सूचना के अधिकार पर केंद्रित योजना आयोग को विजन फाऊंडेशन द्वारा सौंपे गए दस्तावेज(२००५) के अनुसार- • संविधान के अनुच्छेद १९ में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा में कहा गया है-भारत के सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति और अभिभाषण की स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है।
• साल १९८२ में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सरकार के कांमकाज से संबंधित सूचनाओं तक पहुंच अभिव्यक्ति और अभिभाषण की स्वतंत्रता के अधिकार का अनिवार्य अंग है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा-सरकारी कामकाज में खुलेपन का विचार सीधे सीधे सरकारी सूचनाओं को जानने के अधिकार से जुड़ा है और इसका संबंध अभिभाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार से है जिसकी गारंटी संविधान के अनुच्छेद १९(ए) में दी गई है। इसलिए, सरकार को चाहिए कि वह अपने कामकाज से संबंधित सूचनाओं को सार्वजनिक करने की बात को एक मानक की तरह माने और इस मामले में गोपनीयता का बरताव अपवादस्वरुप वहीं औचित्यपूर्ण है जब जनहित में ऐसा करना हर हाल में जरुरी हो। अदालत मानती है कि सरकारी कामकाज से संबंधित सूचनाओं के बारे में गोपनीयता का बरताव कभी कभी जनहित के लिहाज से जरुरी होता है लेकिन यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि सूचनाओं को सार्वजनिक करना भी जनहित से ही जुड़ा हुआ है।
. • इडियन इविडेंस एक्ट,१८७२, की धारा ७६ में वे बातें कहीं गई हैं जिन्हें सूचना के अधिकार का बीज रुप माना जा सकता है। इस धारा के तहत प्रावधान किया गया है कि सरकारी अधिकारी को सरकारी कामकाज के कागजात मांगे जाने पर वैसे व्यक्ति को दिखाने होंगे जिसे इन कागजातों के निरीक्षण का अधिकार दिया गया है।
. • परंपरागत तौर पर भारत में शासन-तंत्र अपने कामकाज में गोपनीयता का बरताव करता आ रहा है। इसके लिए अंग्रेजो के जमाने में बने ऑफिशियल सिक्रेसी एक्ट का इस्तेमाल किया गया। इस एक्ट को साल १९२३ में लागू किया गया था। आगे चलकर साल १९६७ में इसमें थोड़े संशोधन हुए । इस एक्ट की व्यापक आलोचना हुई है। द सेंट्रल सिविल सर्विस कंडक्ट रुल्स, १९६४ ने ऑफिशियल सिक्रेसी एक्ट को और मजबूती प्रदान की क्योंकि कंडक्ट रुल्स में सरकारी अधिकारियों को किसी आधिकारिक दस्तावेज की सूचना बिना अनुमति के किसी को को बताने या आधिकारिक दस्तावेज को बिना अनुमति के सौंपने की मनाही है।
• इंडियन इविडेंस एक्ट, १८७२, की धारा १२३ में कहा गया है कि किसी अप्रकाशित दस्तावेज से कोई प्रमाण संबंधित विभाग के प्रधान की अनुमति के बिना हासिल नहीं किया जा सकता और संबंधित विभाग का प्रधान चाहे तो अपने विवेक से अनुमति दे सकता है और चाहे तो नहीं भी दे सकता है। सरकारी कामकाज के बारे में सूचनाओं की कमी को कुछ और बातों ने बढ़ावा दिया। इसमें एक है साक्षरता की कमी और दूसरी है सूचना के कारगर माध्यम और सूचना के लेन-देन की कारगर प्रक्रियाओं का अभाव। कई इलाकों में दस्तावेज को संजो कर रखने का चलन एक सिरे से गायब है या फिर दस्तावेजों को ऐसे संजोया गया है कि वे दस्तावेज कम और भानुमति का कुनबा ज्यादा लगते हैं। दस्तावेजों के अस्त-व्यस्त रहने पर अधिकारियों के लिए यह कहना आसान हो जाता है कि फाइल गुम हो जाने से सूचना नहीं दी जा सकती।
• साल १९९० के दशक के शुरुआती सालों में राजस्थान के ग्रामीण इलाके के लोगों की हक की लड़ाई लड़ते हुए मजदूर किसान शक्ति संगठन ने व्यक्ति के जीवन में सूचना के अधिकार को एक नये ढंग से रेखांकित किया। यह तरीका था-जनसुनवाई का। मजदूर किसान शक्ति संगठन ने अभियान चलाकर मांग की कि सरकारी रिकार्ड को सार्वजनिक किया जाना चाहिए, सरकारी खर्चे का सोशल ऑडिट(सामाजिक अंकेक्षण) होना चाहिए और जिन लोगों को उनका वाजिब हक नहीं मिला उनके शिकायतों की सुनवाई होनी चाहिए। इस अभियान को समाज के की तबके का समर्थन मिला। इसमें सामाजिक कार्यकर्ता, नौकरशाह और वकील तक शामिल हुए।
