स्वच्छता की भारतीय परम्परा


स्वच्छता की भारत में एक प्राचीन परम्परा रही है। इस परम्परा के अनुरूप ही देश में ऐसी व्यवस्थाएँ विकसित की गई थीं जो न केवल भारतीय समाज के अनुकूल थी, बल्कि पर्यावरण और पारिस्थितिकी के लिये भी लाभकारी थी।

रोमन सभ्यता के पतन के बाद लम्बे समय तक यूरोप में शौचालयों की व्यवस्था का अभाव रहा। स्थिति इतनी विकट थी कि ग्यारहवीं शताब्दी तक लोग सड़कों पर मल फेंक दिया करते थे। कई स्थानों पर घरों में मल करने के बाद उसे खिड़की से बाहर फेंक दिया जाता था जिससे आने-जाने वालों को काफी असुविधा का सामना करना पड़ता था। इस काल में लोग कहीं भी मूत्रत्याग कर देते थे। सड़कों के किनारे से लेकर बेडरूम तक में। यूरोप में छठी शताब्दी से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक का काल अंधकार का काल था, जिसमें सर्वत्र अज्ञान और अंधविश्वास का बोलबाला था। इस पूरे कालखंड में मनुष्य के मल के निस्तारण की कोई उपयुक्त व्यवस्था पूरे यूरोप में कहीं नहीं थी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सत्ता में आते ही स्वच्छता अभियान की शुरुआत की। वे स्वयं सड़कों पर झाड़ू लेकर निकले और देशभर में नेताओं तथा अफसरों को झाड़ू लगाते देखा गया। पूरे देश में इसकी काफी चर्चा हुई। इसकी सफलता और विफलता को लेकर काफी बहसें भी की गई। परन्तु इस अभियान का एक सभ्यतामूलक एवं सांस्कृतिक आयाम भी है, जिसकी ओर कम ही लोगों ने ध्यान दिया है। स्वच्छता की प्राचीन और वैज्ञानिक भारतीय परम्परा की बजाय ऐसे सभी अभियान पाश्चात्य परम्परा के आधार पर संचालित किए जा रहे हैं। ऐसे में यह न केवल भारतीय संस्कृति के विरुद्ध है, बल्कि अवैज्ञानिक और अंत में पूरे समाज व प्रकृति के लिये हानिकारक सिद्ध होगा।

स्वच्छ भारत अभियान


भारत को स्वच्छ बनाने के लक्ष्य के साथ देश की राजधानी नई दिल्ली के राजघाट पर गत 02 अक्टूबर 2014 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की थी। इस अभियान के तीन लक्ष्य बताए गए थे - 02 अक्टूबर 2019 तक हर परिवार को शौचालय सहित स्वच्छता-सुविधा उपलब्ध कराना, ठोस और द्रव अपशिष्ट निपटान व्यवस्था, गाँव में सफाई और सुरक्षित तथा पर्याप्त मात्रा में पीने का पानी उपलब्ध करना।

उल्लेखनीय है कि केन्द्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम (सीआरएसपी) का प्रारम्भ वर्ष 1986 में राष्ट्रीय स्तर पर हुआ था और यह गरीबी रेखा से नीचे के लोगों के व्यक्तिगत इस्तेमाल के लिये स्वास्थ्यप्रद शौचालय बनाने पर केन्द्रित था। इसका उद्देश्य सूखे शौचालयों को अल्प लागत से तैयार स्वास्थ्यप्रद शौचालयों में बदलना, खासतौर से ग्रामीण महिलाओं के लिये शौचालयों का निर्माण करना तथा दूसरी सुविधाएँ जैसे हैंडपम्प, नहान-गृह स्वास्थ्यप्रद, हाथों की सफाई आदि था। यह लक्ष्य था कि सभी उपलब्ध सुविधाएँ ठीक ढंग से ग्राम पंचायत द्वारा पोषित की जाएँ। गाँवों में उचित सफाई व्यवस्था जैसे जल निकासी व्यवस्था, सोखने वाला गड्ढा, ठोस और द्रव अपशिष्ट का निपटान, स्वास्थ्य शिक्षा के प्रति जागरूकता, सामाजिक, व्यक्तिगत, घरेलू और पर्यावरणीय साफ-सफाई व्यवस्था आदि की जागरूकता हो।

