सूर्या का स्रोत

बारिश के होते हुए हम ‘कासा का सर्वोदय केंद्र देखने गये। वहां जाने के लिए ये दिन अच्छे नहीं थे, इसीलिए तो हम गये। बारिश के दिनों में छोटी-छोटी ‘नदियां’ रास्ते पर से बहने लगती हैं, उनमें पानी बढ़ने पर मोटर बसे भी घंटों तक रुकी रहती हैं। हमने सोचा कि हमारे सर्वोदय-सेवक हमारे आदिम-निवासी भाइयों के बीच कैसे काम करते हैं यह देखने का सही समय है।’

भारत के पश्चिम किनारे के एक सुंदर स्थान से मेरा घनिष्ठ परिचय है। बंबई के उत्तर में करीब सौ मील के फासले पर बोरडी-घोलवड का स्थान है। वहां मैं महीनों तक रहा था। और वहां के समुद्र की लहरों से रोज खेलता था। समुद्र का पानी भी जब भाटा के कारण पीछे हटता था तब मील डेढ़ मील तक पीछे चला जाता था। और सारा समुद्र किनारा गीले टेनिस कोर्ट के जैसा हो जाता था। हम पांच-दस लोग इस गीली रेत के मैदान पर होकर समुद्र की लहरें ढूंढ़ने चले जाते थे। जब ज्वार आता तब पानी की लहरें हमारा पीछा करती थीं और हम किनारे की ओर दौड़ते आते थे। पानी की लहरें धावा बोलें और हम अपनी जान लेकर किनारे तक दौड़ते आ जायें, यह खेल बड़े मजे का था। देखते-देखते सारा खुला मैदान बड़े सरोवर का रूप ले लेता है और वायु पानी के साथ खेल करती है। ऐसे खारे पानी में और रेत में भी एक जगह तरवड़ के पेड़ उगे थे। उनके चिकने-चिकने पत्ते देखकर मैं कहता कि ये बड़े ‘होनहार बिरवान’ हैं।

इस विशाल सरोवर-मैदान मे उदावरण –प्रजा की बहुत सृष्टि बसी है। किस्म-किस्म के शंख, किस्म-किस्म के केकड़े और ऐसे ही छोटे-मोटे प्राणी वहां रहते थे और उनके कवच और हड्डियां समुद्र किनारे देखने को मिलती थीं।

बोरडी में मैं रहने गया, तब वहां एक ही अच्छा हाईस्कूल था। अब वह एक अच्छा और बड़ा और शिक्षा–केंद्र हो गया है। बाल-शिक्षण, प्रौढ़-शिक्षण, नयी तालीम, आदि-निवासियों की तालीम, अध्यापन-केंद्र आदि अनेक संस्थाएं वहां पर स्थापित हो गयी हैं। अब तो बोरडी राजनैतिक जागृति का, शिक्षा-वितरण का और समाज सेवा का एक प्रधान केंद्र बना हुआ है।

बोरडी के दक्षिण में मैं एक दफा चींचणी भी गया था। वहां के कारीगर ठप्पा बनाने की कला में सारे हिन्दुस्तान में अद्वितीय माने जाते हैं। कांच की चूड़ियां भी वहां अच्छी बनती हैं।

अबकी बार चींचणी और बोरडी के बीच डहाणू हो आया। यह स्थान भी समुद्र के किनारे है। उसका प्राकृतिक दृश्य बोरडी से कम सुन्दर नहीं है।

पचास पौन सौ बरस पहले ईरान से आये हुए चंद ईरानी खानदान यहां बसे हुए हैं। घर पर ईरानी भाषा बोलते हैं। अब ये लोग ईरान से प्राचीन काल में आये हुए पारसी लोगों के साथ कुछ-कुछ घुलमिल रहे हैं, और गुजराती और मराठी उत्तम बोलते हैं। इन ईरानियों के बगीचे और बाड़ियां खास देखने लायक हैं। खेती के आनुभविक विज्ञान से और मेहनत-मजदूरी से इन लोगों ने लाखों रुपये कमाये हैं। हमारे देश में बसकर इन लोगों ने इस देश की आमदनी बढ़ायी है और यहां के किसानों को अच्छे से अच्छा पदार्थ पाठ सिखाया है। ये लोग हमारे धन्यवाद के पात्र हैं।