• प्रेस काउंसिल ऑव इंडिया ने साल १९९६ में सूचना का अधिकार का पहला कानूनी मसौदा तैयार किया। इस मसौदे में माना गया कि प्रत्येक नागरिक को किसी भी सार्वजनिक निकाय से सूचना मांगने का अधिकार है।ध्यान देने की बात यह है कि यहां सार्वजनिक निकाय शब्द का मतलब सिर्फ सरकारी संस्थान भर नहीं था बल्कि इसमें निजी क्षेत्र के सभी उपक्रम या फिर संविधानएतर प्राधिकरण, कंपनी आदि शामिल हैं।इसके बाद सूचना के अधिकार का एक मसौदा कंज्यूमर एजुकेशन रिसर्च काउंसिल(उपभोक्ता शिक्षा अनुसंधान परिषद) ने तैयार किया। यह सूचना पाने की स्वतंत्रता के संबंध में सबसे व्यापक कानूनी मसौदा है। इसमें अंतर्राष्ट्रीय मानको के अनुकूल कहा गया है कि बाहरी शत्रुओं के छोड़कर देश में हर किसी को हर सूचना पाने का अधिकार है।
• आखिरकार साल १९९७ में मुख्यमंत्रियों के एक सम्मेलन में संकल्प लिया गया कि केंद्र और प्रांत की सरकारें पारदर्शिता और सूचना के अधिकार को अमली जामा पहनाने के लिए काम करेंगी। इस सम्मेलन के बाद केंद्र सरकार ने इस दिशा में त्वरित कदम उठाने का फैसला किया और माना कि सूचना के अधिकार के बारे में राज्यों के परामर्श से एक विधेयक लाया जाएगा और साल १९९७ के अंत तक इंडियन इविडेंस एक्ट और ऑफिशियल सीक्रेसी एक्ट में संशोधन कर दिया जाएगा। सूचना की स्वतंत्रता से संबंधित केंद्रीय विधेयक के पारित होने से पहले ही कुछ राज्यों ने अपने तईं सूचना की स्वतंत्रता के संबंध में नियम बनाये। इस दिशा में पहला कदम उठाया तमिलनाडु ने(साल १९९७)। इसके बाद गोवा(साल १९९७), राजस्थान(२०००), दिल्ली(२००१)महाराष्ट्र(२००२), असम(२००२),मध्यप्रदेश(२००३) और जम्मू-कश्मीर(२००४) में नियम बने।
• सूचना की स्वतंत्रता से संबंधित अधिनियम(द फ्रीडम ऑफ इन्फारमेशन एक्ट) भारत सरकार ने साल २००२ के दिसंबर में पारित किया और इसे साल २००३ के जनवरी में राष्ट्रपति की मंजूरी मिली। यह कानून पूरे देश पर लागू है लेकिन इस अधिनियम के प्रावधानों को नागरिक समाज ने अपर्याप्त मानकर आलोचना की है।
नेशनल कंपेन फॉर पीपल्स राइट टू इन्फारमेशन और आरटीआई एसेसमेंट एंड एनालिसिस ग्रुप सहित अन्य संगठनों द्वारा संयुक्त रुप से करवाये गये एक सर्वेक्षण पर आधारित राइट टू इन्फारमेशन-इंटरिम फाइडिंग्स् ऑव पीपल्स फाइडिंग्स ऑव आरटीआई एसेसमेंट(२००८) नामक दस्तावेज के अनुसार-http://www.nyayabhoomi.org/rti/downloads/raag_survey.pdf:
• सूचना का अधिकार अधिनियम बुनियादी ढांचे के अभाव से ग्रस्त है। लोक सूचना अधिकारी को अपनी भूमिका के बारे में सही सही जानकारी नहीं है। ग्रामीण भारत में जितने लोक सूचना अधिकारियों का साक्षात्कार लिया गया उसमें लगभग आधे ने कहा कि हमें पता ही नहीं कि हम लोक सूचना अधिकारी का काम कर रहे हैं।
• लोक सूचना अधिकारी सूचना का अधिकार अधिनियम के अन्तर्गत सूचना देने के बाबत आयी अर्जियों को लेने और मांगी गई सूचना को देने का मुख्य जिम्मा संभालता है। सर्वेक्षण के दौरान अधिकतर लोकसूचना अधिकारियों का कहना था कि हमें पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं मिला है, इस विधेयक से संबंधित प्रावधानों की ठीक ठीक जानकारी नहीं है और इस वजह से सूचना के अधिकार अधिनियम के अन्तर्गत आयी अर्जियों के निबटान में बाधा आती है।