इसके बाद ग्रामीण साफ-सफाई कार्यक्रम का पुनर्निर्माण करने के लिये भारतीय सरकार द्वारा वर्ष 1999 में भारत में सफाई के पूर्ण स्वच्छता अभियान (टीएमसी) की शुरुआत हुई। पूर्ण स्वच्छता अभियान को बढ़ावा देने के लिये साफ-सफाई कार्यक्रम के तहत जून 2003 के महीने में निर्मल ग्राम पुरस्कार की शुरुआत हुई। यह एक प्रोत्साहन योजना थी जिसे भारत सरकार द्वारा 2003 में लोगों को पूर्ण स्वच्छता की विस्तृत सूचना देने पर, पर्यावरण को साफ रखने के लिये साथ ही पंचायत, ब्लॉक और जिलों द्वारा गाँव को खुले में शौच करने से मुक्त करने के लिये प्रारम्भ की गई थी।

निर्मल भारत अभियान की शुरुआत वर्ष 2012 में हुई थी और उसके बाद स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत 02 अक्टूबर, 2014 में हुई। जबकि इसके पूर्व में भारतीय सरकार द्वारा चलाए जा रहे हैं सभी साफ-सफाई व्यवस्था और स्वच्छता कार्यक्रम वर्तमान 2014 के स्वच्छ भारत अभियान के जितना प्रभावकारी नहीं थे।

देश में इस तरह के स्वच्छता अभियानों को चलाते हुए अक्सर हम एक गलती करते हैं और वह है अपने लोगों को स्वच्छता के प्रति लापरवाह मानना और खुले में शौच करने को गंदगी और बीमारी का घर मानना। ये दोनों ही बातें शहरों के संदर्भ में तो सही हैं, परन्तु भारत के गाँवों के लिये पूरी तरह गलत हैं। खुले में शौच जाना, कोई नासमझी भरा कदम नहीं था, यह मजबूरी भी नहीं थी। भारत के लोगों को शौचालय बनाना न आता हो, ऐसा भी नहीं था। परन्तु फिर भी हमारे पूर्वजों ने खेतों और जंगलों में शौच जाना स्वीकार किया तो इसका भी कारण था। खुले में शौच जाना, खुले में स्नान करना परन्तु भोजन चौके के अंदर करना, यह भारतीय व्यवस्था का अंग था। आज इसके ठीक विपरीत आचरण किया जा रहा है। लोग शौच और स्नान तो बंद कमरे में कर रहे हैं, परन्तु खाना खुले में खा रहे हैं।

आज के नवबौद्धिक लोगों को यह बात हजम होनी थोड़ी कठिन है कि खुले में शौच जाना भी समझदारी का व्यवहार हो सकता है। समस्या यह है कि आज यह माना जाता है कि मनुष्य का सारा विकास पिछले तीन से चार सौ वर्षों में ही हुआ है और वह सारा विकास यूरोप के दयालु, उदार, बुद्धिमान और विद्वान लोगों ने किया है। इसलिये उससे पहले और वहाँ से इतर दुनिया में जो कुछ भी था, वह निरी जहालत के सिवा और कुछ भी नहीं थी। ऐसा पूर्वाग्रहग्रस्त इतिहास पढ़ने के कारण स्वाभाविक ही है कि हमें भारत की पुरानी व्यवस्थाएँ आदिम और असभ्य प्रतीत होंगी। सुखद बात यह है कि ध्यान देकर पढ़ने से हमारा यह भ्रम सरलता से दूर हो जाता है।

इस विषय को समझना शुरू करने से पहले महात्मा गाँधी की एक बात को जान लेना लाभकारी होगा। महात्मा गाँधी ने हिंद स्वराज में लिखा है, मैं मानता हूँ कि जो सभ्यता हिंदुस्तान ने दिखाई है। जो बीज हमारे पुरखों ने बोये हैं उनकी बराबरी कर सके, ऐसी कोई चीज देखने में नहीं आई।

