सूचनाधिकार का खौफ

चिंता का विषय यह है कि पिछले अठारह सालों में यह गठजोड़ कमजोर होने के बजाय और मजबूत हुआ है। आजादी के बाद से राजनेताओं और नौकरशाहों का गठजोड़ देश को खोखला करने में जुटा हुआ है। इस गठजोड़ को तोड़ने का काम सूचना का अधिकार कानून ने शुरू किया है। यह मौजूदा स्थिति न सत्ताधारियों को रास आ रही है और न नौकरशाही को। यही है प्रधानमंत्री की चिंता की असली वजह।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अचानक अपने ही बनाए एक कानून पर चिंतित हो उठे हैं। उनकी पार्टी के मंत्री और कई सांसद तो पहले से चिंतित थे। अक्सर सत्ताधारी दल के सांसदों को अपनी ही सरकार से तरह-तरह की शिकायतें रहती हैं। उनके काम तीव्र गति से नहीं होते या कई बार होते ही नहीं। उन्हीं की पार्टी के मंत्री उनकी सुनते नहीं या कई बार मिलने तक का समय नहीं देते। पर यह अनोखा उदाहरण सामने आया है जब प्रधानमंत्री को अपने ही बनाए कानून पर फिक्रमंद देखा जा रहा है। यह चिंता है सूचना के अधिकार कानून के तहत जनता को मिल रही सरकार और अफसरों के कुकृत्यों की सूचनाओं को लेकर। यूपीए सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में सोनिया गांधी की सिफारिश पर जब यह कानून बनाया था, तो सरकार को अपने काले कारनामे उजागर होने का अहसास नहीं था। अभी यह वक्त नहीं है कि सोनिया गांधी की रहनुमाई वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सिफारिश पर बने अन्य कानूनों की समीक्षा की जाए।

सूचना का अधिकार कानून को यूपीए सरकार अब तक अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि बता रही थी। पिछले लोकसभा चुनाव में इसका श्रेय लूटने की कोशिश भी खूब की गई लेकिन दुबारा चुनाव जीतने के बाद यूपीए सरकार इसी कानून को लेकर सबसे ज्यादा चिंतित है। पिछले दिनों सीबीआई को सूचना के अधिकार कानून के दायरे से बाहर कर दिया गया। वजह बताई गई कि इससे लंबित मुकदमे प्रभावित होंगे। सरकार के इस फैसले का ज्यादा विरोध नहीं दिखाई दिया, जबकि इसका बड़े पैमाने पर विरोध होना चाहिए था। यह अक्सर आरोप लगता है कि सरकारें सीबीआई का अपने पक्ष में बेजा इस्तेमाल करती हैं। सीबीआई को वर्जित सूची में डाल कर यूपीए सरकार ने जनता को उन सब सूचनाओं से वंचित कर दिया है, जिनसे वह खुद कठघरे में खड़ी हो सकती है। सूचना के अधिकार के तहत सभी सूचनाएं सामने आ जाएंगी, तो खुलासा हो जाएगा कि किस मामले में अवैध ढंग से सरकारी हस्तक्षेप हुआ था।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सूचना का अधिकार कानून में कुछ तथाकथित खामियों का जिक्र करते हुए कहा है कि ईमानदार सरकारी अफसर आरटीआई कानून के डर से फाइलों पर अपनी राय व्यक्त करने से डर रहे हैं। यह हैरानी का विषय है। कोई भी ईमानदार अफसर देशहित में फाइल पर कोई भी टिप्पणी करने से डरेगा क्यों? शायद यह बात सीबीआई के मामले में प्रधानमंत्री के संज्ञान में लाई गई होगी। ईमानदार अफसरों ने फाइलों पर सरकार की तरफ से वांछित टिप्पणी करने से इनकार कर दिया होगा। यह निश्चित है कि सीबीआई के उक्त अधिकारियों ने सरकार को बताया होगा कि आरटीआई कानून के डर से अधिकारी मंत्रियों की ओर से भेजी गई सिफारिशों के मुताबिक फाइल पर टिप्पणी करने से इनकार कर रहे हैं। लंबे समय से यही होता आ रहा है। मंत्री कुछ भी लिखित में नहीं देते, सारा आदेश फोन पर दिया जाता है। वांछित टिप्पणी अफसरों को करनी पड़ती है। सूचनाधिकार कानून के तहत जब जानकारी मांगी जाती है तो कानून के शिकंजे में वही अधिकारी आता है जिसने मंत्री के इशारे पर टिप्पणी लिखी हो।

अब जैसे मुलायम सिंह की आय से अधिक संपत्ति के मामले की जांच किसके आदेश पर ठंडे बस्ते में डाली गई, या मायावती की आय से अधिक संपत्ति की जांच किसके आदेश पर ठंडे बस्ते में डाली गई और इन दोनों की जांच जब-जब दुबारा से शुरू हुई वह किसके आदेश पर हुई और फिर किसके आदेश पर दुबारा रोक दी गई। इस तरह की घटनाएं बाहर आ जाएंगी तो झूठ और मक्कारी पर आधारित सरकार का सारा ढांचा ध्वस्त हो जाएगा। सरकारें और राजनीतिक दल एक-दूसरे के हितों की रक्षा करने में कोई गुरेज नहीं करते, एक-दूसरे की रक्षा करने के लिए सरकारी एजेंसियों और नौकरशाही का हमेशा से बेजा इस्तेमाल होता रहा है। हालांकि सूचना का अधिकार कानून के दूसरे अध्याय की धारा-9 में स्पष्ट कहा गया है कि जांच के दौरान उससे संबंधित सूचना देने से अगर जांच प्रभावित होती हो, तो उस सूचना को देने से इनकार किया जा सकता है।

