स्वच्छ भारत पर संशय!

Swachh Bharat
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स्वच्छता अभियान के साथ-साथ निर्मित हों बुनियादी ढांचे
.वर्ष 1937 में प्रकाशित अपने शोध पत्र ‘द फैंटेसी ऑफ डर्ट’ में लारेंस क्यूबी ने उचित ही कहा था की लोग गीली गंदगी को सूखी गंदगी की तुलना में अधिक गंदा समझते हैं। यही कारण है कि सफाई स्वयंसेवकों से सूखे कचरे को बुहारने का कहना आसान है, लेकिन उन्हें किसी के यहां जाकर जूठे बर्तन मांजने या टायलेट्स साफ करने के लिए राजी करना बहुत कठिन है। महात्मा गांधी यह बड़ी आसानी से कर सकते थे, लेकिन किसी भी आधुनिक राजनेता के लिए ऐसा करना कठिन होगा।

हमें इस बात में कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि स्वच्छ भारत एक प्रशंसनीय लक्ष्य है। और प्रधानमंत्री ने इसको प्राथमिकता देकर एक अच्छा कदम उठाया है। स्वच्छता की अनिवार्यत: शपथ दिलाने का विचार भले ही बहुत समझदारी से भरा ना हो, लेकिन देश के आमजन को एक स्वस्थ भारत के निर्माण के प्रति सचेत बनाना एक अच्छी बात हऐ। इसके बावजूद, हमे इस कड़वी सच्चाई को स्वीकार करना होगा कि दशकों से सरकारी उपेक्षा, निष्क्रियता व लापरवाही के कारण देश की एक बड़ी आबादी गंदगी के बीच अपना जीवन बिताने को मजबूर है, उसकी स्थिति को सुधारने के लिए ‘स्वच्छ भारत अभियान’ शायद इसलिए ज्यादा कुछ नहीं कर पाए, क्योंकि उसे महज कचरा बुहारने के अभियान के रूप में प्रचारित किया जा रहा है।

आज देश में लाखों लोग शहरी और ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों में बुनियादी साफ सफाई के लिए जरूरी जलप्रदाय व्यवस्था और उपयुक्त सीवरेज सीस्टम के बिना रह रहे हैं। ऐसे में यह विचार एक क्रूर मजाक ही लगता है कि किन्हीं सफाई स्वयं सेवकों द्वारा हफ्ते में दो घंटे झाड़ू लगा देने भर से देश स्वच्छ हो जाएगा। सबसे पहले तो हमें ईमानदारी पूर्वक समस्या को समझना होगा। झाड़ू लेकर सफाई करने निकले बहुतेरे राजनेताओं की प्राथमिकता के दायरे में अभी तक शहरी कूड़ा-करकट ही रहा है।

जबकि स्वच्छता के लिहाज से यह समस्या का सबसे नगण्य पहलू है। निश्चित ही, सड़कों पर कूड़ा-करकट फैला हो तो वह कोई बहुत सुखद एहसास नहीं देता, लेकिन उनके लिए कोई कामचलाऊ समाधान खोजना आसान है, जैसे कि अहमदाबाद में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग यात्रा के दौरान किया गया था, अहमदाबाद की झुग्गी बस्तियों को जिनपिंग की नजरों से बचाने के लिए गुजरात सरकार ने उनके सामने हरी स्क्रीन लगा दी थी।

असल समस्या तो तब शुरू होती है, जब कूड़े को सड़कों से बुहारकर इकट्ठा तो कर दिया जाता है, लेकिन उसके साथ, उसके बाद उनके निष्पादन की कोई व्यवस्था नहीं रहती। क्योंकि हमारे बहुत कम शहर कूड़े को संकलित व निष्पादित करने की उपयुक्त प्रणाली विकसित कर सके हैं। जरूरत इस बात की है कि सफाई अभियान को सड़कों की बजाय घरों से शुरू किया जाए। साथ ही कचरे के संकलन और निष्पादन के लिए राज्य सरकार या नगरी निकाय द्वारा संगठित-सामूहिक प्रयास किए जाने चाहिए।

