आज जल संकट की जो स्थिति बनी हुई है ऐसे में सरकार का यह दायित्व है कि वह जल के प्रति ऐसी नीति लाए जो लोगों को स्वच्छ और सुरक्षित पेयजल का मौलिक अधिकार दे। क्योंकि यह सर्वविदित है कि जल मानव को जीवित रखने के लिए आॅक्सीजन के बाद सबसे अहम तत्व है। ऐसे में यदि सरकार खाद्य सुरक्षा की तरह स्वच्छ और सुरक्षित पेयजल का अधिकार सभी नागरिकों को दे तो यह न केवल लोगों के लिए सबसे कल्याणकारी कदम होगा बल्कि इसके साथ संविधान के अनुच्छेद 21 में वर्णित गरिमामय जीवन जीने के अधिकार का क्रियान्वयन भी हो सकेगा।
आज विश्व भर में स्वच्छ पेयजल के संकट की स्थिति बनी हुई है। भारत जैसे विकासशील देश इस समस्या से सर्वाधिक प्रभावित हैं। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति तो और भी जटिल और भयावह है। एक आँकड़े के मुताबिक आज देश की करीब 85 फीसदी ग्रामीण आबादी को स्वच्छ पेयजल नहीं मिल पाता है। अधिकांश राज्यों में भू-जल का प्रयोग पेयजल के रूप में किया जाता है जोकि आज विभिन्न प्रकार की बीमारियों की वजह बनी हुई है। भू-जल में आर्सेनिक, फ्लोराइड, यूरेनियम जैसे खतरनाक रसायन मिले हुए हैं। इसके कारण होने वाले रोगों से भारतीय ग्रामीण आबादी बुरी तरह प्रभावित है। दूषित जल के सेवन से पक्षाघात पोलियो, पीलिया, मियादी बुखार, हैजा, डायरिया, क्षयरोग, पेचिश, इन्सेफ्लाईटिस जैसे खतरनाक रोग फैलते हैं और यह सब बीमारियाँ ग्रामीण क्षेत्रों में महामारी का रूप धारण करती हैं। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में आम जनता को यह तक पता नहीं होता कि जो पानी वे पी रहे हैं वह स्वच्छ है कि नहीं। कई जगहों पर आज भी तालाबों, कुओं का जल पीने के काम में प्रयुक्त होता है।
वर्तमान में बोतलबन्द पानी तथा वाटर प्यूरीफायर कम्पनियों की तादाद बढ़ती जा रही है। यह न केवल शहरों तक सीमित है वरन ग्रामीण इलाकों में भी इनकी अच्छी पहुँच हो गई है। इसका एकमात्र कारण पानी का दूषित होना और स्वच्छ जल तक सबकी पहुँच का अभाव है। जलजनित बीमारियाँ अशुद्ध पेयजल वाले क्षेत्रों में उत्पन्न होती है। भात में गाँवों और शहरी बस्तियों में शौचलयों की कमी तथा खराब सफाई व्यवस्था के कारण आधी से ज्यादा आबादी खुले स्थान पर शौच करती है। एक अनुमान के मुताबिक यदि स्वच्छ पेयजल और बेहतर सफाई व्यवस्था मुहैया कराई जाए, तो प्रत्येक 20 सेकंड में एक बच्चे की जान बचायी जा सकती है। इन आधारभूत सुविधाओं में सुधार कर रूग्णता और बीमारियों को 80 फीसदी तक कम किया जा सकता है। साथ ही तेजी से बढ़ती शिशु मृत्युदर को तेजी से घटाया जा सकता है।
वैश्विक स्तर पर भी देखें तो सम्पूर्ण विश्व में लगभग दो अरब लोग दूषित जलजनित रोगों की चपेट में हैं। इसके अलावा प्रतिवर्ष लगभग 50 लाख लोग गन्दे पानी के इस्तेमाल के कारण मौत के मुँह में समा जाते है। सम्पूर्ण विश्व में हर वर्ष मरने वाले बच्चों में लगभग 60 प्रतिशत बच्चे जल से पैदा होने वाले रोगों के कारण मरते हैं। बढ़ती आबादी और पानी की बढ़ती खपत के कारण निरन्तर सुरक्षित पेयजल की सतत आपूर्ति आज एक वैश्विक चुनौती बनती जा रही है। विभिन्न आँकड़ों पर गौर करें तो जल संकट की स्थिति अत्यन्त भयावह प्रतीत होगी। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के मुताबिक विश्व की 6 अरब आबादी में हर छठा व्यक्ति नियमित और सुरक्षित पेयजल की आपूर्ति से वंचित है।
ग्लोबल एनवायरन्मेंट आउटलुक के अनुसार 2032 तक दुनिया की आधी से अधिक आबादी पानी की अत्यधिक कमी वाले क्षेत्रों में रहने को विवश होगी। एक अनुमान के मुताबिक विश्व की कुल जनसंख्या के 1.1 अरब लोग जलापूर्ति और 2.4 अरब लोग स्वच्छता की सुविधा से वंचित हैं। पिछली सदी में विश्व जनसंख्या तीन गुना बढ़ी है। और इस दौरान पानी की खपत में भी 6 गुणा बढ़ोत्तरी हुई है। अनुमान है कि 2050 तक संसार का हर चौथा व्यक्ति पानी की कमी से ग्रस्त होगा। यह वास्तविकता है कि जीने के लिए आवश्यक इस समिति जल संसाधन का केवल 0.8 प्रतिशत ही पीने योग्य है। पृथ्वी पर उपलब्ध कुल जल का 97.4 प्रतिशत पानी समुद्रों में जमा है जो कि मानव के पीने योग्य नहीं है। बाकी बचा 1.8 प्रतिशत जल बर्फ के रूप में जमा है।
