सूर्य प्रतिमायें (Son-Statues in India in Hindi)


सारांश


भारत की प्राचीनतम ज्ञात सभ्यता सैन्धव काल से मूर्ति पूजन के साक्ष्य प्राप्त होने लगते हैं। ऋग्वेद में सूर्य के प्राकृतिक स्वरूप की स्तुति दस सूक्तों में की गई है। सूर्य की प्रतिमाओं का निर्माण दूसरी शताब्दी ई. से होने लगा था जिनका वास्तविक विकास गुप्तकाल में देखने को मिलता है। देश के विभिन्न भागों में निर्मित 68 सूर्य मन्दिरों का उल्लेख स्कन्दपुराण में हुआ है। सूर्य प्रतिमाओं के रूप के आधार पर विभिन्न भागों में विभक्त सूर्य मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं। सभी मूर्तियों की अपनी विशेषताएँ हैं।

Abstract : The evidence of icon worship is found in the ancient oldest known civilization of Indus valley. In India, prayers in nature's form of Surya in ten Suktas in Rig-Veda. Sculptures of Surya started in second century A.D. and developed significantly in Gupta Period. Skanda-Puran has mentioned about 68 Temples of Sun in different parts of country. On the basis of Architecture Sun Icon found in different parts of the country. All Icons have special significance.

मूलतः धर्म प्रधान देश भारत में मूर्ति पूजन के प्राचीनतम साक्ष्य सैंधवकाल से ही प्राप्त होने लगते हैं। सम्पूर्ण विश्व की स्थिति एवं सुरक्षा के संचालक सूर्य हैं। समस्त लोक को प्रकाशवान करने वाले सूर्य हैं। सूर्य शब्द की व्युत्पत्ति है- ‘‘सुवति प्रेरयति कर्मणि लोकम्’’ अर्थात जो समस्त लोक को कर्म में संलग्न करे वह सूर्य है। सूर्य के रूप के विषय में ऋग्वेद के समय से वर्णन प्राप्त होता है। जिसमें सूर्य को दिव्य सुपर्ण गरूत्मान कहा गया है। ऋग्वेद में सूर्य के प्राकृतिक स्वरूप की स्तुति दस सूक्तों में की गई है। सूर्य को जगत के समस्त जीवों की आत्मा कहा गया है। अथर्ववेद में सूर्य को अदिति का पुत्र बताया गया है। सूर्य को प्रकाश के देवता, बुराइयों से दूर रखने वाला समस्त देवताओं की आत्मा बताया गया है। पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सूर्य की आकृति एक गोल चक्र के रूप में सैन्धव सभ्यता के समय में प्राप्त होती है। आहत सिक्कों तथा जनपद और गणराज्यों के सिक्कों पर भी चक्र आकार की आकृति प्राप्त होती है।

वेदोत्तर काल में सूर्य पूजन के विकास का ज्ञान प्राप्त होता है। महाभारत में सूर्य के आदित्य रूप में व्याख्या का विस्तृत विवेचन देखने को मिलता है। इसमें सूर्य के द्वादशादित्यों के नामों का उल्लेख मिलता है-

धाता, मित्र, अर्यमन, इन्द्र, वरुण, अंश भग, विवस्वान, पूजा, सविता, त्वष्टा, विष्णु।

सूर्य को सर्वोच्च आत्मा और विश्व के सृष्टा के रूप में वर्णित किया गया है।

सूर्य की प्रतिमाओं का निर्माण दूसरी शताब्दी ई.पू. से होने लगा था जिनका वास्तविक विकास गुप्तकाल में देखने को मिलता है। देश के विभिन्न भागों में निर्मित 68 सूर्य मन्दिरों का उल्लेख स्कन्द पुराण में हुआ है। मध्य युग में सूर्य के प्रतिमा लक्षणों का निर्धारण किया जा चुका था। मध्ययुगीन अभिलेखों में भी सूर्य मन्दिर सम्बन्धी सन्दर्भ उल्लिखित हैं। अपराजितपृच्छा के अनुसार सूर्य की प्रतिमा द्विभुजी, एकमुखी तथा हाथों में श्वेत पद्म धारण किये हैं। उनका वर्ण लाल है तथा लाल वस्त्र धारण किये हुये। सूर्य का वाहन सप्ताश्व रथ है। विभिन्न पुराणों में भी सूर्य की विभिन्न विशेषताओं का उल्लेख मिलता है। अरुण सारथी है। दोनों ओर क्रमशः पिंगला तथा दण्डी हैं। बाद में ऊषा और पृत्यूषा भी विराजमान दिखाई गई है। शास्त्रीय ग्रन्थों में सूर्य प्रतिमाओं के दो रूप मिलते हैं- (1) पारिवारिक, (2) रथारूढ़/डा. वासुदेव उपाध्याय ने सूर्य प्रतिमाओं के रूप के आधार पर निम्न भागों में विभक्त किया है-

