बाबूलाल दाहिया के पास धान की 70 किस्में हैं। जिसमें कुछ सुगंधित हैं तो कुछ बिना सुगंध की। कम अवधि में पकने वाली किस्मों से लेकर लंबी अवधि की किस्में हैं। 70 से 75 दिन में पकने वाली सरया, सिकिया, श्यामजीर, डिहुला, सरेखनी किस्में हैं तो मध्यम समय में 100 से 120 दिन में पकने वाली नेवारी, झोलार, करगी, मुनगर, सेकुरगार, आदि हैं। इसके अलावा 120 से 130 दिनों में पकने वाली बादल फूल, केराखम्ह, बिष्णुभोग, दिलबक्सा आदि किस्में शामिल हैं।
इन दिनों किसानों पर अभूतपूर्व संकट मंडरा रहा है। उनकी आत्महत्याओं का दौर चल रहा है। पिछले 16 वर्षों में ढाई लाख से ज्यादा किसान अपनी जान दे चुके हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक मध्य प्रदेश में रोज 4 किसान आत्महत्या कर रहे हैं। होशंगाबाद जिले में पिछले ढाई सालों में 7 किसान मर चुके हैं। जबकि हाल ही में चार दिनों के भीतर तीन किसानों ने आत्महत्या कर ली है। पर परंपरागत देशी बीजों की खेती करने वाले किसान आत्महत्या नहीं कर रहे हैं। जहां-जहां हरित क्रांति के नए बीजों के साथ भारी पूंजी और आधुनिक उन्नत खेती हो रही है वहां-वहां किसान आत्महत्या कर रहे हैं। जिस इलाके में आत्महत्याएं हुई हैं वह तवा बांध से सिंचित क्षेत्र था। वन क्षेत्र और असिंचित इलाकों में अब भी कहीं-कहीं देशी बीज प्रचलन में हैं। इसी तरह पड़ोसी जिले सतना में एक प्रयोगधर्मी किसान देशी बीजों से न केवल खेती कर रहे हैं बल्कि उनका संरक्षण-संवर्धन भी कर रहे हैं।एक छोटे से गांव पिथौरागढ़ के किसान हैं बाबूलाल दाहिया। हाल ही मेरी उनसे मुलाकात हुई। जब मैंने उनके देशी धान के संग्रह देखा तो देखता ही रह गया। दीवार पर ब्लैकबोर्ड की तरह टंगे पॉलीथीन के पैक में अलग-अलग धान की किस्में अपना सौंदर्य बिखेर रही थीं। छोटी-छोटी डिब्बियों में रंग-बिरंगे धान बीज बहुत सुंदर लग रहे थे। गोबर से लिपे-पुते आंगन में कुछ धान की किस्मों के बंधे गुच्छे रखे थे। जिसकी हाल ही में कटाई हुई थी। गीली बालियों से हल्की सौंधी खुशबू आ रही थी। कुछ महिलाएं हाथ की चक्की से उड़द की दाल बना रही थीं। दाहिया एक ऋषि की तरह देशी बीजों के गुणों का बखान कर रहे थे। वैसे तो उनकी खेती-किसानी के साथ-साथ साहित्य में रूचि रही है। लेकिन जबसे उन्हें यह अहसास हुआ कि जैसे लोकगीत व संस्कृति लुप्त हो रही है, वैसे ही लोक अन्न भी लुप्त हो रहे हैं, तबसे उन्होंने इन्हें सहेजने और बचाने का काम शुरू किया है। अब वे गांव-गांव से देशी बीजों का संग्रह करते हैं और फिर उन्हें खेतों में हर साल उगाते हैं। उनका संरक्षण व सवंर्धन करते हैं।
यद्यपि वे मध्य प्रदेश के सतना जिले के हैं लेकिन होशंगाबाद के करीब होने के कारण उनके संग्रह में यहां के कई देशी बीज भी हैं। यहां के कठिया गेहूं, लल्लू (ललई) धान और ज्वार की कई किस्में उनके पास सुरक्षित हैं। वे देशी बीजों के बारे में बताते हैं कि इनमें बहुत विविधता है। जैसे गलरी पक्षी की आंख की तरह होता है गलरी धान। इसी तरह किसी धान का दाना सफेद होता है तो किसी का लाल। किसी का काला तो किसी का बैंगनी, किसी का मटमैला। कुछ का दाना पतला तो किसी का मोटा और कोई गोल तो किसी का दाना लंबा। कुछ धान की किस्मों के पौधे हरे होते हैं तो किसी के बैंगनी। इनमें न केवल विविधता है बल्कि अलग-अलग रूप रंग का अपना विशिष्ट स्वाद व अपूर्व सौंदर्य है। परंपरागत देशी धान की विविधता के कई किस्से-कहानियां जनश्रुतियों में मौजूद हैं।
बाबूलाल दाहिया के पास धान की 70 किस्में हैं। जिसमें कुछ सुगंधित हैं तो कुछ बिना सुगंध की। कम अवधि में पकने वाली किस्मों से लेकर लंबी अवधि की किस्में हैं। 70 से 75 दिन में पकने वाली सरया, सिकिया, श्यामजीर, डिहुला, सरेखनी किस्में हैं तो मध्यम समय में 100 से 120 दिन में पकने वाली नेवारी, झोलार, करगी, मुनगर, सेकुरगार, आदि हैं। इसके अलावा 120 से 130 दिनों में पकने वाली बादल फूल, केराखम्ह, बिष्णुभोग, दिलबक्सा आदि किस्में शामिल हैं। देशी धान की खासियत बताते हुए वे कहते हैं कि वह बहुत स्वादिष्ट होती हैं। इसलिए दाम भी अच्छा मिलता है। जबकि हाईब्रीड में स्वाद नहीं होता। देशी धान में गोबर खाद डालने से धान की पैदावार हो जाती है। जबकि हाइब्रीड या बौनी किस्मों में रासायनिक खाद डालनी पड़ती है। जिससे लागत बढ़ती है और भूमि की उर्वरक शक्ति भी कम होती है।