स्वच्छ पेय जलापूर्ति एक वैश्विक समस्या है और इसी कारण अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर इसका समाधान निकाला जाना चाहिए। भारत सहित तमाम देश जल के प्रति सचेत, जागरूक व चिन्तित हैं। इसका एकमात्र कारण यह है कि जीवन के लिए महत्वपूर्ण इस सीमित संसाधन का वर्तमान में गलत तरीके से दोहन के कारण इसकी मात्रा में निरन्तर कमी आती जा रही है। जल संकट की इस वैश्विक स्थिति में सबसे बड़ी समस्या यह है कि जल की बर्बादी के प्रति आज आम जन जागरूक नहीं है। इससे कई तरह की गम्भीर समस्याएँ पैदा हो सकती हैं। जल संरक्षण की दिशा में संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2005 से 2015 तक के दशक को एक्शन के लिए ‘अन्तरराष्ट्रीय दशक’ घोषित किया है, जिसकी थीम है ‘जीवन के लिए जल’। पिछले 30 वर्षों में स्टाॅकहोम (1972) से रियो (1992) और जोहानिसबर्ग (2002) तक के पृथ्वी सम्मेलनों में हर बार जल संकट का मुद्दा केन्द्र में रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने जल दशक के बहाने जल संकट के विश्वव्यापी मुद्दे पर ध्यान दिया है जो कि सराहनीय पहल है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जन स्वास्थ्य की सुरक्षा के अपने प्राथमिक लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए पेयजल गुणवत्ता पर विस्तृत दिशा-निर्देश जारी किए हैं। इस सन्दर्भ में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 1984 और 1985 में इस दिशा-निर्देश का पहला अंक तीन खण्डों में प्रकाशित किया। इसके बाद इसमें संशोधन करके आगे भी प्रकाशित किया जाता रहा है। इन निर्देशों को विश्व के तमाम देशों ने विस्तृत रूप में इसे अपने नागरिकों के पेय जलापूर्ति की सुरक्षा के राष्ट्रीय मानक के रूप में निर्धारित किया है। इन निर्देशों में पेयजल गुणवत्ता, स्वास्थ्य व पर्यावरण सुरक्षा पर ध्यान दिया गया है। जल में अवांछनीय तत्वों की उपस्थिति की मात्रा के सन्दर्भ में विश्व स्वास्थ्य संगठन के नवीनतम दिशा-निर्देशों (1993) के अनुसार आर्सेनिक की जल में उपस्थिति की जो मात्रा तय की गई है वह 0.01 मि.ग्रा.प्रति लीटर है, जिसे बहुत से देशों ने मानक के रूप में स्वीकारा है। हालाँकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के ये मानक अनिवार्य नहीं हैं, बल्कि यह मात्रा से देशों के अपने-अपने प्राधिकरण द्वारा अपने क्षेत्रीय पर्यावरण, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक स्थिति के अनुरूप निर्धारित करते हैं।
ग्रामीण जलापूति पारम्परिक रूप से गाँवों में सुरक्षित और गुणवत्तापूर्ण जल आपूर्ति पर केन्द्रित है। ग्रामीण पेय जलापूर्ति राज्य का विषय है जिसे संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची में शामिल किया गया है। केन्द्र सरकार इस विषय पर नीति और दिशा-निर्देश निर्माण के साथ सहायता करती है। साथ ही इसके अलावा केन्द्र सरकार राज्यों को तकनीकी और केन्द्र प्रायोजित योजनाओं के लिए वित्तीय सहायता भी देती है। केन्द्रीय पेयजल और स्वास्थ्य मन्त्रालय का यह दायित्व है कि वह सुनिश्चित करे कि सभी ग्रामीण बस्तियों में सुरक्षित जलापूर्ति हो। मन्त्रालय इस दिशा में राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम के माध्यम से राज्यों की सभी ग्रामीण बस्तियों को पेय जलापूर्ति के लिए सहायता प्रदान कर रहा है। इस लक्ष्य की पूर्ति हेतु राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम को फ्लैगशिप कार्यक्रम के रूप में शामिल किया गया है। केन्द्र सरकार द्वारा 1972-73 से सभी राज्यों व केन्द्रशासित प्रदेशों को शत-प्रतिशत केन्द्रीय अनुदान दिया जा रहा है।
इसके साथ ही 73वां संविधान संशोधन जो पंचायतों के सशक्तीकरण का आधार स्तम्भ बना, उसे भी पेय जलापूर्ति का दायित्व सौंपा गया है। वर्तमान में राज्य अपने स्टेट पब्लिक हेल्थ इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट के माध्यम से जलापूर्ति के लिए योजना, स्वरूप निर्माण के साथ क्रियान्वयन कर रहे हैं। 1986 में राष्ट्रीय पेयजल मिशन के नाम से पेयजल प्रबंधन से सम्बंधित पेयजल प्रौद्योगिकी मिशन प्रारम्भ किया गया और उसी समय ग्रामीण पेय जलापूर्ति से सम्बंधित सम्पूर्ण कार्यक्रम को मिशन का दृष्टिकोण दिया गया। 1991 में राष्ट्रीय पेयजल मिशन का नाम बदल कर राजीव गाँधी ‘राष्ट्रीय पेयजल मिशन’ किया गया तथा 1991 में पेयजल आपूर्ति विभाग बनाया गया। इस दिशा में एक बड़ा और जरूरी कदम उठाते हुए 2011 में एक अलग मन्त्रालय के रूप में पेयजल और स्वच्छता मन्त्रालय बनाया गया।
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में यह प्रावधान किया गया कि योजना अवधि में स्थायित्व की समस्या, जल की उपलब्धता तथा आपूर्ति, जल की खराब गुणवत्ता, केन्द्रीयकृत नीतियों, प्रचालन तथा रख-रखाव लागत के लिए वित्त व्यवस्था करने जैसे प्रमुख मुद्दों को हल करने की आवश्यकता है। इन मुद्दों को हल करने के लिए 1 अप्रैल, 2009 से ग्रामीण जल-आपूर्ति के दिशा-निर्देशाों को संशोधित किया गया तथा इन्हें राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम के रूप में संगठित किया गया। इस कार्यक्रम का लक्ष्य है कि ग्रामीण भारत में सभी को हर समय सुरक्षित पेयजल मिले। संक्षेप में इस कार्यक्रम के निम्नलिखित उद्देश्य हैं -
1. देश के ग्रामीण क्षेत्रों की पेयजल विहीन, आरम्भिक सुविधा वाले और खराब गुणवत्ता वाले पेयजल वाली बस्तियों को सुरक्षित और अपेक्षित जलापूर्ति सुनिश्चित करना।