सूचना के अधिकार अधिनियम ने लोगों के जीवन पर सकारात्मक असर डाला है। इस मामले में यह अधिनियम अनूठा है। अधिक से अधिक लोग सूचना के अधिकार अधिनियम का प्रयोग करके सूचना मांगने के लिए अर्जियां दे रहे हैं। पहले सरकारी अधिकारी गण ऐसी सूचनाओं को देने से इनकार कर देते थे।
• सरकार का रवैया इस मामले में धीमा है। सूचना का अधिकार अधिनियम का उपयोग करके सूचना मांगने के लिए जितनी अर्जियां आती है उनमें से दो तिहाई का जवाब सरकारी अधिकारी देते हैं। सिर्फ एक तिहाई अर्जियों का जवाब ३० दिन के अंदर मिल पाता है, जैसा कि नियम है।
• सूचना के अधिकार अधिनियम पर अमल के मामले में सबसे पिछड़ा राज्य मेघालय है। यहां गांव के स्तर पर कोई भी लोक सूचना अधिकारी नहीं है। राज्स्थान इस मामले में सबसे आगे है। यहां ना सिर्फ गांव के स्तर पर लोकसूचना अधिकारी उपलब्ध मिले बल्कि उनका साक्षात्कार भी लिया जा सका। सर्वेक्षण का एक निष्कर्ष यह भी है कि महिलाओं से कहीं ज्यादा पुरुष इस अधिकार का उपयोग कर रहे हैं। ग्रामीण स्तर पर अर्जियां देने वालों में पुरुषों की तादाद बहुत ज्यादा है।
• महाराष्ट्र में सूचना के अधिकार अधिनियम को जबर्दस्त सफलता मिली है। पिछले तीन सालों में यहां ३ लाख ७० हजार अर्जियां आयीं। सूचना के अधिकार अधिनियम के पक्ष में काम करने वालों का कहना है अर्जियों पर जवाब को रोककर रखने का सरकारी चलन चिन्ता जगाने वाला है।
सूचना का अधिकार- कुछ अंतर्राष्ट्रीय मानकों की एक बानगी
• 'सूचना की स्वतंत्रता एक बुनियादी मानवाधिकार है..और इन सभी मानवाधिकारों की कसौटी है जिनके प्रति संयुक्त राष्ट्रसंघ प्रतिबद्ध है.'
• संयुक्त राष्ट्रसंघ की आमसभा ने साल १९६६ में नागरिक और राजनीतिक अधिकारों से संबंधित इंटरनेशनल कोवेनेंट ऑन सिविल एंड पॉलिटिकल राइटस् को स्वीकार किया। इसमें अभिमत की स्वतंत्रता(फ्री़म ऑव ओपीनियन) की गारंटी दी गई है।साल १९९३ में मानवाधिकारों से संबंधित संयुक्त राष्ट्र संघ के आयोग ने अभिमत और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (फ्री़डम ऑव ओपीनियन एंड एक्सेप्रेसन) से संबंधित एक विशेष पीठ की स्थापना की। इसे ऑफिस ऑव द यूएन स्पेशल रपॉटियर ऑन फफ्री़डम ऑव ओपीनियन एंड एक्सप्रेसन कहा जाता है। इसकी भूमिकाओं में एक है-अभिमत और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में आने वाली बातों के बारे में स्पष्टता कायम करना।साल १९८० में राष्ट्रकुल के देशों के विधि मंत्रियों की एक बैठक बारबडोस में हुई। इस बैठक में कहा गया- 'शासकीय और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में जनता की भागीदारी सबसे ज्यादा सार्थक तब होती है जब नागरिकों के पास पर्याप्त संख्या में आधिकारिक सूचनाएं होती हैं।'
• साल १९९९ के मार्च महीने में राष्ट्रकुल के देशों के एक्सपर्ट ग्रुप की एक बैठक लंदन में हुई। इस बैठक में एक प्रस्ताव को मंजूर किया गया। इस प्रस्ताव में जानने के अदिकार और सूचना पाने की स्वतंत्रता को मानवाधिकार मानने के बारे में कई दिशानिर्देश दिये गए।
साल १९९२ में पर्यावरण और विकास पर केंद्रित रियो उदघोषणा के सिद्धांत-सूत्र १० में सबसे पहले इस तथ्य की पहचान हुई कि टिकाई विकास के लिए पर्यावरण सहित अन्य विषयों से जुड़ी जो जानकारियां सरकारी अधिकारियों के हाथ में हैं उन्हे सार्वजनिक करना जरुरी है ताकि पर्यावरण के लिहाज से एक सक्षम शासकीय ढांचे में लोगों की भागीदारी हो सके।
• रियो उदघोषणा से जुड़ी नीतियों का एक सहायक दस्तावेज है-एजेंडा २१,ब्लूप्रिंट फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट। इसमें कहा गया है कि किसी व्यक्ति, समूह या संगठन की पहुंच पर्यावरण और विकास से जुड़ी वैसी सूचनाओं तक होनी चाहिए जो सरकारी अधिकारियों या संगठनों के पास हैं। इन जानकारियों में वैसी उन उत्पादों और गतिविधियों की सूचनाएं भी शामिल हैं जिनका असर पर्यावरण पर पड़ सकता है अथवा सूचना को छुपाने के लिए किया जा सकता है।