सीबीआई लंबित जांचों के बारे में जानकारी देने से इस प्रावधान के तहत इनकार कर सकती थी, लेकिन राजनीतिक हस्तक्षेप से जांच की धीमी गति जैसे मामलों में सीबीआई का बच पाना आसान नहीं होता, इसलिए सरकार ने सीबीआई को सूचना के अधिकार कानून से परे की सूची में डाल दिया। अब तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सूचना का अधिकार कानून में कई तरह की तथाकथित खामियां बता रहे हैं, जो पहली ही नजर में खामियां नहीं अलबत्ता खौफ लगता है। मनमोहन सिंह की पहली दलील है कि ऐसी याचिकाओं की बाढ़ आ गई है, जिनका जनहित से कुछ लेना-देना नहीं होता। निश्चित ही प्रधानमंत्री गलत जानकारियों के आधार पर ऐसी बातें कह रहे हैं। प्रधानमंत्री ने शायद कानून की धारा-9 (जे) को ध्यान से नहीं पढ़ा। इसमें साफ कहा गया है कि अगर मांगी गई सूचना मोटे तौर पर जनहित के सिद्धांत को प्रतिपादित न करती हो तो उसे देने से इनकार किया जा सकता है फिर याचिकाओं की बाढ़ आए या न आए उससे क्या फर्क पड़ता है। प्रधानमंत्री ने दूसरी दलील यह दी है कि इस कानून के डर से ईमानदार अधिकारी भी अपनी राय व्यक्त करने से डरने लगे हैं। इसके बारे में ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि ईमानदार अधिकारी अपनी राय व्यक्त करने से क्यों डरेगा।

प्रधानमंत्री ने तीसरी दलील यह दी है कि कई बार सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी को अधूरे ढंग से और तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है। यह दलील देते समय जरूर प्रधानमंत्री के दिमाग में हाल ही में प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से 2-जी के संबंध में दी गई जानकारी रही होगी। घोटाले के सामने आने और संचार मंत्री ए राजा के जेल जाने से घबराई सरकार ने यह जांच-पड़ताल करने का फैसला किया था कि इतना बड़ा घोटाला हुआ कैसे? क्या वक्त रहते इसे रोका जा सकता था? अगर रोका जा सकता था तो किस स्तर पर खामी रही। विभिन्न मंत्रालयों और पीएमओ की सलाह से वित्त मंत्रालय ने इसका दस्तावेज तैयार किया ताकि प्रधानमंत्री को पूरी जानकारी दी जा सके। इस दस्तावेज में कहा गया था कि तत्कालीन वित्तमंत्री पी चिदंबरम चाहते तो घोटाले को रोका जा सकता था। यही दस्तावेज सूचनाधिकार कानून के तहत बाहर आ गया तो अब प्रधानमंत्री की चिंता बढ़ गई है। प्रधानमंत्री ने सूचनाधिकार कानून की समीक्षा के संबंध में जो तीन-चार दलीलें दी हैं, उनमें से यह तीसरी दलील इसी ओर इशारा करती है।

प्रधानमंत्री कहना चाहते हैं कि प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से सूचनाधिकार के तहत उपलब्ध कराई गई जानकारी को अदालत में तोड़-मरोड़ कर या आधे-अधूरे ढंग से पेश किया गया। अगर ऐसा है तो अदालत जानकारी देने वाले के खिलाफ कार्रवाई करेगी। कानून को अपना काम करने देना चाहिए। सरकार को सूचना के अधिकार का गला घोंटने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। प्रधानमंत्री की चौथी दलील है कि आरटीआई कानून के कारण सरकार की कार्य-क्षमता में गिरावट आई है। प्रधानमंत्री ने विकास की दर घटने जैसी अकल्पनीय दलील भी पेश की है। सूचना का अधिकार कानून पर प्रधानमंत्री की राय से राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सहमति या असहमति अरुणा राय या हर्षमंदर की राय से जाहिर नहीं होगी। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की राय उसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी की राय से जाहिर होगी। यह सही है कि सोनिया गांधी ने इन दोनों सामाजिक कार्यकर्ताओं की सलाह और दबाव से ही सूचनाधिकार कानून का मसौदा मनमोहन सिंह को सौंपा था। अरुणा राय और हर्षमंदर प्रधानमंत्री की राय से कतई सहमत नहीं हैं।

इन दोनों का यह मत वाजिब लगता है कि प्रधानमंत्री को सूचना के अधिकार कानून का इस्तेमाल करने वाले कार्यकर्ताओं की हत्याओं को रोकने की तरफ ध्यान केंद्रित करना चाहिए, न कि नौकरशाही के बचाव के लिए कानून में संशोधन करने की मुहिम छेड़नी चाहिए। आजादी के बाद से राजनेताओं और नौकरशाहों का गठजोड़ देश को खोखला करने में जुटा हुआ है। इस गठजोड़ को तोड़ने का काम सूचना का अधिकार कानून ने शुरू किया है। यह मौजूदा स्थिति न सत्ताधारियों को रास आ रही है और न नौकरशाही को। यही है प्रधानमंत्री की चिंता की असली वजह। जबकि प्रधानमंत्री को चिंता करनी चाहिए कि नौकरशाहों और राजनीतिकों का गठजोड़ कैसे टूटे। नरसिंह राव ने जून 1993 में राजनीति के अपराधीकरण पर जांच समिति बिठाई थी। तब के गृहसचिव एनएन बोरा की अध्यक्षता में बनी इस समिति की रिपोर्ट में राजनीतिकों, अपराधियों और नौकरशाहों के गठजोड़ का खुलासा हुआ था।
 

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