2. सभी स्कूलों, आँगनबाड़ी केन्द्रों को सुरक्षित पेयजल सुनिश्चित करना।
3. अनुसूचित जाति/जनजाति और अल्पसंख्यक आबादी वाली बस्तियों में कवरेज/निवेश में उच्च प्राथमिकता और समानता सुनिश्चित करना।
4. ग्रामीण पेयजल आपूर्ति योजना के प्रबन्धन को पंचायती राज संस्थाओं को सौंपने को बढ़ावा देना।
5. पेयजल की सुरक्षा, उपलब्धता, आपूर्ति और खपत की माप सुनिश्चित करने के लिए एकीकृत जल संसाधन प्रबन्धन में भागीदारी को बढ़ावा देना।
6. ग्रामीण समुदायों को अपने पेयजल संसाधनों, जलापूर्ति की देख-रेख तथा चौकसी के साथ प्रदूषण मुक्त जल के लिए सुधारात्मक कार्यवाही के योग्य बनाना।
7. जल बजट बनाकर तथा ग्राम जल सुरक्षा योजना तैयार करके परिवार-स्तर पर पेयजल सुरक्षा सुनिश्चित करना।
8. आर्सेनिक तथा फ्लोराइड संदूषण को दूर करने के लिए उच्च लागत वाली परिशोधन तकनीक की जगह वैकल्पिक संसाधनों का पता लगाना।
9. वर्षा जल संग्रहण को प्रोत्साहित करना।
गाँवों में बुनियादी ढाँचे के निर्माण के लिए भारत सरकार ने वर्ष 2005 में भारत निर्माण कार्यक्रम की शुरूआत की थी। भारत निर्माण के छह अंगों में से एक अंग ग्रामीण पेयजल भी था। इसका मुख्य उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में शुद्ध पेयजल की सुविधा उपलब्ध कराना है। योजना का लक्ष्य 55067 पेयजल सुविधा से रहित गाँवों तथा 3.31 लाख विकासाधीन क्षेत्रों को पेयजल की सुविधा उपलब्ध कराना है। इस योजना का उद्देश्य कम गुणवत्ता युक्त जलापूर्ति वाले 2.17 लाख क्षेत्रों को उच्च गुणवत्ता वाला जल उपलब्ध कराना भी है। इसके साथ ही जल की खराब गुणवत्ता से निपटने के लिए सरकार ने वरीयता क्रम में आर्सेनिक और फ्लोराइड प्रभावित बस्तियों को ऊपर रखा है। इसके बाद लोहे, खारेपन, नाइट्रेट और अन्य तत्वों से प्रभावित जल की समस्या से निपटने का लक्ष्य बनाया गया है। इस योजना के तहत जल स्रोतों के संरक्षण के प्रति विशेष ध्यान दिया जा जा रहा है ताकि एक बार जिन बस्तियों को पेय जलापूर्ति सुनिश्चित कर दी गई उन्हें दुबारा ऐसी समस्या का सामना नहीं करना पड़े।
ग्रामीण समुदायों को स्वच्छ तथा सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराने के उद्देश्य से फरवरी 2006 में राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल गुणवत्ता निगरानी तथा समीक्षा कार्यक्रम शुरू किया गया। कार्यक्रम का उद्देश्य ग्रामीणों को पेयजल की गुणवत्ता, साफ-सफाई मुद्दों पर जागरूक भी करना था। कार्यक्रम के तहत सभी ग्राम पंचायतों में बुनियादी स्तर के पाँच कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण दिया गया तथा उन्हें जल की गुणवत्ता जाँचने की किट भी मुहैया कराई गई। इस कार्यक्रम के तहत राज्यों को शत-प्रतिशत सहायता दी जाती है। 1 अप्रैल, 2009 से राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल गुणवत्ता निगरानी तथा समीक्षा कार्यक्रम को राष्ट्रीय पेयजल कार्यक्रम में शामिल कर दिया गया है तथा 5 प्रतिशत सहायता धनराशि के तहत जल गुणवत्ता परीक्षण को सहायता दी गई है।
भारत में जल संसाधन परिषद की छठी बैठक में 28 दिसम्बर, 2013 को केन्द्र व राज्य सरकारों ने मिलकर जल नीति 2012 को मंजूरी दी थी। इसके पूर्व में वर्ष 2002 में जल नीति बनी थी। नई नीति में पहली बार जलवायु के खतरे एवं जल सुरक्षा की चर्चा करते हुए अगले 3-4 दशकों के लिए व्यापक दृष्टिकोण का खाका बनाया गया है इसमें माँग अनुरूप जल उपलब्धता बरकरार रखने व जल भंडारण, कृषि के लिए जल उपलब्धता पर बल दिया गया है। इस नीति के तहत सभी राज्यों में जल नियामक प्राधिकरण के गठन के प्रावधान सहित सरकारी इमारतों पर वर्षा जल संरक्षण और स्थानीय जलापूर्ति पर जोर दिया गया है।
देश में राष्ट्रीय जल मिशन के तहत भी इसके पाँच प्रमुख उद्देश्य निर्धारित किए गए हैं -
1. जलवायु परिवर्तन के जलीय स्रोतों पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन। जलीय आँकड़ों का डाटाबेस तैयार करना।
2. जल संरक्षण के लिए व्यक्ति, राज्य को प्रोत्साहित करना।
3. जल का अत्यधिक दोहन करने वाले क्षेत्रों की पहचान करना।
4. जल के उपयोग की क्षमता को वर्तमान के 40 प्रतिशत से बढ़ाकर 60 प्रतिशत करना।
5. बेसिन लेवल पर एकीकृत जलीय स्रोत प्रबंधन को प्रोत्साहन देना।
इस प्रकार से भारत सहित तमाम वैश्विक प्रयास प्रमुखतः तीन क्षेत्रों पर केन्द्रित रहे हैं- अपने नागरिकों को सतत स्वच्छ पेय जलापूर्ति, जल संरक्षण और जल को सीमित संसाधन के रूप में मानकर इसके अनुपयोगी प्रयोग को रोकना। इस दिशा में भारत में केन्द्र और राज्यों के द्वारा कई सराहनीय कदम उठाए गए हैं। आज विश्व स्तर पर मौजूद जल संकट की स्थिति के बीच ग्रामीण पेयजलापूर्ति को सतत स्वरूप देना केवल सरकार के भरोसे सम्भव नहीं है। यह प्रत्येक नागरिक को इसके प्रति जागरूक और शिक्षित करने की माँग भी प्रस्तुत करता है। ग्रामीण क्षेत्र सदा से एक संवेदनशील आबादी का स्थल रहा है। जहाँ जीवन-स्तर की गुणवत्ता कई कारकों के प्रभाव से निम्न है। आज हमारे सामने केवल ग्रामीण जालपूर्ति की सुनिश्चितता ही एकमात्र लक्ष्य नहीं है वरन साथ ही प्रत्येक नागरिक को जल के महत्व और जल शिक्षा की भी जरूरत है। तभी हम अपनी अधिकतम आबादी को उनके इस मूलभूत जीवनोपयोगी संसाधन की उपलब्धता सुनिश्चित कर सकते हैं।
