सवाल साँसों का

दिल्ली में जानलेवा हो रहा है स्मॉग
दिल्ली में जानलेवा हो रहा है स्मॉग

करीब दो सप्ताह से पूरा उत्तर भारत विषैली गैसों का चैम्बर बना हुआ है। आमतौर पर देश के बड़े शहरों की यह दुर्गति सदा-सर्वदा के लिये रहने लगी है, लेकिन इन दिनों हवा इतनी जहरीली हो गई है कि उसे प्राणवायु की जगह प्राणघातिनी कहना ज्यादा तर्कसंगत लगता है। लोग मास्क लगाकर बाहर निकल रहे हैं। वायु में प्रदूषक तत्वों की मात्रा सुरक्षित स्तर से कई गुना ज्यादा हो गई है।

दिवाली के बाद पटाखों के धुएँ, देश के विभिन्न हिस्सों में पराली का जलाया जाना (धान का डंठल), निर्माण स्थलों पर उड़ती धूल, सड़कों पर उठते गुबार और वाहनों, कल-कारखानों से निकलने वाले विषैले धुएँ ने वायुमण्डल के प्राकृतिक साम्य को गड़बड़ा दिया है। लिहाजा धुन्ध की विषैली परत जिन्दगी को धुँधला कर रही है।

धुन्ध अब छँट गई है (मौसम विज्ञानी इसके फिर लौटने की आशंका जता रहे हैं) लेकिन वायु प्रदूषण की स्थिति सुधरती नहीं दिख रही है। फौरी कदम (रक्षात्मक), लोकलुभावन (ऑड-इवेन) और स्वर्ग में सीढ़ी बनाने (कृत्रिम बारिश) जैसे अतिशयोक्ति उपायों से इसका स्थायी निदान नहीं सम्भव है। नियम-कायदे मानना तो दूर, छोटी-छोटी बातों पर ही हम ध्यान नहीं देते हैं।

सुप्रीम कोर्ट और पर्यावरण एजेंसियों के आदेशों की अवहेलना करना हमारी आदत में शुमार हो चुका है। आबोहवा बिगड़ चुकी है। विशेषज्ञों और अन्तरराष्ट्रीय अनुभवों को मानें तो किसी क्षेत्र विशेष की हवा को माकूल बनाने में दशकों लग जाते हैं चेतना हम सबको ही है। समय कम है। अभी से जुटकर अगर हम प्रकृति को नहीं बचाएँगे तो वह भी हमें नहीं बचा पाएगी।

प्रकृति ने मानव अस्तित्व को बनाए रखने के लिये हर अनुकूलता दे रखी है। साँस लेने के लिये ऑक्सीजन देती है। पानी देती है। फलों और खाद्यान्न की व्यवस्था कर रखी है। रहने और अन्य तमाम जरूरतों के लिये उर्वर जमीन मुहैया करा रखी है। इंसानों के लिये इतना सब कुछ करने के बाद भी उसकी हमसे कोई खास अपेक्षा नहीं रहती। सिर्फ उसके रूप-स्वरूप-रंगत को यथावत रहने दिया जाये। उससे छेड़छाड़ न की जाये। प्रकृति की इस उम्मीद पर हम कतई खरे नहीं उतरे। पानी को सुखा दिया। हवा को विषैली गैस बना दिया। जंगलों को काटकर धरती के आभूषण लूट लिये। जमीन को बंजर बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं। लिहाजा जैसा हम प्रकृति को दे रहे हैं, वैसा ही फल पा रहे हैं।

गैस चैम्बर


हमारी हवा को प्रदूषित करने के लिये कुछ गैस भी जिम्मेदार हैं। यह गैस हम लोगों के द्वारा ईंधन और कचरा जलाने से वातावरण में फैलती हैं। इनसे पर्यावरण को तो नुकसान पहुँचता ही है, साथ ही ये हमारे स्वास्थ्य पर भी दुष्प्रभाव डालती हैं।

 
 

नाइट्रोजन ऑक्साइड्स (एनओएक्स)

पीएम 10

कार्बन मोनोऑक्साइड (सीओ)

सल्फर डाइऑक्साइड (एसओ2)

 

कुछ अति प्रतिक्रियाशील गैसों को सामूहिक रूप से इस श्रेणी में रखा जाता है। इनमें प्रमुख रूप से नाइट्रिक ऑक्साइड (एनओ) और नाइट्रोजन डाइऑक्साइड (एनओ2) हैं। नाइट्रोजन डाइऑक्साइड एसिड रेन के लिये भी जिम्मेदार होती है।

