बिहार की अर्थव्यवस्था खेती पर निर्भर है। यहां की लगभग 80 फीसदी आबादी की रोजी-रोटी खेती व पशुपालन से चलती है। सिंचाई व्यवस्था के कमजोर होने के कारण यहां कृषि पैदावार मानसून आधारित है। अधिकांश जिलों के स्टेट बोरिंग ठप हैं। नहरों की स्थिति भी अच्छी नहीं है। कई नदियां बरसाती बन गयी हैं। अधिकांश कुएं मिट गए हैं। ऐसे में किसानों के पास पटवन के लिए मानसून के अलावा निजी बोरिंग की विकल्प है, जो खर्चीला है। डीजल व कृषि यंत्रों की बढ़ती कीमतें किसानों की कमर तोड़ रहे हैं। एक बार फिर बिहार के किसान अपनी किस्मत पर रो रहे हैं। बाढ़ व सुखाड़ यहां के लोगों की नियति बन गई है। कोसी, बागमती एवं गंगा उफान पर है। हजारों लोगों की खेती व घर-गृहस्थी डूब गई। कुछ मैदानी इलाके भी डूब क्षेत्र बने हुए हैं, तो राज्य के शेष हिस्से सूखे की चपेट में हैं। प्यासी धरती को मानसून तरसा रहा है। आषाढ़ का एक-एक दिन बारिश की बूंदों के लिए तरसता रहा। सावन भी चला गया, लेकिन मानसून की बेरुखी बरकरार है। इसके चलते खरीफ फसल खासकर धान की खेती चौपट हो रही है। इधर, खेतों में दरार फट रही है, तो इधर किसानों का कलेजा फट रहा है। जिन किसानों ने कर्ज लेकर धान की रोपनी की थी, उनके पास अपनी किस्मत पर रोने के अलावा और कोई चारा नहीं है। आसमान की ओर टकटकी लगाए हजारों किसानों के खेत खाली पड़े हैं। धान की रोपनी का समय भी बीत गया। सूखे से निबटने के लिए मुख्य सचिव की अध्यक्षता में गठित क्राइसिस मैनेजमेंट ग्रुप की रिपोर्ट के मुताबिक, सुखे के 38 में 20 जिले सूखे की चपेट में हैं। अब तक 74 फीसदी ही रोपनी हो पाई है। गया और बांका से तो सिर्फ 50 फीसदी ही रोपनी हो पायी है। मध्य बिहार सर्वाधिक प्रभावित है।
यह जलवायु परिवर्तन का ही नतीजा है कि बिहार के किसान सूखे की मार झेलने को विवश हैं। प्रदेश में जुलाई तक 469.4 एमएम बारिश होनी चाहिए थी, पर 349.6 एमएम ही हुई। रिपोर्ट के अनुसार, राज्य के 17 जिलों में एक से पांच अगस्त तक 60 फीसदी से कम बारिश दर्ज की गई है। कृषि विभाग के मुताबिक अररिया, सुपौल, पूर्वी चंपारण, पश्चिमी चंपारण और किशनगंज को छोड़ कर बाकी के 33 जिलों में सामान्य से कम बारिश हुई है। सीतामढ़ी, वैशाली, गया, नवादा, औरंगाबाद व लखीसराय जिलों की स्थिति काफी खराब है। धान का कटोरा के नाम से ख्यात शाहाबाद के तीन जिले बक्सर, भोजपुर व कैमूर जिले के 29 में प्रखंडों भी सूखे की काला छाया मंडरा रही है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, गया, जमुई, मुंगेर, लखीसराय, शेखपुरा, नवादा, पटना, जहानाबाद, बांका, भागलपुर और औरंगाबाद जिलों में 50 फीसदी ही रोपनी हो सकी है, जबकि गया व नवादा में 25 फीसदी से भी कम धान की रोपनी हो पाई है। इस वर्ष राज्य में 34 लाख हेक्टेयर भूमि में धान की रोपनी का लक्ष्य था, पर 20 अगस्त तक मात्र 25 लाख हेक्टेयर भूमि पर ही रोपनी हो पाई है। कुल मिलाकर 91 लाख टन धान उत्पादन का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन अब नहीं लगता है कि यह लक्ष्य प्राप्त होगा।
बिहार की अर्थव्यवस्था खेती पर निर्भर है। यहां की लगभग 80 फीसदी आबादी की रोजी-रोटी खेती व पशुपालन से चलती है। सिंचाई व्यवस्था के कमजोर होने के कारण यहां कृषि पैदावार मानसून आधारित है। अधिकांश जिलों के स्टेट बोरिंग ठप हैं। नहरों की स्थिति भी अच्छी नहीं है। कई नदियां बरसाती बन गयी हैं। अधिकांश कुएं मिट गए हैं। ऐसे में किसानों के पास पटवन के लिए मानसून के अलावा निजी बोरिंग की विकल्प है, जो खर्चीला है। डीजल व कृषि यंत्रों की बढ़ती कीमतें किसानों की कमर तोड़ रहे हैं। लघु व सीमांत किसानों के पास अपना पंपिंग सेट नहीं होता है। वे प्रति घंटे के हिसाब से पटवन का पैसा चुकाते हैं। उन्हें कर्ज लेकर खेती करनी होती है। ऐसे