स्वच्छ पेयजल की सतत उपलब्धता सुनिश्चित करने की दिशा में निम्नलिखित महत्वपूर्ण कदम उठाए जा सकते हैं-
1. पानी की बर्बादी रोकने और सीमित प्रयोग के लिए प्रोत्साहन हेतु जन-जागरूकता।
2. सामुदायिक भागीदारी से जलापूर्ति की निगरानी, प्रबंधन और नियंत्रण।
3. वर्षा जल संरक्षण की सहज-सुलभ तकनीक का विकास और प्रसार।
4. जल को उपयोग के आधार पर वर्गीकृत करना और पुनः उपयोग में लाने के लिए जल शुद्धिकरण की प्रक्रिया व तकनीक को घर-घर में पहुँचाने योग्य बनाना।
5. समुद्रों में पड़े जल को तटवर्ती क्षेत्रों के उपयोग लायक बनाने हेतु तकनीक और प्रबंध का विकास करना।
यह खुशी की बात है कि इस दिशा में अब निजी क्षेत्र ने भी रूचि लेना आरम्भ कर दिया है। आज स्वच्छ जल पाना लगभग सपना बनाता जा रहा है। यह वर्तमान पीढ़ी का कर्तव्य है कि अपनी भावी पीढ़ी के लिए संसाधनों को संचित रखे। कुछ समय पहले तक गाँवों में बहुत कम खुदाई पर ही स्वच्छ जल प्राप्त होता था, और आज स्थिति यह है कि गाँवों में भी स्वच्छ जलापूर्ति की सरकारी योजना शुरू करने पर काम चल रहा है। ऐसा इसलिए है क्योंकि हम गाँवों को भी शहरीकरण के दुष्प्रभावों से नहीं बचा पाए हैं। साथ ही गाँवों के संसाधनों का बिना नियोजित और किसी तरह की प्रणाली विकसित किए लगातार दोहन किया जाता रहा है। कई ग्रामीण क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ के भूमिगत जल का व्यापक स्तर पर दोहन निजी कम्पनियों द्वारा पानी के व्यापार में किया जा रहा है और इस पर किसी प्रकार से प्रभावी रोक नहीं लगाई जा सकी है।
जल संकट की गम्भीर और चुनौती-पूर्ण स्थिति को देखते हुए हमें ऐसा प्रतीत होता है कि यदि सरकार शुरू में ही कुछ अग्रोन्मुख कदम उठाती है जिससे सम्पूर्ण नागरिकों को जीने की मूलभूत आवश्यकता वाले इस अमृत की प्राप्ति का कानूनी अधिकार दिया जा सके। इससे सम्बंधित नीति बनाने से लेकर इसके हेतु आवश्यक सभी कदम उठाने की बाध्यता बन जाएगी और तब हम संसाधनों की सुरक्षा के प्रति भी सचेत होंगे। यदि ऐसा होता है तो यह भारत के लोगोें के लिए ऐसा करने वाला विश्व में पहला देश होगा। आज जल संकट की जो स्थिति बनी हुई है ऐसे में सरकार का यह दायित्व है कि वह जल के प्रति ऐसी नीति लाए जो लोगों को स्वच्छ और सुरक्षित पेयजल का कानूनी अधिकार दे। क्योंकि यह सर्वविदित है कि जल मानव को जीवित रखने के लिए आॅक्सीजन के बाद सबसे अहम तत्व है। ऐसे में यदि सरकार खाद्य सुरक्षा की तरह स्वच्छ और सुरक्षित पेयजल का अधिकार सभी नागरिकों को दे तो यह न केवल लोगों के लिए सबसे कल्याणकारी कदम होगा बल्कि इसके साथ संविधान के अनुच्छेद 21 में वर्णित गरिमामय जीवन जीने के अधिकार का क्रियान्यवयन भी सिद्ध करेगा।
इसके साथ ही यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि हमें जन-जागरूकता और लोगों को इस दिशा में शिक्षित करने की सर्वाधिक जरूरत है। यह प्रत्येक आम जनता का नैतिक, मानवीय, कानूनी कर्तव्य है कि वह इस सीमित और अमूल्य संसाधन के संरक्षण और सीमित उपयोग के प्रति सचेत हों। केवल सरकारी नीतियों, कार्यक्रमों, योजनाओं के भरोसे रहकर अपने कर्तव्यों से विमुख होने की आदत मानवीय प्रवृत्ति बन चुकी है, जिसका त्याग किया जाना चाहिए। यह भविष्यवाणी भी कई बार की जा चुकी है कि अगला विश्वयुद्ध जल के लिए होगा और विश्व के तमाम देशों और देशों के भीतर राज्यों के बीच जल बँटवारे को लेकर तनाव की स्थिति बनती रही है। अगर हम अब भी नहीं चेते तो हमारी इस सुन्दर सृष्टि का अस्तित्व निरन्तर असुरक्षित होता जाएगा।
(लेखक पी.आर.एस. लेजिस्लेटिव रिसर्च, नई दिल्ली में लैम्प फैलो है), ईमेल- gauravkumarsss1@gmail.com
आज विश्व भर में स्वच्छ पेयजल के संकट की स्थिति बनी हुई है। भारत जैसे विकासशील देश इस समस्या से सर्वाधिक प्रभावित हैं। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति तो और भी जटिल और भयावह है। एक आँकड़े के मुताबिक आज देश की करीब 85 फीसदी ग्रामीण आबादी को स्वच्छ पेयजल नहीं मिल पाता है। अधिकांश राज्यों में भू-जल का प्रयोग पेयजल के रूप में किया जाता है जोकि आज विभिन्न प्रकार की बीमारियों की वजह बनी हुई है। भू-जल में आर्सेनिक, फ्लोराइड, यूरेनियम जैसे खतरनाक रसायन मिले हुए हैं। इसके कारण होने वाले रोगों से भारतीय ग्रामीण आबादी बुरी तरह प्रभावित है। दूषित जल के सेवन से पक्षाघात पोलियो, पीलिया, मियादी बुखार, हैजा, डायरिया, क्षयरोग, पेचिश, इन्सेफ्लाईटिस जैसे खतरनाक रोग फैलते हैं और यह सब बीमारियाँ ग्रामीण क्षेत्रों में महामारी का रूप धारण करती हैं। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में आम जनता को यह तक पता नहीं होता कि जो पानी वे पी रहे हैं वह स्वच्छ है कि नहीं। कई जगहों पर आज भी तालाबों, कुओं का जल पीने के काम में प्रयुक्त होता है।
