सूखे के साथ जीना सीखना होगा


बिहार ने बाढ़ के साथ जीना सीख लिया है और राजस्थान व गुजरात ने सुखाड़ के साथ। अब हम भी सीखें तो बेहतर होगा। व्यापक स्तर पर यह सीखना और करना इसलिये भी जरूरी है; क्योंकि अब अन्य विकल्प शेष नहीं है। इसरो के आँकड़े हैं कि थार का रेगिस्तान आठ किलोमीटर प्रतिवर्ष की रफ्तार से आगे बढ़ रहा है। इस रफ्तार को थामना तो एक यक्ष प्रश्न जैसा है लेकिन इतना तो किया ही जा सकता है कि वर्तमान या आगामी समस्याओं के साथ समन्वय बनाकर जीवन जीने की कला सीख ली जाये।

.मानसून का अनुमान सामान्य से 10 फीसदी अधिक या कम हो, तो सूखा घोषित करने का प्रावधान है। वर्ष 2000 में राजस्थान में आये व्यापक सूखे को याद कीजिए। वर्ष 2002, 2004 और 2009 में भारत में सामान्य से क्रमशः 19, 13 और 23 प्रतिशत कम मानसून आया। वर्ष 2012 और 2014 फिर कम मानसून के वर्ष रहे। वर्ष 2015 के मानसून की त्रासदी ने 33 करोड़ भारतीयों को दुष्प्रभावित किया। इन्हीं सूखे वर्षों के बीच भारत ने 2001 से लेकर अब तक कश्मीर, उत्तराखंड, असम, चेन्नई समेत कई इलाकों में बाढ़ भी देखी। मौसम विभाग का अनुमान सच रहा, तो वर्ष 2016 में भारत में मानसून सामान्य से छह फीसदी अधिक रहेगा। यह ताजा अनुमान सुखद हो सकता है, लेकिन अतिवृष्टि और अनावृष्टि का सिलसिला नहीं। यह सिलसिला गवाह है कि अब मानसून के सामान्य होने की गारंटी छिन गई है। बारिश, पूरे चौमासे में बरकरार रहेगी या फिर चंद दिनों में पूरे मौसम का पानी बरस जाएगा यह दावा भी अब मुश्किल हो गया है। यह मानकर चलना चाहिए कि बादलों से बरसने वाले पानी के साथ ये अनिश्चितताएँ तो अब रहेंगी ही। बुनियादी प्रश्न यह है कि ऐसे में हम क्या करें?

राहत नहीं समाधान


सूखे को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने आपदा प्रबंधन कानून-2005, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून तथा महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून को लागू करने को लेकर निर्देश जारी किये हैं। सूखा घोषित करने के समय, मानक तथा सूखा राहत को लेकर भी निर्देश दिये हैं। क्या हम इन निर्देशों को लागू करने के शासकीय तौर-तरीकों पर बहस करें? उसे सुधारने में अपनी भूमिका निभाएँ? हाँ हमें ऐसा करना चाहिए क्योंकि सूखा राहत की तात्कालिक जरूरतों की पूर्ति की दृष्टि से इस बहस से और सुधार भूमिका का महत्व है। किन्तु सूखा निवारण की दृष्टि से इस बहस का कोई विशेष महत्व नहीं। आइए, आगे बढ़ें।

स्थानीय कारगुजारियों पर निष्कर्ष जरूरी


भारतीय विज्ञान संस्थान, बंगलुरु द्वारा प्रो. टी. वी. रामचन्द्र के नेतृत्व में गठित दल द्वारा वर्ष 2012 में पेश अध्ययन के अनुसार पिछले चार दशक में भारत में पक्का निर्माण 584 प्रतिशत बढ़ा है। इस पक्के निर्माण में मुख्य हिस्सा शहरीकरण और सड़कों का बढ़ता संजाल का है। भारत ने इसकी कीमत हरित क्षेत्र में 66 प्रतिशत गिरावट तथा कुल जल ढाँचों में से 74 प्रतिशत के गायब होने के रूप में चुकाई है। खतरनाक है कि हमारे कई मुख्य शहरों के कुल क्षेत्रफल में से वृक्ष क्षेत्रफल का प्रतिशत वर्ष 2030 तक दो से चार प्रतिशत होने की राह पर है।