ये हवा में मिले सूक्ष्म अभिकण होते हैं, जो साँस लेने पर हमारे फेफड़ों और खून तक में चले जाते हैं। ये 2.5 और 10 माइक्रोमीटर के होते हैं।

यह गैस गन्धहीन और रंगहीन होती है। यह किसी भी वस्तु को जलाने पर उत्सर्जित होती है।

यह अदृश्य और उलझन पैदा करने वाली गैस होती है। इनमें सल्फ्यूरिक एसिड (एच2एसओ4), सल्फ्यूरस एसिड (एच2एसओ3) और सल्फेट पार्टिकल्स प्रमुख हैं।

क्यों खतरनाक

ये गैसें वातावरण में मौजूद अमोनिया जैसे तमाम तत्वों के साथ प्रतिक्रिया करके नाइट्रिक एसिड जैसे कुछ खतरनाक पदार्थ बनाती हैं। इनसे फेफड़े और हृदय सम्बन्धी रोग होते हैं। इनमें अस्थमा और ब्रोन्काइटिस प्रमुख हैं।

ये आँखों और नाक में खुजली और जलन करते हैं। इनसे खाँसी, हृदय रोग, साँस रोग होते हैं। हार्ट अटैक भी इससे होता है। इनसे दृश्यता (विजिबिलिटी) घटती है, पेड़-पौधों को नुकसान होता है।

शरीर में जाने पर यह बड़े स्तर पर नुकसान पहुँचाती है। ऑक्सीजन की मात्रा को घटा देती है, जो रक्त के जरिए मस्तिष्क या हृदय में जाता है। इसकी अत्यधिक मात्रा हृदयघात तक को न्यौता दे सकती है। साथ ही इससे मस्तिष्क भी प्रभावित होता है।

इसकी अत्यधिक मात्रा शरीर में पहुँचने पर साँस सम्बन्धी रोग होते हैं। इससे नाक और गले में जलन, खाँसी, साँस लेने में दिक्कत और सीने में दर्द होता है। कई मामलों में मौत तक हो जाती है।

कहाँ से उत्सर्जन

यह गैसें ऑटोमोबाइल से सबसे तेज उत्सर्जित होती हैं। कुल उत्सर्जित गैस में ऑटोमोबाइल क्षेत्र की हिस्सेदारी 50 फीसद होती है। अन्य 50 फीसद उद्योगों, तापीय संयंत्रों और अन्य चीजों को जलाने से होता है।

ये अभिक्रमण निर्माण प्रोजेक्टों और सड़क की धूल से आते हैं।

वाहनों और मशीनरी मेंं बड़ी मात्रा में जीवाश्म ईंधन के जलने से यह गैस अधिक उत्सर्जित होती है।

99 फीसद गैस उत्सर्जन का कारण इंसान हैं। इसके उत्सर्जन का प्रमुख स्रोत उद्योग हैं। जैसे कोयले से चलने वाले ऊर्जा संयंत्र। वाहनों से भी यह गैस बड़ी मात्रा में उत्सर्जित होती है।

क्या करें

शहरों में वाहनों की संख्या घटाएँ, स्वच्छ ईंधन को बढ़ावा दें। औद्योगिक कार्बन उत्सर्जन को घटाएँ।

सुनिश्चित किया जाये कि निर्माण प्रोजेक्टों में प्रदूषण रोधी मानक ठीक से इस्तेमाल हो रहे हैं। सड़क की धूल को पानी के छिड़काव और खेती बढ़ाकर कम किया जाये।

वाहनों में नई तकनीक पर काम करना चाहिए, जिससे ईंधन को जलाने पर ऐसी खतरनाक गैस उत्सर्जित न हों।

बिजली बनाने के लिये कोयले पर से निर्भरता घटाकर स्वच्छ ऊर्जा पर निर्भरता बढ़ाएँ। वाहनों में भी प्राकृतिक गैस जैसे विकल्प बड़ी मात्रा में अपनाएँ।

 



कारगर तंत्र से होगी करामात


सुनीता नारायण (निदेशक, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई)