कीट व्याधि को मकड़ी, मधुमक्खी, चींटी और मित्र कीट ही नियंत्रित कर लेते हैं। केंचुएं निस्वार्थ भाव से 24 घंटे गुड़ाई कर जमीन को भुरभुरा बनाते हैं, खेत को बखरते हैं जिससे पौधे की बढ़वार में मदद मिलती है। देशी किस्में कम वर्षा में भी पक जाती है जबकि हाईब्रीड किस्मों में सिंचाई की मांग होती है। इसके अलावा, देशी किस्में मौसम के प्रभाव से पक जाती है। चाहे उन्हें देर से लगे या जल्दी, वे ऋतु के प्रभाव से पक जाती है। जबकि हाईब्रीड या बौनी किस्में दिनों के हिसाब से पकती हैं। उन्होंने खेती-किसानी और मौसम से जुड़ी लोकोक्ति, मुहावरे और कहावतों का अनूठा संग्रह किया है जिसे पुस्तक (सयानन के थाती) के रूप में मध्य प्रदेश राज्य जैव विविधता बोर्ड ने प्रकाशित किया है। आज तो रेडियो, टेलीविजन और आधुनिक तकनीक से हमें मौसम के पूर्वानुमान की सूचना मिल जाती है लेकिन जब यह सब चीजें नहीं थी तब भी हमारे पूर्वजों ने अपने अनुभव के आधार पर कहावतें व लोकोक्ति गढ़ी होगी। जो हमारी खेती में मददगार होती थी।
हमारे पूर्वज बादलों के रंग, हवा के रूख, अवर्षा, खंड वर्षा का पूर्वानुमान लगाने में माहिर थे। जैसे एक कहावत है कि पुरबा जो पुरबाई पाबै, सूखी नदियां नाव चलाबैं। यानी पूर्वा नक्षत्र में पुरवैया हवा चलने लगे तो इतनी वर्षा होती है कि सूखी नदियों में इतना पानी हो जाता है कि नाव चलनी लगे। वे बताते हैं जैसे हमारे देशी बीज खत्म हो रहे हैं वैसे उसी जुड़े कई शब्द भी खत्म हो रहे हैं। पूरी कृषि संस्कृति और जीवन पद्धति खत्म हो रही है। अब हमारा काम गेहूं, चावल और दाल जैसे शब्द से चल जाता है। लेकिन पहले बहुत सारे अनाज होते थे। उनके नाम थे जैसे समा, कोदो, कुटकी, मूंग, उड़द, ज्वार, तिल्ली आदि। फिर उन्हें बोने से लेकर काटने तक कई काम करने पड़ते थे। बोवनी, बखरनी, निंदाई-गुड़ाई, दाबन, उड़ावनी और बीज भंडारण आदि। खेती की हर प्रक्रिया के अलग-अलग नाम थे। यह जरूर है कि ये शब्द किसी शब्दकोष में नहीं लेकिन लोक मानस में थे। बुजुर्ग अब भी इन शब्दों को आत्मीय ढंग से याद करते हैं। लेकिन खेती का फसलचक्र बदलने से, एकल खेती होने से ये शब्द भी लोप हो रहे हैं।
पहले आत्मनिर्भर खेती होती थी। नमक को छोड़कर सभी चीजें गांव में ही मिल जाती थी। खेत में ही सब कुछ हो जाता था। मिलवां यानी मिश्रित खेती होती थी। एक साथ कई फसलें बोते थे। ज्वार, मूंग, उड़द, तुअर, तिल, कोदो बोते थे। इसमें रोटी, दाल, चावल सब कुछ मिल जाता था। तिल पिराकर तेल मिल जाता था। ज्वार के कडवी से पशुओं के चरने के काम आ जाती थी। इसी प्रकार लोहार और बढ़ई से खेती के औजार बनाते थे, बदले में उन्हें अनाज मिलता था। यानी गांव पूरी तरह आत्मनिर्भर था। स्वावलंबी खेती थी। लेकिन अब खेती परावलंबी हो गई। इसलिए देशी बीज, हल-बैल और गोबर खाद की खेती की ओर लौटना होगा। इसमें मेडागास्कर जैसी लोकप्रिय तकनीक को अपनाकर पैदावार बढ़ाई जा सकती है। विश्व प्रसिद्ध डॉ. आर.एच. रिछारिया ने भी अपने प्रयोगों से यह बात स्पष्ट की है कि देशी किस्मों में उत्पादन क्षमता कम नहीं है। डॉ. रिछारिया के द्वारा लिखित वर्ष 1977 के दस्तावेज मध्य प्रदेश में चावल के दीर्घकालीन विकास को सुनिश्चित करने के लिए एक रणनीति में बताया गया है कि विदेशीय अधिक उत्पादकता की किस्मों के बराबर या उससे अधिक उत्पादकता अपेक्षाकृत कहीं कम खर्च में देने वाली अनेक देशी अधिक उत्पादकता वाली किस्में भी उपलब्ध हैं। इस हिसाब से देशी बीज बचाने का काम अत्यंत महत्वपूर्ण है।
( इंक्लूसिव मीडिया फैलोशिप 2011 के तहत यह रिपोर्ट लिखी गई है)
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