इन आँकड़ों से जल नियोजकों के कान खड़े हो जाने चाहिए। समझ लेना चाहिए कि जल ढाँचे ही नहीं रहेंगे, तो कितनी ही बारिश होगी। फरवरी के बाद हम हर साल बेपानी रहेंगे। वृक्ष, बारिश को न्योता देकर बुलाता है। वृक्ष, आबोहवा को शीतल करता है। वृक्ष, अपनी जड़ों में पानी तथा मिट्टी संजोकर रखता है। जामुन जैसे वृक्ष, भूजल को निर्मल करते हैं। यूकेलिप्टस जैसे पानी सोख वृक्षों को छोड़ दें, तो वृक्ष स्वयंमेव एक तालाब होता है। इस दृ्ष्टि से एक वृक्ष को काट देना, एक जल ढाँचे को मार देने जैसा ही है। यह एक खतरनाक कारगुजारी है। स्पष्ट है कि भारतीय जल संकट के लिये सिर्फ वैश्विक तापमान वृद्धि को दोषी ठहराकर, स्थानीय दोष से मुँह नहीं छिपाना अपने पैर पर स्वयं कुल्हाड़ी मारने जैसा है। ऐसी कारगुजारियाँ सूखे के साथ जीना और कठिन बनाएँगी। अतः जरूरी है कि बेसमझी के साथ किये जा रहे बेलगाम शहरीकरण से हम चिंतित हों। इससे बचने के लिये अब इन मानकों का निर्धारण और पालना भी जरूरी होंगे कि किस भूगोल की किस परियोजना क्षेत्रफल में से कितना प्रतिशत क्षेत्रफल हरियाली और कितना प्रतिशत वर्षाजल संचयन के लिये आरक्षित हो। नगर नियोजकों को इस पर विचार करना होगा और सरकारों को शहरीकरण की नीति पर। इस अध्ययन से सबक लेकर जरूरी यह भी होगा कि यह पड़ताल तेज हो कि भारत में पानी के बढ़ते संकट की जिम्मेदार अन्य स्थानीय कारगुजारियाँ कौन-कौन सी हैं।

जटिल संकटः साधारण समाधान


अगला प्रश्न है कि क्या इतना मात्र कर लेने से सूखा निवारण हो जायेगा? निश्चित ही नहीं। तो सूखा निवारण का वास्तविक हल क्या है?

इस प्रश्न का उत्तर बेहद साधारण हैः धरती से जितना पानी लें, उसे कम से कम उतना और वैसी गुणवत्ता का पानी वापस लौटाएं। जलोपयोग में अनुशासन की गारंटी इस उत्तर के साथ जुड़ी शर्त है। यह कैसे हो? सिंचाई और उद्योग, मीठे पानी की सर्वाधिक खपत वाले दो मुख्य क्षेत्र हैं। क्या दोनों ही क्षेत्रों में अनुकूल तकीनक, सख्ती और समझ विकसित करने से यह संभव है? यह विस्तृत चर्चा का विषय है। किन्तु इन उक्त उत्तर का सत्य संक्षेप यही है कि जिन्होंने इन दो सूत्र का पालन किया, वे कम वर्षा में भी आत्महत्या को विवश नहीं हुए। जिसने इसका पालन नहीं किया, आजाद भारत के कुल सिंचाई बजट में से सबसे ज्यादा हिस्सा पाने वाला राज्य होने के बावजूद आज वह पानी के लिये त्राहि-त्राहि करता राज्य है। इस तर्क के प्रमाण में हमारे सामने दो तस्वीरें हैंः-

