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बुंदेलखंड में पड़ रहे सूखे का मुकाबला करने के क्रम में परंपरागत धंधे डलिया निर्माण को पुनर्जीवित करना एक बेहतर विकल्प दिखा जो इस बार जंगल से मिलने वाले संसाधनों पर आधारित था।
खेती किसानी के साथ आजीविका के अन्य विकल्पों में डलिया निर्माण बुंदेलखंड की प्राचीन परंपरा रही है। पहले अरहर और बांस की डलिया बनाई जाती थी। बांस की डलिया का उपयोग मुख्यतः घरेलू उपयोग में तथा अरहर की डलिया का उपयोग खेती-किसानी से जुड़े कार्यों के साथ-साथ निर्माण कार्यों के लिए किया जाता था। प्रारम्भतया अरहर की खेती खूब होने के कारण गाँवों में अरहर की डलिया बड़े पैमाने पर बनाई जाती थी। कालांतर में लोगों का झुकाव बाजार आधारित खेती की तरफ होने के कारण अरहर की फसल का उत्पादन कम हो गया और डलिया बनाने का काम भी ठप हुआ।
पिछले पांच-छ वर्षों से इस क्षेत्र में पड़ रहे सूखा की वजह से किसानों के सामने जीवनयापन करने की भी समस्या खड़ी हो गई। विकल्प ढूंढने के क्रम में ग्राम बरी का पुरवा, विकास खंड कुठौंद, जनपद जालौन के लोगों ने परंपरागत डलिया व्यवसाय का कार्य प्रारम्भ किया और अरहर के स्थान पर जंगल से चापट नामक की लकड़ी को लाकर उससे डलिया बनाई, जो लोगों के लिए आय का एक अच्छा माध्यम बनी।
चापट की लकड़ी बीहड़ क्षेत्रों में अत्यधिक मात्रा में पाई जाती है। इसके जमाव पर सूखा पड़ने का कोई असर नहीं होता है। अतः यह आसानी से उपलब्ध हो जाती है। इस लकड़ी से बनाई गई डलिया अरहर की डलिया से अधिक मजबूत होने के कारण बाजार में इसका मूल्य अच्छा मिलता है।
सबसे पहले जंगल जाकर चापट की लकड़ी लाते हैं। फिर उसकी सफाई का काम किया जाता है। तत्पश्चात् डलिया बनाते हैं। एक दिन में 4-5 डलिया बन जाती है। दो गठ्ठर चापट से 8-10 डलिया बन जाती है। जिसमें परिवार के लोगों को मिल कर काम करना पड़ता है। इस पूरी प्रक्रिया में कोई अतिरिक्त खर्च नहीं होता। सिर्फ श्रम लगता है।
चापट की डलिया बनाकर रखने में अधिक रख-रखाव की आवश्यकता नहीं होती है। चूंकि हरी चापट से डलिया बनाकर सूखा ली जाती है। अतः इसको अपने घर के आस-पास खुले में या छप्पर इत्यादि पर रख सकते हैं। क्योंकि पानी में भीगने से भी यह बहुत जल्दी खराब नहीं होती है।
इस समय गांव में 10 परिवार से 50 लोग इस कार्य से जुड़े हुए हैं।
यह स्वयं का कार्य है, जो निश्चित है। लोगों को रोज़ाना मजदूरी नहीं तलाशनी पड़ती है।
आजीविका के साधन गांव में ही उपलब्ध हो जाने के कारण सूखे की परिस्थिति में पलायन नहीं करना पड़ा।
कच्चे माल की उपब्धता स्थानीय स्तर पर आसानी से हो जाती है।
यह लकड़ी जंगल में पाई जाने के कारण वन विभाग के अधीन होती है। अतः चोरी-छिपे लाना पड़ता है। पकड़े जाने पर जुर्माना देना पड़ता है।
बीहड़ इलाका होने के कारण जंगली जानवरों का खतरा बना रहता है।
डाकुओं का क्षेत्र होने के कारण उनकी तरफ से भी नुकसान का भय बना रहता है।
यहां पर कोई निश्चित बाजार न होने के कारण उचित मूल्य नहीं मिल पाता है।