में मौसम की मार उन्हें और कर्ज़दार बना देती है। वैशाली जिले के सलहा के किसान शिवचंद्र सिंह कहते हैं कि धान की खेती चौपट हो गई। कर्ज लेकर बिचड़ा गिराये थे। आधे खेत में भी रोपनी नहीं हो पायी है। डीजल अनुदान से भी कितना लाभ होगा। यह पहली बार नहीं है। सूबे में 2009 व 2010 में भी सूखे के हालात पैदा हुए थे। वर्ष 2008 व 2012 में भी कम बारिश के कारण खेती पर असर पड़ा था। ऐसा नहीं है कि प्रदेश के पास पानी की भी कमी है। बाढ़ व बेमौसम बारिश के पानी की उपलब्धता को सहेजना सीख लें तो ऐसे संकट का सामना किया जा सकता है। जल प्रबंधन की दीर्घकालिक योजना पर सरकार को काम करना चाहिए। जलवायु परिवर्तन का नतीजा कई रूपों में हमारे सामने आएगा। इसका सबसे बुरा प्रभाव खेती पर ही पड़ेगा। सो, हमें अभी से सचेत हो जाना चाहिए।
यह जलवायु परिवर्तन का ही नतीजा है कि बिहार के किसान सूखे की मार झेलने को विवश हैं। प्रदेश में जुलाई तक 469.4 एमएम बारिश होनी चाहिए थी, पर 349.6 एमएम ही हुई। रिपोर्ट के अनुसार, राज्य के 17 जिलों में एक से पांच अगस्त तक 60 फीसदी से कम बारिश दर्ज की गई है। कृषि विभाग के मुताबिक अररिया, सुपौल, पूर्वी चंपारण, पश्चिमी चंपारण और किशनगंज को छोड़ कर बाकी के 33 जिलों में सामान्य से कम बारिश हुई है। सीतामढ़ी, वैशाली, गया, नवादा, औरंगाबाद व लखीसराय जिलों की स्थिति काफी खराब है। धान का कटोरा के नाम से ख्यात शाहाबाद के तीन जिले बक्सर, भोजपुर व कैमूर जिले के 29 में प्रखंडों भी सूखे की काला छाया मंडरा रही है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, गया, जमुई, मुंगेर, लखीसराय, शेखपुरा, नवादा, पटना, जहानाबाद, बांका, भागलपुर और औरंगाबाद जिलों में 50 फीसदी ही रोपनी हो सकी है, जबकि गया व नवादा में 25 फीसदी से भी कम धान की रोपनी हो पाई है। इस वर्ष राज्य में 34 लाख हेक्टेयर भूमि में धान की रोपनी का लक्ष्य था, पर 20 अगस्त तक मात्र 25 लाख हेक्टेयर भूमि पर ही रोपनी हो पाई है। कुल मिलाकर 91 लाख टन धान उत्पादन का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन अब नहीं लगता है कि यह लक्ष्य प्राप्त होगा।
बिहार की अर्थव्यवस्था खेती पर निर्भर है। यहां की लगभग 80 फीसदी आबादी की रोजी-रोटी खेती व पशुपालन से चलती है। सिंचाई व्यवस्था के कमजोर होने के कारण यहां कृषि पैदावार मानसून आधारित है। अधिकांश जिलों के स्टेट बोरिंग ठप हैं। नहरों की स्थिति भी अच्छी नहीं है। कई नदियां बरसाती बन गयी हैं। अधिकांश कुएं मिट गए हैं। ऐसे में किसानों के पास पटवन के लिए मानसून के अलावा निजी बोरिंग की विकल्प है, जो खर्चीला है। डीजल व कृषि यंत्रों की बढ़ती कीमतें किसानों की कमर तोड़ रहे हैं। लघु व सीमांत किसानों के पास अपना पंपिंग सेट नहीं होता है। वे प्रति घंटे के हिसाब से पटवन का पैसा चुकाते हैं। उन्हें कर्ज लेकर खेती करनी होती है। ऐसे में मौसम की मार उन्हें और कर्ज़दार बना देती है। वैशाली जिले के सलहा के किसान शिवचंद्र सिंह कहते हैं कि धान की खेती चौपट हो गई। कर्ज लेकर बिचड़ा गिराये थे। आधे खेत में भी रोपनी नहीं हो पायी है। डीजल अनुदान से भी कितना लाभ होगा। यह पहली बार नहीं है। सूबे में 2009 व 2010 में भी सूखे के हालात पैदा हुए थे। वर्ष 2008 व 2012 में भी कम बारिश के कारण खेती पर असर पड़ा था। ऐसा नहीं है कि प्रदेश के पास पानी की भी कमी है। बाढ़ व बेमौसम बारिश के पानी की उपलब्धता को सहेजना सीख लें तो ऐसे संकट का सामना किया जा सकता है। जल प्रबंधन की दीर्घकालिक योजना पर सरकार को काम करना चाहिए। जलवायु परिवर्तन का नतीजा कई रूपों में हमारे सामने आएगा। इसका सबसे बुरा प्रभाव खेती पर ही पड़ेगा। सो, हमें अभी से सचेत हो जाना चाहिए।
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