एक प्रमाण रेगिस्तान


250 मिलीमीटर प्रतिवर्ष औसत से कम वर्षा वाले इलाकों को रेगिस्तान का दर्जा दिया जाता है। दुनिया का हर रेगिस्तान प्रमाण है कि इतने कम वर्षा औसत में जीवन संभव है। राजस्थान के जैसलमेर, बीकानेर, बाड़मेर और श्रीगंगानगर 300 से कम वार्षिक वर्षा औसत वाले जिले हैं। वर्ष 2000 में राजस्थान में अकाल की सी स्थिति हुई। कुल दो करोड़, 61 लाख, 79 हजार लोग दुष्प्रभावित हुए। गौर कीजिए कि बावजूद इसके वहाँ एक भी मौत ऐसी नहीं हुई, जिसका कारण भूख हो। स्वयं भारत सरकार की रिपोर्ट यह कहती है। वर्ष 1951 से 2000 तक की गणना के आधार पर राजस्थान का जैसलमेर, देश में सबसे कम वार्षिक वर्षा औसत (183 मिमी) वाला जिला है। पिछले तीन वर्षों के दौरान निचले स्तर तक जा पहुँचे वार्षिक बारिश औसत के बावजूद इस बीच जैसलमेर में न आत्महत्याएँ हुईं, न पानी को लेकर कोई चीख-पुकार मची और न ही किसी आर्थिक पैकेज की माँग की गई।

महाराष्ट्र : पैसे और पानी का विरोधाभास


दूसरी तस्वीर मराठवाड़ा, मध्य महाराष्ट्र और विदर्भ की है, जहाँ के वार्षिक वर्षा औसत क्रमशः 882, 901 और 1,034 मिलीमीटर है। सबसे ज्यादा चर्चा में आए जिला लातूर का वार्षिक वर्षा औसत 723 मिलीमीटर है। 50 फीसदी गिरावट के बाद लातूर में हुई 361 मिलीमीटर वर्षा का आँकड़ा देखें। यह आँकड़ा भी जैसलमेर के सामान्य वर्षा औसत का दोगुना है।

गौर कीजिए कि महाराष्ट्र में पानी को लेकर संकट इस सबके बावजूद आया कि पिछले 68 वर्षों में सिंचाई व बाढ़ नियंत्रण के नाम पर देश के कुल बजट का सबसे ज्यादा हिस्सा महाराष्ट्र को ही हासिल हुआ है। सिंचाई बाँध परियोजनाओं की सबसे ज्यादा संख्या भी महाराष्ट्र के ही नाम दर्ज है। वर्ष 2012 में केन्द्रीय जल आयोग द्वारा जारी आँकड़ों के मुताबिक भारत में कुल जमा निर्मित और निर्माणाधीन बाँधों की संख्या 5187 है, जिसमें से 1845 अकेले महाराष्ट्र में हैं।

विरोधाभास यह है कि सबसे बड़े बजट और ढेर सारी परियोजनाओं के बावजूद अंगूर और काजू छोड़कर एक फसल ऐसी नहीं, जिसके उत्पादन में महाराष्ट्र आज देश में नंबर एक हो। कुल कृषि क्षेत्र की तुलना में सिंचित क्षेत्र प्रतिशत के मामले में भी महाराष्ट्र (मात्र 8.8 प्रतिशत) देश में सबसे पीछे है। सिंचाई क्षमता के मामले में महाराष्ट्र का नंबर आंध्र प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, और उत्तर प्रदेश के बाद में ही आता है।

विचारणीय प्रश्न है कि पानी के नाम का इतना पैसा खाने के बावजूद, यदि आज महाराष्ट्र के कुल 43,000 गाँवों में से 29,000 को सूखाग्रस्त घोषित करने की बेबसी है, तो आखिर क्यों? मई मध्य में महाराष्ट्र के अधिकांश बाँधों के जलाशयों में एक फीसदी ही पानी शेष बचा था। आखिर यह नौबत क्यों आई कि महाराष्ट्र सरकार को 200 फुट से गहरे बोरवेल पर पाबंदी का आदेश जारी करना पड़ा है?