हिंदुस्तान पर आरोप लगाया जाता है कि वह ऐसा जंगली, ऐसा अज्ञान है कि उससे जीवन में कुछ फेरबदल कराये ही नहीं जा सकते। यह आरोप हमारा गुण है, दोष नहीं। अनुभव से जो हमें ठीक लगा है, उसे हम क्यों बदलेंगे? बहुत से अकल देने वाले आते-जाते रहते हैं पर हिंदुस्तान अडिग रहता है। यह उसकी खूबी है, यह उसका लंगर है।

सभ्यता वह आचरण है जिससे आदमी अपना फर्ज अदा करता है। फर्ज अदा करने के माने है नीति का पालन करना। नीति के पालन का मतलब है अपने मन और इन्द्रियों को बस में रखना। ऐसा करते हुए हम अपने को (अपनी असलियत को) पहचानते हैं। यही सभ्यता है। इससे जो उल्टा है वह बिगाड़ करने वाला है।

हजारों साल पहले जो हल काम में लिया जाता था उससे हमने काम चलाया। हजारों साल पहले जैसे झोपड़े थे, उन्हें हमने कायम रखा। हजारों साल पहले जैसी हमारी शिक्षा थी वही चलती आई। हमने नाशकारक होड़ को समाज में जगह नहीं दी, सब अपना-अपना धंधा करते रहे। उसमें उन्होंने दस्तूर के मुताबिक दाम लिये। ऐसा नहीं था कि हमें यंत्र वगैरा की खोज करना ही नहीं आता था। लेकिन हमारे पूर्वजों ने देखा कि लोग अगर यंत्र वगैरा की झंझट में पड़ेंगे, तो गुलाम ही बनेंगे और अपनी नीति को छोड़ देंगे। उन्होंने सोच-समझकर कहा कि हमें अपने हाथ पैरों से जो काम हो सके वही करना चाहिये। हाथ पैरों का इस्तेमाल करने में ही सच्चा सुख है, उसी में तन्दुरुस्ती है। उन्होंने सोचा कि बड़े शहर खड़े करना बेकार की झंझट है। उनमें लोग सुखी नहीं होंगे। उनमें धूर्तों की टोलियाँ और वेश्याओं की गलियाँ पैदा होंगी। गरीब अमीरों से लूटे जायेंगे। इसलिये उन्होंने छोटे देहातों से संतोष माना।

महात्मा गाँधी मानते थे कि भारत की व्यवस्थाएँ सुविचारित हैं, बेवकूफी नहीं। भारतीय मनीषियों ने बड़े ही चिंतन के बाद समाज में व्यवस्थाएँ बनाईं। उन्होंने व्यक्तिगत जीवन को सरल से सरलतम बनाने का प्रयास किया और आडम्बर तथा कृत्रिमता को पूरी तरह दूर रखने का प्रयास किया। यह समझने की बात है कि भारतीय जीवनशैली मानवश्रम प्रधान थी। मानवश्रम प्रधान होने के कारण मानव की दिनचर्या सहज ही बन जाती है। भारतीय जीवनशैली की दिनचर्या में रात्रि में समय से सोना और प्रातः काल ब्रह्म मुहूर्त में जागना सहज ही शामिल था। ब्रह्म मुहुर्त का समय पूरे वर्षभर मुँहअंधेरे ही शुरू होता है। तात्पर्य है कि अंधेरे में लज्जा का विषय नहीं उठता।

दूसरी बात समझने की यह है कि शौच का सम्बन्ध भोजन से है। आप जैसा भोजन करेंगे, वैसा ही आपका शौच होगा। इसिलये ऋषियों ने भोजन के नियमन पर विशेष ध्यान दिया। उन्होंने आहार-विहार के विशेष नियम बनाए जिससे मनुष्य स्वस्थ रहे। एक बड़ी ही प्रचलित कहावत है - एक बार जाए, योगी, दो बार जाए भोगी और तीन बार या बार-बार जाए रोगी। इसका अर्थ है कि योगी व्यक्ति तो प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में केवल एक बार ही शौच जाता है, भोगी व्यक्ति को सुबह और शाम को दो बार शौच जाना पड़ता है और रोगी व्यक्ति ही दो से अधिक बार शौच जाता है। यहाँ योगी से अभिप्राय आहार-विहार के नियमों का पालन करने वाले व्यक्ति से है। वह गृहस्थ भी हो सकता है। ऐसे में बड़ी संख्या एक बार ही शौच निवृत्त हुआ करती थी और वह भी सवेरे-सवेरे मुँहअंधेरे।

