बाढ़ ग्रस्त क्षेत्र में और खास कर तटबन्धों के बीच स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में कुछ कहना हताशा को ही न्यौता देना है। यह समस्या भी बच्चों की शिक्षा व्यवस्था से ही मिलती जुलती है कि अव्वल तो बच्चे स्कूल पहुंच ही नहीं पायेंगे और अगर किसी तरह से पहुंच भी गये तो वहां अध्यापक नदारद मिलेंगे। यहां भी मरीज स्वास्थ्य केन्द्र या अस्पताल तक नहीं पहुंच सकता और अगर पहुंच भी गया तो उसे डॉक्टरी सहायता (डॉक्टर नहीं) भी मिल पायेगी, यह कोई भी विश्वास के साथ नहीं कह सकता। सहरसा में कुल 52 स्वास्थ्य उपकेन्द्र हैं और इस जिले के सबसे ज्यादा बाढ़ प्रभावित 4 प्रखण्डों में स्वास्थ्य उपकेन्द्रों की सूची तालिका 9.1 में दी गई है।
*अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य उप-केन्द्र
यह सारे केन्द्र, स्वास्थ्य उप-केन्द्र या अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य उप-केन्द्र की तरह दर्ज हैं। अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य उप-केन्द्र में 2 डॉक्टर, 1 कम्पाउण्डर, 1 नर्स, 1 ड्रेसर, 1 स्वास्थ्य शिक्षक, 1 क्लर्क, 1 प्रयोगशाला टेक्नीशियन तथा 2 चतुर्थ ग्रेड के कर्मचारी नियुक्त होते हैं। स्वास्थ्य उप-केन्द्रों में 1 नर्स, 1 बुनियादी स्वास्थ्य कर्मचारी और एक परिवार कल्याण कर्मचारी नियुक्त होता है। डॉक्टर इन केन्द्रों पर पाली के तौर पर निर्धारित दिनों में आया करते हैं।
यह बिरले ही कभी होता है कि इन दुर्गम स्वास्थ्य केन्द्रों में किसी डॉक्टर या नर्स के दर्शन हो जायें। दवाइयाँ इन केन्द्रों पर नहीं होतीं और इन केन्द्रों के भवन किसी भी मायने में ‘उजड़े दयार’ से कम नहीं होते। ग्रामवासी स्थानीय झोला छाप डॉक्टरों की सेवाओं को ज्यादा तरजीह देते हैं क्योंकि वही मौके पर मौजूद हैं। तटबन्धों के बीच के गांवों में अगर कोई कभी बीमार पड़ जाये तो उसे डॉक्टरों तक ले जाने में परिवार वालों के छक्के छूट जाते हैं। मरीज के साथ परिवार जनों को कम से कम दो स्थानों पर नदी की धारा को पार करना पड़ेगा तब कहीं तटबन्ध पर पहुंचा जा सकेगा। वहां पहुंच कर मरीज को आगे ले जाने के लिए जीप की व्यवस्था करनी पड़ेगी जो कि खुद जीप वाले को खोज कर करनी पड़ेगी और जीप वाले की शर्तों पर और उसके द्वारा बताये गये अनाप-शनाप पैसे का भुगतान कर के ही आगे जाना पड़ेगा। रास्ते में अगर दुबारा पानी से भेंट हो गई तो फिर नाव चाहिये। जीप तो वहीं ठहर जायेगी और नाव से उतरने के बाद फिर कोई सवारी चाहिए। वैसे भी तटबन्ध बनता तो मिट्टी का ही है, उसके ऊपर बेतरह गड्ढे हैं। ऐसे रास्तों पर जीप चले भी तो कैसे?
तटबन्ध के कुछ हिस्सों पर ईंट की सोलिंग की हुई है और उसके गड्ढों की वजह से तटबन्ध की हालत और भी बदतर है। सरकार अक्सर इन तटबन्धों पर पक्की कोलतार की सड़कें बनाने का दम भरती है और यह काम कब होगा, होगा भी या नहीं कोई नहीं जानता। जीप मिल जाने पर शहर पहुंचने के बाद डाक्टर मिलेगा या नहीं, यह भी तय नहीं है। कोई भी डाक्टरी सहायता इसी दौर से गुजरने के बाद ही मिलती है और यह मरीज के परिवार वालों का सौभाग्य ही कहा जायगा जो इस दौरान मरीज जि़न्दा बच जाये। बरसात के मौसम में हालात और भी बदतर हो जाते हैं क्योंकि तब नाविक भी बहुत ज्यादा प्रवाह होने के कारण नदी के पार उतारने से कतराते हैं। बाढ़ के समय सांप काटने की घटनाएं अक्सर हुआ करती हैं और तब मरीज के सामने मौत खड़ी रहती है जबकि उसके परिवार के लोग गाड़ी-घोड़े और नाव का इन्तजाम करने में मशगूल रहते हैं। उधर सहरसा सदर अस्पताल के अधिकारी यह दावा करते नहीं थकते कि मरीज अगर अस्पताल तक आ जाये तो वह उसे बचा लेंगे। मगर लाख टके का सवाल यह है कि मरीज जिन्दा वहां पहुंचेगा कैसे?
