बाजार के बढ़ते हस्तक्षेप और पूँजी की प्रधानता होने से आपसी प्रगाढ़ता वाली व्यवस्थाओं में तेजी से टूटन आई है। इसका प्रभाव खेती, पशुपालन और प्राकृतिक संसाधनों विशेष रूप से जलस्रोतों पर पड़ा है। खेती एवं पशुपालन के प्रति रुझान घटा है तथा प्राकृतिक जलस्रोतों के सूख जाने का क्रम बढ़ा है। इस पूरे परिदृश्य में पर्वतीय समाज की आजीविका और जीवन पर तेजी से संकट आ गया है। पर्वतीय समाज और हिमालय के पारिस्थितिकी पर घिरते संकट के बादलों के समाधान का एकमात्र विकल्प अपनी जड़ों की ओर लौटना है। पर्वतीय समाज ने सदियों से अपने संसाधनों पर आधारित आत्मनिर्भर जीवन जीया है। जल,जंगल,जमीन, खेती के पारस्परिक रिश्ते को सहेजने के लिये अपने ही कायदे गढ़े थे। मगर आधुनिक विकास ने प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की लोक परम्परा को तहस-नहस किया है।
यह बात जन जागृति संस्थान खाड़ी में चल रही एक संवाद ‘हिमालय के जलस्रोतों और बीजों का संरक्षण व संवर्धन’ सेमिनार में देश के विभिन्न हिमालयी राज्यों से आये कार्यकर्ताओं ने कही। वक्ताओं ने यह भी आरोप लगाया कि जल दोहन की योजनाएँ खूब बन रही हैं परन्तु जल संरक्षण की योजनाएँ अब तक नहीं बन पाई हैं। यही वजह है कि दिन-प्रतिदिन जलस्रोत सूख रहे हैं, भूजल तेजी से समाप्त हो रहा है। इस तरह की कई और लोक जीवन की परम्परा पर लोगों ने अपने विचार रखे।
सेमिनार में लोगों ने कहा कि पशुपालन पर्वतीय जीवन की धुरी रही है। जीवन के इन संसाधनों को संरक्षित, संवर्धन की जो लोक परम्परा थी वह प्राकृतिक संसाधनों के दोहन व प्रबन्धन पर खरी उतरती थी। सो वर्तमान की विकास की परियोजनाओं ने चौपट कर डाली। कहा कि अब समय आ चुका है कि लोगों को खुद ही पूर्व की भाँती जल संरक्षण के कामों को अपने हाथों में लाना होगा।
इस दौरान पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट, हिमकाॅन, जन जागृति संस्थान द्वारा कराए गए जल संरक्षण के कामों पर प्रस्तुति दी गई। इस प्रस्तुति में स्पष्ट दिखाया गया कि जल संरक्षण के लिये लोक परम्परा ही कारगर सिद्ध है। बताया गया कि जहाँ-जहाँ जलस्रोतों पर सीमेंट पोता जा रहा है वहाँ-वहाँ से पानी की मात्रा सूखती जा रही है।
हिमकाॅन संस्था से जुड़े राकेश बहुगुणा ने कहा कि हेवलघाटी में वर्तमान के विकास ने 54 प्रतिशत जलस्रोतों पर प्रभाव डाला है। हेवलघाटी में अब मात्र 28 प्रतिशत जलस्रोत ही बचे हैं। सेमिनार में ‘पानी और बीज’ नामक स्मारिका का लोकार्पण सर्वोदयनेत्री राधा भट्ट, नदी बचाओ अभियान के संयोजक सुरेश भाई, इण्डिया वाटर पोर्टल के केसर सिंह, गाँधी सेवा सेंटर के के.एल. बंगोत्रा, असम से आई गाँधी विचारक रजनी बाई ने संयुक्त रूप से किया है।