अगर वन विभाग से बिना मूल्य के चापट की लकड़ी आसानी से उपलब्ध कराई जाए एवं तैयार माल को बाजार तक आसानी से पहुंचाने की व्यवस्था हो तो बड़ी संख्या में परिवारों को रोजी-रोटी उपलब्ध कराई जा सकती है और यह एक अच्छे व्यवसाय के रूप में पनप सकता है।
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परिचय
खेती किसानी के साथ आजीविका के अन्य विकल्पों में डलिया निर्माण बुंदेलखंड की प्राचीन परंपरा रही है। पहले अरहर और बांस की डलिया बनाई जाती थी। बांस की डलिया का उपयोग मुख्यतः घरेलू उपयोग में तथा अरहर की डलिया का उपयोग खेती-किसानी से जुड़े कार्यों के साथ-साथ निर्माण कार्यों के लिए किया जाता था। प्रारम्भतया अरहर की खेती खूब होने के कारण गाँवों में अरहर की डलिया बड़े पैमाने पर बनाई जाती थी। कालांतर में लोगों का झुकाव बाजार आधारित खेती की तरफ होने के कारण अरहर की फसल का उत्पादन कम हो गया और डलिया बनाने का काम भी ठप हुआ।
पिछले पांच-छ वर्षों से इस क्षेत्र में पड़ रहे सूखा की वजह से किसानों के सामने जीवनयापन करने की भी समस्या खड़ी हो गई। विकल्प ढूंढने के क्रम में ग्राम बरी का पुरवा, विकास खंड कुठौंद, जनपद जालौन के लोगों ने परंपरागत डलिया व्यवसाय का कार्य प्रारम्भ किया और अरहर के स्थान पर जंगल से चापट नामक की लकड़ी को लाकर उससे डलिया बनाई, जो लोगों के लिए आय का एक अच्छा माध्यम बनी।
प्राप्यता
चापट की लकड़ी बीहड़ क्षेत्रों में अत्यधिक मात्रा में पाई जाती है। इसके जमाव पर सूखा पड़ने का कोई असर नहीं होता है। अतः यह आसानी से उपलब्ध हो जाती है। इस लकड़ी से बनाई गई डलिया अरहर की डलिया से अधिक मजबूत होने के कारण बाजार में इसका मूल्य अच्छा मिलता है।
डलिया निर्माण की प्रक्रिया
![](/sites/default/files/hwp/import/images/Daliya bunti auroth.jpg)
रख-रखाव
चापट की डलिया बनाकर रखने में अधिक रख-रखाव की आवश्यकता नहीं होती है। चूंकि हरी चापट से डलिया बनाकर सूखा ली जाती है। अतः इसको अपने घर के आस-पास खुले में या छप्पर इत्यादि पर रख सकते हैं। क्योंकि पानी में भीगने से भी यह बहुत जल्दी खराब नहीं होती है।
लाभ
इस समय गांव में 10 परिवार से 50 लोग इस कार्य से जुड़े हुए हैं।
यह स्वयं का कार्य है, जो निश्चित है। लोगों को रोज़ाना मजदूरी नहीं तलाशनी पड़ती है।
आजीविका के साधन गांव में ही उपलब्ध हो जाने के कारण सूखे की परिस्थिति में पलायन नहीं करना पड़ा।
कच्चे माल की उपब्धता स्थानीय स्तर पर आसानी से हो जाती है।
कठिनाईयां
यह लकड़ी जंगल में पाई जाने के कारण वन विभाग के अधीन होती है। अतः चोरी-छिपे लाना पड़ता है। पकड़े जाने पर जुर्माना देना पड़ता है।
बीहड़ इलाका होने के कारण जंगली जानवरों का खतरा बना रहता है।
डाकुओं का क्षेत्र होने के कारण उनकी तरफ से भी नुकसान का भय बना रहता है।
यहां पर कोई निश्चित बाजार न होने के कारण उचित मूल्य नहीं मिल पाता है।
संभावनाएं
अगर वन विभाग से बिना मूल्य के चापट की लकड़ी आसानी से उपलब्ध कराई जाए एवं तैयार माल को बाजार तक आसानी से पहुंचाने की व्यवस्था हो तो बड़ी संख्या में परिवारों को रोजी-रोटी उपलब्ध कराई जा सकती है और यह एक अच्छे व्यवसाय के रूप में पनप सकता है।
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