• अनेक देशों मे सूचना के अधिकार के संबंध में कानून हैं। इन्हें रियो घोषणा के अनुच्छेद १० में अंशतः या पूर्णतः संहिताबद्ध किया गया है।
• साल १९९८ में रियो घोषणा और एजेंडा़ २१ के अनुपालन में संयुक्त राष्ट्रसंघ के योरोपीय आर्थिक आयोग(यूएनईसीई) के सदस्य देशों और योरोपीय संघ ने एक कानूनी रुप से बाध्यकारी संधि पर हस्ताक्षर किए। इस संधि में सूचना पाने की स्वतंत्रता, नीति-निर्धारण में जनता की भागीदारी और पर्यावरणीय मामलों में न्याय पाने की स्वतंत्रता के लिए हामी भरी गई है।
• स्वीडेन में लागू फ्रीडम ऑव प्रेस एक्ट में विधान किया गया है कि अगर कोई नागरिक, नागरिक समूह अथवा संगठन मांग करे तो आधिकारिक दस्तावेजों में दर्ज सूचना सार्वजनिक करनी होगी।
• कोलंबिया में सूचना के अधिकार से संबंधित कानूनों का इतिहास बड़ा पुराना है। कोलंबिया में एख कानून है कोड ऑव पॉलिटिकल एंड म्युनिस्पल आर्गनाइजेशन(१८८८)। इस कानून के अन्तर्गत नागरिकों को अधिकार दिया गया है कि वे सरकारी एजेंसियों अथवा सरकारी अभिलेखागार में सुरक्षित दस्तावेजों की जानकारी जरुरत पड़ने पर मांग सकें।
• संयुक्त राज्य अमेरिका में साल १९६७ में सूचना के अधिकार से संबंधित एक कानून पारित हुआ। इसी राह पर आस्ट्रेलिया, कनाडा और न्यूजीलैंड में साल १९८२ में कानून बने।
• एशिया में सबसे पहले सूचना के अधिकार को स्वीकार करने वाला देश फिलीपीन्स है। साल १९८७ में इस देश में सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों की आचार संहिता तैयार की गई और इसमें सूचना के अधिकार को मान्यता दी गई। हांगकांग में सूचना के अधिकार से संबंधित कानून १९९५ में बना जबकि थाईलैंड ऑफिशियल इन्फारमेशन एक्ट साल १९९७ के दिसंबर से अमल में आया। साल १९९८ में दक्षिण कोरिया में सूचना के अधिकार से संबंधित एक्ट ऑन डिस्क्लोजर ऑव इन्फारमेशन बाई पब्लिक एजेंसिज बना। जापान में सूचना के अधिकार से संबंधित कानून अप्रैल २००१ में बना।
• अफ्रीकी देशों में सूचना के अधिकार को मान्यता देने वाला एकमात्र देश दक्षिण अफ्रीका है।
भारत के सर्वोच्च न्यायलय में सूचना के अधिकार के तहत दिए गए महत्वपूर्ण फैसले
1. पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टी और अन्य बनाम भारत सरकार और अन्य। साथ में लोकसत्ता और अन्य बनाम भारत सरकार 2003(001) SCW 2353 SC
2. भारत सरकार बनाम एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म एंड अनदर, साथ में पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टी और अन्य बनाम भारत सरकार और अन्य 2002(005) SCC 0361SC
3. भारत सरकार और अन्य बनाम मोशन पिक्चर एसोसिएशन और अन्य 1999(006) SCC 0150 SC
4. दिनेश त्रिवेदी, एमपी, बनाम और अन्य बनाम भारत सरकार और अन्य, 1997(004) SCC 0306SC
5.टाटा प्रेस लिमिटेड बनाम महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड और अन्य, 1995(005) SCC 0139 SC
6.सचिव,सूचना एवम् प्रसारण मंत्रालय,भारत सरकार और अन्य बनाम क्रिकेट एसोसिशन ऑव बंगाल और अन्य 1995(002) SCC 0161 SC
7. भारतीय जीवन बीमा निगम बनाम प्रोफेसर मनुभाई डी शाह, 1992 (003) SCC 0637 SC
8. रिलायंस पेट्रोकेमिकल्स लिमिटेड बनाम इंडियन एक्सप्रेस न्यूजपेपर, मुंबई के मालिकान, 1988 (004) SCC 0592 SC
9. शीला बारसे बनाम महाराष्ट्र सरकार , 1987 (004) SCC 0373 SC
10.इंडियन एक्सप्रेस न्यूज पेपरस्(मुबई) प्राइवेट लिमिडेट, और अन्य बनाम भारत सरकार और अन्य, 1985 (001) SCC 0641 SC
11. श्रीमती प्रभा दत्त बनाम भारत सरकार और अन्य , 1982 (001) SCC 0001 SC