.कचरे के निष्पादन की समस्या अपने आप में बहुत व्यापक है, क्योंकि मंजूदा कचरा भराव क्षेत्रों का ही प्रबंधन बहुत बुरी तरह से किया जा रहा है। और वे पहले ही कूड़े से खचाखच भरे रहते हैं। भारत के शहरी जनसंख्या जिस तेजी से बढ़ रही है, इसके मद्देनजर बहुत संभव है कि सरकार अपने स्वच्छता के संकल्प के साथ अंतत: कचरा भराव क्षेत्रों की जगह बदल कर ही कचरे के निष्पादन की समस्या का समाधान करने की कोशिश करने लगे।

सीवेज ट्रीटमेंट और उसका डिस्पोजल हमारे सामने स्वच्छता से संबंधित सबसे बड़ी चुनौतियाँ हैं। एक सार्वजनिक अभियान चलाकर लोगों को अपनी साफ-सफाई संबंधी आदतें बदलने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। लेकिन इसे महानगरीय आर्थिकी को नहीं बदला जा सकता। देश के राजनेताओं ने कभी भी शहरी गरीबों की स्थिति के बारे में चिंता नहीं की है। यही कारण है कि आज भारत में करोड़ों लोग नालों के इर्द-गिर्द रह रहे हैं। वेकुले में शौच करने को मजबूर हैं। और चूंकि उन्हें साफ पानी की सुविधा भी नहीं मिलती, इसलिए वे खुद को स्वच्छ भी नहीं रख पाते।

अगर किन्हीं बस्तियों में पाइपलाइन होती भी है, तो वह सीधे तमाम कूड़े-करकट को बहाकर किसी नदी या जलाशय में ले जाती है। इसकी तुलना में गांव और कस्बों में यह समस्या भले ही महानगरों जितनी विकराल दिखाई न देती हो, लेकिन वहां भी इतना विकट है। मनमोहन सरकार और मोदी सरकार दोनों ने ही अनेक अवसरों पर खुले में शौच की स्थिति को खत्म करने की बात कही है, लेकिन इस समस्या का निदान केवल यही नहीं है कि टायलेट बना दिए जाएं, बल्कि इसके लिए जलप्रदाय और मल-उत्सर्जन की एक प्रणाली विकसित किए जाने की जरूरत है।

इनके अभाव में वे टायलेट भी किसी काम के नहीं रह जाते, जो पहले से ही निर्मित हैं। जलविहीन टॉयलेट्स की बात भी की जा रही है, लेकिन उनके नियोजन और निर्माण के लिए तो निश्चित ही राज्य सरकार को हस्तक्षेप करना होगा। मोदी सरकार को अगर वर्ष 2019 तक एक स्वच्छ भारत के निर्माण का अपना लक्ष्य अर्जित करना है तो इसके लिए ठोस-नीति बनानी होगी। इसके लिए बजटीय प्रावधान भी बढ़ाए जाने की जरूरत है। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सफाई कार्यों के लिए गत सरकार द्वारा आवंटित किए गए 1560.70 करोड़ रुपए में केवल छ: करोड़ रुपये का इजाफा किया है।

सार-संक्षेप यही है कि एक स्वच्छ भारत का निर्माण तब तक नहीं किया जा सकता, जब तक शहरों मे एक आधुनिक सीवरेज प्रणाली और हर गांव-कस्बे मेें पाइप के जरिए जलप्रदाय की प्रणाली विकसित नहीं की जाती। इस बुनियादी ढांचे के निर्माण किए बिना हर हफ्ते सड़कों पर झाड़ू लगा देने या टायलेट का निर्माण करवा देने भर से ज्यादा कुछ नहीं होगा। एक स्वच्छ भारत के लिए कचरे के संकलन और निष्पादन की एक पेशवर प्रणाली भी विकसित करनी होगी। इस प्रणाली को तो केंद्रीकृत होने की भी जरूरत नहीं है। और इसे वार्ड या मोहल्ला स्तर पर भी अच्छे से चलाया जा सकता है।

बस मौजूदा शहरों के मास्टर प्लान को ठीक तरह से बनाने भर से काम चल जाएगा। यह भी स्पष्ट है कि शहरी स्वच्छता के लिए पेशेवर लोगों की दरकार होती है। जिन्हें इसके लिए उचित भुगतान, सुविधाएँ और उपकरण मुहैया कराया जाए, ठेके पर कम वेतन में काम करने वाले लोगों को असुरक्षित और अस्वच्छ जगहों में सफाई के लिए झोंक देने भर से काम नहीं चलेगा।

लेखक 'द हिंदू' के पूर्व संपादक व वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं
 

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