बाड़मेर। ‘‘यह बारिश नहीं बरसेगी। कहीं और जाकर बरसेगी। शायद बाड़मेर, शायद जोधपुर, जयपुर, या उससे भी आगे दिल्ली। बारिश, फिर दगा दे गई।’’
बायतु गांव में, उस रात भंवरलाल की छत पर हनुमान, ठकराराम, करणराम, मुरली चौधरी के साथ बैठे बैठे बादलों की नौटंकी देर तक देखते रहे। कड़कड़ाती और चमकदार बिजलियों के बीच, काले बदलों में भरी उन संभावनाओं पर बतियाते रहे, जो हवा के साथ कबके छूमंतर हो चुके थे। इसी बीच कुंभाराम ने आकर बेवफा बारिश के हवाले से जैसे सबको बुरी तरह टोक डाला। जाते जाते वह ऐसी भविष्यवाणी भी करता गया, जो सबको मालूम थी- ‘‘अब फिर से सूखा होगा, भंयकर अकाल पड़ेगा।’’
यहां जब बादल नहीं होते तो उसके किस्से होते हैं: निराशाओं, सामूहिक हताशाओं से भरे हुए। मगर मुरली चौधरी ने सूखे की हालत पर एक खुशनुमा लोकगीत शुरू कर दिया। जिसका मतलब है- ‘‘सूखा तो यहां के पैर में है, नाक में है, गर्दन में है। कभी-कभार इधर-उधर हो आता हैं, मगर उसका असली मुकाम यहीं है। जैसा भी है, है तो अपना दोस्त।’’
अब वह एक नया लोकगीत रचने के लिए मचल पड़ा है। जिसके बोल जुड़े हैं ‘अकाल को जड़ सहित उखाड़ने’ के नाम पर बनी- इंदिरा गांधी नहर परियोजना से। जो खाका बना है, उसमें ‘‘सूखे ने सत्ता की दुष्ट शक्तियों के साथ हाथ मिलाया है, वह राक्षस का रुप धारण करके लोभ और भष्ट्राचार के फेरे में पड़ गया है, वह सबकुछ निगल जाने को बैठा है। सुनो रे परदेसी, यह आज का नहीं, बहुत पहले का किस्सा है’’ :
1947 से अबतक, ऐसा नहीं है कि यहां सूखे के स्थायी निपटारे के बारे में कभी सोचा नहीं गया। राजीव गांधी के समय, एक बार सोचा गया था। उस समय, पंजाब के हरिकेन बांध से इंदिरा-गांधी नहर गडरा (बाड़मेर) तक आनी थी, वह चली भी मगर दिल्ली की सत्ता में बैठी ताकतों ने उसका रूख अपनी तरफ करवा लिया। नहर को गंगानगर, बीकानेर, जैसलमेर से होकर यहीं कोई 800 किलोमीटर का सफर निभाना था। इधर यह 300 किलोमीटर दूर बीकानेर जिले में पहुंची, उधर राजीव गांधी के बेहद नजदीकी और तबके केन्द्रीय कपड़ामंत्री (अबके मुख्यमंत्री) अशोक गहलोत की सक्रियता बढ़ी। आखिरकार नहर की पाइपलाइनों को जोधपुर की कायलाना झील की ओर मोड़ दिया गया।
इससे पहला फायदा जोधपुर के महाराजा कहे जाने वाले गजोसिंह को हुआ। कायलाना झील का पट्टा, आज तक उन्हीं के नाम जो चढ़ा हुआ है। यहां तक पानी पहुंचते ही उनका पर्यटन का धंधा लहलहा उठा। होटल तो था ही, महाराजा साहब ने ‘वाटर रिसोर्स सेंटर’ के नाम पर महल भी खड़ा करवा दिया। अशोक गहलोत, माली जाति और जोधपुर इलाके से रहे हैं, उन पर ‘माली लॉबी’ के फायदे के लिए अपने असर के गलत इस्तेमाल का आरोप लगा। पाइपलाइन मोड़ने का दूसरा फायदा अशोक गहलोत और माली जाति के कुओं को रिचार्ज करने में हुआ। इसलिए सूखे के घेरे के असली पीड़ितों की आंखे बेवफा बादलों तक सिमटी रही।