12. उत्तरप्रेदश सरकार बनाम राजनारायण और अन्य , 1975 (004) SCC 0428 SC
Source: http://www.humanrightsinitiative.org/programs/ai/rti/india/cases.pdf
• साल १९८२ में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सरकार के कांमकाज से संबंधित सूचनाओं तक पहुंच अभिव्यक्ति और अभिभाषण की स्वतंत्रता के अधिकार का अनिवार्य अंग है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा-सरकारी कामकाज में खुलेपन का विचार सीधे सीधे सरकारी सूचनाओं को जानने के अधिकार से जुड़ा है और इसका संबंध अभिभाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार से है जिसकी गारंटी संविधान के अनुच्छेद १९(ए) में दी गई है। इसलिए, सरकार को चाहिए कि वह अपने कामकाज से संबंधित सूचनाओं को सार्वजनिक करने की बात को एक मानक की तरह माने और इस मामले में गोपनीयता का बरताव अपवादस्वरुप वहीं औचित्यपूर्ण है जब जनहित में ऐसा करना हर हाल में जरुरी हो। अदालत मानती है कि सरकारी कामकाज से संबंधित सूचनाओं के बारे में गोपनीयता का बरताव कभी कभी जनहित के लिहाज से जरुरी होता है लेकिन यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि सूचनाओं को सार्वजनिक करना भी जनहित से ही जुड़ा हुआ है।
. • इडियन इविडेंस एक्ट,१८७२, की धारा ७६ में वे बातें कहीं गई हैं जिन्हें सूचना के अधिकार का बीज रुप माना जा सकता है। इस धारा के तहत प्रावधान किया गया है कि सरकारी अधिकारी को सरकारी कामकाज के कागजात मांगे जाने पर वैसे व्यक्ति को दिखाने होंगे जिसे इन कागजातों के निरीक्षण का अधिकार दिया गया है।
. • परंपरागत तौर पर भारत में शासन-तंत्र अपने कामकाज में गोपनीयता का बरताव करता आ रहा है। इसके लिए अंग्रेजो के जमाने में बने ऑफिशियल सिक्रेसी एक्ट का इस्तेमाल किया गया। इस एक्ट को साल १९२३ में लागू किया गया था। आगे चलकर साल १९६७ में इसमें थोड़े संशोधन हुए । इस एक्ट की व्यापक आलोचना हुई है। द सेंट्रल सिविल सर्विस कंडक्ट रुल्स, १९६४ ने ऑफिशियल सिक्रेसी एक्ट को और मजबूती प्रदान की क्योंकि कंडक्ट रुल्स में सरकारी अधिकारियों को किसी आधिकारिक दस्तावेज की सूचना बिना अनुमति के किसी को को बताने या आधिकारिक दस्तावेज को बिना अनुमति के सौंपने की मनाही है।
• इंडियन इविडेंस एक्ट, १८७२, की धारा १२३ में कहा गया है कि किसी अप्रकाशित दस्तावेज से कोई प्रमाण संबंधित विभाग के प्रधान की अनुमति के बिना हासिल नहीं किया जा सकता और संबंधित विभाग का प्रधान चाहे तो अपने विवेक से अनुमति दे सकता है और चाहे तो नहीं भी दे सकता है। सरकारी कामकाज के बारे में सूचनाओं की कमी को कुछ और बातों ने बढ़ावा दिया। इसमें एक है साक्षरता की कमी और दूसरी है सूचना के कारगर माध्यम और सूचना के लेन-देन की कारगर प्रक्रियाओं का अभाव। कई इलाकों में दस्तावेज को संजो कर रखने का चलन एक सिरे से गायब है या फिर दस्तावेजों को ऐसे संजोया गया है कि वे दस्तावेज कम और भानुमति का कुनबा ज्यादा लगते हैं। दस्तावेजों के अस्त-व्यस्त रहने पर अधिकारियों के लिए यह कहना आसान हो जाता है कि फाइल गुम हो जाने से सूचना नहीं दी जा सकती।
• साल १९९० के दशक के शुरुआती सालों में राजस्थान के ग्रामीण इलाके के लोगों की हक की लड़ाई लड़ते हुए मजदूर किसान शक्ति संगठन ने व्यक्ति के जीवन में सूचना के अधिकार को एक नये ढंग से रेखांकित किया। यह तरीका था-जनसुनवाई का। मजदूर किसान शक्ति संगठन ने अभियान चलाकर मांग की कि सरकारी रिकार्ड को सार्वजनिक किया जाना चाहिए, सरकारी खर्चे का सोशल ऑडिट(सामाजिक अंकेक्षण) होना चाहिए और जिन लोगों को उनका वाजिब हक नहीं मिला उनके शिकायतों की सुनवाई होनी चाहिए। इस अभियान को समाज के की तबके का समर्थन मिला। इसमें सामाजिक कार्यकर्ता, नौकरशाह और वकील तक शामिल हुए।