इस साल जब दिल्ली-एनसीआर सहित उत्तर भारत के आसमान पर छाई विषैली धुन्ध 17 सालों के रिकॉर्ड को तोड़ दिया, तब जाकर सरकारों ने प्रदूषण को रोकने के बारे में सोचा। लेकिन जिस स्तर का प्रदूषण हम देख रहे हैं, उस पर आसानी से लगाम लगा पाना हमारे बस में नहीं है। यही कारण है कि सरकार द्वारा सुझाए गए सभी आपातकालीन उपायों के बावजूद प्रदूषण का स्तर सामान्य की तुलना में पाँच से सात गुना ज्यादा है। ऐसा लग रहा है जैसे हम एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं।

दो दशक पहले ठीक इसी समय सीएसई ने राइट-टू-क्लीन-एयर (स्वच्छ हवा सबका अधिकार) अभियान शुरू किया था। उस वक्त भी दिल्ली की हवा साँस लेने लायक नहीं थीं। लेकिन लोगों को वायु प्रदूषण के कारकों की जानकारी नहीं थी। तब हमारा पहला लक्ष्य यह था कि हम लोगों को हवा में फैले जहर के बारे में जागरूक करें। लेकिन वैज्ञानिकों और ऊँचे पदों पर बैठे अधिकारियों ने हमारी बात को सिरे से नकार दिया।

भारतीय ऑटोमोबाइल उद्योग को तो वायु प्रदूषण की जरा भी चिन्ता नहीं थी। तब वाहनों से निकलने वाले धुएँ में सल्फर की मात्रा 1000 पीपीएम हुआ करती थी। (मौजूदा समय में यह 50 पीपीएम है।) उस समय जैसे ही हमारे अभियान ने असर दिखाना शुरू किया, सरकार और ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री में हलचल मच गई। हमने सुझाव दिया कि इस प्रदूषण को रोकने के लिये बड़ा कदम उठाने की जरूरत है। लेकिन सरकार के पास ईंधन और वाहनों में प्रदूषण का स्तर सुधारने के लिये कोई तरकीब नहीं थी। तब हमने सरकार को सीएनजी गैस का विकल्प सुझाया क्योंकि इसमें से पेट्रोल और डीजल के मुकाबले काफी कम पीएम कण उत्सर्जित होते हैं।

यातायात के सार्वजनिक साधनों में सीएनजी का इस्तेमाल होने से दोहरा फायदा होता। एक तो वाहनों से न्यूनतम प्रदूषण फैलता और ज्यादा लोग इन वाहनों में सफर करते। सरकार और ऑटोमोबाइल कम्पनियों ने हमारे प्रयासों को नाकाम करने की हर सम्भव कोशिश की। सीएनजी गैस के प्रयोग को लेकर सुप्रीम कोर्ट में होने वाली सुनवाई से पूर्व कई सीएनजी बसों को आग लगा दी गई। वहीं कार बनाने वाली एक बड़ी कम्पनी ने सीएसई के खिलाफ 100 करोड़ रुपए का मानहानि का दावा तक कर दिया।

इनका तर्क था कि डीजल में जहरीले तत्व नहीं होते। जबकि उसी दौरान अमेरिका की एक रिपोर्ट ने डीजल की तुलना कैंसर के कारकों से की थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई के बाद तत्काल बसों में डीजल का इस्तेमाल प्रतिबन्धित कर दिया। वहीं बसों में सीएनजी का इस्तेमाल शुरू नहीं होने तक रोज जुर्माने का प्रावधान रखा गया। इससे वाहनों के प्रदूषण स्तर में सुधार आया। 2002 से 2008 के मध्य तक दिल्ली की आबोहवा काफी हद तक साफ हुई।

2008 से ही वायु में प्रदूषण का स्तर तेजी से बढ़ने लगा। हर साल ठंड में यह अपने चरम पर रहने लगा। इस साल जैसे ही सर्दियों की शुरुआत हुई, वायुमण्डल की नमी ने इन प्रदूषकों को धुन्ध की चादर में तब्दील कर दिया। नासा द्वारा जारी की गई सेटेलाइट तस्वीरों में इस धुन्ध की चादर के पीछे खेतों में पराली के जलने को वजह बताया गया। हवा के साथ यह प्रदूषण दिल्ली पहुँचा और दिल्ली की आबोहवा को सुधारने के लिये पूर्व में उठाए गए सभी कदमों पर पानी फेर दिया।