वर्तमान में बोतलबन्द पानी तथा वाटर प्यूरीफायर कम्पनियों की तादाद बढ़ती जा रही है। यह न केवल शहरों तक सीमित है वरन ग्रामीण इलाकों में भी इनकी अच्छी पहुँच हो गई है। इसका एकमात्र कारण पानी का दूषित होना और स्वच्छ जल तक सबकी पहुँच का अभाव है। जलजनित बीमारियाँ अशुद्ध पेयजल वाले क्षेत्रों में उत्पन्न होती है। भात में गाँवों और शहरी बस्तियों में शौचलयों की कमी तथा खराब सफाई व्यवस्था के कारण आधी से ज्यादा आबादी खुले स्थान पर शौच करती है। एक अनुमान के मुताबिक यदि स्वच्छ पेयजल और बेहतर सफाई व्यवस्था मुहैया कराई जाए, तो प्रत्येक 20 सेकंड में एक बच्चे की जान बचायी जा सकती है। इन आधारभूत सुविधाओं में सुधार कर रूग्णता और बीमारियों को 80 फीसदी तक कम किया जा सकता है। साथ ही तेजी से बढ़ती शिशु मृत्युदर को तेजी से घटाया जा सकता है।
वैश्विक स्तर पर भी देखें तो सम्पूर्ण विश्व में लगभग दो अरब लोग दूषित जलजनित रोगों की चपेट में हैं। इसके अलावा प्रतिवर्ष लगभग 50 लाख लोग गन्दे पानी के इस्तेमाल के कारण मौत के मुँह में समा जाते है। सम्पूर्ण विश्व में हर वर्ष मरने वाले बच्चों में लगभग 60 प्रतिशत बच्चे जल से पैदा होने वाले रोगों के कारण मरते हैं। बढ़ती आबादी और पानी की बढ़ती खपत के कारण निरन्तर सुरक्षित पेयजल की सतत आपूर्ति आज एक वैश्विक चुनौती बनती जा रही है। विभिन्न आँकड़ों पर गौर करें तो जल संकट की स्थिति अत्यन्त भयावह प्रतीत होगी। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के मुताबिक विश्व की 6 अरब आबादी में हर छठा व्यक्ति नियमित और सुरक्षित पेयजल की आपूर्ति से वंचित है।
ग्लोबल एनवायरन्मेंट आउटलुक के अनुसार 2032 तक दुनिया की आधी से अधिक आबादी पानी की अत्यधिक कमी वाले क्षेत्रों में रहने को विवश होगी। एक अनुमान के मुताबिक विश्व की कुल जनसंख्या के 1.1 अरब लोग जलापूर्ति और 2.4 अरब लोग स्वच्छता की सुविधा से वंचित हैं। पिछली सदी में विश्व जनसंख्या तीन गुना बढ़ी है। और इस दौरान पानी की खपत में भी 6 गुणा बढ़ोत्तरी हुई है। अनुमान है कि 2050 तक संसार का हर चौथा व्यक्ति पानी की कमी से ग्रस्त होगा। यह वास्तविकता है कि जीने के लिए आवश्यक इस समिति जल संसाधन का केवल 0.8 प्रतिशत ही पीने योग्य है। पृथ्वी पर उपलब्ध कुल जल का 97.4 प्रतिशत पानी समुद्रों में जमा है जो कि मानव के पीने योग्य नहीं है। बाकी बचा 1.8 प्रतिशत जल बर्फ के रूप में जमा है।
सुरक्षित पेय जलापूर्ति के प्रति वैश्विक प्रयास
स्वच्छ पेय जलापूर्ति एक वैश्विक समस्या है और इसी कारण अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर इसका समाधान निकाला जाना चाहिए। भारत सहित तमाम देश जल के प्रति सचेत, जागरूक व चिन्तित हैं। इसका एकमात्र कारण यह है कि जीवन के लिए महत्वपूर्ण इस सीमित संसाधन का वर्तमान में गलत तरीके से दोहन के कारण इसकी मात्रा में निरन्तर कमी आती जा रही है। जल संकट की इस वैश्विक स्थिति में सबसे बड़ी समस्या यह है कि जल की बर्बादी के प्रति आज आम जन जागरूक नहीं है। इससे कई तरह की गम्भीर समस्याएँ पैदा हो सकती हैं। जल संरक्षण की दिशा में संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2005 से 2015 तक के दशक को एक्शन के लिए ‘अन्तरराष्ट्रीय दशक’ घोषित किया है, जिसकी थीम है ‘जीवन के लिए जल’। पिछले 30 वर्षों में स्टाॅकहोम (1972) से रियो (1992) और जोहानिसबर्ग (2002) तक के पृथ्वी सम्मेलनों में हर बार जल संकट का मुद्दा केन्द्र में रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने जल दशक के बहाने जल संकट के विश्वव्यापी मुद्दे पर ध्यान दिया है जो कि सराहनीय पहल है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा-निर्देश
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जन स्वास्थ्य की सुरक्षा के अपने प्राथमिक लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए पेयजल गुणवत्ता पर विस्तृत दिशा-निर्देश जारी किए हैं। इस सन्दर्भ में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 1984 और 1985 में इस दिशा-निर्देश का पहला अंक तीन खण्डों में प्रकाशित किया। इसके बाद इसमें संशोधन करके आगे भी प्रकाशित किया जाता रहा है। इन निर्देशों को विश्व के तमाम देशों ने विस्तृत रूप में इसे अपने नागरिकों के पेय जलापूर्ति की सुरक्षा के राष्ट्रीय मानक के रूप में निर्धारित किया है। इन निर्देशों में पेयजल गुणवत्ता, स्वास्थ्य व पर्यावरण सुरक्षा पर ध्यान दिया गया है। जल में अवांछनीय तत्वों की उपस्थिति की मात्रा के सन्दर्भ में विश्व स्वास्थ्य संगठन के नवीनतम दिशा-निर्देशों (1993) के अनुसार आर्सेनिक की जल में उपस्थिति की जो मात्रा तय की गई है वह 0.01 मि.ग्रा.प्रति लीटर है, जिसे बहुत से देशों ने मानक के रूप में स्वीकारा है। हालाँकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के ये मानक अनिवार्य नहीं हैं, बल्कि यह मात्रा से देशों के अपने-अपने प्राधिकरण द्वारा अपने क्षेत्रीय पर्यावरण, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक स्थिति के अनुरूप निर्धारित करते हैं।
