अवर्षा, असमय वर्षा, अल्प वर्षा इन सब में सूखा आता है। बुन्देलखण्ड में पिछले लगभग एक दशक में सबसे अच्छी वर्षा 2012 और 2013 में ही हुई। बाकी के साल अल्प वर्षा के रहे। 2013 का साल अति वर्षा का रहा, और 2012-13 मे भी आँधी-तूफान और ओला वर्षा ने फसलों का काफी नुकसान किया। यानी कह सकते हैं कि बुन्देलखण्ड में किसानी के लिये पिछला दशक ही अच्छा नहीं रहा है। 10-12 सालों से अल्प वर्षा और कभी- कभार अति वर्षा और ओला वर्षा की मार झेलते- झेलते बुन्देलखण्ड के किसान और किसानी दोनों टूट गये हैं।
बुन्देलखण्ड में किसानी सबसे बुरे दौर में है। आये दिन सूखी फसलों को देखकर सदमे से किसानों की मौत हो रही है। जालौन के सिरसाकलार थाना क्षेत्र के गाँव पिथऊपुर के किसान लालाराम ने 10 बीघा जमीन में गेहूँ की फसल लगायी थी, फसल अच्छी नहीं हुई, जिससे दुखी होकर लालाराम ने खाना-पीना छोड़ दिया और 22 अप्रैल को सदमे में उसकी मौत हो गयी। इस साल के सूखे में पूरे बुन्देलखण्ड के गाँवों में मात्र 5 से 20 प्रतिशत खेतों में ही फसल लगायी जा सकी। कुछ इलाकों में जो थोड़ी बहुत फसल हो भी गयी थी, ओलावृष्टि ने उसे नष्ट कर दिया है। पूरे बुन्देलखण्ड में मुश्किल से 5 से 20 प्रतिशत किसानों की फसल खेत से घर पहुँच पाई है।
कुदरत की मार से जूझ रहे किसानों के साथ ही बेजुबान जानवरों की तो शामत आ गयी है। सूखी धरती पर घास का तिनका-तिनका सूख जाने की वजह से चारे का भयानक अकाल है। ऐसे में छतरपुर के जिला पशु अस्पताल में कुपोषित और लकवाग्रस्त जानवरों के मामले बहुत तेजी से बढे हैं। गरीब की गाय बकरियाँ कुपोषण की स्थिति में बहुत जल्दी लकवाग्रस्त होती हैं। लगातार अवर्षा के कारण धरती सूखी और पथरीली हो गयी है। ऐसे में कटीली और जहरीली घासें ही उग पा रही हैं। अच्छी घासों का उगना असम्भव हो चला है। भूख से त्रस्त गायें और बकरियाँ कटीली और जहरीली घासों को भी खा रही हैं। इस तरह की घास उनकी सेहत को गम्भीर नुकसान पहुँचा रही है और पशुओं में लकवा बीमारी फैलने की आम शिकायत आ रही है। छतरपुर जिला पशु अस्पताल के डाक्टर कहते हैं कि घास और पानी की कमी के कारण पशुओं में मिनरल्स की भारी कमी आ रही है। जिसकी वजह से पशु लकवाग्रस्त हो रहे हैं।
विकास संवाद, भोपाल के कर्ताधर्ता सचिन कुमार जैन बताते हैं कि बुन्देलखण्ड के संकट के हल को बेहद हलके और सतही अंदाज में खोजने की कोशिश हो रही है। एक सुनहरे अतीत से निरन्तर सुखाड़ वाले इलाके में बदलने वाले बुन्देलखण्ड की मौजूदा समस्याओं को एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने कि जरूरत है। चारों तरफ पहाड़ की शृखलाओं, ताल-तलैये और बारहमासी नालों के साथ काली सिंध, बेतवा, धसान, केन और नर्मदा नदियों वाले क्षेत्र का वर्तमान बहुत दुखदायी हो चुका है। यहाँ की जमीन खाद्यान, फलों, तम्बाकू और पपीते की खेती के लिये बहुत उपयोगी मानी गई है। यहाँ सारई, सागौन, महुआ, चार, हर्र, बहेड़ा, आँवला, घटहर, आम, बैर, धुबैन, महलोन, पाकर, बबूल, करोंदा, समर के पेड़ खूब पाए जाते रहे हैं।