इस दौरान हिमाचल, उतराखण्ड, जम्मू कश्मीर, असम, मध्य प्रदेश से आये कार्यकर्ताओं ने जल संरक्षण की लोक परम्परा को जीवन की रेखा बताई है। कहा कि जल संरक्षण के लिये जितना जरूरी जंगल का होना है उतना ही पशु पालन का भी महत्त्व है। यही नहीं जहाँ पानी का स्रोत है उसके आसपास कोई भी नव-निर्माण नहीं किया जा सकता है।
जल के विदोहन पर वक्ताओं ने सरकारों को जिम्मेदार ठहराया है। बताया कि बाजार के बढ़ते हस्तक्षेप और पूँजी की प्रधानता होने से आपसी प्रगाढ़ता वाली व्यवस्थाओं में तेजी से टूटन आई है। इसका प्रभाव खेती, पशुपालन और प्राकृतिक संसाधनों विशेष रूप से जलस्रोतों पर पड़ा है।
खेती एवं पशुपालन के प्रति रुझान घटा है तथा प्राकृतिक जलस्रोतों के सूख जाने का क्रम बढ़ा है। इस पूरे परिदृश्य में पर्वतीय समाज की आजीविका और जीवन पर तेजी से संकट आ गया है। पर्वतीय समाज और हिमालय के पारिस्थितिकी पर घिरते संकट के बादलों के समाधान का एकमात्र विकल्प अपनी जड़ों की ओर लौटना है।
प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए जीवन को आत्मनिर्भर बनाने की परम्परागत व्यवस्थाओं को नए सन्दर्भों में समझते हुए अपनाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, जो जीवन और प्रकृति को स्थायित्व दे सके। हालात इस कदर हो चुके हैं कि जलस्रोतों को बचाने की सबसे बड़ी चुनौती है।
समाप्त होते बीज और सूखते जलस्रोत पर्वतीय समाज के लिये एक बड़ा खतरा साबित होंगे। बीजों और जलस्रोतों को संरक्षित व सवंर्धित करने के लिये विभिन्न स्तरों पर जो रचनात्मक काम किये हैं उन पर एक बेहतर सामूहिक समझ व ठोस रणनीति बनाने के लिये इस तीन दिवसीय संवाद में वक्ताओं ने अपनी राय प्रस्तुत की।
इस दौरान सेमिनार में एनडीआरएफ के डिप्टी डायरेक्टर चन्द्रशेखर शर्मा ने जल की महत्ता पर अपने विचार रखे। कहा कि वैज्ञानिक विधि से पानी तैयार किया जा सकता है लेकिन उसकी कीमत इतनी अधिक है कि इंसान को अपने आप को खोना पड़ सकता है। लिहाजा जल के संरक्षण की जो लोक परम्परा है वही मजबूत और कारगर है। इसलिये लोगों को जल संरक्षण की ओर खुद आगे बढ़ना होगा। ज्ञात हो कि इस सेमिनार की खास बात यह रही कि सम्पूर्ण कार्यक्रम के दौरान भोजन की व्यवस्था हिमालयी रिवाजों के अनुरूप हो रही है।
आज के भोजन में हिमाचल के विशेष पकवान सिडूको परोसा गया जो एकदम जैविक और पौष्टिक भरा था। मौजूद लोगों ने इस व्यंजन की ना सिर्फ तारीफ की बल्कि ऐसे भोजन ही लोगों को अपने जड़ों जुड़ने की प्रेरणा देते हैं।
कार्यक्रम में हिमालय सेवा संघ के मनोज पांडे, वरिष्ठ सर्वोदय नेत्री राधा भट्ट, नदी बचाओ अभियान के संयोजक सुरेश भाई, इण्डिया वाटर पोर्टल के केसर सिंह, गाँधी सेवा सेंटर जम्मू कश्मीर के के.एल. बंगोत्रा, असम से आई रजनी बाई, महिला मंच की प्रमुख कमला पंत, महिला समाख्या की गीता गैरोला, रीना पंवार, हेवलवाणी के राजेन्द्र नेगी, बृजेश पंवार, दुलारी देवी, लक्ष्मी आश्रम कौसानी की नीमा वैष्णव व छात्राएँ, समता अभियान के संयोजक प्रेम पंचोली, पत्रकार महिपाल नेगी, प्रभा रतूड़ी, राजेन्द्र नेगी, चन्द्रमोहन भट्ट, राजेन्द्र भण्डारी, अनुराग भण्डारी, आरती, भारती, निशा, बड़देई देवी, गुड्डी देवी, विक्रम सिंह पंवार, राकेश बहुगुणा, ओमप्रकाश, सुनील, सुनीता, कविता, समीरा, धूम सिंह, फूलदास, प्रदीप, विकास, पुष्पा पंवार, विजयपाल राणा, तुषार रावत, व्योमा सहित कई लोगों ने हिस्सा लिया।
