सूखे की आशंका और उससे आगे

सूखे की आहट किसानों तथा देश के लिए एक बुरी खबर है। इससे खाद्यान्न संकट तो होगा ही मंहगाई भी अपने चरम सीमा पर होगी। इतिहास में सूखे और अकाल की दिल दहलाने वाली दास्तानों की कमी नहीं है। अकाल का सीधा संबंध ही वर्षा होता है। सरकारी नीतियां वर्षा की भरपाई नहीं कर सकतीं लेकिन इससे प्रभावित लोगों को सहायता देकर उनकी मुश्किलें थोड़ा कम कर सकती हैं। सूखे से होने वाले संकट को रूबरू कराते देविंदर शर्मा।

2009 में देश को हाल के सबसे गंभीर सूखे का सामना करना पड़ा था। तब मौसम विभाग ने 96 फीसदी बारिश का अनुमान लगाया था, जबकि इससे काफी कम बारिश हुई थी, जिससे धान के उत्पादन में 12 फीसदी तक की कमी आ गयी थी। इस साल भी मानसून विभाग ने करीब 96 फीसदी बारिश का अनुमान लगाया है, जबकि देश के 70 फीसदी भूभाग में मानसून में करीब एक पखवाड़े की देरी हो चुकी है।

बारिश के देवता फिर नाराज दिख रहे हैं। खेती के लिए महत्वपूर्ण तीन महीनों में से जून में 31 फीसदी कम बारिश हुई है। जुलाई-अगस्त में भी 70 फीसदी तक ही बारिश के अनुमानों के साथ खरीफ फसलों के सूखने का खतरा मंडराने लगा है। केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने अनुमान लगाया है कि कृषि उत्पादन के अगुवा राज्यों पंजाब एवं हरियाणा में जून माह में धान की रोपाई करीब 26 फीसदी तक कम हो पायी है। उधर, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे राज्यों में मक्का, बाजरा और ज्वार जैसे मोटे अनाज की बुआई भी काफी प्रभावित हुई है। हालांकि मंत्रालय का दावा है कि दलहन, तिलहन और गन्ने की बुआई सामान्य के आसपास हुई है, लेकिन मानसून में और देरी होने पर खरीफ फसलों के उत्पादन पर काफी गहरा प्रभाव पड़ सकता है। उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा और आंध्र प्रदेश में खड़ी फसलों को लेकर भी चिंता बढ़ रही है। यदि अच्छी बरसात में एक सप्ताह की और देरी हुई, तो सभी पूर्वानुमान धरे रह जाएंगे। ऐसे में देश को बहुत ही गंभीर स्थिति का सामना करना पड़ सकता है।

कृषि मंत्री शरद पवार सूखे की आशंका से उपजे भय को कम करने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं। ऐसे समय में, जबकि देश की अर्थव्यवस्था की सालाना विकास दर गिर कर 6.5 फीसदी तक पहुंच गयी है, कृषि उत्पादन में कमी के संकेत मिलते ही महंगाई को पंख लग सकते हैं। कृषि उत्पादन में कमी से न केवल विकास को झटका लग सकता है, बल्कि खाद्य मुद्रास्फीति में वृद्धि से कई स्तरों पर सरकार की मुश्किलें काफी बढ़ जाएंगी। शरद पवार ने कहा, ‘हम बारिश में कमी से पैदा होने वाली स्थिति का सामना करने के लिए पूरी तरह तैयार हैं। सभी राज्यों को कृषि मंत्रालय से संबंधित आपदा योजना के साथ तैयार रहने के निर्देश दे दिये गये हैं।’ लेकिन ऐसी आपदा योजना में कृषि, ऊर्जा और जल संसाधन मंत्रालयों के बीच समन्वय भी जरूरी है। दुर्भाग्य से सूखा प्रभावित क्षेत्रों में ट्यूबवेल चलाने के लिए न तो डीजल के पर्याप्त भंडारण की कोई आपात योजना दिख रही है और न ही ऊर्जा मंत्रालय कृषि क्षेत्र को निर्बाध बिजली उपलब्ध कराने के लिए कोई विशेष इंतजाम कर पाया है। साफ है कि भारत ने पिछले वर्षों में सूखे की स्थिति का सामना करने के बावजूद कोई सबक नहीं सीखा है।