पानी का लेन-देन अनुचित


इसका एक उत्तर यह है कि महाराष्ट्र सरकार ने सूखे में भी इंसान से ज्यादा फैक्टरियों की चिंता की। दूसरा उत्तर है कि अकेले लातूर जिले में 90,000 गहरे बोरवेल हैं। पूरे मराठवाड़ा पर तोहमत यह है कि उसने गत वर्षों में धरती से इतना पानी खींचा, वहाँ भूजल स्तर में गिरावट रफ्तार तीन मीटर प्रति वर्ष का आँकड़ा पार कर गई है। तीसरा उत्तर है कि बगल में स्थित जिला सोलापुर में भूजल पुनर्भरण के अच्छे प्रशासनिक प्रयासों से लातूर ने कुछ नहीं सीखा। चौथा उत्तर वह लालच है कि जो लातूर को गन्ने के लिये 6,90,000 लाख लीटर यानि प्रतिदिन 1890 लाख लीटर पानी निकाल लेने की बेसमझी देती है, जबकि परम्परागत तौर पर लातूर मूलतः दलहन और तिलहन का काफी मजबूत उत्पादक और विपणन क्षेत्र रहा है। दलहन-तिलहन को तो गन्ने से बीस हिस्से कम पानी चाहिए, फिर भी लातूर को गन्ने का लालच है।

लालच से मुक्ति जरूरी


लातूर को जैसलमेर से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। हकीकत यह है कि यदि लातूर अकेले गन्ने का लालच छोड़ दे, तो ही लातूर शहर और गाँव दोनों की प्रतिदिन की आवश्यकताओं हेतु पानी की पूर्ति हो जाएगी। लातूर शहर को दैनिक आवश्यकताओं के लिये प्रतिदिन कुल 400 से 500 लाख लीटर और गाँव को प्रतिदिन 200 से 300 लाख लीटर पानी चाहिए। गन्ना और चीनी उत्पादन का लालच छोड़ते ही सिर्फ लातूर नहीं, पूरे महाराष्ट्र की दैनिक जरूरतों का पानी रिजर्व हो जाएगा।

एक उलटबांसी सिंचाई प्रवृत्ति


महाराष्ट्र में गत 60 वर्षों का सिंचाई प्रवृत्ति भी गौर करने का विषय है। 1960 की तुलना में 2015-16 को सामने रखें, तो महाराष्ट्र के सिंचित क्षेत्र में बाजरा, ज्वार, अन्य अनाज, दाल, तिलहन और कपास की फसल करने की प्रवृत्ति घटी है जबकि धान, गेहूँ और गन्ना की बढ़ी है। फसल चयन की उलटबांसी देखिये कि सिंचित क्षेत्र में इन फसलों को प्राथमिकता इसके बावजूद है कि महाराष्ट्र में इन फसलों का सिंचाई खर्च अन्य राज्यों की तुलना में काफी अधिक है। उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश की तुलना में महाराष्ट्र में गन्ना उत्पादन में पानी खर्च साढ़े नौ गुना तक, धान-गेहूँ में सवा गुना तक, कपास में दस गुना तक और सब्जियों में सवा सात गुना तक अधिक है। सब जानते हैं कि ‘हरित क्रांति’ का ढोल बजाने में जो-जो राज्य आगे रहे, आज उनके पानी का ढोल फूट चुका है, फिर भी व्यावसायिक खेती की जिद्द क्यों? पानी नहीं है तो किसने कहा कि महाराष्ट्र के किसान केला, अंगूर, गन्ना, चावल और प्याज जैसी अधिक पानी वाली फसलों को अपनी प्राथमिक फसल बनाएँ?

समाधान के सचेतक सूत्र


कम बारिश हो, तो खेती सिर्फ आजीविका का साधन हो सकती है, सारी सुविधाएँ और सपने पूरे करने का नहीं। अतः जैसलमेर ने अपनी आजीविका को खेती पर कम, मवेशी, स्थानीय हुनर आधारित कारीगरी और पर्यटन पर अधिक निर्भर बनाया है। इसी तरह देश के हर इलाके को सूखा निवारण का अपना मास्टर प्लान, खुद बनाना होगा। हर काम के लिये सरकार की ओर ताकने की प्रवृत्ति त्यागनी होगी।। यही रास्ता है। यदि जैसलमेर यह कर सकता है, तो मराठवाड़ा और बुन्देलखण्ड क्यों नहीं कर सकते? वे क्यों नहीं कम अवधि व कम पानी वाली फसलों को अपनी प्राथमिक फसल बना सकते? महाराष्ट्र शासन को किसने बताया कि जल के दुरुपयोग को बढ़ावा देने वाली नहरी सिंचाई को बढ़ावा दे? उसे किसने रोका कि वह बूँद-बूँद सिंचाई व फव्वारे जैसी अनुशासित सिंचाई पद्धतियों को न अपनाए? कम पानी की फसलों को बढ़ावा देने के लिये उनके न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि जरूरी है।