इस समयावधि के दौरान दिल्ली की सड़कों पर वाहनों की बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई। आज यहाँ हर दिन एक हजार वाहन पंजीकृत हो रहे हैं। यह आँकड़ा सीएनजी से पहले के समय से दोगुने से अधिक है। एक तो करेला दूजे नीम चढ़ा। सरकारी नीतियाँ ऐसी हैं जो डीजल वाहनों की बिक्री में मददगार है। डीजन और पेट्रोल वाहनों की कीमतों में जो अन्तर रखा गया है वह डीजल गाड़ियों को बढ़त देने वाला साबित हो रहा है। ऐसे हालात ये सुनिश्चित करते दिखते हैं कि वायु प्रदूषण जानलेवा अनुपात तक बढ़ सकता है। ऐसे में हम क्या कर सकते हैं?

इसके लिये जल्द-से-जल्द सुधार के नए उपायों पर काम करना होगा। यातायात के सार्वजनिक साधनों को बढ़ाने के लिये पूर्व में काफी प्रयास किये गए थे, लेकिन शहर की अन्दरूनी सड़कों पर चलने के लिये सार्वजनिक साधन नहीं लाए गए। इससे निजी वाहनों पर लोगों की निर्भरता काफी ज्यादा हो गई। प्रदूषण से निपटने के लिये हमें एक ऐसा तंत्र बनाना होगा जिसमें मेट्रो, बसों व अन्य यातायात साधनों तक पहुँचने के लिये प्रदूषण मुक्त विकल्प मौजूद हों।

यह प्रयास सभी को मिलकर एक बड़े स्तर पर करना होगा तभी इसका सकारात्मक असर पड़ेगा। इसके साथ ही हमारे शहरों में डीजल की गाड़ियों पर प्रतिबन्ध लगाने की जरूरत है। या तो इसकी कीमत बहुत बढ़ा देनी चाहिए या निजी वाहनों में इसके इस्तेमाल पर रोक लगानी चाहिए। इसके सिवा हवा को स्वच्छ और साँस लेने योग्य बनाने का कोई रास्ता नहीं है। कार कम्पनियाँ इसके विरोध में भारतीय अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुँचने की दुहाई देंगी, लेकिन लोगों को यह याद रखना होगा कि प्रदूषण की समस्या जिन्दगी और मौत की लड़ाई है।

 

मुद्दा जनमत

क्या दिल्ली-एनसीआर में छाई विषैली धुन्ध की चादर प्रकृति से खिलवाड़ का नतीजा है?

 

17 प्रतिशत नहीं

 

83 प्रतिशत हाँ

क्या देश में पर्यावरणीय आपदाओं से निपटने के लिये प्रभावी नीति और पर्याप्त संसाधन हैं?

 

57 प्रतिशत नहीं

 

43 प्रतिशत हाँ

आपकी आवाज

1. जी हाँ, हमने अपने औद्योगिक विकास के कारण प्रकृति से छेड़छाड़ तो की लेकिन इसके नतीजों की अवहेलना की। इससे पर्यावरण सन्तुलन डगमगा गया है।<br>

- मोहित कुमावत<br><br>

 

2. एक ओर हम प्रकृति को बचाने का संकल्प लेते हैं तो दूसरी ओर दिवाली जैसे मौकों पर अन्धाधुन्ध पटाखे जलाते हैं, बड़ी मात्रा में कूड़ा जलाते हैं।<br>

- सुमन<br><br>

 

3. पर्यावरणीय आपदाओं से निपटने के लिये देश में पर्याप्त संसाधन तो हैं लेकिन उनका सही से इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है। इसके लिये प्रभावी नीति की आवश्यकता है।<br>

- सतीश मराठा<br><br>

 

4. प्रदूषण से निपटने के लिये तात्कालिक नीति और दीर्घकालिक आपदा नीति तैयार करनी चाहिए। मौजूद संसाधनों का वैकल्पिक तौर पर प्रयोग करने हेतु आम जनता को जागरूक करना चाहिए।<br>

- दिवी मंजिल<br><br>

 



उठाने होंगे प्रभावी कदम


अजय माथुर (पीएचडी-महानिदेशक, द एनर्जी एंड रिसोर्स इंस्टीट्यूट (टेरी), नई दिल्ली)मौसम का विश्लेषण बताता है कि दिल्ली सहित पूरे उत्तर भारत में विषैली धुन्ध छाने में एक ऐसी स्थिति का योगदान रहा है जिसमें धरती के पास की हवा की परत अपने ऊपर की परतों से ज्यादा ठंडी हो जाती है। साथ ही स्थिर हवा के कारण प्रदूषण का स्तर उस क्षेत्र विशेष में बढ़ता चला जाता है। चूँकि पूरे उत्तर भारत में प्रदूषण का उत्सर्जन लगातार जारी रहा, इसलिये इन स्थानों पर हवा विषैली होती गई।