• प्रेस काउंसिल ऑव इंडिया ने साल १९९६ में सूचना का अधिकार का पहला कानूनी मसौदा तैयार किया। इस मसौदे में माना गया कि प्रत्येक नागरिक को किसी भी सार्वजनिक निकाय से सूचना मांगने का अधिकार है।ध्यान देने की बात यह है कि यहां सार्वजनिक निकाय शब्द का मतलब सिर्फ सरकारी संस्थान भर नहीं था बल्कि इसमें निजी क्षेत्र के सभी उपक्रम या फिर संविधानएतर प्राधिकरण, कंपनी आदि शामिल हैं।इसके बाद सूचना के अधिकार का एक मसौदा कंज्यूमर एजुकेशन रिसर्च काउंसिल(उपभोक्ता शिक्षा अनुसंधान परिषद) ने तैयार किया। यह सूचना पाने की स्वतंत्रता के संबंध में सबसे व्यापक कानूनी मसौदा है। इसमें अंतर्राष्ट्रीय मानको के अनुकूल कहा गया है कि बाहरी शत्रुओं के छोड़कर देश में हर किसी को हर सूचना पाने का अधिकार है।
• आखिरकार साल १९९७ में मुख्यमंत्रियों के एक सम्मेलन में संकल्प लिया गया कि केंद्र और प्रांत की सरकारें पारदर्शिता और सूचना के अधिकार को अमली जामा पहनाने के लिए काम करेंगी। इस सम्मेलन के बाद केंद्र सरकार ने इस दिशा में त्वरित कदम उठाने का फैसला किया और माना कि सूचना के अधिकार के बारे में राज्यों के परामर्श से एक विधेयक लाया जाएगा और साल १९९७ के अंत तक इंडियन इविडेंस एक्ट और ऑफिशियल सीक्रेसी एक्ट में संशोधन कर दिया जाएगा। सूचना की स्वतंत्रता से संबंधित केंद्रीय विधेयक के पारित होने से पहले ही कुछ राज्यों ने अपने तईं सूचना की स्वतंत्रता के संबंध में नियम बनाये। इस दिशा में पहला कदम उठाया तमिलनाडु ने(साल १९९७)। इसके बाद गोवा(साल १९९७), राजस्थान(२०००), दिल्ली(२००१)महाराष्ट्र(२००२), असम(२००२),मध्यप्रदेश(२००३) और जम्मू-कश्मीर(२००४) में नियम बने।
• सूचना की स्वतंत्रता से संबंधित अधिनियम(द फ्रीडम ऑफ इन्फारमेशन एक्ट) भारत सरकार ने साल २००२ के दिसंबर में पारित किया और इसे साल २००३ के जनवरी में राष्ट्रपति की मंजूरी मिली। यह कानून पूरे देश पर लागू है लेकिन इस अधिनियम के प्रावधानों को नागरिक समाज ने अपर्याप्त मानकर आलोचना की है।
नेशनल कंपेन फॉर पीपल्स राइट टू इन्फारमेशन और आरटीआई एसेसमेंट एंड एनालिसिस ग्रुप सहित अन्य संगठनों द्वारा संयुक्त रुप से करवाये गये एक सर्वेक्षण पर आधारित राइट टू इन्फारमेशन-इंटरिम फाइडिंग्स् ऑव पीपल्स फाइडिंग्स ऑव आरटीआई एसेसमेंट(२००८) नामक दस्तावेज के अनुसार-http://www.nyayabhoomi.org/rti/downloads/raag_survey.pdf:
• सूचना का अधिकार अधिनियम बुनियादी ढांचे के अभाव से ग्रस्त है। लोक सूचना अधिकारी को अपनी भूमिका के बारे में सही सही जानकारी नहीं है। ग्रामीण भारत में जितने लोक सूचना अधिकारियों का साक्षात्कार लिया गया उसमें लगभग आधे ने कहा कि हमें पता ही नहीं कि हम लोक सूचना अधिकारी का काम कर रहे हैं।
• लोक सूचना अधिकारी सूचना का अधिकार अधिनियम के अन्तर्गत सूचना देने के बाबत आयी अर्जियों को लेने और मांगी गई सूचना को देने का मुख्य जिम्मा संभालता है। सर्वेक्षण के दौरान अधिकतर लोकसूचना अधिकारियों का कहना था कि हमें पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं मिला है, इस विधेयक से संबंधित प्रावधानों की ठीक ठीक जानकारी नहीं है और इस वजह से सूचना के अधिकार अधिनियम के अन्तर्गत आयी अर्जियों के निबटान में बाधा आती है।
सूचना के अधिकार अधिनियम ने लोगों के जीवन पर सकारात्मक असर डाला है। इस मामले में यह अधिनियम अनूठा है। अधिक से अधिक लोग सूचना के अधिकार अधिनियम का प्रयोग करके सूचना मांगने के लिए अर्जियां दे रहे हैं। पहले सरकारी अधिकारी गण ऐसी सूचनाओं को देने से इनकार कर देते थे।