इसे लेकर महाराष्ट्र सरकार के हाथ किसने बाँधे हैं? ‘खेत का पानी खेत में’ और ‘बारिश का पानी धरती के पेट में’ जैसे नारों पर कहाँ किसी और का एकाधिकार है? सब जानते हैं कि रासायनिक खाद, मिट्टी कणों को बिखेरकर उसकी ऊपरी परत की जल संग्रहण क्षमता घटा देती है। गोबर आदि की देसी खाद, मिट्टी कणों को बाँधकर ऊपरी परत में नमी रोककर रखती है। इससे सिंचाई में कम पानी लगता है। खेत समतल हो, तो भी कम सिंचाई में पानी पूरे खेत में पहुँच जाता है। ग्रीन हाउस, पॉली हाउस, ऊँची मेड़बंदी आदि क्रमशः कम सिंचाई, कम पानी में खेती की ही जुगत हैं। इन्हें अपनाने की रोक कहाँ है? जरूरत, जल निकासी तंत्र पर कम और जल संचयन तंत्र व तकनीक पर अधिक जल बजट लगाने की है। शासकीय जल बजट की प्राथमिकता बदलने से सरकारों को किसने मना किया है? जबकि अब आओ प्रश्न करें कि जानते-बूझते न करने की यह बेबसी कैसे मिटे? लालच कैसे हटे? साझा कैसे कायम हो? पहल कौन और कैसे करे?

पानीदार पहल जरूरी


जवाब में मैं कहूँगा कि सूखे के इस समय में भी जहाँ चीख-पुकार नहीं हैं, वहाँ जाए देखें, सीखें और करें। पौड़ी, चमोली और अल्मोड़ा के मध्य स्थित गाँव उफरैखाल। खाल का मतलब ही है एक विशेष प्रकार की जल संरचना। देखें और सीखें की बीते तीन दशक ने सच्चिदानंद भारती ने कैसे 120 गाँवों का हाथ पकड़कर 30 हजार से अधिक चाल-खाल बनाने का काम किया? सीखें कि इस काम ने सूखी रौला को कैसे ‘गाड गंगा’ बना दिया? राजकोट के गाँव राजसमझियाला के हरदेवसिंह जडेजा ने, सौराष्ट्र में प्रेमजी बापा ने, श्यामजी भाई अंटाला ने, वलसाड में देबु बहन ने, मालवा के देवास ने, सोलापुर के कलेक्टर तारकुण्डे ने सवाई माधोपुर में कोचर की डांग ने, जयपुर में लापोड़िया के लक्ष्मण सिंह ने, भारत ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है। जिला हमीरपुर, तहसील मौदहा, ग्राम जिगनौड़ा, निवासी आशुतोष के खुद पहल कर वर्ष 2013 में 35 फीट गहरा तालाब बनाया। कम बारिश के बावजूद तीन साल बाद भी उसमें पानी है। कर्नाटक, जिला बागलकोट, तालुका-हुनागुंडा और बेनाकट्टी, गाँव बड़वाडगी, चित्तरागी, रामवाडागी, कराडी, कोडीहाला, इस्लामपु, नंदवाडगी और केसरभावी। इन्होंने कुछ नहीं किया। बस, सुनिश्चित किया कि पानी बहकर न चला जाए और सूखे में सुकाल का इंतजाम हो गया। ऐसे कामों को देखकर कई ने सीखा है।

 

