स्वयंसेवी संस्थाओं की भूमिका

पुरानी गाँधीवादी संस्थाओं का विकास ढलान पर है और 1974 के छात्र आन्दोलन से उपजी संस्थाओं की धार भी संघर्ष के क्षेत्र में कुन्द होने लगी है। इन दोनों तरह की संस्थाओं में संघर्ष एक प्रमुख हथियार रहा है और इन्होंने कभी भी केवल आर्थिक उन्नति को विकास का मापदण्ड नहीं माना। दोनों ही सामाजिक विकास के लिए व्यवस्था परिवर्तन को लक्ष्य में रूप में देखते हैं और इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष ही एक मात्र रास्ता है। स्वयंसेवी संस्थाओं ने अक्सर आपदाग्रस्त क्षेत्रों में लोगों को मदद पहुँचाने में अभूतपूर्व भूमिका अदा की है। बहुत सी ऐसी संस्थाओं ने जरूरत के समय लोगों के साथ खड़े रह कर अपने सामाजिक दायित्व का प्रशंसनीय निर्वाह किया है। उन्होंने लोगों की जान उस समय बचाई है जबकि मौत निश्चित रूप से आपदा पीड़ितों के सामने खड़ी रहती है और उन्होंने अपने सद्-प्रयासों को विपत्ति के बाद भी पुनर्वास कार्यक्रमों के रूप में आगे बढ़ाया है। उन्होंने अस्थाई शरण स्थलों के निर्माण से लेकर स्थाई आवास, चिकित्सा व्यवस्था, भोजन, वस्त्र, कृषि कार्यों में सहायता और आपदा पीड़ितों के आर्थिक पुनर्वास की दिशा में अभूतपूर्व कार्य कर दिखाये हैं। बहुत सी संस्थाओं ने प्राकृतिक विपत्तियों का उपयोग लोगों तक पहुँचने के लिए सेवा और विकास के एक अवसर के तौर पर किया है और लोगों को अपने पैरों पर फिर से खड़ा होने की दिशा में अनुकरणीय प्रयास किये हैं।

इन स्वयंसेवी संस्थाओं की पृष्ठभूमि अलग-अलग रही है। इनमें से बहुत सी संस्थायें गांधी विचारधारा से प्रभावित होकर रचना और संघर्ष दोनों ही क्षेत्रों में काम कर रही हैं। बिहार में काम करने वाली बहुत सी स्वयंसेवी संस्थाओं की उत्पत्ति 1974 के छात्रा आन्दोलन से हुई है जहाँ उन्हें जय प्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रान्ति की विचारधारा ने प्रभावित किया था। आपातकाल के दौरान जेल में दूसरे प्रबुद्ध लोगों से सम्पर्क में आने के कारण इन्हें अपनी विचारधारा को सँवारने का भी अवसर मिला। बिहार में बहुत सी ईसाई मिशनरियों का भी राहत-पुनर्वास कार्यों में महत्वपूर्ण योगदान रहता है मगर उनका प्रभाव बिहार में छिटपुट क्षेत्रों तक ही सीमित रहता है। उसी तरह से रामकृष्ण मिशन या भारत सेवाश्रम संघ जैसी संस्थाएँ भी विपत्ति काल में लोगों की मदद करने के लिए आ जाती हैं। यह सभी संस्थाएँ किसी न किसी विचारधारा से प्रेरित होकर काम कर रही हैं। इनके अलावा बहुत सी स्वयंसेवी संस्थाएँ ऐसी हैं जो कि लोगों के आर्थिक विकास की दिशा में देखे और नापे जा सकने वाले परिवर्तन के लिए काम कर रही हैं। फिलहाल पुरानी गाँधीवादी संस्थाओं का विकास ढलान पर है और 1974 के छात्र आन्दोलन से उपजी संस्थाओं की धार भी संघर्ष के क्षेत्र में कुन्द होने लगी है। इन दोनों तरह की संस्थाओं में संघर्ष एक प्रमुख हथियार रहा है और इन्होंने कभी भी केवल आर्थिक उन्नति को विकास का मापदण्ड नहीं माना। दोनों ही सामाजिक विकास के लिए व्यवस्था परिवर्तन को लक्ष्य में रूप में देखते हैं और इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष ही एक मात्र रास्ता है। 1970 के दशक के अन्त में जो सोशल ऐक्शन ग्रुप अस्तित्व में आये उनके पीछे उनकी वैचारिक पृष्ठभूमि ही मुख्य थी।

