सूझबूझ का पानी

दोनों गांववालों ने अपने-अपने गांव के प्रतिनिधि चुनकर एक समिति बनाई जो इस का हल खोज सके। गांवों के प्रतिनिधि नारायणी माता गांव स्थित ‘चेतना’ संस्था के पास अपनी समस्या लेकर गए। यह संस्था कासा से मिलने वाली आर्थिक सहायता से आसपास के क्षेत्र में सामाजिक आर्थिक विकास के कार्य करती है। संस्था के सचिव दीन दयाल व्यास के मुताबिक वर्ष 99 उनके कार्यकत्र्ताओं ने दोनो गांव के लोगों के साथ बैठकें की और समस्या के हल पर विचार किया गया। आखिर नाले पर छोटा सा पक्का बांध बनाने पर सहमति हुई।अलवर से कोई 85 किलोमीटर दूर कच्चे और उबड़-खाबड़ रास्ता तय करने के बाद गांव पड़ता है बरवा डूंगरी। यहां रहने वाली बलोदेव पंचायत की सरपंच 45 वर्शीय लालीदेवी अपने घर के खुले अहाते में गांव में लगाई जाने वाली शौचालयों की सीटों को रखवा रही थी। यह सीटें बरवा डूंगरी और बलोदेव गांव के गरीबी की रेखा से नीचे वाले परिवारों के घरों में लगाए जाएंगे। बलोदेव पंचायत मे पांच राजस्व गांव आते हैं।

सरपंच लाली देवी के मुताबिक गांव की सबसे बड़ी समस्या शौचालय की है। सीटों को गिनते हुए वह बताती है कि गांव में सभी घरों में शौचालय नहीं। खासकर गरीबों की बस्ती में। इन परिवारों को काफी दिक्कत होती है। महिलाओं के लिए रात में बाहर जाना उतना आसान नहीं हैं। गांव में जंगली जानवर भी आते हैं। क्षेत्रीय सुधार योजना के तहत लाली देवी ने इन परिवारों में शौचालय की सुविधा प्रदान करने का प्रस्ताव भेजा। जो मंजूर हो गया। अब लाली देवी प्रसन्न है कि गांव की सबसे बड़ी परेशानी दूर हो जाएगी। लेकिन लाली देवी के लिए यह कोई बड़ी उपलब्धि नहीं जिस सूझबूझ से वह दो गांवों में पानी की समस्या को हल कर रही है उस के लिए इन गावों में दनकी विशेष प्रंषसा की जाती है।

बरवा डूंगरी के इस छोटे से गांव में करीब 35 परिवार रहते हैं। इनमें अधिकतर मीणा जात के हैं। इस गांव के साथ सटा हुआ गांव पांवटा है। यहां पर गुर्जर जात के करीब 45 परिवार रहते हैं। ये लोग अधिकतर छोटी मोटी खेती या पशुपालन से अपना गुजारा करते हैं। लेकिन राजस्थान में पिछले कुछ सालों मे पड़ने वाले सूखे और राज्य में हमेशा रहने वाली पानी की कमी ने इनकी समस्याओं को बढ़ाने का काम ही किया। ये गांव पिछले कईं सालों से पानी की किल्लत झेल रहे थे। जबकि यहां से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित नारायणी माता के गांव में स्थित नारायणी माता के मंदिर का कुण्ड हमेशा पानी से भरा रहता है। इस कुण्ड से एक नाला निकलता है। लेकिन इस नाले का अधिकतर पानी व्यर्थ बह जाता था।

नाले का पानी इस्तेमाल करने के लिए गांववालों ने कई बार उस पर मिट्टी का बांध बनाया लेकिन बरसात आते ही वह टूट जाता और पानी चारों ओर बिखर कर व्यर्थ बहने लगता। दोनो गांववालों ने आपसी सहमति से समस्या का हल करने की सोची। दोनों गांववालों ने अपने-अपने गांव के प्रतिनिधि चुनकर एक समिति बनाई जो इस का हल खोज सके। गांवों के प्रतिनिधि नारायणी माता गांव स्थित ‘चेतना’ संस्था के पास अपनी समस्या लेकर गए। यह संस्था कासा से मिलने वाली आर्थिक सहायता से आसपास के क्षेत्र में सामाजिक आर्थिक विकास के कार्य करती है। संस्था के सचिव दीन दयाल व्यास के मुताबिक वर्ष 99 उनके कार्यकर्ताओं ने दोनो गांव के लोगों के साथ बैठकें की और समस्या के हल पर विचार किया गया। आखिर नाले पर छोटा सा पक्का बांध बनाने पर सहमति हुई।’’