आपात स्थिति में तटबन्धों के भीतर बसे गांवों के लिए सरकारी स्वास्थ्य सेवा का कोई मतलब नहीं बचता और यह स्वास्थ्य सेवा आम हालात में भी किसी काम की नहीं है, यह सभी जानते हैं। जिस तरह की सूचनाएँ संचार माध्यमों से इन इलाकों के बारे में मिलती है उनके अनुसार यह पूरा क्षेत्र मलेरिया, तपेदिक और कालाजार जैसी घातक बीमारियों से आक्रांत रहता है और स्वास्थ्य-सेवाओं की स्थानीय संरचना इस पैमाने पर इन बीमारियों से निपटने में एकदम नाकारा है। डाक्टरों की सम्पूर्ण उदासीनता, दवाओं, उपकरणों और प्रयोगशालाओं में आवश्यक सामानों की कमी आदि कुछ ऐसे कारण हैं जिनकी वजह से यह पूरी व्यवस्था ही चरमराई हुई है। स्वास्थ्य अधिकारियों के लिए कालाजार खासा सिरदर्द है क्योंकि इसके लक्षण मलेरिया से मिलते जुलते हैं और क्योंकि डाक्टरों के पास पहुंचने के पहले काफी दिनों तक मरीज मलेरिया का इलाज करवा चुके होते हैं और जब उन्हें पता लगता है कि उनका मर्ज मलेरिया न होकर कालाजार है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। कालाजार की औषधि की अनुपलब्धता और इलाज की ऊंची लागत बहुत से मरीजों को इसके इलाज से लगातार फासले पर रखती है।बरसात के मौसम में जब बाढ़ से प्रभावित आबादी डायरिया, पेचिश, टाइफाइड और मलेरिया जैसी बीमारियों से आक्रान्त होती है तब स्वास्थ्य विभाग की लाचारी खुल कर सामने आती है। अनिश्चित सेवा के मुकाबले सेवा का न होना बेहतर है खासकर तब जबकि मामला स्वास्थ्य से जुड़ा हो। यह सबक अब लोगों को याद हो गया है। यहाँ जो निश्चित है वह झोला छाप है और उसी के कन्धों पर इन इलाकों की स्वास्थ्य व्यवस्था का दारोमदार है।
तालिका-9.1
सहरसा जिले के 4सबसे ज्यादा बाढ़ प्रभावित प्रखण्डों में स्वास्थ्य उपकेन्द्र तथा अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य उपकेन्द्रों की सूची | ||||
क्र.सं. | नवहट्टा | महिषी | सलखुआ | सिमरी- बख्तियारपुर |
1. | हाटी | क्न्दुह* | कबिरा धाप* | बेलवारा |
2. | परताहा | तेलवा* | भिरखी | कठडूमर |
3. | त्रिखुट्टी | भेलाही | चानन | धनुपरा |
4. | नौला | बिरगांव | अलानी | घोघसम |
5. | नारायणपुर | गण्डौल | भेलवा | |
6. | रसलपुर | मनुअर | चिरैया | |
7. | डरहार | आरापट्टी | ||
8. | बकुनियां* | ऐना | ||
9. | असै | सिरवार | ||
10. | बराही | धनौज |
*अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य उप-केन्द्र
यह सारे केन्द्र, स्वास्थ्य उप-केन्द्र या अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य उप-केन्द्र की तरह दर्ज हैं। अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य उप-केन्द्र में 2 डॉक्टर, 1 कम्पाउण्डर, 1 नर्स, 1 ड्रेसर, 1 स्वास्थ्य शिक्षक, 1 क्लर्क, 1 प्रयोगशाला टेक्नीशियन तथा 2 चतुर्थ ग्रेड के कर्मचारी नियुक्त होते हैं। स्वास्थ्य उप-केन्द्रों में 1 नर्स, 1 बुनियादी स्वास्थ्य कर्मचारी और एक परिवार कल्याण कर्मचारी नियुक्त होता है। डॉक्टर इन केन्द्रों पर पाली के तौर पर निर्धारित दिनों में आया करते हैं।
यह बिरले ही कभी होता है कि इन दुर्गम स्वास्थ्य केन्द्रों में किसी डॉक्टर या नर्स के दर्शन हो जायें। दवाइयाँ इन केन्द्रों पर नहीं होतीं और इन केन्द्रों के भवन किसी भी मायने में ‘उजड़े दयार’ से कम नहीं होते। ग्रामवासी स्थानीय झोला छाप डॉक्टरों की सेवाओं को ज्यादा तरजीह देते हैं क्योंकि वही मौके पर मौजूद हैं। तटबन्धों के बीच के गांवों में अगर कोई कभी बीमार पड़ जाये तो उसे डॉक्टरों तक ले जाने में परिवार वालों के छक्के छूट जाते हैं। मरीज के साथ परिवार जनों को कम से कम दो स्थानों पर नदी की धारा को पार करना पड़ेगा तब कहीं तटबन्ध पर पहुंचा जा सकेगा। वहां पहुंच कर मरीज को आगे ले जाने के लिए जीप की व्यवस्था करनी पड़ेगी जो कि खुद जीप वाले को खोज कर करनी पड़ेगी और जीप वाले की शर्तों पर और उसके द्वारा बताये गये अनाप-शनाप पैसे का भुगतान कर के ही आगे जाना पड़ेगा। रास्ते में अगर दुबारा पानी से भेंट हो गई तो फिर नाव चाहिये। जीप तो वहीं ठहर जायेगी और नाव से उतरने के बाद फिर कोई सवारी चाहिए। वैसे भी तटबन्ध बनता तो मिट्टी का ही है, उसके ऊपर बेतरह गड्ढे हैं। ऐसे रास्तों पर जीप चले भी तो कैसे?