1990 में यहां परियोजना का सरकारी प्रचार प्रसार हुआ। जनता से पैसा बटोरने के लिए एक तस्वीर दिखाई- ’’हरे-भरे खेतों से कलकल बहती नहर और खुशहाल किसान परिवार।’’ अपने परिवार को भी हराभरा बनाने के लिए जनता ने वहीं किया जो सरकार ने चाहा। उसने ऊंची बोली लगाकर नहर के आसपास की जमीनों को खरीदा। पनावड़ा, मनावड़ी, भियाड़, भीमड़ा के गांव वाले कहते हैं ‘‘जिनके पास पैसा नहीं था, उन्होंने घर की औरतों के गहने तक बेचे।’’ उन्होंने पांच एकड़ के मरूस्थल को 1 से 5 लाख रूपए तक में खरीदा। उन्होंने अपनी जगहों से जंगली झाड़-पेड़ उखाड़े, पहले मैदानों में और फिर खेतों में बदला। मगर इसे क्या कहेंगे कि उस समय भी उन जमीनों की कीमत न के बराबर थी, आज भी न के बराबर है। यहां रेतीले तूफानों से महज रेतीली नहरें अब भी बनती हैं, तब भी बिगड़ती थीं।
बीकानेर से दूरदराज का अंदरूनी, इंदिरा गांधी नहर के नीले नक्शे का यह रेतीला हिस्सा है। सुबह से ही रेत पर गुफानुमा परतों में सूखा ठहरा है। ऊपर, काले बादलों के रंग-ढंग से उभरते हुए अकाल का पता चलता है। मुख्य नहर पार करके कोलायत तहसील की कुछ अस्त-व्यस्त बसाहटों में पहुंचते हैं, साथ लाए पानी का बड़ा आसरा है, यहां की गरीबी मटमैली रंग सी साफ झलकती है। नहर के रास्ते ऐसे हैं, जैसे कभी थे ही नहीं। बहुत सूखे, बहुत प्यासे और कंठ तक रेत से भरे भरे। अब तो विशाल भूगोल के टप्पे टप्पे से हरे भरे बनने के सपने भी झर गए हैं। भीमसेन अपने इधर का हाल सुनाते हैं ‘‘यह पट्टी, जानवरों को सैकड़ो क्विंटल चारा चराने वाली जीवनरेखा है। मगर कोई लकड़ी नहीं बची, नहर के नाम से सिर्फ पेड़ों को उखाड़ा है। हमारे देखते देखते बहुत सारी झाड़ियां भी गायब हो गई हैं।’’
बाड़मेर जिले के गांव भी इसी नजारे से तरबतर हैं। इन दिनों थोड़ी (बहुत) नाटकीयता लिए हुई है। कई कई जगहों में तो मर्द, औरते, बच्चे बादलों को बुलाने की विद्या में जुटे हैं। हरेक जी भरकर सफेद बादलों के गुच्छों को तांकते हैं, जो रेत के समुद्र के सामानान्तर फैले आकाश में तैर रहे हैं। उधर सूरज ठंडा नहीं होता, इधर रेत धधकती है। कभी कभार बादलों के गुच्छे एक जगह जमा होकर, भूरे रंगों में आकार लेते हुए होश उड़ा देते हैं। शाम के वक्त, बेहया धूप ढ़लती रोशनी के नीचे सुस्ताने लगती है। यहां थार के ताजा चेहरे पर ‘बरसात की अनिश्चितता’ साफ साफ लिखी है। दोपहर तक सूरज की तेज रोशनी, रेत के रूखे रंगों से भी नमी चुराना चाहती है। प्यासे पौधे जीने की जद्दोजहद में हैं, तालाब भी खेत की तरह रीते पड़े हैं, जैसे यह सारे यहां से अब दुख की सर्द रातों की तरफ में दाखिल हो जाएंगे। मगर इन सब से बेफिक्र उस रात थोड़ी देर तक हम सुनते रहे ‘‘कतरा-कतरा पिघलता रहा आसमान। इन वादियों में न जाने कहां। एक ‘नहर’ दिलरूबा गीत गाती रही कि- आप यूं फासलों से गुजरते रहे.....’’
चलते चलते :
बाड़मेर जिले के 100 सालों में 80 सूखे के रहे। बाकी 20 सालों में 10 सुकाल के, 10 साल ऐसे ही रहे। फसल उत्पादन के हिसाब से 100 में से 30 साल 0 (शून्य) प्रतिशत, 20 साल 10-20 प्रतिशत (बेहद मामूली) उत्पादन रहा। बाकी बचे 50 में से 20 साल 20-30 प्रतिशत, 10 साल 30-40 प्रतिशत, 10 साल 50-60 प्रतिशत और 10 साल 70 प्रतिशत उत्पादन हुआ। पानी की मांग के लिहाज से कुल जरूरत का 10 प्रतिशत भी पूरा नहीं हो पाता। बाकी 90 प्रतिशत को पूरा करने के लिए निजी टांके से 40 प्रतिशत, सरकारी टैंकरों से 10 प्रतिशत और खारे पानी से 20 प्रतिशत तक की भरपाई होती है। कम से कम 30 प्रतिशत का भारी अंतर बना रहता है।
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