समझने की बात यह है कि शाकाहार मनुष्य के मल को भी प्रभावित करता है। शाकाहारी के मल की तुलना में मांसाहारी का मल दुर्गंधयुक्त और हानिकारक होता है। देखा जाए तो जितने भी पालतू शाकाहारी पशु हैं, उन सभी के मल खाद का काम करते हैं। गाय-भैंसों का गोबर हो या फिर बकरी की मींग, सभी मिट्टी के लिये लाभकारी होते हैं। यही बात मनुष्य के मल पर भी लागू होती है। परन्तु मांसाहारी होते ही मल की प्रकृति बदल जाती है और वह पर्यावरण के लिये नुकसानदेह हो जाता है। इसलिये भारतीय ऋषियों ने शाकाहारी होने पर अधिक जोर दिया।

इस प्रकार खुले में शौच जाना कोई अव्यस्था नहीं थी, बल्कि इसके पीछे एक वैज्ञानिक सोच थी। हालाँकि अधिक जनसंख्या घनत्व वाले इलाकों के लिये यह व्यवस्था उपयुक्त नहीं थी। इसलिये नगरों के लिये शौचालय भी विकसित किये गये। भारतीय मनीषियों ने दोनों प्रकार की व्यवस्थाएँ की थीं। परन्तु उनका जोर प्रकृति के अधिकाधिक नजदीक रहने पर था। साथ ही उनका प्रयास था कि व्यक्ति अपना आहार-विहार सही रखे। इसलिये उन्होंने प्राथमिकता खुले में शौच जाने को दी। कालांतर में लोगों ने खुले में शौच जाना तो स्मरण रखा, परन्तु इसके लिये उपयुक्त आहार-विहार पर ध्यान नहीं दिया। परिणामतः जो व्यवस्था मानव-स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिये लाभकारी होना चाहिए थी, उससे इन दोनों को ही नुकसान होने लगा।

आज के परिप्रेक्ष्य में अगर हम देखें तो स्वाधीनता प्राप्ति के बाद पिछले 68 सालों में हमने केवल नगरीय सभ्यता के विकास पर ही जोर दिया है। नगरीय सभ्यता के लिये शौचालय अनिवार्य हैं। इसलिये आज का स्वच्छता अभियान काफी महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है। परन्तु यह अभियान तभी सफल हो सकता है, जब इसे भारत की पारम्परिक व्यवस्था के पूरक के रूप में प्रयोग किया जाए। यदि इसे हम भारतीय व्यवस्था के विकल्प के रूप में प्रयोग करेंगे तो एक बार फिर समस्या में फँसेंगे। भारत की पारम्परिक व्यवस्था उचित आहार-विहार और अति प्रातःकाल वनों या खेतों में शौच निवृत्ति की है। इसकी किसी भी कारण से निंदा या तिरस्कार नहीं किया जाना चाहिए। हाँ, इसके पूरक के रूप में शौचालयों की व्यवस्था अवश्य की जानी चाहिए।

शौचालय और उनके टैंकों में भरे मलों का निस्तारण भी एक बड़ी समस्या ही है। विशेषकर गाँवों में जहाँ पीने का पानी भी दूर से भरकर लाना पड़ता है, शौचालय के लिये अलग से पानी की व्यवस्था करना और भी कठिन कार्य साबित होगा। ऐसे में पानी के अभाव में शौचालय ही रोग का घर बन जाएँगे। साथ ही यदि पूरे गाँव को शौचालय की आदत पड़ गई तो ये शौचालय पूरे गाँव का बोझ उठा नहीं पाएँगे। इसलिये इस व्यवस्था का उपयोग केवल पूरक के तौर पर किया जाना ही उचित होगा।