यह बात जन जागृति संस्थान खाड़ी में चल रही एक संवाद ‘हिमालय के जलस्रोतों और बीजों का संरक्षण व संवर्धन’ सेमिनार में देश के विभिन्न हिमालयी राज्यों से आये कार्यकर्ताओं ने कही। वक्ताओं ने यह भी आरोप लगाया कि जल दोहन की योजनाएँ खूब बन रही हैं परन्तु जल संरक्षण की योजनाएँ अब तक नहीं बन पाई हैं। यही वजह है कि दिन-प्रतिदिन जलस्रोत सूख रहे हैं, भूजल तेजी से समाप्त हो रहा है। इस तरह की कई और लोक जीवन की परम्परा पर लोगों ने अपने विचार रखे।
सेमिनार में लोगों ने कहा कि पशुपालन पर्वतीय जीवन की धुरी रही है। जीवन के इन संसाधनों को संरक्षित, संवर्धन की जो लोक परम्परा थी वह प्राकृतिक संसाधनों के दोहन व प्रबन्धन पर खरी उतरती थी। सो वर्तमान की विकास की परियोजनाओं ने चौपट कर डाली। कहा कि अब समय आ चुका है कि लोगों को खुद ही पूर्व की भाँती जल संरक्षण के कामों को अपने हाथों में लाना होगा।
इस दौरान पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट, हिमकाॅन, जन जागृति संस्थान द्वारा कराए गए जल संरक्षण के कामों पर प्रस्तुति दी गई। इस प्रस्तुति में स्पष्ट दिखाया गया कि जल संरक्षण के लिये लोक परम्परा ही कारगर सिद्ध है। बताया गया कि जहाँ-जहाँ जलस्रोतों पर सीमेंट पोता जा रहा है वहाँ-वहाँ से पानी की मात्रा सूखती जा रही है।
हिमकाॅन संस्था से जुड़े राकेश बहुगुणा ने कहा कि हेवलघाटी में वर्तमान के विकास ने 54 प्रतिशत जलस्रोतों पर प्रभाव डाला है। हेवलघाटी में अब मात्र 28 प्रतिशत जलस्रोत ही बचे हैं। सेमिनार में ‘पानी और बीज’ नामक स्मारिका का लोकार्पण सर्वोदयनेत्री राधा भट्ट, नदी बचाओ अभियान के संयोजक सुरेश भाई, इण्डिया वाटर पोर्टल के केसर सिंह, गाँधी सेवा सेंटर के के.एल. बंगोत्रा, असम से आई गाँधी विचारक रजनी बाई ने संयुक्त रूप से किया है।
इस दौरान हिमाचल, उतराखण्ड, जम्मू कश्मीर, असम, मध्य प्रदेश से आये कार्यकर्ताओं ने जल संरक्षण की लोक परम्परा को जीवन की रेखा बताई है। कहा कि जल संरक्षण के लिये जितना जरूरी जंगल का होना है उतना ही पशु पालन का भी महत्त्व है। यही नहीं जहाँ पानी का स्रोत है उसके आसपास कोई भी नव-निर्माण नहीं किया जा सकता है।
जल के विदोहन पर वक्ताओं ने सरकारों को जिम्मेदार ठहराया है। बताया कि बाजार के बढ़ते हस्तक्षेप और पूँजी की प्रधानता होने से आपसी प्रगाढ़ता वाली व्यवस्थाओं में तेजी से टूटन आई है। इसका प्रभाव खेती, पशुपालन और प्राकृतिक संसाधनों विशेष रूप से जलस्रोतों पर पड़ा है।