डहाणू से सोलह मील का फासला तय करके हम कासा गये। मेरे एक पुराने विद्यार्थी श्री मुरलीधर घाटे बारह-पंद्रह बरस से ग्रामसेवा का काम करते आये हैं। इसी साल उन्होंने-और उनकी सुयोग्य धर्मपत्नी ने –कासा का केंद्र अपने हाथ में लिया और देखते-देखते यहां का सांस्कृतिक वातावरण समृद्ध बना दिया। आचार्य श्री शंकरराव भी से कि प्रेरणा से यह सब काम चल रहा है।

डहाणू से कासा पहुंचते हुए सामने एक बहुत ऊंचा पर्वत-शिखर दीख पड़ता है। शिखर का आकार देखते हुए इस पहाड़ को ऋष्य-शृंग कहना चाहिये। दरयाफ्त करने पर मालूम हुआ कि शिखर के शृंग का पत्थर मजबुत नहीं है। पत्थर को पकड़कर कोई ऊपर चढ़ने जाये तो पत्थर के टुकड़े हाथ में आ जाते हैं। मुझे डर है कि हजार दो हजार बरस के अंदर यह सारा शृंग हवा, पानी और धुप से घिस जायेगा और पहाड़ की ऊंचाई एकदम कम हो जायेगी। इस पहाड़ के शिखर पर श्री महालक्ष्मी का मंदिर है। कहा जाता है कि कोई गर्भिणी स्त्री महालक्ष्मी के दर्शन के लिए ऊपर तक गयी और थक गयी। महालक्ष्मी ने पुजारी को स्वप्न मे आकर कहा कि अपने भक्तों के ऐसे कष्ट मैं सहन नहीं कर सकती, मुझे नीचे ले चलो। अब उसी पहाड़ की तराई में महालक्ष्मी का दूसरा मंदिर बनाया गया है।

कासा के नजदीक एक अच्छी-सी नदी बहती है, जिसका नाम है सूर्या इस नदी के बारे में एक लोककथा है।

जब पांडव इस रास्ते से तीर्थयात्रा करने जा रहे थे, तब भीम की इच्छा हुई कि स्थान-देवता श्री महालक्ष्मी से शादी करे। पूछने पर महालक्ष्मी ने कहा कि चंद योजन के फासले पर जो सूर्या नदी बहती है उसके प्रवाह को अगर तुम मोड़कर मेरे इस पहाड़ के पांव के पास ले आओगे तो मैं तुमसे शादी करूंगी। शर्त इतनी ही है कि यह सारा काम एक रात के अंदर होना चाहिये। अगर सुबह का मुर्गा बोला और तुम्हारा काम पूरा नहीं हुआ तो हमसे तुम्हारी शादी नहीं होगी। भीम ने वादा किया। बड़े-बड़े पत्थर लाकर उसने रोक दिया। थोड़ी सी जगह बाकी थी उसके लिए पत्थर न मिलने पर उसने अपनी पीठ ही अड़ा दी। फिर तो पूछना ही क्या? नदी का पानी बढ़ने लगा और धीरे-धीरे महालक्ष्मी की पहाड़ी की ओर मुड़ने लगा। महालक्ष्मी घबड़ा गयी कि अब इस निरे मानवी के साथ शादी करनी होगी। देवों में चालबाजी बहुत होती हैं। हारने की नौबत आती है तब वे कुछ-न-कुछ रास्ता ढूंढ़ ही निकालते हैं।

इधर भीम बांध के पत्थरों के बीछ पीठ अड़ाकर राह देख रहा था कि पानी पहाड़ी तक कब पहुंच जाता है। इतने में महालक्ष्मी ने मुर्गे का रूप धारण किया और सुबह होने के पहले ही ‘कुकड़ू कू’ करके आवाज दी। बेचारा भोला भीम निराशा हुआ कि समय के अंदर अपना प्रण पूरा नहीं हो सका। वह उठा उतनी जगह मिलते ही बढ़ा हुआ पानी जोरों से बहने लगा और पानी के साथ भीम की मुराद भी बह गयी!

