इस साल सामान्य से कम बारिश होने के कारण देश के 614 में से 302 जिले सूखे का संकट झेल रहे हैं। इससे पहले 2002 में देश को इससे भी अधिक सूखे को झेलना पड़ा था। तब कुल 383 जिले सूखे की चपेट में आये थे।
सरकार उस इलाके को सूखाग्रस्त मानती है, जहाँ वर्षा सामान्य से 20 प्रतिशत कम होती है। जिन इलाकों में बारिश का आँकड़ा सामान्य से 50 फीसदी या इससे अधिक कमजोर हो, उन्हें भीषण सूखाग्रस्त कहा जाता है।
इसे परिभाषा की कसौटी पर कसें, तो देश के 18 राज्यों के 66 करोड़ लोगों के सिर पर सूखा का संकट बनकर मंडरा रहा है। चिन्ता की बात यह है कि सूखे की मार उन इलाकों में पड़ी है, जहाँ जमीन बहुत उपजाऊ है।
वहाँ राहत पहुँचाना इसलिए भी जरूरी है कि किसान समय रहते अगली फसल की तैयारी कर सकें। लेकिन राज्य सरकारें भीषण सूखा की स्थिति में भी उदासीन बनी रही। प्रशासन आधिकारिक तौर पर प्रभावित जिलों को सूखाग्रस्त घोषित करने में देरी करती रहीं।
देश की सरकारें कृषि और किसानों की समस्या को हल करने की बात करती रहती हैं। राजनीतिक दलों द्वारा किसानों को खुशहाल करने का नारा भी खूब लगाया जाता है। लेकिन आज भी हमारी कृषि व्यवस्था बदहाली से उबर नहीं पा रही है।
देश में किसानों की आत्महत्या का मामला जब अखबारों की सुर्खियाँ बनती रहती है तब सरकार किसानों के हर संकट का समाधान करने की बात करती है। लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात वाली कहावत चरितार्थ होती है।
अखबारों की खबर, संसद में शोरगुल और संगठनों के धरना-प्रदर्शन के बावजूद मामला वहीं का वहीं पड़ा रहता है। किसान अपनी विपन्नता में जीने को मजबूर रहते हैं।
इस साल देश में औसत से कम वर्षा हुई। जिसके कारण देश के आधे राज्यों में खरीफ की फसल बर्बाद हो गई। कम वर्षा होने से जहाँ रबी के बुआई के लिये किसानों को पानी की समस्या से जूझना पड़ा।
दूसरी तरफ कई राज्यों के सुदूर जिलों में लोग दाने-दाने को तबाह हैं। राज्य सरकारें सूखे से प्रभावित जिलों में आपदा प्रबन्धन करने के बजाय केन्द्र सरकार से राहत पैकेज के लिये उलझने में ही समय गँवा रहे हैं।
इस दौरान सूखा प्रभावित क्षेत्रों में स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार बुंदेलखण्ड के कई जिलों में लोग घास खाने को विवश हैं।
सूखा प्रभावित राज्यों में सरकार की उदासीनता पर उच्चतम न्यायालय ने कड़ा रूख अपनाया है। अदालत ने राज्य सरकारों को फटकार लगाते हुए जवाब माँगा है कि सूखा प्रभावित क्षेत्रों में मदद के लिये सरकारों ने क्या योजना बनाई हैं।
गौरतलब है कि 11 राज्यों में पड़े भयंकर सूखे को लेकर स्वराज अभियान ने उच्चतम न्यायालय में एक याचिका दायर की है। इस याचिका की सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय ने केन्द्र सरकार और 11 राज्यों को नोटिस जारी कर जवाब माँगा है।
उच्चतम न्यायालय नेे उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, महाराष्ट्र, ओडिशा, झारखंड, बिहार, हरियाणा और गुजरात सरकार को नोटिस जारी कर पूछा है कि सूखाग्रस्त क्षेत्रों के किसानों को राहत देने के लिये उनके पास क्या योजना है।
सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार और सम्बन्धित राज्य सरकारों से पूछा है कि नेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट के तहत सूखाग्रस्त क्षेत्रों के लोगों को राहत के रूप में प्रति व्यक्ति को प्रति माह पाँच किलो अनाज दिया जाना चाहिए। क्या वे ऐसा करने के लिये सहमत हैं या नहीं। अगर वे ऐसा करने पर सहमत नहीं हैं तो उसका क्या कारण है।
याचिकाकर्ता योगेंद्र यादव का कहना है कि, ''सूखे की आधिकारिक घोषणा सरकार की ओर से की जानी चाहिए और हर किसान को इसके लिये केन्द्र सरकार की ओर से 20 हजार रुपए प्रति एकड़ के हिसाब से मुआवजा दिया जाना चाहिए और सूखाग्रस्त आबादी को 60 रुपए प्रति माह मदद दी जानी चाहिए।''
स्वराज अभियान के कार्यकर्ताओं का कहना है कि देश के कई हिस्सों में सूखाग्रस्त क्षेत्रों के किसानों की मदद के लिये आवाज नहीं उठाई जा रही। वे इस मामले को राष्ट्रीय स्तर पर लेकर जाएँगे। जिसके चलते यह याचिका दायर की गई है। उच्चतम न्यायालय में अब इस मामले पर सुनवाई 4 जनवरी को होगी।
इस बीच उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्य के पचास जिले को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया है। सूखाग्रस्त घोषित किये जा चुके जिलों में किसानों को राहत उपलब्ध कराने के लिये आगामी मार्च 2015 तक राजस्व वसूली स्थगित कर दिया गया है।
साथ ही प्रदेश सरकार सूखे से नुकसान का आकलन कर रही है। जल्द केन्द्र सरकार से राहत के लिये मेमोरेंडम भेजा जाएगा।
राजस्व विभाग प्रदेश में जो सूखे का आकलन किया गया है उस हिसाब से 49 जिलों में 60 प्रतिशत तक बारिश हुई है। एक जिले बलरामपुर में 60 प्रतिशत से ज्यादा बारिश हुई लेकिन यहाँ 33 प्रतिशत से ज्यादा फसल का नुकसान हुआ है।
इस कारण बलरामपुर को इसमें शामिल कर लिया गया है। मुख्य सचिव आलोक रंजन ने कहा कि प्रदेश सरकार जल्द ही सूखे से हुये नुकसान का आकलन कर केन्द्र सरकार को प्रस्ताव भेजेगी।
राज्य के बलिया, सिद्धार्थनगर, बस्ती, जौनपुर, गोंडा, फैजाबाद, बाराबंकी, संत कबीरनगर, मिर्जापुर, संतरविदास नगर, सोनभद्र, सुल्तानपुर, शाहजहाँपुर, प्रतापगढ़, बांदा, चंदौली, इटावा, बागपत, कन्नौज, झांसी, जालौन, गोरखपुर, हाथरस, एटा, इलाहाबाद, गाजियाबाद, फर्रुखाबाद, मऊ, उन्नाव, रामपुर, हमीरपुर, ललितपुर, चित्रकूट, कानपुर नगर, लखनऊ, देवरिया, मैनपुरी, महाराजगंज, आगरा, औरैया, पीलीभीत को सूखाग्रस्त जिला घोषित किया गया है।
राज्य सरकार सूखाग्रस्त घोषित 44 जिलों के किसानों को राहत देने के लिये केन्द्र सरकार से 6,138.42 करोड़ रुपए माँगे हैं।
उत्तर प्रदेश में सूखा का आकलन करने आये केन्द्रीय दल के समक्ष प्रदेश के वरिष्ठ अधिकारियों ने सूखाग्रस्त जिलों की विभागवार कार्य योजना पेश की।
फसल से किसानों को हुये नुकसान की भरपाई के लिये 685.41 करोड़ रुपए, कृषि विभाग के लिये 999.33 करोड़ रुपए, उद्यान विभाग के लिये 20.57 करोड़ रुपए, मत्स्य विभाग के लिये 71.06 करोड़ रुपए, पावर कॉरपोरेशन के लिये 1162 करोड़ रुपए, सिंचाई एवं जल संसाधन के लिये 91.39 करोड़ रुपए, पशुपालन विभाग के लिये 639.76 करोड़ रुपए, लघु सिंचाई के लिये 258.65 करोड़ रुपए, भूजल विभाग के लिये 9.11 करोड़ रुपए, स्वास्थ्य विभाग के लिये 38.76 करोड़ रुपए, सिंचाई विभाग के लिये 1498.10 करोड़ रुपए, जल निगम के लिये 555.03 करोड़ रुपए और वन विभाग के लिये 109.25 करोड़ रुपए की आवश्यकता बताई।
