स्वर्धुनी वितस्ता

‘संसार में अगर कहीं स्वर्ग है,
तो वह यहीं है, यहीं है, यहीं है।’


सम्राट जहांगीर ने झेलम नदी के उद्गम को देखकर ऊपर का वचन कहा था। उसका यह वचन वहां के अष्टकोनी तालाब के पास पत्थर में खोद दिया गया है। सचमुच यह स्थान भू-स्वर्ग के पद के योग्य ही है। वेदकाल में इस नदी का नाम था बितस्ता।

जहां अंग-अंग में और रोम-रोम में प्राण फूंकता हुआ ठंडा मीठा पवन बहता है; जहां वनश्री अपने यौवन का पूरा-पूरा उन्माद प्रकट करती है, जहां के पहाड़ अपने सौंदर्य से मन में संदेह पैदा करते हैं कि ये पहाड़ हैं या रंगभूमि का परदा, और जहां-की शांति चैतन्य से भरी हुई है- वहीं से जेलम का उद्गम हुआ है। जहांगीर ने इस उद्गम-स्थान पर एक अष्टकोनी तालाब बनावाया है। और अंदर का पानी? वह तो मानो नीलमणि का अमृत-रस हो! देखते ही मन में आता है कि यहां नील में रंगे कपड़े किसी ने धो डाले हैं। किन्तु इतना स्वच्छ और मीठा पानी अन्यत्र कहां मिलेगा?

इस तालाब के एक ओर से सुन्दर, सीधी नहर बहती है, वही है हमारी वितस्ता-झेलम। इस स्वर्ग का आनंद लूटने के लिए मानों गंधर्व मछलियों का रूप धारण करके इस तालाब और नहर में नहाने के लिए उतरे हैं। ऐसी उसकी शोभा है। इस प्रदेश में मछलियों को पकड़ने की यदि सख्त मनाहीं न होती तो भला इस सौंदर्य की क्या दशा हो जाती? मैंने एक बड़ा बर्तन नहर में डुबों दिया तो उसी में नहर की पांच-सात मछलियां आ गई-इतनी भोली हैं वे। मैंने उनको फिर से नहर में छोड़ दिया।

इस स्थान को वेरीनाग कहते हैं। यहां से आगे खनबल नामक एक स्थान आता है। यहां से झेलम नदी नावें चलाई जा सकें इतनी बड़ी हो जाती है। खनबल के पास ही अनंतनाग नामक एक सुन्दर तालाब है। यहां से आगे सारी जमीन समतल है। कश्मीर की सारी घाटी इसी तरह चारों ओर सपाट है।

झेलम को सीधा चलने की सूझती ही नहीं। मोड़ लेती-लेती मंद गति से वह आगे बढ़ती है। उसके किनारे एक बड़ी वैभवशाली संस्कृति का विकास हुआ और अस्त भी हुआ। परन्तु वितस्ता आज भी जैसी की तैसी ही बहती है।

खनबल से आगे बीजब्यारा नामक एक स्थान आता है। वहां चिनार का एक खास पेड़ हमने देखा। नौ आदमियों ने हाथ फैलाकर उसको आलिंगन किया और उसके तने को नापा। ठीक चौपन फुट का घेरा था!

बीजब्यारा के मंदिर के बारे में हमने यहां एक मजेदार दंतकथा सुनी, जो अंग्रेज लेखकों ने भी लिख रखी है।

धर्मांध मुसलमान जब यह मंदिर तोड़ने के लिए आये, तब यहां के पुजारियों ने उनका न तो कोई विरोध किया, न धन देकर मंदिर को बचाने की बात की। उन्होंने कहा, “आइये, आइये मंदिर को तोड़ डालिये। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि यवन आयेंगे और मूर्ति का नाश करके मंदिरों को तोड़ डालेंगे। हमारे शास्त्रों में जो लिखा है, वह झूठा होने वाला नहीं है।” बुतशिकन गाजी को लगा, “इनका मंदिर यदि तोड़ेगे तो इन काफिरों के शास्त्र सच्चे साबित होंगे। इससे बेहतर तो यह है कि यह एक मंदिर छोड़ दिया जाय।” पता नहीं यह कहानी कहां तक सच है, किन्तु यह हमारे यहां के बनिये की कहानी जैसी चतुराई की कहानी जरूर है। और यह बात भी सही है कि बीजब्यारा का मंदिर मुसलमानों के आक्रमण या अमल के दरम्यान भी नहीं टूटा।

यहां से कुछ दूरी पर अनंतपुर नामक एक प्राचीन शहर जमीन के नीचे दबकर छोटी पहाड़ी बन गया है। खेतों में खोदते समय पुरानी सुन्दर कारीगरी, कई प्राचीन कोठियां और कोयला बना हुआ चावल यहां मिला है, जिन्हें मैंने खुद देखा है।

नदी इधर-उधर घूमती-घामती इतनी धीरे से बहती है कि पानी का प्रवाह मालूम ही नहीं होता। नदी के प्रवाह के विरुद्ध दिशा में जब जाना होता है तब पतवार चलाने के बजाय किश्ती की नाक को काफी लंबी डोरी बांधकर एक या दो आदमी किनारे पर से खींचते चलते हैं। किश्ती प्रवाह में ही चले, किनारे पर न आये, इसलिए नाव में बैठा हुआ मांझी हाथ में राही पतवार को टेढ़ा पकड़ रखता है।