ग्रामीण भारत में सुरक्षित जलापूर्ति
ग्रामीण जलापूति पारम्परिक रूप से गाँवों में सुरक्षित और गुणवत्तापूर्ण जल आपूर्ति पर केन्द्रित है। ग्रामीण पेय जलापूर्ति राज्य का विषय है जिसे संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची में शामिल किया गया है। केन्द्र सरकार इस विषय पर नीति और दिशा-निर्देश निर्माण के साथ सहायता करती है। साथ ही इसके अलावा केन्द्र सरकार राज्यों को तकनीकी और केन्द्र प्रायोजित योजनाओं के लिए वित्तीय सहायता भी देती है। केन्द्रीय पेयजल और स्वास्थ्य मन्त्रालय का यह दायित्व है कि वह सुनिश्चित करे कि सभी ग्रामीण बस्तियों में सुरक्षित जलापूर्ति हो। मन्त्रालय इस दिशा में राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम के माध्यम से राज्यों की सभी ग्रामीण बस्तियों को पेय जलापूर्ति के लिए सहायता प्रदान कर रहा है। इस लक्ष्य की पूर्ति हेतु राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम को फ्लैगशिप कार्यक्रम के रूप में शामिल किया गया है। केन्द्र सरकार द्वारा 1972-73 से सभी राज्यों व केन्द्रशासित प्रदेशों को शत-प्रतिशत केन्द्रीय अनुदान दिया जा रहा है।
इसके साथ ही 73वां संविधान संशोधन जो पंचायतों के सशक्तीकरण का आधार स्तम्भ बना, उसे भी पेय जलापूर्ति का दायित्व सौंपा गया है। वर्तमान में राज्य अपने स्टेट पब्लिक हेल्थ इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट के माध्यम से जलापूर्ति के लिए योजना, स्वरूप निर्माण के साथ क्रियान्वयन कर रहे हैं। 1986 में राष्ट्रीय पेयजल मिशन के नाम से पेयजल प्रबंधन से सम्बंधित पेयजल प्रौद्योगिकी मिशन प्रारम्भ किया गया और उसी समय ग्रामीण पेय जलापूर्ति से सम्बंधित सम्पूर्ण कार्यक्रम को मिशन का दृष्टिकोण दिया गया। 1991 में राष्ट्रीय पेयजल मिशन का नाम बदल कर राजीव गाँधी ‘राष्ट्रीय पेयजल मिशन’ किया गया तथा 1991 में पेयजल आपूर्ति विभाग बनाया गया। इस दिशा में एक बड़ा और जरूरी कदम उठाते हुए 2011 में एक अलग मन्त्रालय के रूप में पेयजल और स्वच्छता मन्त्रालय बनाया गया।
राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में यह प्रावधान किया गया कि योजना अवधि में स्थायित्व की समस्या, जल की उपलब्धता तथा आपूर्ति, जल की खराब गुणवत्ता, केन्द्रीयकृत नीतियों, प्रचालन तथा रख-रखाव लागत के लिए वित्त व्यवस्था करने जैसे प्रमुख मुद्दों को हल करने की आवश्यकता है। इन मुद्दों को हल करने के लिए 1 अप्रैल, 2009 से ग्रामीण जल-आपूर्ति के दिशा-निर्देशाों को संशोधित किया गया तथा इन्हें राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम के रूप में संगठित किया गया। इस कार्यक्रम का लक्ष्य है कि ग्रामीण भारत में सभी को हर समय सुरक्षित पेयजल मिले। संक्षेप में इस कार्यक्रम के निम्नलिखित उद्देश्य हैं -
1. देश के ग्रामीण क्षेत्रों की पेयजल विहीन, आरम्भिक सुविधा वाले और खराब गुणवत्ता वाले पेयजल वाली बस्तियों को सुरक्षित और अपेक्षित जलापूर्ति सुनिश्चित करना।
2. सभी स्कूलों, आँगनबाड़ी केन्द्रों को सुरक्षित पेयजल सुनिश्चित करना।
3. अनुसूचित जाति/जनजाति और अल्पसंख्यक आबादी वाली बस्तियों में कवरेज/निवेश में उच्च प्राथमिकता और समानता सुनिश्चित करना।
4. ग्रामीण पेयजल आपूर्ति योजना के प्रबन्धन को पंचायती राज संस्थाओं को सौंपने को बढ़ावा देना।
5. पेयजल की सुरक्षा, उपलब्धता, आपूर्ति और खपत की माप सुनिश्चित करने के लिए एकीकृत जल संसाधन प्रबन्धन में भागीदारी को बढ़ावा देना।
6. ग्रामीण समुदायों को अपने पेयजल संसाधनों, जलापूर्ति की देख-रेख तथा चौकसी के साथ प्रदूषण मुक्त जल के लिए सुधारात्मक कार्यवाही के योग्य बनाना।
7. जल बजट बनाकर तथा ग्राम जल सुरक्षा योजना तैयार करके परिवार-स्तर पर पेयजल सुरक्षा सुनिश्चित करना।
8. आर्सेनिक तथा फ्लोराइड संदूषण को दूर करने के लिए उच्च लागत वाली परिशोधन तकनीक की जगह वैकल्पिक संसाधनों का पता लगाना।
9. वर्षा जल संग्रहण को प्रोत्साहित करना।
भारत निर्माण-ग्रामीण पेयजल
