स्वच्छ गाँव जो कवि मन भाये


ध्यान देने वाली बात यह है कि उत्तर पूर्व का ही एक राज्य है सिक्किम जिसने 2008 में ही खुले में शौच से खुद को पूर्णतः मुक्त घोषित कर दिया था। अभी हाल ही में मेघालय के 324 गाँवों को खुले में शौच से मुक्त घोषित कर दिया गया है। अद्यतन सूचना के अनुसार बीते वर्ष में पूरे देश में सर्वाधिक शौचालयों का निर्माण का श्रेय राजस्थान को गया, जहाँ लगभग 20 लाख शौचालयों का निर्माण हुआ। दूसरे स्थान पर पश्चिम बंगाल रहा जिसने लगभग 13 लाख शौचालय बनवाए। तीसरे स्थान पर 9 लाख शौचालयों के साथ मध्य प्रदेश रहा। हमारे देश में गाँव कविता के विषय के रूप में कवियों को आकर्षित करता रहा है। मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियाँ तो जगप्रसिद्ध रही हैं –

‘अहा! ग्राम जीवन भी क्या है। क्यों न इसे सबका जी चाहे।’

इसी तरह सुमित्रानंदन पंत ने ग्राम्य जीवन को शब्द दिये हैं। पर यदि व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी के शब्दों में कहें तो आज गाँव में शस्यश्यामला वगैरह के अलावा गन्दा पानी, मच्छर तथा कीचड़ भी हैं। लेकिन खुले में शौच की जो समस्या गाँवों में है वह अत्यन्त शोचनीय है।

1970 के दशक के उत्तरार्ध में जब मैं अपने गाँव के एक सरकारी उच्च विद्यालय में पढ़ रहा था तब यह बात मेरी कल्पना के परे थी कि विद्यालय में शौचालय भी हो सकता है। बड़ी मुश्किल से हमारे विद्यालय में लड़कियों के लिये उनके कॉमन रूम में एक शौचालय का निर्माण हुआ। इसलिये जब 2015 के जुलाई महीने में मुझे केन्द्रीय पर्यवेक्षक के रूप में तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली जिले के गाँवों में सरकारी विद्यालयों में हो रहे शौचालयों के निर्माण के निरीक्षण के लिये मनोनीत किया गया तो मैं आश्चर्यचकित रह गया। कैसे इस विषय को इतना महत्त्व मिल गया! दरअसल तीन सौ से आस-पास निदेशक स्तर के केन्द्रीय प्रवेक्षकों को इस काम के लिये दिल्ली से सभी राज्यों में भेजना एक क्रान्तिकारी और अनूठा निर्णय था।

ध्यान देने वाली बात यह है कि खुले में शौच के कारण तरह-तरह की बीमारियाँ फैलती रहीं और भारत के स्वास्थ्य संकेतक पड़ोसी देशों के स्वास्थ्य संकेतकों से भी कमतर रहे। बीमार पड़ना गरीब के ऊपर दोहरी मार होती है, क्योंकि एक तो बीमारी का खर्च वहन करना पड़ता है दूसरे, रोजी भी जाती रहती है। इस तरह गरीब को गरीब बनाए रखने में बीमारी का बड़ा हाथ है।

अन्ततः इस सब का असर हमारी राष्ट्रीय उत्पादकता पर पड़ता है। इसके अलावा गन्दगी के कारण हम पर्यटकों को आकर्षित करने में यदि विफल रहते हैं तो इससे भी गरीबों को ही नुकसान है क्योंकि पर्यटक उनके रोजगार की सम्भावनाओं को बढ़ा देता है।

महिलाओं के लिये तो घर में शौचालय का होना किसी वरदान से कम नही हैं। उनके आत्म-सम्मान, निजता तथा सशक्तिकरण के लिये इससे बड़ा कोई और साधन नहीं हो सकता। बीमार होने या बरसात के समय इनके लिये खुले में शौच की समस्या जान को जोखिम में डालने से कम बड़ी नहीं है।

एक महिला प्रशासनिक अधिकारी ने, जिन्हें अक्सर गाँवों में दौरे पर जाना होता था, बताया कि वह शौचालयों की उपलब्धता के बारे में पहले ही पता कर लेती थीं और शौचालय उपलब्ध न होने की स्थिति में गाँवों से कम-से-कम समय में वापस आना चाहती थीं। आज के युग में महिलाओं की ऐसी लाचारी और बेबसी बहुत कम देशों में देखने को मिलती है।

करीब एक दशक पूर्व बांग्लादेश के एक गाँव में सार्वजनिक स्थानों पर रात में बिजली की रोशनी का प्रबन्ध किया गया। दूसरे दिन जब स्थानीय अधिकारी उत्सुकतावश गाँव के लोगों की प्रतिक्रिया जानने के लिये आये तो जहाँ पुरुषों ने अपनी खुशी जाहिर की वहीं महिलाएँ दुखी नजर आईं। कारण पूछने पर पता चला कि रोशनी की वजह से उन्हें शौच के लिये बाहर निकलने में परेशानी होती है। इसलिये बड़े-बड़े महलों के निर्माण से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है शौचालय का निर्माण। क्योंकि साधनहीन लोगों के लिये इससे बड़ी कोई और बात हो ही नहीं सकती कि उनके घर में भी शौचालय हो।