गत दिनों में दिल्ली का 60 फीसद प्रदूषण, दिल्ली और उसके आस-पास के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में उत्सर्जित हुआ और बाकी 40 फीसद इस क्षेत्र के बाहर होने वाली गतिविधियों से उत्सर्जित हुआ। एनसीआर के अन्तर्गत उत्सर्जित हुए प्रदूषण के कई कारण हैं। इनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण हैंः कचरे का दहन, भवन निर्माण, सड़क पर चलती गाड़ियों के द्वारा धूल को वापस हवा में फेंकना और उद्योगों से उत्सर्जित धुआँ। इन सबके अलावा दीपावली में जलाए हुए पटाखों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।

एनसीआर के बाहर होने वाली गतिविधियों में प्रदूषण के 3 महत्त्वपूर्ण कारण हैंः धान के कटने के पश्चात बचे हुए डंठल को जलाना, घरों में खाना बनाने के लिये लकड़ी का इस्तेमाल किया जाना और कोयले से बिजली बनाने वाले तापीय बिजलीघरों से निकलता धुआँ।

भविष्य में ऐसे प्रदूषण की हाहाकारी स्थिति से बचने के लिये हमें इन सभी कारणों एवं गतिविधियों पर काबू पाना होगा। टेरी का मानना है कि कुछ कार्य हमको अभी से ही शुरू करने होंगे, जिनका लाभ उस समय मिलेगा जब आगे कभी धरती के करीब वाली हवा की परत अपने ऊपर की परतों से ज्यादा ठंडी हो जाएगी और स्थिर हवा वायु प्रदूषण के इस दौर से फिर गुजरने पर विवश करेगी। इनमें एक जरूरी पहल है दीपावली पर पटाखे जलाने को प्रतिबन्धित करना। पिछले दो दशकों में विद्यार्थियों द्वारा पटाखे न जलाने की मुहिम कुछ वर्ष तो सफल रही, परन्तु बढ़ती आबादी के साथ ये आत्मसंयम काफी नहीं रहा।

वैज्ञानिक विश्लेषण बताते हैं कि जिन परिस्थितियों के चलते विषैली धुन्ध की यह हालत बनी है, वे आती रहेंगी और यह शायद लगातार होती रहे। प्रदूषण के स्रोत को बन्द करना व उत्सर्जन को सीमित करना हमारे लिये अति आवश्यक हो गया है। अपने स्वास्थ्य के लिये (विशेषतौर पर बच्चों व वृद्धों के स्वास्थ्य के लिये) जल्द ही नियोजित कार्य योजना आरम्भ करना अब अनिवार्य है।

ताकि मिले शुद्ध हवा


सरकार और समाज के स्तर पर कुछ ऐसे कदम उठाए जा सकते हैं जिनसे हवा में घुल रहे जहर को रोका जा सकता है और हवा को फिर से प्राणदायिनी बनाया जा सकता है।

पटाखों पर नियंत्रण


दिल्ली प्रशासन पटाखे खरीदने व जलाने का दायित्व आरडब्ल्यूए को दे सकती है। प्रत्येक आरडब्ल्यूए की पटाखा खरीदने की सीमा भी तय कर सकती है। इस नियमन से अगली दिवाली पर पटाखों से पैदा होने वाले प्रदूषण में भारी कमी आ सकती हैं। लेकिन इसे कार्यरत करने के लिये अभी से सरकार को आवश्यक कदम उठाने होंगे।

पराली का एमएसपी


गत वर्षों में कम्बाइन हार्वेस्टर के बढ़ते इस्तेमाल से धान की कटाई जड़ से डेढ़ से दो फुट ऊपर होने लगी है। यंत्र में ही चावल बाली से अलग किया जाता है। इसके कारण यह डंठल खेत में ही रह जाता है। धान काटने के कुछ ही दिन बाद गेहूँ की बुवाई होती है। इसलिये किसान डण्ठल में आग लगा देते हैं, और अगली गेहूँ की फसल के लिये खेत तैयार करते हैं। इसको रोकने के लिये डंठल की कीमत होना आवश्यक है। हमारा सुझाव है कि सरकार डंठल जलाने पर प्रतिबन्ध लगाए। साथ ही धान के डंठल की खरीद के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा करे। इस डंठल को कोयला-रूपी ब्रिकेट बनाकर वैकल्पिक ईंधन की तरह बेचा जा सकता है। यह कार्यक्रम पूरी तरह आर्थिक रूप से टिकाऊ हो सकता है।