• सरकार का रवैया इस मामले में धीमा है। सूचना का अधिकार अधिनियम का उपयोग करके सूचना मांगने के लिए जितनी अर्जियां आती है उनमें से दो तिहाई का जवाब सरकारी अधिकारी देते हैं। सिर्फ एक तिहाई अर्जियों का जवाब ३० दिन के अंदर मिल पाता है, जैसा कि नियम है।
• सूचना के अधिकार अधिनियम पर अमल के मामले में सबसे पिछड़ा राज्य मेघालय है। यहां गांव के स्तर पर कोई भी लोक सूचना अधिकारी नहीं है। राज्स्थान इस मामले में सबसे आगे है। यहां ना सिर्फ गांव के स्तर पर लोकसूचना अधिकारी उपलब्ध मिले बल्कि उनका साक्षात्कार भी लिया जा सका। सर्वेक्षण का एक निष्कर्ष यह भी है कि महिलाओं से कहीं ज्यादा पुरुष इस अधिकार का उपयोग कर रहे हैं। ग्रामीण स्तर पर अर्जियां देने वालों में पुरुषों की तादाद बहुत ज्यादा है।
• महाराष्ट्र में सूचना के अधिकार अधिनियम को जबर्दस्त सफलता मिली है। पिछले तीन सालों में यहां ३ लाख ७० हजार अर्जियां आयीं। सूचना के अधिकार अधिनियम के पक्ष में काम करने वालों का कहना है अर्जियों पर जवाब को रोककर रखने का सरकारी चलन चिन्ता जगाने वाला है।
सूचना का अधिकार- कुछ अंतर्राष्ट्रीय मानकों की एक बानगी
• 'सूचना की स्वतंत्रता एक बुनियादी मानवाधिकार है..और इन सभी मानवाधिकारों की कसौटी है जिनके प्रति संयुक्त राष्ट्रसंघ प्रतिबद्ध है.'
• संयुक्त राष्ट्रसंघ की आमसभा ने साल १९६६ में नागरिक और राजनीतिक अधिकारों से संबंधित इंटरनेशनल कोवेनेंट ऑन सिविल एंड पॉलिटिकल राइटस् को स्वीकार किया। इसमें अभिमत की स्वतंत्रता(फ्री़म ऑव ओपीनियन) की गारंटी दी गई है।साल १९९३ में मानवाधिकारों से संबंधित संयुक्त राष्ट्र संघ के आयोग ने अभिमत और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (फ्री़डम ऑव ओपीनियन एंड एक्सेप्रेसन) से संबंधित एक विशेष पीठ की स्थापना की। इसे ऑफिस ऑव द यूएन स्पेशल रपॉटियर ऑन फफ्री़डम ऑव ओपीनियन एंड एक्सप्रेसन कहा जाता है। इसकी भूमिकाओं में एक है-अभिमत और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में आने वाली बातों के बारे में स्पष्टता कायम करना।साल १९८० में राष्ट्रकुल के देशों के विधि मंत्रियों की एक बैठक बारबडोस में हुई। इस बैठक में कहा गया- 'शासकीय और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में जनता की भागीदारी सबसे ज्यादा सार्थक तब होती है जब नागरिकों के पास पर्याप्त संख्या में आधिकारिक सूचनाएं होती हैं।'
• साल १९९९ के मार्च महीने में राष्ट्रकुल के देशों के एक्सपर्ट ग्रुप की एक बैठक लंदन में हुई। इस बैठक में एक प्रस्ताव को मंजूर किया गया। इस प्रस्ताव में जानने के अदिकार और सूचना पाने की स्वतंत्रता को मानवाधिकार मानने के बारे में कई दिशानिर्देश दिये गए।
साल १९९२ में पर्यावरण और विकास पर केंद्रित रियो उदघोषणा के सिद्धांत-सूत्र १० में सबसे पहले इस तथ्य की पहचान हुई कि टिकाई विकास के लिए पर्यावरण सहित अन्य विषयों से जुड़ी जो जानकारियां सरकारी अधिकारियों के हाथ में हैं उन्हे सार्वजनिक करना जरुरी है ताकि पर्यावरण के लिहाज से एक सक्षम शासकीय ढांचे में लोगों की भागीदारी हो सके।
• रियो उदघोषणा से जुड़ी नीतियों का एक सहायक दस्तावेज है-एजेंडा २१,ब्लूप्रिंट फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट। इसमें कहा गया है कि किसी व्यक्ति, समूह या संगठन की पहुंच पर्यावरण और विकास से जुड़ी वैसी सूचनाओं तक होनी चाहिए जो सरकारी अधिकारियों या संगठनों के पास हैं। इन जानकारियों में वैसी उन उत्पादों और गतिविधियों की सूचनाएं भी शामिल हैं जिनका असर पर्यावरण पर पड़ सकता है अथवा सूचना को छुपाने के लिए किया जा सकता है।
• अनेक देशों मे सूचना के अधिकार के संबंध में कानून हैं। इन्हें रियो घोषणा के अनुच्छेद १० में अंशतः या पूर्णतः संहिताबद्ध किया गया है।