तटबन्ध के कुछ हिस्सों पर ईंट की सोलिंग की हुई है और उसके गड्ढों की वजह से तटबन्ध की हालत और भी बदतर है। सरकार अक्सर इन तटबन्धों पर पक्की कोलतार की सड़कें बनाने का दम भरती है और यह काम कब होगा, होगा भी या नहीं कोई नहीं जानता। जीप मिल जाने पर शहर पहुंचने के बाद डाक्टर मिलेगा या नहीं, यह भी तय नहीं है। कोई भी डाक्टरी सहायता इसी दौर से गुजरने के बाद ही मिलती है और यह मरीज के परिवार वालों का सौभाग्य ही कहा जायगा जो इस दौरान मरीज जि़न्दा बच जाये। बरसात के मौसम में हालात और भी बदतर हो जाते हैं क्योंकि तब नाविक भी बहुत ज्यादा प्रवाह होने के कारण नदी के पार उतारने से कतराते हैं। बाढ़ के समय सांप काटने की घटनाएं अक्सर हुआ करती हैं और तब मरीज के सामने मौत खड़ी रहती है जबकि उसके परिवार के लोग गाड़ी-घोड़े और नाव का इन्तजाम करने में मशगूल रहते हैं। उधर सहरसा सदर अस्पताल के अधिकारी यह दावा करते नहीं थकते कि मरीज अगर अस्पताल तक आ जाये तो वह उसे बचा लेंगे। मगर लाख टके का सवाल यह है कि मरीज जिन्दा वहां पहुंचेगा कैसे?
आपात स्थिति में तटबन्धों के भीतर बसे गांवों के लिए सरकारी स्वास्थ्य सेवा का कोई मतलब नहीं बचता और यह स्वास्थ्य सेवा आम हालात में भी किसी काम की नहीं है, यह सभी जानते हैं। जिस तरह की सूचनाएँ संचार माध्यमों से इन इलाकों के बारे में मिलती है उनके अनुसार यह पूरा क्षेत्र मलेरिया, तपेदिक और कालाजार जैसी घातक बीमारियों से आक्रांत रहता है और स्वास्थ्य-सेवाओं की स्थानीय संरचना इस पैमाने पर इन बीमारियों से निपटने में एकदम नाकारा है। डाक्टरों की सम्पूर्ण उदासीनता, दवाओं, उपकरणों और प्रयोगशालाओं में आवश्यक सामानों की कमी आदि कुछ ऐसे कारण हैं जिनकी वजह से यह पूरी व्यवस्था ही चरमराई हुई है। स्वास्थ्य अधिकारियों के लिए कालाजार खासा सिरदर्द है क्योंकि इसके लक्षण मलेरिया से मिलते जुलते हैं और क्योंकि डाक्टरों के पास पहुंचने के पहले काफी दिनों तक मरीज मलेरिया का इलाज करवा चुके होते हैं और जब उन्हें पता लगता है कि उनका मर्ज मलेरिया न होकर कालाजार है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। कालाजार की औषधि की अनुपलब्धता और इलाज की ऊंची लागत बहुत से मरीजों को इसके इलाज से लगातार फासले पर रखती है।बरसात के मौसम में जब बाढ़ से प्रभावित आबादी डायरिया, पेचिश, टाइफाइड और मलेरिया जैसी बीमारियों से आक्रान्त होती है तब स्वास्थ्य विभाग की लाचारी खुल कर सामने आती है। अनिश्चित सेवा के मुकाबले सेवा का न होना बेहतर है खासकर तब जबकि मामला स्वास्थ्य से जुड़ा हो। यह सबक अब लोगों को याद हो गया है। यहाँ जो निश्चित है वह झोला छाप है और उसी के कन्धों पर इन इलाकों की स्वास्थ्य व्यवस्था का दारोमदार है।
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