आपातकालीन योजना


हमारा सुझाव है कि एनसीआर में या जिस किसी भी क्षेत्र विशेष में जब भी 2.5 माइक्रोमीटर से छोटे कणों की मात्रा 400 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर से अधिक हो, तो आपातकालीन योजना लागू कर देनी चाहिए। इसके तहत शहर में पार्किंग दर को 10 गुना बढ़ा दिया जाना चाहिए। सड़कों को प्रतिदिन साफ करना चाहिए। पुरानी गाड़ियों के चलाने पर प्रतिबन्ध लगाना चाहिए। इसके साथ उन तापीय बिजलीघरों को बन्द करना चाहिए जिनका प्रदूषण क्षेत्र विशेष पर पड़ता है। साथ ही कचरे को जलाने और निर्माण कार्यों पर पूरी तरह से रोक लगाई जानी चाहिए। नागरिकों की सुरक्षा के लिये, स्कूलों और कॉलेजों में 3-5 दिन का अवकाश घोषित करना चाहिए। सभी कार्यालयों को सुझाव देना चाहिए कि वे अपने कर्मचारियों को घर से कार्य करने की सुविधा प्रदान करें।

सीखना होगा सबक


दुनिया में ऐसे कई शहर हैं जिन्होंने तकनीक, तेजी और तत्परता से प्रदूषण के खिलाफ प्रभावी उपाय किये। उनके तरीकों को आजमाकर हम भी प्रदूषण की धुन्ध से निपट सकते हैं और भविष्य के लिये सचेत भी रह सकते हैं।

बीजिंग- चीन


नवम्बर, 2015 को चीन की राजधानी बीजिंग की हवा सामान्य से 30 गुना अधिक जहरीली हो गई थी। दिसम्बर, 2015 में चीन ने पहली बार रेड अलर्ट जारी करके स्कूल बन्द कराए, उद्योगों, निर्माण कार्यों और वाहनों पर प्रतिबन्ध लगाया। इससे पहले ही एक जनवरी, 2015 को पर्यावरण सुरक्षा कानून अमल में आया। प्रदूषण फैलाने वाले पर जुर्माना राशि कई गुना बढ़ा दी गई। 1500 से अधिक स्थानों पर एयर रिपोर्टिंग सिस्टम लगाकर हर घंटे हवा में प्रदूषण का स्तर मापकर ऑनलाइन जारी किया जाता है। 2017 तक कोयले का कम इस्तेमाल और 2005 से पहले निर्मित वाहन हटेंगे।

मिलान- इटली


पिछले साल दिसम्बर में मिलान में अधिक प्रदूषण रहा। सरकार ने हफ्ते के चार दिन सुबह 10 बजे से शाम 4 बजे तक निजी गाड़ियों को प्रतिबन्धित कर दिया। इटली के अन्य शहर रोम में वाहनों के लिये सम-विषम फार्मूला लागू किया गया। साइकिल को बढ़ावा दिया गया।

लंदन- ब्रिटेन


1952 में पाँच दिनों तक प्रदूषण वाली जहरीली हवाएँ चलती रही। इसके चलते तकरीबन 4000 लोगों की जान गई। 1956 में क्लीन एयर एक्ट लागू किया गया, जिसके तहत उद्योगों और वाहनों से काले धुएँ के उत्सर्जन पर प्रतिबन्ध लगाया गया।

पेंसिलवेनिया- अमेरिका

1948 में 20 लोगों की मौत प्रदूषित हवाओं के कारण हुई। छह हजार से अधिक लोग बीमार हुए। 1970 में वहाँ एनवायरनमेंटल बिल ऑफ राइट्स लागू किया गया। जिसके तहत प्रदूषण फैलाने वाले कारकों पर लगाम लगाई गई। लोगों को प्रदूषण से लड़ने के अधिकार दिये गए।