गाँवों में बुनियादी ढाँचे के निर्माण के लिए भारत सरकार ने वर्ष 2005 में भारत निर्माण कार्यक्रम की शुरूआत की थी। भारत निर्माण के छह अंगों में से एक अंग ग्रामीण पेयजल भी था। इसका मुख्य उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में शुद्ध पेयजल की सुविधा उपलब्ध कराना है। योजना का लक्ष्य 55067 पेयजल सुविधा से रहित गाँवों तथा 3.31 लाख विकासाधीन क्षेत्रों को पेयजल की सुविधा उपलब्ध कराना है। इस योजना का उद्देश्य कम गुणवत्ता युक्त जलापूर्ति वाले 2.17 लाख क्षेत्रों को उच्च गुणवत्ता वाला जल उपलब्ध कराना भी है। इसके साथ ही जल की खराब गुणवत्ता से निपटने के लिए सरकार ने वरीयता क्रम में आर्सेनिक और फ्लोराइड प्रभावित बस्तियों को ऊपर रखा है। इसके बाद लोहे, खारेपन, नाइट्रेट और अन्य तत्वों से प्रभावित जल की समस्या से निपटने का लक्ष्य बनाया गया है। इस योजना के तहत जल स्रोतों के संरक्षण के प्रति विशेष ध्यान दिया जा जा रहा है ताकि एक बार जिन बस्तियों को पेय जलापूर्ति सुनिश्चित कर दी गई उन्हें दुबारा ऐसी समस्या का सामना नहीं करना पड़े।
जल गुणवत्ता निगरानी तथा समीक्षा
ग्रामीण समुदायों को स्वच्छ तथा सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराने के उद्देश्य से फरवरी 2006 में राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल गुणवत्ता निगरानी तथा समीक्षा कार्यक्रम शुरू किया गया। कार्यक्रम का उद्देश्य ग्रामीणों को पेयजल की गुणवत्ता, साफ-सफाई मुद्दों पर जागरूक भी करना था। कार्यक्रम के तहत सभी ग्राम पंचायतों में बुनियादी स्तर के पाँच कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण दिया गया तथा उन्हें जल की गुणवत्ता जाँचने की किट भी मुहैया कराई गई। इस कार्यक्रम के तहत राज्यों को शत-प्रतिशत सहायता दी जाती है। 1 अप्रैल, 2009 से राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल गुणवत्ता निगरानी तथा समीक्षा कार्यक्रम को राष्ट्रीय पेयजल कार्यक्रम में शामिल कर दिया गया है तथा 5 प्रतिशत सहायता धनराशि के तहत जल गुणवत्ता परीक्षण को सहायता दी गई है।
राष्ट्रीय जल नीति 2012
भारत में जल संसाधन परिषद की छठी बैठक में 28 दिसम्बर, 2013 को केन्द्र व राज्य सरकारों ने मिलकर जल नीति 2012 को मंजूरी दी थी। इसके पूर्व में वर्ष 2002 में जल नीति बनी थी। नई नीति में पहली बार जलवायु के खतरे एवं जल सुरक्षा की चर्चा करते हुए अगले 3-4 दशकों के लिए व्यापक दृष्टिकोण का खाका बनाया गया है इसमें माँग अनुरूप जल उपलब्धता बरकरार रखने व जल भंडारण, कृषि के लिए जल उपलब्धता पर बल दिया गया है। इस नीति के तहत सभी राज्यों में जल नियामक प्राधिकरण के गठन के प्रावधान सहित सरकारी इमारतों पर वर्षा जल संरक्षण और स्थानीय जलापूर्ति पर जोर दिया गया है।
देश में राष्ट्रीय जल मिशन के तहत भी इसके पाँच प्रमुख उद्देश्य निर्धारित किए गए हैं -
1. जलवायु परिवर्तन के जलीय स्रोतों पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन। जलीय आँकड़ों का डाटाबेस तैयार करना।
2. जल संरक्षण के लिए व्यक्ति, राज्य को प्रोत्साहित करना।
3. जल का अत्यधिक दोहन करने वाले क्षेत्रों की पहचान करना।
4. जल के उपयोग की क्षमता को वर्तमान के 40 प्रतिशत से बढ़ाकर 60 प्रतिशत करना।
5. बेसिन लेवल पर एकीकृत जलीय स्रोत प्रबंधन को प्रोत्साहन देना।
इस प्रकार से भारत सहित तमाम वैश्विक प्रयास प्रमुखतः तीन क्षेत्रों पर केन्द्रित रहे हैं- अपने नागरिकों को सतत स्वच्छ पेय जलापूर्ति, जल संरक्षण और जल को सीमित संसाधन के रूप में मानकर इसके अनुपयोगी प्रयोग को रोकना। इस दिशा में भारत में केन्द्र और राज्यों के द्वारा कई सराहनीय कदम उठाए गए हैं। आज विश्व स्तर पर मौजूद जल संकट की स्थिति के बीच ग्रामीण पेयजलापूर्ति को सतत स्वरूप देना केवल सरकार के भरोसे सम्भव नहीं है। यह प्रत्येक नागरिक को इसके प्रति जागरूक और शिक्षित करने की माँग भी प्रस्तुत करता है। ग्रामीण क्षेत्र सदा से एक संवेदनशील आबादी का स्थल रहा है। जहाँ जीवन-स्तर की गुणवत्ता कई कारकों के प्रभाव से निम्न है। आज हमारे सामने केवल ग्रामीण जालपूर्ति की सुनिश्चितता ही एकमात्र लक्ष्य नहीं है वरन साथ ही प्रत्येक नागरिक को जल के महत्व और जल शिक्षा की भी जरूरत है। तभी हम अपनी अधिकतम आबादी को उनके इस मूलभूत जीवनोपयोगी संसाधन की उपलब्धता सुनिश्चित कर सकते हैं।
सुरक्षित पेयजल की सतत आपूर्ति के लिए सुझाव
स्वच्छ पेयजल की सतत उपलब्धता सुनिश्चित करने की दिशा में निम्नलिखित महत्वपूर्ण कदम उठाए जा सकते हैं-
1. पानी की बर्बादी रोकने और सीमित प्रयोग के लिए प्रोत्साहन हेतु जन-जागरूकता।
2. सामुदायिक भागीदारी से जलापूर्ति की निगरानी, प्रबंधन और नियंत्रण।
3. वर्षा जल संरक्षण की सहज-सुलभ तकनीक का विकास और प्रसार।
4. जल को उपयोग के आधार पर वर्गीकृत करना और पुनः उपयोग में लाने के लिए जल शुद्धिकरण की प्रक्रिया व तकनीक को घर-घर में पहुँचाने योग्य बनाना।
5. समुद्रों में पड़े जल को तटवर्ती क्षेत्रों के उपयोग लायक बनाने हेतु तकनीक और प्रबंध का विकास करना।