वास्तव में देखा जाए तो स्वच्छता अभियान हो या फिर निर्मल भारत अभियान, भारत सरकार के ये सभी अभियान संयुक्त राष्ट्र के मिलेनियम डवलपमेंट गोल यानी की सहस्राब्दी विकास लक्ष्य का हिस्सा हैं। ये योजनाएँ भले ही हमारी सरकारें बना रही हों, लेकिन इनके पीछे का हेतु संयुक्त राष्ट्र तय कर रहा है। यही कारण है कि कभी देवालय से अधिक जरूरी हैं शौचालय जैसे बयान सुनने को मिलते रहे हैं। हम पाते हैं कि स्वच्छता के ये सारे ही विचार और अभियान केवल और केवल शौचालय के निर्माण से जुड़े हुए हैं। हालाँकि मोदी सरकार के स्वच्छ भारत अभियान का लक्ष्य भी शौचालयों का निर्माण है, परन्तु इस अभियान में स्वच्छता के प्रति व्यापक समझ विकसित करने और जागरूकता पैदा करने का एक अभिनव प्रयास भी किया जा रहा है। सड़कों के किनारे मूत्रत्याग करने वाले सूसू कुमार की बात हो या बच्चे-बच्चे को स्वच्छता सिखाने की बात हो, सरकार यह प्रयास कर रही है कि लोग गंदगी फैलाना कम करें। उनमें सफाई का भाव पैदा हो। यही इसकी विशेषता है।

आज आवश्यकता है कि हम संयुक्त राष्ट्र के निर्देश से ऊपर उठकर अपनी परम्परा के अनुसार और धर्म के पाँचवें लक्षण शौच के पालन के प्रयास के रूप में स्वच्छता अभियान चलाएँ। भारतीय परम्परा में धर्म का पाँचवाँ लक्षण शौच को बताया गया है। इसी प्रकार योगाभ्यासी के लिये दूसरी सीढ़ी नियम के पाँच लक्षणों में भी पहला लक्षण शौच ही है। इस प्रकार धर्म का पालन करना हो या फिर योग साधना द्वारा जीवन्मुक्ति पानी हो, भारतीय मनीषियों ने शौच यानी कि अंतः और बाह्य स्वच्छता को अत्यावश्यक माना है। स्वाभाविक ही है कि भारतीयों ने हमेशा से स्वच्छता और स्वास्थ्य को जोड़ कर देखा है और उसका पालन भी किया है। आज आवश्यकता है कि लोगों को उनके इसी धर्म की याद दिलाई जाए। उसके पालन के प्रति उन्हें जागरूक किया जाए। तभी यह स्वच्छता अभियान सफल हो सकता है।

शौचालय का इतिहास


विश्व इतिहास में सबसे पहले वर्ष 2000 बी.सी. में भारत के पश्चिमोत्तर क्षेत्र (इसमें वर्तमान पाकिस्तान भी शामिल है) में सिंधु घाटी सभ्यता में सीवर तंत्र के अवशेष पाए गए। इन शौचालयों में मल को पानी द्वारा बहा दिये जाने की व्यवस्था थी। इन्हें ढंकी हुई नालियों से जोड़ा हुआ था। इस कालखण्ड में विश्व में और कहीं भी ऐसे शौचालयों का कोई विवरण नहीं मिलता। ईसा पूर्व 1200 में मिश्र में शौचालय मिलते हैं, परन्तु उनमें मिट्टी के पात्रों में शौच किया जाता था, जिसे बाद में दासों द्वारा खाली किया जाता था। ईस्वी संवत पहली शताब्दी में रोमन सभ्यता में शौचालय मिलते हैं। इस काल में अवश्य शौचालय की अच्छी व्यवस्था पाई जाती है। समझा जाता है कि ग्रीस में भारत से जो ज्ञान पहुँचा था, उसकी ही व्यावहारिक परिणति रोमन सभ्यता में पाई जाती है। प्रकारांतर से रोम में शौचालयों की व्यवस्था भारत की ही देन कही जा सकती है।