एक पाठशाला : तरुण प्रयास


637 मिलीमीटर बारिश के वार्षिक वर्षा औसत के बावजूद राजस्थान के जिला अलवर की तहसील थानागाजी भी कभी ‘डार्क जोन’ के रूप में दर्ज थी। आकाश में पानी था, लेकिन उन्हें बुलाकर नीचे लाने वाली हरियाली मवेशी, चूल्हे और बेसमझी के हवाले हो चुकी थी। बारिश की बूँदों को जमीन पर संजोने वाले कटोरे फूट चुके थे। इलाका डोलामाइट और संगमरमरी चट्टानों का है। बचा-खुचा पानी खानों का लालच खींचकर पी गया। नतीजे में तब यहाँ भी किलोमीटर दूर से पीने का पानी लाने की बेबसी थी। खेती के लिये पानी नाकाफी था। आजीविका के लिये पलायन की मजबूरी थी। यह इसलिये था कि समाज में समझ थी, लेकिन साझा नहीं था। गाँव गोपालपुरा के मांगू पटेल ने कहा- “के बताऊं साब। आजादी के आई, म्हारी तो बर्बादी आगी। पैले लड़ाई बाहर वालों से थी, अब समाज के भीतर ही पैदा होगी। समाज का साझा टूट गा, तो फिर जोहड़ां की पाल कैसे बचती। वो भी टूट गी।” दिमाग का दुर्योग इस कदर हावी था कि टूटी पालों को जोड़ने के लिये साझा करने की बजाय, मर्दों ने पलायन करना बेहतर समझा। जवान मर्द बाहर थे, तो पत्थर की पाल बनाता कौन? इस काम को करने का हौसला बाँधा, वर्ष 1984-85 में वहाँ पढ़ाई और दवाई का काम करने आये पाँच में से दोनों जवानों ने- राजेंद्र सिंह और सतेंद्र सिंह। उच्च शिक्षा प्राप्त राजेंद्र बताते हैं कि तीन महीने बीतते-बीतते पढ़ाई का उनका घमंड टूट गया। मांगू पटेल ने कहा- “राजेंद्र, दवाई और पढ़ाई तो बिकती है। जब पीसा होगा, तब दवाई-पढ़ाई तो हम खरीद लेंगे। तू यदि कुछ करना ही चाहता है, तो पानी का काम कर।”


पहली सीखः हर अनपढ़ नहीं होता अज्ञानी


राजेंद्र को पानी का काम नहीं आता था। मांगू ने कहा- “फावड़ा-कुदाल लेकर आना। पानी का काम मैं सिखा दूँगा।” राजेंद्र को बात जम गई। जिन्हें नहीं जमी, वे तीन साथी वापस लौट गये। राजेंद्र और उनके साले सतेंद्र गोपालपुरा पहुँच गये। गोपालपुरा के जोहड़ में गाद भर चुकी थी। पाल मरम्मत माँगती थी। पढ़े-लिखे नौजवानों ने गाँव के अनपढ़ मांगू को अपना गुरु बनाया और फावड़े को अपना औजार। दवाई और पढ़ाई भी चलती रही और जोहड़ की खुदाई भी। परदेसी को जोहड़ खोदते देख गोपालपुरा की किसी बहन को तरस आया। उसने मिट्टी ढोने में साथ दिया। उसे देखकर कई बहनों की संवेदना जागने लगी। समाज की पाल बनने लगी; तो फिर काम कैसे पूरा नहीं होता? वक्त लगा, लेकिन एक दिन ऐसा आया कि गोपालपुरा के जोहड़ की खुदाई और पाल का काम भी पूरा हो गया। जयपुर के किसी सेठ से मांगकर लाये कुछ बोरे अनाज भी इसमें मददगार हुए।