बुन्देलखण्ड को भगवान राम ने सूखे से लड़ने के लिये तीन पेड़ दिये थे बेर, पलाश और महुआ। सूखे इलाकों में महुआ गरीबों के पोषण के लिये सबसे सस्ती और उत्तम फसल है। महुए की फसल सुखाकर रख ली जाये तो सात साल तक ख़राब नहीं होती। सूखे के सालों मे महुए का इस्तेमाल किया जा सकता है। बुन्देलखण्ड में कई ऐसे पौध प्रजातियाँ हैं, जो किसान की परम्परागत फसलें नहीं है जैसे फिकारा कुसुम आदि। भगवान राम ने बुन्देलखण्ड को ये वरदान दिया था कि जब-जब सूखा पड़ेगा तब ये तीन पेड़ ज्यादा फलेंगे फूलेंगे और सूखे का रामबाण समाधान उपलब्ध करायेंगे। इससे एक बात समझ में आती है कि परम्परागत अनाजों के अलावा अपरम्परागत आदिवासी खाद्य परम्पराओं का इस्तेमाल बुन्देलखण्ड में होता रहा है जोकि बुन्देलखण्ड का समाज भूल चुका है जिसकी वजह से सूखे में भुखमरी की मार तीखी और गहरी हो जाती है।
बुन्देलखण्ड में खाने से ज्यादा पानी का संकट हो चुका का है ज्यादातर गाँव के ट्यूबवेल और हैण्डपम्प सूख चुके हैं। कुएँ बहुत पहले ही जवाब दे चुके हैं। भूजल की स्थिति बद से बदतर हो चुकी है। केन्द्रीय ग्राउण्ड वाटर बोर्ड ने कहा है कि बुन्देलखण्ड में कई जगहों में भूजल स्तर रोजाना 3-6 इंच गिर रहा है। कहीं-कहीं तो जल स्तर 400 फ़ीट से भी नीचे पहुँच चुका है। झाँसी के बंगरा तहसील के खिसनी खुर्द गाँव में 30 हैण्डपम्पों में से 2 पानी दे रहे हैं, उनमें भी पानी की मात्रा काफी कम हो गयी है।
पानी को लेकर झगड़े सरेआम हैं। पानी भरने को लेकर आये दिन मारपीट की घटनाएँ हो रही हैं। कई-कई किलोमीटर से पानी भरना पड़ा रहा है। लोग साइकिलों, बैल गाड़ियों से पानी भरने का काम कर रहे हैं।
ऐसे सन्दर्भ में हमें 2004-2008 तक के सूखे को याद कर लेना चाहिए। 2006 और 2008 के भयानक सूखे के बाद राहुल गाँधी की पहल पर बुन्देलखण्ड-पैकेज दिया गया। 7000 करोड़ की भारी-भरकम राशि दी गयी। इसमें मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड और उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड दोनों के लिये यह पैसा था। पर जो काम सुझाये गए, वो जमीन पर उतरे ही नहीं, जिसने सूखे की मार को और घातक बना दिया है।
सूखा बद से बदतर हो चुका है। ऐसे में जय किसान आन्दोलन के कर्ताधर्ता योगेन्द्र यादव की पहल और सुप्रीम कोर्ट में मुकदमे के बाद अनाज देने को कहा, जिसकी वजह से राहत पैकेज दिया जा रहा है। राहत पैकेट में 10 किलो आटा, 5 किलो चावल, 5 किलो चने की दाल, 25 किलो आलू, 5 लीटर खाद्य तेल, 1 किलो देसी घी, और 1 किलो मिल्क पाउडर देने हैं। लेकिन यहाँ पैकेट सिर्फ लाल-कार्ड धारकों के लिये हैं। बाँदा के पडुई 750 से ज्यादा परिवार वाले गाँव में सिर्फ सौ के करीब लाल-कार्ड धारकों को दिया गया है। बीपीएल परिवारों में कई ऐसे लोग हैं, जो भुखमरी के कगार पर हैं। नाम न छपने की शर्त पर हमीरपुर के आढ़ती ने बताया कि चने की दाल के नाम पर चने में मिलावट कर सबसे घटिया दर्जे की मटर की दाल दी जा रही है। देसी घी के नाम पर वनस्पति घी से भी बदतर घी दिया जा रहा है। मजे की बात है कि यह राहत-पैकेट मानसून आने तक दिया जायेगा, जबकि बरसात के मौसम की फसल अक्टूबर-नवम्बर में आएगी। राहत पैकेट की पैकेजिंग समाजवादी पार्टी के झंडे के रंग में किया गया है। ऐसा लगता है कि लोगों को राहत देने की कम, चुनाव की तैयारी ज्यादा की जा रही है।