बिहार सरकार ने राज्य के 38 में से 33 जिलों को सूखाग्रस्त घोषित किया है। मुख्यमन्त्री नीतिश कुमार की अध्यक्षता में राज्य मन्त्रिमण्डल की हुई विशेष बैठक में निर्णय लिया गया है कि सूखाग्रस्त जिलों में किसानों से सिंचाई और बिजली शुल्क नहीं वसूला जाएगा।
इन जिलों में 25 प्रतिशत से भी कम वर्षा होने के कारण सरकार ने यह निर्णय लिया है। आपदा प्रबंध विभाग के प्रधान सचिव व्यास जी का कहना है कि सरकार प्रभावित जिले में वैकल्पिक खेती और किसानों को सिंचाई के लिये डीजल पर अनुदान पहले से ही दे रही है।
केन्द्रीय टीम के निरीक्षण के बाद इन जिलों के किसानों को राहत पैकेज भी दिया जाएगा। इन जिलों में हर दिन स्थिति की समीक्षा की जाएगी और उसके अनुरूप लोगों को मदद दी जाएगी।
केन्द्रीय मौसम विभाग ने काफी पहले ही आधे देश को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया था, लेकिन कर्नाटक को छोड़कर अन्य हर राज्यों की सरकारों ने इस प्राकृतिक आपदा को मान्यता देने में अनावश्यक देरी लगाई।
पिछले महीने मध्य प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और ओडिशा ने भी बाकायदा सूखे का ऐलान कर दिया था। किन्तु उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात और तेलंगाना की सरकारें सोती रही। नियमानुसार जब तक राज्य सरकार किसी इलाके को सूखाग्रस्त घोषित नहीं करती और केन्द्र नुकसान का जायजा नहीं ले लेता, तब तक वहाँ राहत कार्य शुरू नहीं हो सकते।
प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने इस साल अप्रैल में खराब फसल के मुआवजे की रकम 50 प्रतिशत बढ़ा दी थी। इस देरी का खामियाजा किसानों को भुगतना पड़ रहा है। महाराष्ट्र के कुछ इलाके पिछले कई सालों से सूखे की चपेट में हैं, जिसके कारण वहाँ के किसान बड़ी संख्या में खुदकुशी कर रहे हैं।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार जनवरी से सितम्बर के नौ महीने में वहाँ 2,234 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। यानी हर महीने लगभग 250 या प्रतिदिन आठ से ज्यादा। ऐसी ही खबरें तेलंगाना और कर्नाटक से भी आ रही हैं।
कर्नाटक सरकार ने अगस्त में ही 30 में से 27 जिलों को सूखाग्रस्त घोषित कर केन्द्र से 3,500 करोड़ रुपए की सहायता राशि माँग ली थी। उसके बाद आन्ध्र ने अपने 13 में से सात जिलों, मध्य प्रदेश ने 51 में से 41 और महाराष्ट्र ने 35 में से 20 जिलों को सूखे की चपेट में बताकर सहायता माँगी है।
तेलंगाना और उत्तर प्रदेश का भी बहुत बड़ा क्षेत्र सूखे का शिकार है। केन्द्र सरकार को भी पता है कि देश का 39 फीसदी इलाका बहुत कम बारिश के कारण संकट में है। कम वर्षा होने के कारण देश के कई राज्यों में किसानों की स्थिति खराब हो चुकी है।
एक तो कम वर्षा के कारण पहले फसल नहीं हो पाई। दूसरे अब दूसरी खेती के लिये भी पानी का अभाव बना हुआ है। सूखे का निर्धारण करने में सरकारें हमेशा से हीलाहवाली करती रही हैं।
सूखाग्रस्त क्षेत्र घोषित होने के बाद भी किसानों में उनके नुकसान का न तो वाजिब मूल्य मिल पता है और न ही कुछ महीने गुजर बसर कर पाने लायक अनुदान।
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