दूसरी सीख : सुख आए, तो साझा करो


बारिश हुई, तो जोहड़ में जमा पानी धरती की नसों सो होता हुआ गोपालपुरा के पानी में उतर आया। चारों ओर शोर मच गया “गोपालपुरा के कुएँ में पानी आया। गोपालपुरा के कुएँ में पानी आया।” गाँव ने इसका उत्सव किया। बाहर मजदूरी करने गए गोपालपुरा के मर्दों को वापस बुलाया। रिश्तेदारों को न्योता। गोपालपुरा का कुँआ पानीदार हुआ, तो रिश्तेदारों का भी हो। इस भाव ने काम को आगे बढ़ा दिया। गाँवों ने पानी के लिये सरकार की ओर ताकने की बजाय, अपना कर्तव्य मान लिया। काम का यश थानागाजी से बाहर पहुँचा, तो राजेंद्र जोहड़ वाले हो गये। तरुण भारत संघ, बाकायदा गाँवों में जल संरक्षण करने वाली संस्था हो गई।


तीसरी सीखः खुद श्रेय लेने से बचो


‘जोहड़ वाला बाबा’ गाँव-गाँव घूमने लगा, उन्होंने ग्रामसभा गठन का काम किया। जहाँ गाँव ने साझा किया, वहाँ पानी का काम शुरू कराने के इंतजाम में लग गए। काम की नैतिकता व अध्यात्म भी तय किये तथा सहभागिता की शर्तें भी। तय किया कि गाँव को तैयार करने में चाहे जो वक्त लगे, जहाँ गाँव साझा नहीं करेगा; वहाँ पानी का काम नहीं करेंगे। जल संरचना कहाँ बनेगी? कैसी बनेगी? जगह, डिजाइन, सामग्री, नामकरण से लेकर खर्च तक के बारे में निर्णय से लेकर श्रेय का अधिकार गाँव का ही होगा। आज के राजनेता गाँव में सोलर लाइट का खंभा लगाते हैं, तो लिखवा देते हैं- “यह लाइट फलां सांसद के फंड से बनी है।” राजेंद्र ने उलट तय किया कि किसी जलसंरचना पर तरुण भारत संघ का नाम नहीं लिखा जाएगा। तरुण भारत संघ जन-जोड़ने के अलावा आवश्यकता होने पर सिर्फ तकनीकी, सामग्री और आर्थिक सहायता उपलब्ध कराने की भूमिका में होगा। इसका लाभ यह हुआ कि गाँव ने काम को अपना माना और अपना मानकर उसकी देखभाल और सुरक्षा दायित्व को खुद संभाला।


चौथी सीखः पहले समझना, फिर करना, तब दूसरे को समझाना


काम करते-करते राजेंद्र को समझ में आया कि हर जल ढांचा भूजल पुनर्भरण के मकसद से नहीं बनाया जाता। कुछ जल ढाँचे मवेशी और सीधे पानी लेने के मकसद से बनाए जाते हैं। दोनों के लिये अलग-अलग तरह की भूमि चाहिए होती है। धरती के पेट के साथ-साथ समाज के पेट को समझना जरूरी होता है। सीधे पानी लेने वाले जल ढाँचे के किनारे पर एक छोटा-सा देवस्थान और साफ-सफाई रखनी होती है। वर्षा की माप, ढाँचे में एकत्र होने वाले पानी की माप और तदुनसार ढाँचे की सामग्री व पाल की डिजाइन की समझ भी काम करते-करते आई। जोहड़, जोहड़ी, चेकडैम, एनीकेट, मेड़बंदी आदि की गहरी समझ आते-आते आई। समझ में समग्रता का यह फर्क बाद में सरकार और थानागाजी के समाज में साफ दिखा। जो ढाँचे सरकार ने ढाई लाख में बनाए, यहाँ के गंवई लोगों ने वैसे ढाँचे मात्र 40 हजार रुपये में ही बना दिए।


पाँचवी सीखः पेड़, पानी का बाप होता है


हरियाली को जिंदा किये बगैर पानी की नीलिमा जिंदा नहीं की जा सकती। जब यह बात समझ आई, तो तरुण भारत संघ ने ‘पेड़ बचाओ, पेड़ लगाओ पदयात्रा’ निकाली। पहाड़ों पर फैली सूखती जड़ों को जिंदा करने के लिये पत्थर के छोटे टुकड़ों और मिट्टी से मेड़बंदियां की। जगह-जगह पौधे लगाए। रक्षाबंधन पर उन्हें राखी बाँधी। जोहड़ का नाम ग्रामदेव या किसी प्रिय के नाम पर रखा। देवबणी, रक्तबणी आदि वर्गीकरण को सामने लाकर वनों की सुरक्षा सुनिश्चित की। पेड़ों के साथ गोत्रों का रिश्ता समझाया। गाँव, पेड़, जोहड़, भूमि, जंगल, जंगली जीव… हर किसी से रिश्ता बनाया। निजी सुख-दुख में शामिल हुए।