उत्तर प्रदेश के बाँदा के नरैनी तहसील के सुलखानपुरवा से खबर आई कि लोग अकाल की वजह से ‘घास की रोटी’ खा रहे हैं। यह खबर कई बड़ी पत्र-पत्रिकाओं में छपी। प्रकाशित खबरों का संज्ञान लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कोर्ट कमिश्नर के तौर पर हर्ष मंदर और सज्जाद हसन को स्थिति का जायजा लेने के लिये भेजा। सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद स्थानीय प्रशासन सक्रिय हुआ और उसने इसको झूठा बताया। इस पर जूतम-पैजार शुरू हो गई। स्वयंसेवी संगठनों ने अपनी भिखमंगई के लिये प्लांटेड खबरें कराई, ऐसा आरोप भी लगा। पर इस विवाद में कुछ खबरें छूट गईं। ‘ब्रेक’ की जल्दबाजी में सूखे से लड़ने वालों का हौसला और धीरज खबर नहीं बन पाता है। ‘घास की रोटी’ की खबर वाले इलाके से महज 100 किमी के घेरे में कई सुखद खबरें हैं, लोगों ने तालाब बनाए हैं और अपनी खेती कर रहे हैं। सच्चाई यही है कि जिन्होंने पानी बोया है, वे फसल काट रहे हैं।
जी हाँ, मैं बात कर रही हूँ उन किसानों के प्रयासों और हौसले की जिन्होंने अपना तालाब अभियान की प्रेरणा से तालाब बनाया और पानी की हर बूँद को सहेजा। अपना तालाब अभियान कोई संस्था या प्रोजेक्ट नहीं बल्कि कई लोगों का एक साझा अभियान है, एक मुहिम है बारिश की नन्हीं-नन्हीं बूँदों को सहेजने की। इंडिया वाटर पोर्टल से जुड़े केसर सिंह की समझ और सूझबूझ से स्थानीय साथियों की मदद और प्रयासों से यह छोटा सा प्रयास एक बड़ा अभियान का रूप ले सका। इस अभियान ने किसानों को पानी के अर्थशास्त्र से अवगत कराया और खेत में तालाब बनाने का महत्त्व समझाया। राज और समाज को साथ लाकर संयुक्त प्रयासों से बुन्देलखण्ड की धरती को सूखे से हमेशा के लिये निजाद दिलाने का उपाय सुझाया। यह किसान का अपना तालाब है जिसका प्रबंधन, रख-रखाव उसे खुद ही करना है इसलिये इसे अपना तालाब का नाम भी दिया गया है। इस अभियान के समन्वयक पुष्पेन्द्र भाई का मानना है कि जब पानी की सबसे ज्यादा खपत (80 फीसदी) खेती में होती है तो क्यों न सबसे पहले ज्यादा जरूरत वाली समस्या का ही हल निकालना चाहिये, ऐसा करने से छोटी-मोटी समस्याएँ तो खुद ही हल हो जाएँगी। और बुन्देलखण्ड के कई गाँवों में देखा भी जा सकता है कि जिन किसानों ने पानी के बीज बोये थे उन्होंने इस साल के सूखे में भी फसल काटी है।
और अंत में, हरिशंकर परसाई की कलम से
अकाल पड़ा है
पास ही एक गाय अकाल के समाचार वाले अखबार को खाकर पेट भर रही है। कोई सर्वे वाला अधिकारी छोड़ गया होगा। आदमी इस मामले में गाय बैल से गया बीता है। गाय तो इस अखबार को भी खा लेती है, मगर आदमी उस अखबार को भी नहीं खा सकता, जिसमें छपा है कि अमेरिका से अनाज के जहाज चल चुके हैं।
एक बार मैं खा गया था। एक कॉलम का 6 पंक्तियों का समाचार था। मैंने उसे काटा और पानी के साथ निगल गया। दिन भर भूख नहीं लगी। आजकल अखबारों में सिर्फ अकाल और भुखमरी के समाचार छपते हैं।
अगर अकालग्रस्त आदमी सड़क पर पड़ा अखबार उठाकर उतने पन्ने खा ले, तो महीने भर भूख नहीं लगे, पर इस देश का आदमी मूर्ख है। अन्न खाना चाहता है, भुखमरी के समाचार नहीं खाना चाहता।
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