खेती एवं पशुपालन के प्रति रुझान घटा है तथा प्राकृतिक जलस्रोतों के सूख जाने का क्रम बढ़ा है। इस पूरे परिदृश्य में पर्वतीय समाज की आजीविका और जीवन पर तेजी से संकट आ गया है। पर्वतीय समाज और हिमालय के पारिस्थितिकी पर घिरते संकट के बादलों के समाधान का एकमात्र विकल्प अपनी जड़ों की ओर लौटना है।
प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए जीवन को आत्मनिर्भर बनाने की परम्परागत व्यवस्थाओं को नए सन्दर्भों में समझते हुए अपनाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, जो जीवन और प्रकृति को स्थायित्व दे सके। हालात इस कदर हो चुके हैं कि जलस्रोतों को बचाने की सबसे बड़ी चुनौती है।
समाप्त होते बीज और सूखते जलस्रोत पर्वतीय समाज के लिये एक बड़ा खतरा साबित होंगे। बीजों और जलस्रोतों को संरक्षित व सवंर्धित करने के लिये विभिन्न स्तरों पर जो रचनात्मक काम किये हैं उन पर एक बेहतर सामूहिक समझ व ठोस रणनीति बनाने के लिये इस तीन दिवसीय संवाद में वक्ताओं ने अपनी राय प्रस्तुत की।
इस दौरान सेमिनार में एनडीआरएफ के डिप्टी डायरेक्टर चन्द्रशेखर शर्मा ने जल की महत्ता पर अपने विचार रखे। कहा कि वैज्ञानिक विधि से पानी तैयार किया जा सकता है लेकिन उसकी कीमत इतनी अधिक है कि इंसान को अपने आप को खोना पड़ सकता है। लिहाजा जल के संरक्षण की जो लोक परम्परा है वही मजबूत और कारगर है। इसलिये लोगों को जल संरक्षण की ओर खुद आगे बढ़ना होगा। ज्ञात हो कि इस सेमिनार की खास बात यह रही कि सम्पूर्ण कार्यक्रम के दौरान भोजन की व्यवस्था हिमालयी रिवाजों के अनुरूप हो रही है।
आज के भोजन में हिमाचल के विशेष पकवान सिडूको परोसा गया जो एकदम जैविक और पौष्टिक भरा था। मौजूद लोगों ने इस व्यंजन की ना सिर्फ तारीफ की बल्कि ऐसे भोजन ही लोगों को अपने जड़ों जुड़ने की प्रेरणा देते हैं।
कार्यक्रम में हिमालय सेवा संघ के मनोज पांडे, वरिष्ठ सर्वोदय नेत्री राधा भट्ट, नदी बचाओ अभियान के संयोजक सुरेश भाई, इण्डिया वाटर पोर्टल के केसर सिंह, गाँधी सेवा सेंटर जम्मू कश्मीर के के.एल. बंगोत्रा, असम से आई रजनी बाई, महिला मंच की प्रमुख कमला पंत, महिला समाख्या की गीता गैरोला, रीना पंवार, हेवलवाणी के राजेन्द्र नेगी, बृजेश पंवार, दुलारी देवी, लक्ष्मी आश्रम कौसानी की नीमा वैष्णव व छात्राएँ, समता अभियान के संयोजक प्रेम पंचोली, पत्रकार महिपाल नेगी, प्रभा रतूड़ी, राजेन्द्र नेगी, चन्द्रमोहन भट्ट, राजेन्द्र भण्डारी, अनुराग भण्डारी, आरती, भारती, निशा, बड़देई देवी, गुड्डी देवी, विक्रम सिंह पंवार, राकेश बहुगुणा, ओमप्रकाश, सुनील, सुनीता, कविता, समीरा, धूम सिंह, फूलदास, प्रदीप, विकास, पुष्पा पंवार, विजयपाल राणा, तुषार रावत, व्योमा सहित कई लोगों ने हिस्सा लिया।
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Post By: RuralWater