यद्यपि भारतीय मौसम विज्ञान विभाग देशवासियों को समझाने का प्रयास कर रहा है कि जुलाई से सितंबर के बीच मानसून लगभग सामान्य रहेगा, जिससे जून में हुए नुकसान की भरपायी हो जायेगी, लेकिन मानसून का विस्तार भी काफी महत्वपूर्ण है। अक्सर ऐसा होता है कि राष्ट्रीय स्तर पर कुल बारिश सामान्य रहने के बावजूद देश के कुछ भागों को गंभीर सूखे का सामना करना पड़ता है। 2010-11 में बिहार, महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के कुछ भाग सूखे की स्थिति का सामना कर चुके हैं, जबकि उस समय पूरे देश के पैमाने पर मानसून की अच्छी बारिश हुई थी। इस साल भी जो हालात बन रहे हैं, उसमें मानसून के प्रसार पर बारीकी से नजर रहेगी। इसके अलावा, सितंबर में अल-नीनो (पूर्वी प्रशांत की गर्म जलधारा) फिर सक्रिय हो सकती हैं, जो मानसून के पूर्वानुमानों को झुठलाती हुई ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण-पूर्व एशिया और भारत में गंभीर सूखे का कारण बनती रही हैं। अमेरिकी संस्था इंटरनेशनल रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट एंड सोसाइटी और ऑस्ट्रेलिया के ब्यूरो ऑफ मोट्रोलॉजी ने इस साल के उत्तरार्ध में अल-नीनो के सक्रिय होने की संभावना जतायी है। हमारे मौसम विज्ञान विभाग का अनुमान है कि सितंबर में अल-नीनो के सक्रिय होने की संभावना 36 फीसदी है।

यदि ऐसा होता है, तो खड़ी फसल में दाने तैयार होने की प्रक्रिया पर विपरीत असर पड़ेगा, जिससे उत्पादन काफी कम हो सकता है। अल-नीनो कितना गंभीर कारक है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भारत में पिछले पांच सूखे का कारण यही रहा है। वैश्विक स्तर पर यदि आप मौसम विज्ञान के पिछले 110 वर्षों के आंकड़ों पर नजर डालें, तो इस दौरान पड़े 21 गंभीर सूखे में से 15 का कारण अल-नीनो ही रहा है। इसलिए अल-नीनो की तीव्रता और प्रकोप को हल्के में लेना भारी भूल होगी। मानसून के संबंध में लंबी अवधि का सटीक पूर्वानुमान आसान नहीं है। यह स्थिति केवल भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के लिए ही नहीं है, विकसित देशों के पूर्वानुमान भी अक्सर सटीक साबित नहीं होते हैं। इस साल भी दुनिया की कुछ जानी-मानी संस्थाओं ने मानसून के फेल होने से लेकर सामान्य रहने तक का पूर्वानुमान लगाया है। पिछले कुछ वर्षों में भारतीय मौसम विभाग ने सांख्यिकीय पद्धति से आगे बढ़ते हुए आधुनिक मॉडल को अपनाया है, लेकिन उसके पूर्वानुमानों पर बाजार के सटोरियों को अब भी भरोसा नहीं है। हकीकत यही है कि पिछले 130 वर्षों में भारतीय मौसम विभाग सूखे का पूर्वानुमान लगाने में कभी सफल नहीं रहा है।

2009 में देश को हाल के सबसे गंभीर सूखे का सामना करना पड़ा था। तब मौसम विभाग ने 96 फीसदी बारिश का अनुमान लगाया था, जबकि इससे काफी कम (करीब 23 फीसदी कम) बारिश हुई थी, जिससे धान के उत्पादन में 12 फीसदी तक की कमी आ गयी थी। इस साल भी मानसून विभाग ने करीब 96 फीसदी बारिश का अनुमान लगाया है, जबकि देश के 70 फीसदी भूभाग में मानसून में करीब एक पखवाड़े की देरी हो चुकी है। हालांकि सूखे की आशंका को लेकर सरकार को चिंता इसलिए नहीं है, क्योंकि देश में गेहूं और चावल का रिकॉर्ड 82.4 मिलियन टन भंडार है। लेकिन अनाज के इस भंडार के न्यायपूर्ण वितरण की भी व्यवस्था की जानी चाहिए, जिससे जरूरतमंद राज्यों को उचित हिस्सा मिल सके। साथ ही पर्याप्त मात्रा में अनाज खुले बाजार के लिए भी जारी करना चाहिए, ताकि कम उत्पादन होने पर भी इसके मूल्यों को नियंत्रण में रखा जा सके। देश में खाद्यान्न के पर्याप्त भंडार को देखते हुए इसके आयात पर विचार करने की जरूरत नहीं है।

साथ ही, भारत को जी-20 देशों के उस दिशा-निर्देश को भी नजरअंदाज करना चाहिए, जिसमें सदस्य देशों के लिए अनाज के अधिक भंडार का निर्यात अनिवार्य कर दिया गया है। यद्यपि जी-20 का उद्देश्य कुछ देशों में कम उत्पादन के बावजूद दुनियाभर में अनाज के मूल्यों को स्थिर रखना है, लेकिन भारत अपनी विशाल आबादी की खाद्य सुरक्षा की अनदेखी करने की स्थिति में नहीं है। उसे अपने लोगों के लिए अनाज का पर्याप्त भंडार रखना ही चाहिए। ऐसे मामलों में अंतरराष्ट्रीय उत्तरदायित्वों से पहले घरेलू जरूरतों का ध्यान रखा जाना चाहिए।

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