पूरे विश्व और खासतौर से भारत जैसे विकासशील देशों में पर्यावरण की समस्या विकट होती जा रही है। एक तरफ वनों का विनाश हो रहा है तो दूसरी ओर जनसंख्या विस्फोट के कारण सभी जगह भीड़ बढ़ती जा रही है। गंदगी का साम्राज्य फैलता जा रहा है। शुद्ध वायु और साफ पानी उपलब्ध होना कठिन हो गया है, जबकि दोनों मानव जीवन की पहली आवश्यकता है। इनके बिना न तो प्राणी जीवित रह सकते हैं न ही वनस्पतियाँ उग सकती हैं।
भारत की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश की आबादी 30 करोड़ थी जो आज बढ़ कर लगभग 86 करोड़ हो गई है, और यदि यही रफ्तार जारी रही तो इस शताब्दी के अंत तक यह एक अरब के आस-पास हो जाएगी। शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में जनसंख्या बढ़ी है। कस्बे नगर बन गए हैं और नगर महानगर में तब्दील हो गए हैं। गाँव चट्टों अथवा कस्बों के रुख ले रहे हैं। शिक्षा के प्रचार-प्रसार, औद्योगिक विकास और व्यापार में वृद्धि के कारण ग्रामीण जनसंख्या की तुलना में शहरी जनसंख्या में अधिक वृद्धि हुई हैं। शहरों में बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी हो गई हैं, तो साथ-साथ झुग्गी-झोपड़ियाँ भी विकसित हुई। बड़े शहरों और महानगरों में झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों की संख्या लाखों में है। यही नहीं इन नगरों में हजारों लोग फुटपाथ, पार्क, प्लेटफॉर्म, बस अड्डा, धार्मिक स्थल और बाजार जैसे सार्वजनिक स्थानों पर रात गुजारने के लिये विवश हैं। हजारों लोग रिक्शा चलाकर, फेरी लगाकर, भवन निर्माण में मजदूरी कर और दिहाड़ी पर काम पर अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं। इसके अलावा प्रतिदिन हजारों-लाखों लोग खरीद-फरोख्त करने के लिये गाँवों और कस्बों से शहरों और महानगरों में पहुँचते हैं। ऐसे लोगों के लिये शौच और स्नान करने के लिये कोई खास व्यवस्था नहीं है। जो है भी वह अपर्याप्त है। ऐसी स्थिति में नहीं चाहते हुए भी लोग शौच के लिये रेल पटरियों, सड़कों नालियों, नदी-नहरों के तटों का इस्तेमाल करते हैं। जिसका परिणाम गंदगी का फैलाव होता और रिहायशी इलाकों में पर्यावरण दूषित होता है। इससे पूरा वातावरण गंदा हो गया है। इन इलाकों में रहने वाले सभी लोगों का चाहे वे झोपड़ियों में रहते हों या गगनचुम्बी इमारतों में, जीवन दूभर हो गया है। इन इलाकों में पैदल चलना-फिरना तो कठिन होता ही है। लोग तरह-तरह की बीमारियों के शिकार भी हो रहे है। स्वच्छ वातावरण के अभाव में उनमें हीन भावना पैदा हो रही है।
ग्रामीण क्षेत्रों में भी स्थिति कोई भिन्न नहीं है। जनसंख्या विस्फोट के कारण गाँवों का आकार बड़ा हो गया है। खेत-खलिहान सिकुड़ गए हैं। लोगों को शौच, स्नान इत्यादि के लिये उपयुक्त जगह नहीं मिल पाती। गरीब घर की महिलाओं की दशा तो और बुरी है। अनेक गाँवों में स्नान लायक पानी की बात तो दूर रही, पीने का साफ पानी भी उपलब्ध नहीं है।
समस्या केवल शौच और स्नान के लिये उपयुक्त स्थान उपलब्ध कराना ही नहीं है बल्कि मानव मल और दूषित जल का निरापद निपटारा करना भी है ताकि वातावरण साफ-सुथरा और स्वच्छ रहे। दूषित जल के प्रवाह के लिये सीवर व्यवस्था सबसे कारगर व्यवस्था है। लेकिन यह न केवल एक महंगी व्यवस्था बल्कि सभी नगरों में उपलब्ध भी नहीं है, गाँवों की बात तो दूर रही। भारत में सीवर व्यवस्था सबसे पहले 1870 में आरम्भ की गई। लगभग सवा सौ वर्षों के बाद भी 4689 कस्बों और शहरों में से केवल 232 कस्बों और शहरों में यह सुविधा विद्यमान है। उचित रख-रखाव के अभाव में उनका हाल खस्ता है। यही नहीं सभी घर सीवर प्रणाली से जुड़े नहीं हैं। तथा उपनगरों में सीवर व्यवस्था नहीं है।
सेप्टिक टैंक व्यवस्था अपने स्थान पर ही मल-निपटान व्यवस्था का एक विकल्प है। लेकिन यह भी एक अधिक लागत वाली व्यवस्था है। हर साल-दो साल में टैंक की सफाई करनी पड़ती है। कीचड़ को दूर ले जाकर निरापद स्थान पर विसर्जित करना पड़ता है। इससे दुर्गंध फैलती है।
अब प्रश्न यह उठता है कि ऐसी परिस्थिति में इस समस्या का समाधान क्या है। वातावरण को दूषित होने से कैसे बचाया जाए? पर्यावरण की सुरक्षा कैसे की जाए। शौचालय निर्माण के क्षेत्र में सरकार और कई स्वयंसेवी संगठन कार्यरत हैं। केन्द्रीय सरकार ने इसके लिये कई कार्यक्रम शुरू किए हैं।
केन्द्रीय प्रायोजित ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम के अन्तर्गत शौचालय की एक इकाई के निर्माण की लागत केन्द्र सरकार, राज्य सरकार तथा लाभार्थी द्वारा 40ः40ः20 के अनुपात में वहन की जाती है। इकाई लागत का निर्धारण राज्य सरकार सम्बंधित कार्यान्वयन विभाग द्वारा किया जाता है। राज्य सरकारों को 250 रुपये की इकाई निर्माण लागत पर लक्षद्वीप और अंडमान व निकोबार द्वीप समूह को छोड़कर, जहाँ अनुमोदित लागत अधिक है और उसका 40 प्रतिशत संघशासित क्षेत्र को अनुदान के रूप में दिया जाता है, अधिकतम 100 रुपये प्रति इकाई की दर से केन्द्रीय अनुदान अनुदेय है।
डी/705, एम एस एपार्टमेंट, कस्तूरबा गांधी मार्ग, नयी दिल्ली-110 001
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