कश्मीरी शालों के कोने पर आम के या काजू के आकार के जो बेलबूटे होते हैं वे यहां की कारीगरी की विशेषता हैं। कहते हैं कि झेलम के मोड़ देखकर यहां के कारीगरों को ये बेलबूटे सूझे। एक दफा हमने नदी में एक बंदर से चौदह मील की यात्रा की। इतने में पिछले बंदर पर जरा देरी से आया हुआ यात्री पैदल चलकर हमसे आ मिला। उसे केवल ढाई मील ही चलना पड़ा। इतने मोड़ लेती हुई यह नदी बहती है।

इन मोड़ों के कारण प्रवाह का जोर टूट जाता है और नदी का पात्र घिसता नहीं। जब बाढ़ आती है तभी सिर्फ ‘सर्वतः संप्लुतोद के’ जैसी स्थिति हो जाती है। यहां के प्राचीन इंजीनियर राजाओं ने बाढ़ के वक्त नदी को काबू में रखने के लिए ऐसे अनेक मोड़ तथा नहरे खोद रखी हैं।

यह इलाज इतना अकसीर है कि आज भी उसी का अनुकरण करना पड़ता है। एक बड़ी किश्ती में से सूअर के दांत के जैसा एक बड़ा राक्षसी हल नदी के तल की जमीन को चीरता हुआ जाता है और अंदर के कीचड़ को बिजली के पंप द्वारा बाहर फेंकता जाता है। यह सारी प्रवृत्ति ‘वराहमूलम्’ (आजकल का बारामुल्ला) क्षेत्र में देखने को मिलती है।

बारामुल्ला कश्मीर की घाटी के उस पार का सिरा है। वहां से आगे झेलम जोरों से दौड़ती है।

इस सारे प्रदेश के बीचों-बीच कश्मीर की राजधानी श्रीनगर है। जो नदी के दोनों किनारों पर बसी हुई है। नदी के ऊपर थोड़े-थोड़े अंतर पर सात पुल (कदल) बनाये गये हैं। इसके सिवा, दोनों ओर से शहर के अंदर तक नदी में से नहरें खोदी हुई होने के कारण अनायास ही शांत प्रवाही जलमार्ग मिलते हैं। नदी का मुख्य प्रवाह ही राजमार्ग है। बाकी की नहरें आकर इस राजमार्ग से मिलने वाले गौण रास्ते हैं। खुश्की रास्तों पर जिस प्रकार गाड़ियां दौड़ती है, उसी प्रकार यहां लंबी और सकरी ‘शिकारा’ किश्तियां तीर की तरह दौड़ती हैं। नदी में किश्तियों की चाहे जितनी धूमधाम हो, वह बिना आवाज की ही होती है।

दोपहर को जब महाराजा के मंदिर की पूजा पूरी होती है और अगले दिन के निर्माल्य फूल नदी के पाट पर फेंक दिए जाते हैं, तब ये फूल करीब आधे मिल तक आहिस्ता-आहिस्ता लम्बी हार में बहते हुए बड़े सुन्दर दिखाई देते हैं।

और इस नदी के किनारे चलने वाली प्रवृत्ति भी किस प्रकार की है! कहीं शतरंजियां बुनी जाती हैं तो कहीं अप्रतिम गालीचे। एक जगह अखरोट की लकड़ी पर सुंदर कारीगिरी का काम चल रहा है, तो दूसरी जगह रेशम का कारखाना भद्दे कीड़ों को उबालकर सुंदर मुलायम रेशम बना रहा है। चीन, तिब्बत तथा समरकंद और बुखारा के सौदागर यहां महीनों तक पड़ाव डाले पड़े रहते हैं और होशियार पंजाबी उनसे तिजारत करने में मशगूल रहते हैं। जहां देखें वहां हाथों से ज्यादा लम्बी बांहवाले कोट पहने हुए लोग घूमते नजर आते हैं।

आगे जाकर यही झेलम हिन्दुस्तान के बड़े-से-बड़े सरोवर वुलर में जा गिरती है और उसमें विलीन होकर गुप्त रूप से लम्बी यात्रा करके दूसरे छोर पर बाहर निकलती है और बारामुल्ला की ओर जाती है। वहां इस नदी में से एक कृत्रिम नहर पैदा करके जो बिजली तैयार की जाती है वहीं कश्मीर के राज्य को पर्याप्त शक्ति देती है। अबटाबाद के नजदीक यह नदी दिशा बदलती है और दौड़ती हुई आगे बढ़ती है। झेलम की सारी घाटी अपने सौंदर्य के लिए प्रख्यात है।

लोक कथा कहती है कि अकबर बादशाह इस घाटी के सौंदर्य के नशे में ऊपर से नीचे कूद पड़े थे। यह कवि-कल्पना भले हो, किन्तु घाटी को देखने पर इस तरह का नशा चढ़ना संभव तो अवश्य जान पड़ता है। ऐसी लोककथाएं किसी राजा के गौरव का वर्णन करने की अपेक्षा नदी के मोहक सौंदर्य की तारीफ करने के लिए ही अर्थवाद के तौर पर गढ़ ली जाती हैं।

जब हिन्दुस्तान का सच्चा इतिहास लिखा जायेगा, तब उसमें बड़ी-बड़ी नदियों के अनुसार देश के अलग-अलग विभाग बनाये जायेंगे। ऐसे इतिहास में झेलम की स्वर्गीय संस्कृति का विभाग मामूली नहीं होगा। सचमुच झेलम को स्वर्धुनी का ही नाम शोभा देता है।

1926-27
 

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