आजादी के सात दशक के बाद अब लगने लगा है कि यह देश खुले में शौच वाला देश नहीं रहेगा। वैसे तो शौचालय को लेकर सबसे पहले 1999 में स्वच्छता कार्यक्रम लागू किया गया जिसे 2004 से ‘निर्मल भारत’ के नाम से जाना गया और धीरे-धीरे इस पर अमल भी होता रहा। परन्तु वर्तमान सरकार में इस काम को जैसी प्राथमिकता हासिल हुई है वह अभूतपूर्व है। इसने अब एक राष्ट्रीय आन्दोलन की शक्ल अख्तियार कर ली है।

इस अभियान की शुरुआत महात्मा गाँधी के जन्मदिन पर 2 अक्टूबर 2014 को हुई। ग्रामीण क्षेत्रों में पहले साल में यानी अक्टूबर 2014 से अक्टूबर 2015 तक, इससे पहले पिछले वर्ष की तुलना में, शौचालय निर्माण में अप्रत्याशित 446 प्रतिशत की वृद्धि हुई। गाँवों के शत-प्रतिशत सरकारी विद्यालयों में तो शौचालयों का लक्ष्य अगस्त-2015 में ही हासिल कर लिया गया था।

यदि वित्तीय वर्ष के हिसाब से आँकड़ों पर नजर दौड़ाएँ तो ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ वर्ष 2014-15 में लगभग 59 लाख घरों में शौचालय बनाए गए वहीं वर्ष 2015-16 में यह संख्या बढ़कर लगभग 98 लाख हो गईं जो पिछले वर्ष की तुलना में 70 प्रतिशत अधिक है। जबकि यह आँकड़ा फरवरी महीने तक का ही है। अतः इसके एक करोड़ के पार जाने में कोई सन्देह नहीं होना चाहिए।

2015 के अगस्त महीने में सरकार ने जानकारी दी कि ग्रामीण क्षेत्रों में 46 प्रतिशत घरों में शौचालय की सुविधा नहीं है। शौचालय निर्माण की तीव्र गति से आशा बँधती है कि सरकार 2 अक्टूबर 2019 से पहले ही अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकती है। इसके पर्याप्त आधार हैं।

जनवरी 2016 में इन्दौर मध्य प्रदेश का पहला खुले में शौच से मुक्त जिला बना। इसी तरह उत्तराखण्ड में खुले में शौच करने वाले लोगों की संख्या में सिर्फ एक साल में पाँच प्रतिशत अंक की गिरावट आई है यानी लगभग 25 प्रतिशत से घटकर 20 प्रतिशत। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, कर्नाटक, मेघालय इस अभियान में अग्रणी राज्य हैं। मदुरई की सौ पंचायतें खुले में शौच से मुक्त हो गई हैं। वैसे भी शौचालय निर्माण में दक्षिण और उत्तर पूर्व के कुछ राज्यों की स्थिति पहले से ही अच्छी रही है।

ध्यान देने वाली बात यह है कि उत्तर पूर्व का ही एक राज्य है सिक्किम जिसने 2008 में ही खुले में शौच से खुद को पूर्णतः मुक्त घोषित कर दिया था। अभी हाल ही में मेघालय के 324 गाँवों को खुले में शौच से मुक्त घोषित कर दिया गया है। अद्यतन सूचना के अनुसार बीते वर्ष में पूरे देश में सर्वाधिक शौचालयों का निर्माण का श्रेय राजस्थान को गया, जहाँ लगभग 20 लाख शौचालयों का निर्माण हुआ। दूसरे स्थान पर पश्चिम बंगाल रहा जिसने लगभग 13 लाख शौचालय बनवाए। तीसरे स्थान पर 9 लाख शौचालयों के साथ मध्य प्रदेश रहा। वैसे तो इस महती कार्य में अनेक लोगों तथा संस्थाओं का हाथ है पर प्रचार की दृष्टि से रेडियो और टीवी का विशेष योगदान है। इस बाबत विद्या बालन की अपील भी सराहनीय है।

अब सरकार की कोशिश है कि गाँवों में सबके पास खाना पकाने के लिये गैस सिलेंडर उपलब्ध हो। एक विचार यह भी सामने आ रहा है कि बिजली से खाना पकाने की सुविधा भी मुहैया कराई जाये। माध्यम चाहे जो भी हो पर पारम्परिक ईंधन जैसे लकड़ी, खर-पतवार के प्रयोग के अनेक नुकसान हैं। इनके प्रयोग के कारण गाँवों में स्वच्छता सुनिश्चित नहीं कराई जा सकती। इसलिये जितनी जल्दी यह काम भी हो उतना ही अच्छा। इन प्रयासों से आशा की जानी चाहिए कि एक बार फिर गाँव कवियों को भाने लगेगा। और वे स्वच्छ गाँव के गीत गुनगुनाएँगे।

यह लेखक का अपना मत है।

(लेखक प्रसार भारती से जुड़े हैं)

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