इसी तरह धूर्त देवों का और बलशाली असुरों का झगड़ा भी अनगिनत लोक कथाओं में और पुराणों में पाया जाता है।

हम अनेक हरे-हरे खेतों को पारकर सूर्या के किनारे पहुंचे। बारिश के दिन थे। पानी खूब बढ़ा हुआ था और भीम-बांध के सीर पर से नीचे कूद पड़ता था। दृश्य बड़ा ही मनोहारी था। जहां पानी जोर से बहता था, वहां हमने अपनी कल्पना का भीम बैठा हुआ देखा। हमने उसे प्रणाम किया। उसने विषाद से अपना सिर हिलाया। और वह फिर ध्यान में मग्न हो गया।

हम लौटकर कासा आये। वहां का काम देखा। आदिम जीवन को प्रकट करने वाली प्रदर्शनी देखी। कुछ खाना खा लिया, लोगों से बाते की और फिर बस में बैठ कर महालक्ष्मी का मंदिर देखने गये। रास्ते में आदिम-निवासी जाति के लोगों की कुटियां और उनके खेत देखे। यह जाति पिछड़ी हुई जरूर है, किन्तु उसने अपने जीवन का आनंद नहीं खोया है। महालक्ष्मी का मंदिर पहाड़ी के नीचे एक रमणीय स्थान पर है। देवी के भक्त दूर-दूर तक फैले हुए हैं। हर साल एक बहुत बड़ा मेला लगता है। देखते-देखते एक लाख लोगों की यात्रा भर जाती है। ऐसे यात्रियों के रहने के लिए चंद लोगों ने अभी यहां पर एक अच्छी धर्मशाला बांध दी है। उसे जाकर देखा। संगमरमर के पत्थर पर दाताओं के नाम खुदे हुए थे नाम पढ़कर मुझे बड़ा ही आश्चर्य हुआ। सबके सब नाम अफ्रिका के दिक्षण रोडेशिया में बसे हुए गुजराती धोबियों के थे। किसी ने सौ शिलिंग दिये थे। किसी ने हजार दिए थे। कहां दक्षिण रोडेशिया, कहां गुजरात, और कहां थाना जिले के मराठी लोगों के बीच यह गुजरातियों का बनाया हुआ आराम-घर!

स्वराज्य सरकारी की मदद से इन आदिम-निवासियों के नवयुवक अब उत्साह के साथ नयी-नयी बातें सीख रहे हैं और अपनी जाति के उद्धार की बातें सोच रहे हैं। मैंने उनसे कहा तुम इतने पिछड़े हुए हो कि अपनी जाति के ही उद्धार के प्रयत्न करना तुम्हारे लिए ठीक है। लेकिन मैं तो वह दिन देखना चाहता हूं कि जब तुम लोग केवल अपनी ही जाती का नहीं किन्तु सारे भारत के उद्धार का सोचने लगो। केवल अपनी जाति के ही नहीं किन्तु सारे देश के नेता बनोगे। जो अपनी ही जमात का सोचते हैं, उनका पिछड़ापन दूर नहीं होता। जो सारी दुनिया का सोचते हैं, सारी दुनिया की सेवा करते हैं, वहीं अपनी और अपने लोगो की सच्ची उन्नति करते हैं।

मैंने अपने मन में प्रश्न पूछा, अगर इन लोगों में भीम के जैसी शक्ति आयी और यहां के इर्द-गिर्द के सवर्ण, सफेदपोश लोगों में स्थानिय देवता महालक्ष्मी के जैसी चतुराई आयी तो परिणाम क्या होगा! फिर तो केवल पानी की सूर्या नदी नहीं बहेगी!

कलियुग का माहात्म्य समझकर नहीं, किन्तु सतयुग की स्थापना के लिए हमें इन आदिम-जातियों को अपने में पूरी तरह समा लेना चाहिये। चार वर्णों की पुनः स्थापना की बातें और आदिम-जाति के ‘उद्धार की’ परोपकारी भाषा अब हमें छोड़ देनी चाहिये। इनमें और हममें कोई भेद ही नहीं रहना चाहिये।

सितम्बर, 1951

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