छठी सीखः रिश्ता बनाओ, संकट में आगे आओ


गोपालपुरा के जोहड़ पर प्रशासन ने बंजारे बसा दिये, तो राजेंद्र गाँव के साथ खड़े दिखाई दिए। गाँव की मेहनत से बनाए ढाँचे में पानी रुकने की बजाय, झिरी की खान में जा रहा है। यह पता लगा, तो लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक लड़ी। अन्ततः जीत हुई। खाने बंद करनी पड़ी। जंगलात, जंगलवासियों को जंगल से जबरन बाहर निकालना चाहता था। उसने गाँव व राजेंद्र के खिलाफ बाघ शिकार के मुकदमे तक गढ़े। वह इस जबरदस्ती के खिलाफ जंगलात से लड़े और आगे चलकर जंगलात में पानी संजोने का काम भी किया। 72 गाँवों द्वारा जिंदा की गई नदी अरवरी में प्रशासन ने मछली का ठेका दे दिया। विरोध करने पर ठेकेदार ने नदी में एल्ड्रीन नामक दवा डाल दी, तो तरुण भारत संघ ने जनसुनवाई आयोजित करके 72 गाँवों की ‘अरवरी संसद’ खड़ी कर दी। सत्य की जीत हुई। प्रशासन झुका। ठेका रद्द हुआ।


सातवीं सीखः समृद्धि आने पर भी उपयोग का अनुशासन भूलो नहीं


ऐसा रिश्ता बनाने वाले संगठन के साथ गाँव वालों ने भी एक रिश्ता जैसा जोड़ लिया। ‘अरवरी संसद’ ने जंगल, जंगली जीव और पानी के साथ व्यवहार में अनुशासन के न सिर्फ नियम बनाए, बल्कि उनकी पालना भी की। अधिक पानी की फसलों का लालच छोड़ा। हरी डाली नहीं काटने का संकल्प लिया। कृषि की जमीन को गैरकृषि कार्य के लिये न बेचने का नियम बनाया। भूगोल बदलना इतना आसान काम नहीं होता। किंतु जल संरक्षण के इस काम और अनुशासन का परिणाम क्रांतिकारी हुआ। थानागाजी का सरकारी रिकॉर्ड बदल गया। तहसील थानागाजी ‘डार्क जोन’ से ‘व्हाइट जोन’ में दर्ज कर दी गई। पानी लौटा तो खेती, समृद्धि और सम्मान तीनों ही लौट आए।


अपनी 15 वर्ष की उम्र पूरी करते-करते तरुण भारत संघ, एक जलान्दोलन में परिवर्तित हो गया। देशभर-दुनिया से काम देखने आने वालों का सिलसिला बढ़ गया। राजेंद्र सिंह ने सोचा कि गाँव के छोटे से काम से उनके इलाके की सात नदियाँ जिंदा हो सकती हैं, तो शेष भारत की क्यों नहीं। वर्ष 2000 में वह भारत की ‘जलयात्रा’ पर निकल गए। उन्होंने ‘नदी जोड़’ की जगह नदियों से जन-जुड़ाव का विकल्प पेश किया। जल-जन-जोड़ का उनका सफर आज भी जारी है।

 

सम्पर्क


लेखक परिचय
लेखक जल संसाधन पर केंद्रित पोर्टल www.panipost.in के संपादक हैं। प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में जल प्रबंधन, पर्यावरण संरक्षण, वन संरक्षण आदि विषयों पर नियमित तौर पर लिखते रहे हैं। ईमेलः amethiarun@gmail.com

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