• साल १९९८ में रियो घोषणा और एजेंडा़ २१ के अनुपालन में संयुक्त राष्ट्रसंघ के योरोपीय आर्थिक आयोग(यूएनईसीई) के सदस्य देशों और योरोपीय संघ ने एक कानूनी रुप से बाध्यकारी संधि पर हस्ताक्षर किए। इस संधि में सूचना पाने की स्वतंत्रता, नीति-निर्धारण में जनता की भागीदारी और पर्यावरणीय मामलों में न्याय पाने की स्वतंत्रता के लिए हामी भरी गई है।
• स्वीडेन में लागू फ्रीडम ऑव प्रेस एक्ट में विधान किया गया है कि अगर कोई नागरिक, नागरिक समूह अथवा संगठन मांग करे तो आधिकारिक दस्तावेजों में दर्ज सूचना सार्वजनिक करनी होगी।
• कोलंबिया में सूचना के अधिकार से संबंधित कानूनों का इतिहास बड़ा पुराना है। कोलंबिया में एख कानून है कोड ऑव पॉलिटिकल एंड म्युनिस्पल आर्गनाइजेशन(१८८८)। इस कानून के अन्तर्गत नागरिकों को अधिकार दिया गया है कि वे सरकारी एजेंसियों अथवा सरकारी अभिलेखागार में सुरक्षित दस्तावेजों की जानकारी जरुरत पड़ने पर मांग सकें।
• संयुक्त राज्य अमेरिका में साल १९६७ में सूचना के अधिकार से संबंधित एक कानून पारित हुआ। इसी राह पर आस्ट्रेलिया, कनाडा और न्यूजीलैंड में साल १९८२ में कानून बने।
• एशिया में सबसे पहले सूचना के अधिकार को स्वीकार करने वाला देश फिलीपीन्स है। साल १९८७ में इस देश में सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों की आचार संहिता तैयार की गई और इसमें सूचना के अधिकार को मान्यता दी गई। हांगकांग में सूचना के अधिकार से संबंधित कानून १९९५ में बना जबकि थाईलैंड ऑफिशियल इन्फारमेशन एक्ट साल १९९७ के दिसंबर से अमल में आया। साल १९९८ में दक्षिण कोरिया में सूचना के अधिकार से संबंधित एक्ट ऑन डिस्क्लोजर ऑव इन्फारमेशन बाई पब्लिक एजेंसिज बना। जापान में सूचना के अधिकार से संबंधित कानून अप्रैल २००१ में बना।
• अफ्रीकी देशों में सूचना के अधिकार को मान्यता देने वाला एकमात्र देश दक्षिण अफ्रीका है।
भारत के सर्वोच्च न्यायलय में सूचना के अधिकार के तहत दिए गए महत्वपूर्ण फैसले
1. पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टी और अन्य बनाम भारत सरकार और अन्य। साथ में लोकसत्ता और अन्य बनाम भारत सरकार 2003(001) SCW 2353 SC
2. भारत सरकार बनाम एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म एंड अनदर, साथ में पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टी और अन्य बनाम भारत सरकार और अन्य 2002(005) SCC 0361SC
3. भारत सरकार और अन्य बनाम मोशन पिक्चर एसोसिएशन और अन्य 1999(006) SCC 0150 SC
4. दिनेश त्रिवेदी, एमपी, बनाम और अन्य बनाम भारत सरकार और अन्य, 1997(004) SCC 0306SC
5.टाटा प्रेस लिमिटेड बनाम महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड और अन्य, 1995(005) SCC 0139 SC
6.सचिव,सूचना एवम् प्रसारण मंत्रालय,भारत सरकार और अन्य बनाम क्रिकेट एसोसिशन ऑव बंगाल और अन्य 1995(002) SCC 0161 SC
7. भारतीय जीवन बीमा निगम बनाम प्रोफेसर मनुभाई डी शाह, 1992 (003) SCC 0637 SC
8. रिलायंस पेट्रोकेमिकल्स लिमिटेड बनाम इंडियन एक्सप्रेस न्यूजपेपर, मुंबई के मालिकान, 1988 (004) SCC 0592 SC
9. शीला बारसे बनाम महाराष्ट्र सरकार , 1987 (004) SCC 0373 SC
10.इंडियन एक्सप्रेस न्यूज पेपरस्(मुबई) प्राइवेट लिमिडेट, और अन्य बनाम भारत सरकार और अन्य, 1985 (001) SCC 0641 SC
11. श्रीमती प्रभा दत्त बनाम भारत सरकार और अन्य , 1982 (001) SCC 0001 SC
12. उत्तरप्रेदश सरकार बनाम राजनारायण और अन्य , 1975 (004) SCC 0428 SC
Source: http://www.humanrightsinitiative.org/programs/ai/rti/india/cases.pdf
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