पेरिस- फ्रांस


मार्च, 2015 में यहाँ प्रदूषण का स्तर अत्यधिक बढ़ गया था। यहाँ और इससे सटे 22 क्षेत्रों में वाहनों के लिये सम-विषम नियम लागू किया गया। इससे सड़कों पर आधी गाड़ियाँ कम हो गईं। प्रदूषण भी घटा। नियम तोड़ने वालों को पकड़ने के लिये बड़ी संख्या में पुलिसकर्मी सड़कों पर उतारे गए। साइकिलों को बढ़ावा दिया गया।

प्रदूषण पर प्रहार


इंसानों का अस्तित्व लाखों साल से इसलिये बरकरार है कि किसी भी मर्ज का वह झट से इलाज खोज लेता है। कठिन-से-कठिन परीक्षा में धरती का यह सबसे समझदार प्राणी हमेशा पास होता आया है। समस्याएँ डाल-डाल आती हैं तो समाधान ये पात-पात करते रहते हैं।

कृत्रिम बारिश


रॉकेट या विमान द्वारा कुछ खास रसायनों का छिड़काव बादलों पर किया जाता है। कृत्रिम बारिश होती है। रसायनों में प्रमुख रूप से सिल्वर आयोडाइड, पोटेशियम आयोडाइड, तरल प्रोपेन और ड्राइ आइस का प्रयोग होता है। बारिश के साथ छाए प्रदूषक तत्व नीचे गिर जाते हैं और धुन्ध साफ हो जाती है। कई देश इसका इस्तेमाल करके बारिश कराते हैं। 2008 में बीजिंग में हुए ग्रीष्मकालीन ओलम्पिक खेलों में बारिश से बचने के लिये इसका प्रयोग हुआ था।

हवा शोधक बल्ब- एयर प्यूरिफायर बल्ब


ये बल्ब घर के अन्दर मौजूद प्रदूषक तत्वों को जमीन पर एकत्र कर देते हैं। ये बल्ब ई-कॉमर्स वेबसाइट पर ऑनलाइन खरीद के लिये उपलब्ध हैं। इनकी कीमत 700 से तीन हजार रुपए के बीच है।

प्रकाश उत्प्रेरक पदार्थ- फोटो कैटालिटिक मैटीरियल


यह खास पदार्थ सूर्य की रोशनी के साथ प्रतिक्रिया करके वातावरण से प्रदूषक तत्वों को हटाने में मदद करते हैं। विश्व में कई कम्पनियाँ इस पर शोध कर रही हैं। वाहनों में इसके इस्तेमाल से वातावरण में मौजूद प्रदूषण को काफी हद तक कम किया जा सकता है। ब्रिटिश संस्था एनवायरनमेंटल इंडस्ट्री कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार इस पदार्थ को अगर सड़कों पर लगाया जाये तो कई फायदे होंगे। यह काफी सस्ता पड़ेगा साथ ही इससे वातावरण में मौजूद पीएम 2.5, पीएम 10 और नाइट्रोजन ऑक्साइड्स को बड़ी मात्रा में घटाया जा सकता है। इस पदार्थ में टाइटेनियम डाइऑक्साइड का प्रयोग प्रमुख रूप से होता है।

जीटीएल ईंधन- गैस टू लिक्विड फ्यूल


यह ईंधन डीजल का विकल्प है। प्राकृतिक गैस से रिफाइनरी प्रणाली के जरिए तरल रूप में प्राप्त होता है। कुछ निजी तेल कम्पनियाँ इसको नीदरलैंड और ब्रिटेन के बाजार में उतार चुकी हैं। इसका परीक्षण कर दावा किया गया है कि बड़े ट्रकों, बसों और समुद्री जहाजों में इसके इस्तेमाल से नाइट्रोजन ऑक्साइड्स का उत्सर्जन 5-37 फीसद और प्रदूषक अभिकणों पीएम 2.5 और पीएम 10 का उत्सर्जन 10-38 फीसद घटा। प्राकृतिक गैस से डीजल का एक अन्य विकल्प डाइमिथाइल ईथर भी तैयार करने का दावा भी किया गया है। इससे नाइट्रोजन डाइऑक्साइड्स का उत्सर्जन 25 फीसद घटने का दावा किया गया है। इसके इस्तेमाल के लिये इंजनों में बदलाव करना होगा। फोर्ड और वाल्वो जैसी कम्पनियाँ वाहनों में इसके इस्तेमाल पर शोध कर रही हैं।

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Post By: RuralWater
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