आज विश्व स्तर पर मौजूद जल संकट की स्थिति के बीच ग्रामीण पेयजलापूर्ति को सतत स्वरूप देना केवल सरकार के भरोसे सम्भव नहीं है। यह प्रत्येक नागरिक को इसके प्रति जागरूक और शिक्षित करने की माँग भी प्रस्तुत करता है। ग्रामीण क्षेत्र सदा से एक संवेदनशील आबादी का स्थल रहा है। जहाँ जीवन-स्तर की गुणवत्ता कई कारकों के प्रभाव से निम्न है। आज हमारे सामने केवल ग्रामीण जालपूर्ति की सुनिश्चितता ही एकमात्र लक्ष्य नहीं है वरन साथ ही प्रत्येक नागरिक को जल के महत्व और जल शिक्षा की भी जरूरत है। तभी हम अपनी अधिकतम आबादी को उनके इस मूलभूत जीवनोपयोगी संसाधन की उपलब्धता सुनिश्चित कर सकते हैं।
उपरोक्त सुझावों के अलावा जल संकट के बीच सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि हम पानी की बर्बादी को रोकने का भरपूर प्रयास करें। इसके लिए वर्षा जल संचयन तकनीक और जल संभरण तकनीक को विकसित और प्रत्येक क्षेत्र में प्रसारित करने की जरूरत है। पृथ्वी का अधिकांश जल समुद्र में पड़ा है। जिसका कोई मानवीय प्रयोग नहीं किया जाता है। हमें ऐसी तकनीक विकसित करनी होगी जिससे कि समुद्रों के पानी को मानवीय क्रियाकलापों में प्रयुक्त किया जा सके। समुद्र की निकटवर्ती जगहों पर इस जल से सिंचाई किए जाने योग्य बनाने हेतु भी नई प्रौद्योगिकी को विकसित किए जाने की जरूरत है। स्वच्छ जल की समस्या से निपटने के लिए हमें बेहतर जल प्रबंधन की नीति अपनानी होगी। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में मनरेगा के द्वारा हम वर्षा जल संचयन यंत्र का निर्माण कर सकते हैं। साथ ही जल-संभरण तकनीक और तालाबों का निर्माण कर हम जल प्रबंधन की दिशा में उल्लेखनीय योगदान कर सकते हैं।यह खुशी की बात है कि इस दिशा में अब निजी क्षेत्र ने भी रूचि लेना आरम्भ कर दिया है। आज स्वच्छ जल पाना लगभग सपना बनाता जा रहा है। यह वर्तमान पीढ़ी का कर्तव्य है कि अपनी भावी पीढ़ी के लिए संसाधनों को संचित रखे। कुछ समय पहले तक गाँवों में बहुत कम खुदाई पर ही स्वच्छ जल प्राप्त होता था, और आज स्थिति यह है कि गाँवों में भी स्वच्छ जलापूर्ति की सरकारी योजना शुरू करने पर काम चल रहा है। ऐसा इसलिए है क्योंकि हम गाँवों को भी शहरीकरण के दुष्प्रभावों से नहीं बचा पाए हैं। साथ ही गाँवों के संसाधनों का बिना नियोजित और किसी तरह की प्रणाली विकसित किए लगातार दोहन किया जाता रहा है। कई ग्रामीण क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ के भूमिगत जल का व्यापक स्तर पर दोहन निजी कम्पनियों द्वारा पानी के व्यापार में किया जा रहा है और इस पर किसी प्रकार से प्रभावी रोक नहीं लगाई जा सकी है।
जल संकट की गम्भीर और चुनौती-पूर्ण स्थिति को देखते हुए हमें ऐसा प्रतीत होता है कि यदि सरकार शुरू में ही कुछ अग्रोन्मुख कदम उठाती है जिससे सम्पूर्ण नागरिकों को जीने की मूलभूत आवश्यकता वाले इस अमृत की प्राप्ति का कानूनी अधिकार दिया जा सके। इससे सम्बंधित नीति बनाने से लेकर इसके हेतु आवश्यक सभी कदम उठाने की बाध्यता बन जाएगी और तब हम संसाधनों की सुरक्षा के प्रति भी सचेत होंगे। यदि ऐसा होता है तो यह भारत के लोगोें के लिए ऐसा करने वाला विश्व में पहला देश होगा। आज जल संकट की जो स्थिति बनी हुई है ऐसे में सरकार का यह दायित्व है कि वह जल के प्रति ऐसी नीति लाए जो लोगों को स्वच्छ और सुरक्षित पेयजल का कानूनी अधिकार दे। क्योंकि यह सर्वविदित है कि जल मानव को जीवित रखने के लिए आॅक्सीजन के बाद सबसे अहम तत्व है। ऐसे में यदि सरकार खाद्य सुरक्षा की तरह स्वच्छ और सुरक्षित पेयजल का अधिकार सभी नागरिकों को दे तो यह न केवल लोगों के लिए सबसे कल्याणकारी कदम होगा बल्कि इसके साथ संविधान के अनुच्छेद 21 में वर्णित गरिमामय जीवन जीने के अधिकार का क्रियान्यवयन भी सिद्ध करेगा।
इसके साथ ही यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि हमें जन-जागरूकता और लोगों को इस दिशा में शिक्षित करने की सर्वाधिक जरूरत है। यह प्रत्येक आम जनता का नैतिक, मानवीय, कानूनी कर्तव्य है कि वह इस सीमित और अमूल्य संसाधन के संरक्षण और सीमित उपयोग के प्रति सचेत हों। केवल सरकारी नीतियों, कार्यक्रमों, योजनाओं के भरोसे रहकर अपने कर्तव्यों से विमुख होने की आदत मानवीय प्रवृत्ति बन चुकी है, जिसका त्याग किया जाना चाहिए। यह भविष्यवाणी भी कई बार की जा चुकी है कि अगला विश्वयुद्ध जल के लिए होगा और विश्व के तमाम देशों और देशों के भीतर राज्यों के बीच जल बँटवारे को लेकर तनाव की स्थिति बनती रही है। अगर हम अब भी नहीं चेते तो हमारी इस सुन्दर सृष्टि का अस्तित्व निरन्तर असुरक्षित होता जाएगा।
(लेखक पी.आर.एस. लेजिस्लेटिव रिसर्च, नई दिल्ली में लैम्प फैलो है), ईमेल- gauravkumarsss1@gmail.com
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