खत्म होना और नए किस्म के जंगल जल संकट पैदा कर रहा है। इस जंगल से पानी के विभिन्न स्त्रोत निकलते हैं, जिनमें जल की मात्रा साल दर साल कम होती जा रही है। जिससे आसपास के सैंकड़ों गांवों में जल संकट खड़ा होने की संभावना बनी हुई है। प्राकृतिक स्रोतों में पानी कम होने से पेयजल लाइनों पर दबाव अधिक बढ़ गया है। साथ ही जैवविविधता पर भी इसका काफी नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है, लेकिन जिम्मेदार विभाग ही इसके प्रति उदासीन बना हुआ है। जिसका खामियाजा प्रकृति और ग्रामीणों को भुगतना पड़ रहा है।
स्याही देवी के जंगल वाले क्षेत्र में बांज, उत्तीस, देवदार, बुरांश, काफल, अंगूर सहित विभिन्न प्रकार के चौड़ी पत्ती वाले वृक्षों का आच्छादन था। इन्हीं से ये क्षेत्र विभिन्न प्रकार के पशु-पशुओं और जीवों का आश्रय स्थल था। बाघ, भालू, गुलदार, हिरन, पहाड़ी हिरन सहित अनेक प्रकार के जानवर यहां विचरण करते थे। साथ ही चौड़ी पत्तियों के वृक्षों के कारण जंगल से निकलने वाले प्राकृतिक जल स्रोतों में पानी प्रचूर मात्रा में था। उस दौरान जल की विभिन्न पेजयल योजनाओं से अल्मोड़ा शहर को 6 इंच, शीतलाखेत कस्बे को 4 इंच और स्याहीदेवी मंदिर को पांच इंच पानी दिया जाता था। इसके साथ ही बोरा स्टेट, खरकिया, देवलीखान, कफलकोट, क्वैरौली आदि गांवों को भी पानी दिया जाता था।
नौले-धारे और गदेरे जैसे प्रकृतिक जल स्रोत पर्वतीय इलाकों की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहे हैं और लोगों द्वारा इन जल स्रोतों के नाम भी रखे जाते हैं। ऐसा ही एक एड़ा गदेरा है। इस गदेरे से कनार, शेर, खुडोली, चमस्यूं आदि गांवों को पानी दिया जाता था। पानी की परियोजनाओं के अलावा इस गदेरे में करीब 12 घराट भी थे। इसके अलावा स्वाहीदेवी के जंगल के निचले हिस्से से भी कई गदेरे व नौले निकलते थे, जिनसे सड़का, हरड़ा, ओलियागांव, बेड़गांव, गरसारी, पतलिया, सिद्धपुर, कुमान, रोन, डान, चाण, धारी, बिमौला, खूंट, धामस, नौला, सल्ला व चम्पाखाली सहित कई अन्य गांवों को भी पानी दिया जाता था। एक अनुमान के मुताबिक इस क्षेत्र में चौड़ी पत्ती वाले मिश्रित जंगल के कारण पहले इतना पानी हुआ करता था कि 40 से अधिक गांवों को लगभग 100 इंच पानी मिलता रहा है।
उस दौरान, यानी करीब 20 साल पहले तक इस क्षेत्र में प्रचूर मात्रा में पानी होने का कारण चौड़ी पत्ती वाला मिश्रित जंगल था। चौड़ी पत्ती वाले पेड़ों का बाहुल्य था। पानी के दुश्मन कहे जाने वाले चीड़ के पेड़ बिरले ही दिखते थे। जिस कारण मौसम खुशनुमा बना रहता था और मिट्टी में भी नमी रहती थी। सर्दियों में चार फीट तक बर्फ पड़ती थी। चौड़ी पत्ती वाले वृक्षों के कारण प्रकृति का संतुलन भी बना रहता था और स्थानीय बारिश भी काफी होती थी। लेकिन स्थानीय ग्रामीणों ने ईंधन व पशुओं के चारे के लिए चौड़ी पत्ती वाले जंगलों का अनियंत्रित दोहन शुरू कर दिया, जिस पर अंकुश लगाने का प्रयास वन विभाग या प्रशासन की तरफ से भी होता नहीं दिया। धीरे धीरे वक्त के साथ आबादी बढ़ती गई तो, एक विशाल आबादी का दबाव सीधे जंगलों पर पड़ा। अतिदोहन के कारण पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ने लगा। चौड़ी पत्ती वाले पेड़ लगातार कम होते चले गए। इन वृक्षों की जगह अब चीड़ के पेड़ों ने ले ली है और चौड़ी पत्ती वाले ये पेड़ काफी कम संख्या में ही बचे हैं। परिणामतः सैंकड़ों गांवों को पानी उपलब्ध कराने वाला एड़ी गदेरा मई और जून के महीने में पूरी तरह सूख जाता है। इसका प्रभाव विभिन्न पेयजल परियोजनाओं पर पड़ता है और ये सभी योजनाओं बिन पानी के ठप्प जाती हैं। इससे लोगों के सामने जल की किल्लत भयावह रूप धारण कर लेती है।
स्याहीदेवी में चौड़ी पत्ती के जंगल की जगह चीड़ का जंगल खड़ा होने से जंगलों में हर साल आग लगती है। नैसर्गिक आवास नष्ट होने से जीव-जंतु तो मानो गायब ही हो गए हैं। प्राकृतिक स्रोतों में हर साल पानी का स्तर कम होता जा रहा है। इसका प्रभाव पेयजल योजनाओं पर पड़ रहा है। आंशका जताई जा रही है यहां निकट भविष्य में पानी की बड़ी किल्लत शुरू हो सकती है और लोगों को बूंद बूंद पानी के लिए तरसना पड़ सकता है। ऐसे में प्रकृति का संरक्षण बेहद जरूरी हो गया है। इसके लिए सामूहिक प्रयास करने की जरूरत है। वैसे तो स्याहीदेवी विकास मंत्र अपने स्तर पर गांवों में महिला मंगल दल से संपर्क कर उन्हें प्रेरित कर रहा है। महिला मंगल दल नौला और महिला मंगल दल धामस ने इस ओर कदम भी बढ़ा दिया हैं। खाइयां आदि बनाकर जल संरक्षण का प्रयास किया जा रहा है। लेकिन फिलहाल चीड़ के जंगलों को चौड़ी पत्ती वाले जंगलों में बदलने की जरूरत है। इसके लिए चीड़ के पेड़ो के बीच जो खाली स्थान बड़ा होता है, वहां चौड़ी पत्ती वाले पौधों का रोपण किया जाना चाहिए। ईंधन के लिए हर पेड़ों के बजाए, सूखे पेड़ों को ही काटा जाए। चाल, खाल, चैकडैम बनाए जाएं। बांट के पेड़, जो जल संरक्षण की दृष्टि से काफी अहम माने जाते हैं, के कटान पर रोक लगनी चाहिए। शुरुआती तौर पर इन प्रकार के प्रयासों से काफी हद तक समस्या को कम करने में सहायता मिलेगी। लेकिन सबसे जरूरी है, रोपे गए पौधों की देखभाल करना। ये कार्य सभी गांवों को अपने अपने स्तर पर करना होगा और पेड़ों की देखभाल अपने बच्चों की तरह ही करनी होगी। तभी हम अपने पहाड़ों और भविष्य को सुरक्षित रख पाएंगे।
बदली हुई परिस्थितियों में पौधारोपण के बजाय ए.एन.आर से मिस्रित जंगलों का संरक्षण ,संवर्द्धन किया जाना श्रेयस्कर होगा।
सम्पादन सहयोग - हिमांशु भट्ट (8057170025)
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