लेकिन स्वयंसेवी संस्थाओं का जो मौजूदा स्वरूप अब उभर कर सामने आ रहा है वह अधिकांशतः आर्थिक विकास और सेवा क्षेत्र की दिशा में काम कर रहा है। संघर्ष का माध्यम अब धीरे-धीरे गौण होता जा रहा है। ऐसी स्वयं-सेवी संस्थाएँ देश के अन्दर से या विदेशों से भी संसाधनों की व्यवस्था करके विकास कार्यक्रम चलाती हैं और अब इनके लिए विचारधारा के बदले कार्यक्रम ज्यादा महत्वपूर्ण हो गये हैं। संस्थाओं की कार्य प्रणाली में यह परिवर्तन निश्चित रूप से उनकी दाता संस्थाओं की पहल पर हुआ है क्योंकि वैचारिक परिपक्वता, चेतना स्तर में वृद्धि और लगातार चलते रहने वाले संघर्ष एक तो बहुत लम्बे खिंचते हैं और दूसरे उनके फलाफल को नापना बहुत मुश्किल होता है। देशी और विदेशी दाता संस्थाओं को अब दिखाई पड़ने वाले परिणाम चाहिये जो कि संघर्ष में और सीमित समय में प्रायः नहीं के बराबर मगर आर्थिक कार्यक्रमों में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ते हैं। आखिर खोमचे लगाने वाला आदमी भी रात में परिवार के लिए चार पैसा कमा कर ही घर लौटता है। वह अगर वैचारिकता में पंफसेगा तो उसके परिवार का क्या होगा? वैसे भी विदेशी सहायता से चलने वाला वैचारिक संघर्ष टिकाऊ नहीं हो सकता। सरकार कभी भी इस तरह की संस्थाओं को अपनी माया समेट लेने के लिए कह सकती है। इसका नतीजा यह हुआ कि आपात काल के बाद में अस्तित्व में आये सोशल ऐक्शन ग्रुप के आर्थिक स्रोत सूखते गये और इन्हें मजबूर होकर निश्चित और समयबद्ध आर्थिक कार्यक्रमों को हाथ में लेना पड़ा। इस परिवर्तन में 10-12 वर्ष का समय लगा। अब विचारधारा और संघर्ष पीछे छूट गया और केवल आर्थिक कार्यक्रम महत्वपूर्ण हो गया। जिन संस्थाओं को अपने कार्यक्रम चलाने के लिए सरकार से पैसा मिलता था वह भी इसी गिरफ्त में आ गईं क्योंकि सरकार भी नहीं चाहती है कि उसी से संसाधन लेकर कुछ लोग हक की लड़ाई लड़ कर सरकार को ही परेशान करें। इस तरह से वह ‘दीवाने लोग’ जो कभी ‘दुनिया को बदलने के लिए’ ‘सिर से कफन बांध कर’ निकले थे, उनमें से अधिकांश अब मार्केट सर्वे में लग गये।

अब जब संघर्ष मुद्दा ही नहीं रहा तो आज से 25 वर्ष पहले अपने आप को स्वयंसेवी संस्था कहने वाले लोगों ने अपने नये नामकरण ‘गैर सरकारी संस्था’ (एन.जी.ओ.) को बिना किसी ना-नुकुर के स्वीकार कर लिया। अब ज्यादातर संस्थाएं अपने दाता संस्थाओं के कार्यक्रमों को चलाती हैं और इनकी सारी चिन्तन प्रक्रिया इन्हीं दाता संस्थाओं के पास गिरवी रखी हुई है। चिन्तन अब इनका काम नहीं रहा, यह काम अब दाता संस्थाएं करती हैं और अधिकांश गैर-सरकारी संस्थाएं अब अपने दाता संस्थाओं की फरमाबरदारी भर करती हैं। बहुत सी दाता संस्थाएँ और विभाग अब अपने विकास कार्यक्रमों का बाकायदा टेण्डर निकालते हैं और यह संस्थाएं अब टेण्डर भर कर और बैंक गारण्टी दे कर विकासमूलक कामों की ठेकेदारी करने लगी हैं। अब संस्था तो बिना संसाधन के चलेगी नहीं और संसाधन चाहिये तो ‘तख्त के सामने अदब से’ जाना ही पड़ेगा। आज बहुत ही कम स्वयंसेवी संस्थाओं में यह दम बचा है कि वह अपनी दाता संस्थाओं को रौब के साथ कह सकें कि उन्हें अमुक काम के लिए अपने तरीके से काम करने के लिए अनुदान चाहिये और अगर ऐसा नहीं होता है तो वह “यह लै अपनी लकुटि कमरिया” कह कर शान से बाहर आ जायें।

यही वजह है कि बाढ़ के प्रश्न पर अक्सर बहुत सी गैर-सरकारी संस्थाएँ साल-दर-साल राहत कार्यों में लगी रहती हैं और वह कभी अपने आप से यह सवाल नहीं पूछतीं कि आखि़र इस तरह के कार्यक्रम का अन्त क्या है और इस तरह का काम करके क्या कभी भी समस्या का समाधान किया जा सकेगा? यह भी सच है कि कोई भी पीड़ित परिवार किसी सरकार या किसी एन.जी.ओ. के भरोसे विपत्ति का सामना नहीं करता है।

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Post By: tridmin
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