1. स्थानक मूर्तियाँ (खड़ी हुई मूर्तियाँ)
2. आसन मूर्तियाँ (बैठी हुई मूर्तियाँ)
3. बहुभुजी प्रतिमायें
4. दक्षिण भारतीय शैली के आधार पर निर्मित मूर्तियाँ।
5. नवग्रह मूर्तियाँ
6. पतिहार मूर्तियाँ।

1. स्थानक प्रतिमायें - इस प्रकार की सूर्य मूर्ति दोहरे कमलासन पर खड़ी है। सिर पर किरीट मुकुट है वनमाला धारण किये है कमरबन्ध इत्यादि विभिन्न आभूषण धारण किये हुये है। सूर्य के अनुचर दंडी पिंगला, ऊषा, प्रत्यूषा अंकित हैं। इस प्रकार की प्रतिमायें मध्य प्रदेश, उड़ीसा, बंगाल तथा बिहार से प्राप्त हुई हैं। लखनऊ के राज्य संग्रहालय की 9वीं 10वीं शती ई. की मूर्ति विशेष उल्लेखनीय है। इस मूर्ति में द्विभुजी सूर्य अरुण सहित सप्ताश्व रथ पर खड़े हैं। उनके हाथों में पूर्ण विकसित कमल तथा जानु से नीचे के पैर रथ में छिपे हुये हैं। वे किरीट मुकुट, कुंडल, हार, यज्ञोपवीत, केयूर, कंकण, मेखला धारण किये हुये हैं, दोनों ओर हवा में लहराते उत्तरीय का अंकन है। सूर्य के दायीं ओर लेखनी एवं मसिपात्र ग्रहण किये हुये पिंगल की तथा बांयी ओर दण्ड धारी दण्ड की स्थानक आकृति बनी हुई है। बर्दवान विश्वविद्यालय के संग्रहालय में संरक्षित मूर्ति बांग्ला देश के दीनाजपुर जिले से प्राप्त हुई है। इसमें भी सूर्य सभी आभूषणों से अलंकृत हैं। उनके चरणों के आगे देवी महाश्वेता खड़ी हैं तथा इनके आगे सारथी अरुण की क्षतिग्रस्त आकृति है। ऊषा, प्रत्यूषा की आसन तथा चार सूर्य पत्नियां क्षतिग्रस्त अवस्था में बनी है। इसी प्रकार से खजुराहो से प्राप्त खड़ी प्रतिमायें उल्लेखनीय हैं जहाँ सूर्य घाता रूप में निर्मित हैं। ये मूर्तियां खजुराहो के चित्रगुप्त मन्दिर में उत्कीर्ण हैं। इसमें सूर्य त्रिभंग मुद्रा में खड़े हैं। उनके ऊपर के हाथों में कमलनाल के रूप में चित्रित पद्म है तथा दायां वरद मुद्रा में तथा बायां हाथ मण्डल से युक्त है। मस्तक पर जटामुकुट प्रदर्शित किया गया है। खजुराहो की दोनों मूर्तियाँ उत्तर भारतीय परम्परा में निर्मित हैं। स्थानक मूर्तियों में सूर्य अन्य देवताओं के साथ सम्मिलित रूप में दिखाई पड़ता है। इनमें इन्दौर संग्रहालय झालावाड़ संग्रहालय में तथा बिडला संग्रहालय भोपाल में मूर्ति दर्शनीय है।

2. आसन (बैठी हुई) प्रतिमायें - आसन सूर्य प्रतिमाओं में प्रायः सूर्य अपने घुटने पर बैठे हुये दिखाये गये हैं। आभूषण धारण किये हुये हैं। उनके पीछे प्रभावली बनी हुई है। वे नोकदार मुकुट पहने हुये हैं। उनकी पत्नियों का भी अंकन साथ में किया गया है। विश्वकर्मशास्त्र में चतुर्भुजी मूर्ति का उल्लेख है। बैठी हुई मूर्तियां बंगाल और सारनाथ से भी प्राप्त हुई हैं।