गांवों द्वारा नियुक्त समिति की देखरेख में वर्श 99 के जून माह में पक्का बांध बनाकर पानी रोकने का काम शुरू हुआ। दोनों गांववालों ने बांध बनाने की कुल लागत का 25 प्रतिशत वहन करने की पेशकश की। बांध बनाने में कुल 95 हजार रुपए का खर्चा आया। लेकिन पक्का बांध बनाने के बाद पानी का इस्तेमाल न्यायोचित ढंग से इस्तेमाल करने के लिए दोनों गांवों ने एक अनूठा तरीका निकाला। व्यास के मुताबिक पानी के उचित बटवारे गांववालो की सहमति के बिना संभव नहीं था। इस कार्य में लाली देवी ने लोगों में सहमति बनाने का अद्भुत कार्य किया। बनाए गए बांध में दो रास्ते पानी के निकास के लिए रखे गए। एक निकास से पांवटा गांव को पानी मिलता है दूसरे से बरवा डूंगरी को। दोनों गांवों ने बारी-बारी से पानी लेने पर सहमत हुए। पांवटा गांव के पानी लेने के समय बरवा डूंगरी का निकास बंद कर दिया जाता है और जब बरवा डूंगरी को पानी चाहिए होता है तो पांवटा को पानी देने वाले निकास को बंद कर दिया जाता है। इस तरह आपसी समझ और मेल जोल से दोनों गांव व्यर्थ बहते पानी को अपने खेतों में इस्तेमाल कर रहे हैं। लाली देवी के नेतृत्व में गांववालो ने जिस समझ से पानी की समस्या को हल किया उससे जल विवाद में फसे कर्नाटक और तमिलनाडू राज्यों को भी सीख मिलती है।

इस संबंध में पांवटा गांव की तिवारी में बैठे रामकिशोर कहते है कि नाले पर पक्का बांध बना देने से अब वह दो बीघा की बजाए तीन बीघा जमीन पर फसल बोने में समर्थ हैं। हुक्का गुड़गुड़ाते छोटे लाल भी उनके समर्थन में बोलते हुए बताते हैं, ‘‘अब पानी खूब आयो। पहले कच्चा बांध होने के कारण बरसात से टूट जाता था अब हम दो गांव तीन-तीन घंटे की बारी से पानी इस्तेमाल करते हैं खेत को पानी अच्छा मिल रहा है।’’

लाली देवी वर्ष 2000 में सुरक्षित सीट से बलोदेव पंचायत की सरपंच चुनी गई थी। दो लड़को और दो लड़कियों की मां लाली देवी घर के कामों को निपटाने के बाद खेती का काम भी देखती है। वह मानती है कि सरपंच बनने के बाद उसे बहुत से कामों में पति की सहायता लेनी पड़ी लेकिन धीरे धीरे उन्होंने कामों की बारीकी को पहचानना षुरू किया। इस काम में उन्हें पंचायत सदस्यों के लिए आयोजित प्रशिक्षण से काफी मदद मिली। उनके मुताबिक वह अभी भी गांव के बुर्जगों के सामने घूंघट निकालती हैं लेकिन अब यह घूंघट उसके काम के प्रति उत्साह और आत्मविश्वास मे बाधा नहीं बनता। सरपंच बनने के बाद गांव मंे दो स्कूल और धिरोड़ा गांव मे स्वास्थ्य केंद्र बनवाने के बाद अब वह पंचायत के सभी गावों मे शौचालय बनावाने के कार्य को पूरा करने में जुटी हैं।

इस के बाद उनकी सब से बड़ी प्राथमिकता बरवा डुंगरी मे स्वास्थ्य केंद्र खोलने की है। लाली देवी के मुताबिक उनके गांव में नर्स दूर गांव से आती है और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र भी 17 किलोमीटर दूर है जिसकी वजह से रात में डिलीवरी में महिलाओं को बेहद मुश्किल होती है। बलोदेव पंचायत में पांच महिलाएं और सात पुरूश हैं। पंचायत की सभी महिला सदस्यों से राय लेने के बाद ही कोई फैसला हो पाता है। लाली देवी के पति और वार्ड पंच कल्याण सिंह मीणा कहते हैं, ‘‘पहले पंचायत के बहुत से कामों में वह उनकी मदद करते थे लेकिन अब तो पंचायत मींटिग में उनके बहुत से फैसलों को सरपंच रद्द कर देती हैं। उन की इस बात पर लाली देवी हंसते हुए कहती है, ‘‘अब बात तो वही मानी जाएगी जिस पर सब की सहमति हो। फिर अब हमें अपनी समझ पर पूरा भरोसा है। जरूरत है इस समझ को पहचानने की।’’लाली देवी की इस बात में दम है।जरूरत पड़ने पर एक अनपढ़ और देहाती महिला केवल अपने अनुभव के आधार पर बड़े बड़े विवादों को भी सुलझा सकती है जो शहर के पढ़े लिखे लोग अपने तर्कों के आधार पर भी नहीं कर सकते। कम से कम सरपंच लालीदेवी का अनुभव तो यही सीख देता है।

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