रोमन सभ्यता के पतन के बाद लम्बे समय तक यूरोप में शौचालयों की व्यवस्था का अभाव रहा। स्थिति इतनी विकट थी कि ग्यारहवीं शताब्दी तक लोग सड़कों पर मल फेंक दिया करते थे। कई स्थानों पर घरों में मल करने के बाद उसे खिड़की से बाहर फेंक दिया जाता था जिससे आने-जाने वालों को काफी असुविधा का सामना करना पड़ता था। इस काल में लोग कहीं भी मूत्रत्याग कर देते थे। सड़कों के किनारे से लेकर बेडरूम तक में। यूरोप में छठी शताब्दी से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक का काल अंधकार का काल था, जिसमें सर्वत्र अज्ञान और अंधविश्वास का बोलबाला था। इस पूरे कालखंड में मनुष्य के मल के निस्तारण की कोई उपयुक्त व्यवस्था पूरे यूरोप में कहीं नहीं थी।

प्रसिद्ध इतिहासकार भगवान सिंह बताते हैं कि भारतीय सभ्यता में प्रारम्भ से ही शौचालयों की बजाय खुले में शौच जाने को प्राथमिकता दी जाती रही है। यदि राजपरिवारों में शौचालय बनाए भी गए तो उसका एक खास प्रारूप विकसित किया गया था। इसमें जमीन में गहरा गड्ढा करके उसमें एक के ऊपर एक करके 8-10 मिट्टी के घड़ों की श्रृंखला बनाई जाती थी। प्रत्येक घड़े के तल में छेद होता था। इस प्रक्रिया में पानी और मिट्टी की अभिक्रिया द्वारा मल पूरी तरह मिट्टी में ही मिल जाता था। उसे बाहर फेंकने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी।

मुस्लिमों के आक्रमण के बाद अवश्य शौचालय बनाए जाने लगे। मुस्लिम बादशाहों ने अपनी बेगमों को परदे में रखने के लिये महलों के अंदर ही शौचालय बनवाए, परन्तु उन्हें शौचालय बनाने की कला ज्ञात नहीं थी। साथ ही वे इस्लाम न स्वीकार करने वाले हिंदू स्वाभिमानियों का मानभंग भी करना चाहते थे। इसलिये उन्होंने ऐसे शौचालय बनवाए, जिनमें मल के निस्तारण की कोई व्यवस्था नहीं होती थी। उन शौचालयों में से मल को मनुष्यों द्वारा ही उठाकर फेंकवाया जाता था। इस घृणित कार्य में मुस्लिम बादशाहों ने उन्हीं स्वाभिमानी हिंदू जाति के लोगों को लगाया जो किसी भी हालत में इस्लाम स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं थे। उन लोगों को भंगी कहा गया जो कालांतर में अछूत कहलाए। मुस्लिम बादशाहों से यह लगत परम्परा उनके हिंदू दरबारियों में पहुँची और इस प्रकार हिंदू लोगों में भी घरों में शौचालय और उनका मल उठाने के लिये मनुष्यों को नियुक्त करने की गलत परम्परा शुरू हो गई।

इस प्रकार शौचालयों की व्यवस्थित विज्ञान का ज्ञान रखने वाले भारत में मनुष्य द्वारा ही मनुष्य का मल उठाने की घृणित प्रथा की शुरुआत हुई। इसका अंत बाद में अंग्रेजों ने आकर किया परन्तु उन्होंने इसे भारतीय समाज के दोष के रूप में देखा। उन्होंने इसके पीछे के इतिहास को जानने और समझने की कोशिश नहीं की। उलटे उन्होंने इसके बहाने समाज में फूट पैदा करने की कोशिशें की। वे काफी हद तक सफल भी रहे। आज भी दलित आंदोलन अछूत-समस्या के मूल को समझे बिना चलाया जा रहा है। दुखद यह है कि, जिन कट्टरपंथी और साम्राज्यवादी मुसलमान शासकों ने इसकी शुरुआत की, जिन कट्टरपंथी और साम्राज्यवादी मुसलमान शासकों ने इसकी शुरुआत की, आज का दलित आंदोलन उसी मानसिकता के मुस्लिम राजनीति के साथ मिलने की कोशिशों में भी जुटा हुआ है। शौचालयों का इतिहास यदि पढ़ा जाए तो इस समस्या का भी समाधान निकल सकता है।

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