3. बहुभुजी प्रतिमायें - विष्णुधर्मोत्तर पुराण में सूर्य की चार भुजाओं वाली मूर्तियों का उल्लेख प्राप्त होता है। सूर्य के द्वादश रूपों में एक, मित्र को त्रिनेत्र कहा गया है। जिसकी आदित्य मूर्ति चतुर्भुजी है इसमें तीन हैं- पद्म, शूल, साम धारण किये हुये बनाये गये हैं। इसी प्रकार आदित्य जी की चतुर्भुजी मूर्ति का उल्लेख है जिसमें दो हाथों में पद्म एवं अन्य दो हाथों में चक्र और कौमुदी है। इस प्रकार की मूर्तियाँ मध्य प्रदेश और राजस्थान में प्राप्त हुई हैं। विवस्वान मूर्ति के दो हाथ पद्म से युक्त तथा बायां हाथ माला से एवं दाया हाथ त्रिशूल से युक्त बताया गया है। एक-एक उदाहरण नागदी इन्दौर संग्रहालय और अमेरिका के लास एंजिल्स संग्रहालय में उपलब्ध है।

4. दक्षिण भारतीय शैली में निर्मित प्रतिमायें - दक्षिण भारत में बनी हुयी मूर्तियों के अंग स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ते हैं। यहाँ पर सारथी अरुण नहीं हैं। सिर पर प्रभामण्डल अवश्य है एवं यज्ञोपवीत भी दो हाथों में अर्ध पल्लवित कमल पुष्प है जो कंधों तक उठे हुये हैं।

5. नवग्रह - नवग्रह के सामूहिक चित्रण में सूर्य का प्रदर्शन दृष्टव्य है। इसमें सूर्य द्विभुज, पद्महस्त, किरीट मुकुटधारी, सप्ताश्व रथ पर आसीन है। सूर्य प्रतिमायें तोरण द्वारों विभिन्न पट्टों पर देखने को मिलती हैं। चित्तौड़गढ़, अजमेर, खजुराहो, इलाहाबाद, वाराणसी, दिल्ली, कोलकाता आदि के संग्रहालयों में है। इन पर अंकित सूर्य प्रतिमायें अन्य ग्यारह आदित्यों के साथ ही बनी हैं। अग्निपुराण में सूर्य नवग्रह मंडल के प्रमुख देव माने जाते हैं-

सूर्यः सोमो मंडलश्च बुद्धश्चाथ बृहस्पतिः।
शुक्रः शनैश्चरो राहुः केतुश्चेत गुहा स्मृता।।

अपराजितपृच्छा और रूपमण्डल में सूर्य की प्रधान मूर्ति का उल्लेख है। जिसमें वे किरीट मुकुट माला, रत्नकुण्डल, केयूर, हार पहने हैं।

6. प्रतिहार मूर्तियाँ - सूर्य के अष्ट प्रतिहारों का विवेचन विभिन्न शास्त्रों में मिलता है। प्रतिहार निम्न है- दण्डी, पिंगल, आनन्द, अन्तक, चित्त, विचित्र किरणाक्ष एवं सुलोचन। मूर्तिकला में सूर्य प्रतिहारों के बारह चित्रण खजुराहो के सूर्य मन्दिर चित्रगुप्त मन्दिर में उपलब्ध हैं। दण्डी एवं पिंगल का अंकन भरतपुर स्थित सत्वास के सूर्य मन्दिर में भी दर्शनीय हैं।

संदर्भ


1. ऋग्वेद (सायण-भाष्य सहित) सम्पादित वैदिक संशोधन मण्डल (वैदिक रिसर्च इन्स्टीट्यूट), पूना 1993, 07/60/2, विश्वस्य स्थातुर्जगतश्च गोपा।
2. अथर्ववेद 13/2/9, 13/2/37
3. तैत्तरीय संहिता 4/1/7, 1.1.11
4. मार्शल, जे., मोहनजोदाड़ो एण्ड द इंडस सिविलाईजेशन, ए.एस.आई.ए.आर., खण्ड-1, पृ. 87।
5. महाभारत, 3.134.19।
6. डी.एच.आई., खजुराहो की देव प्रतिमाएं, पृ. 163, द डवलपमेंट ऑफ हिन्दू आइकेनोग्राफी, पृ. 430।
7. अपराजित पृच्छा, 214, 17, 19।
8. व्रतखंड अ. पृ. 133- यस्था दक्षिणागतश्शूलं वामहस्ते सुदर्शनं। भगमूत्ति स्समाख्याता पद्म हस्ता शुभा जयः।।
9. संकालिया, एच.डी. (1965-66) आरकेयोलॉजी ऑफ गुजरात, पृ. 158-159।
10. अपराजित पृच्छा- पृ. 214, 19
11. अपराजित पृच्छा- पृ. 133-14-15।

लेखक परिचय


अनुराधा विनायक
एसोसिएट प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व विभाग, बी.एस.एन.वी.पी.जी. कॉलेज, लखनऊ 226001 उ.प्र. भारत

प्राप्त तिथि-07.07.2016 स्वीकृत तिथि-29.08.2016

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