स्वर्ण रेखा

मैं गुजरा हूँ उन खेतों से,
मंद बयार के अहरह झोंको में,
जहाँ गदराई हरीतिमा
झूम रही थी-
और अब मैं रुकता हूँ
और पीछे मुड़कर देखता हूँ-
वहाँ स्वर्ण-रेखा है-
सोने की लकीर, उसका
उत्फुल्ल जल
उस चट्टान पर उच्छल
जिस पर हम बैठे थे
और प्यार की बातें की थीं,
धूम-भूरे बादल से
कोमल तिपहरी में :
वे रहे हमारे पदचिन्ह
अँधराती बालू पर-
दो छोटे, चौड़े और बड़े पर
आधा चढ़े हुए
(दो सहोदरा साहसी आत्मा
एक दर्दीले विस्तार में)
प्यारी धरती उन्हें अपने वक्षस्थल पर
विदा-चिन्ह-सा धारण किए हुई।
अब हवा जागती है
शाम के सपने से,
और धान की बालियाँ
आनंदातिरेक में सर-सर करती हैं
केवल ऊँची-नीची शांत सड़क
मूक दर्शक है, पठार पर चढ़ती हुई
(किसी गद्यात्मक पंक्ति के
टूटे पद-विन्यास-सी)
उस सेतु की ओर
जो तन्वंगी स्वर्ण-रेखा के पुलिनों पर
योग के उरगासन-सा।
मैं रुककर सामने देखता हूँ,
धुँधली दूरी पर,
उस लंबी, बल खाती सड़क से आगे;
एक उसाँस छूट जाती है-
मैं फिर उन्हीं जलों को लौट नहीं सकता:
मैं यात्री हूँ।

‘कल्पना’-146, दिसंबर, 1963 में प्रकाशित

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