जल की काया
जल की माया
जल का सकल पसारा
कहत कबीर सुनों भई साधो
जल से कौन नियारा?
यह जल का समष्टि स्वरूप है। कबीलों से लेकर कबीर तक और कबीर से लेकर कांक्रीट तक हर वक्त और हर शख्स के लिए जल के इस स्वरूप को स्वीकारना एकमात्र विकल्प रहा होगा। जल का विकल्प जल ही है, और कुछ भी नहीं।
जल भी ‘जल’ शब्द बना होगा तो ‘ज’ निश्चित रूप से ‘जीवन’ के लिए रहा होगा और ‘ल’, ‘लय’ के लिए। जीवन की लय के समान बहने वाला जल एक-एक बूंद को मिलाकर वृहद रूप धारण करता है। जीवन के एक-एक क्षण और पानी की एक-एक बूंद को थोड़ी देर के लिए एक साथ सोचा जाये तो हम पाते हैं कि इन दोनों में कुछ भी फर्क नहीं है। ये दोनों एक ही हैं।
जीवन का हर क्षण चाहे वह सुख का हो या गमी का, स्नेह का, प्रेम का या नाराजी का, प्रणय का या बिछोह का, ऐश्वर्य का या आभावों का – हर क्षण को बूंद ही ‘बदन’ और बोल देती है। वरना जीवन के क्षण या तो मौन हो जायेंगे या जर-जर।
जीवन के हर क्षण का पानी की बूंदों से रिश्ता देखना है तो आईये चलिए हमारे साथ झाबुआ अंचल में यहां पर जल और जीवन दोनों के लिए संघर्ष चल रहा है, लेकिन हाँ, पूरी जीवटता के साथ एक पानीदार संघर्ष। हर बूंद से संदेश ग्रहण करते जीवन के हर भाव को ताजगी और हरापान देता जल। यहाँ जल और जीवन के बीच सीधा संवाद है।
कोय देश रहनो थारो
कोय थारो नोव
बादउलो म्हारो नोव
बरसाणों म्हारो कोम
बूंदों के पिता बादल से एक आदिवासी का यह संवाद देखिये। आदिवासी बादल से प्रश्न कर रहा है कि तुम किस देश के रहने वाले हो और तुम्हारा नाम क्या है? बादल उत्तर देता है कि मेरा नाम बादल है और मेरा काम बरसना है।
आदिवासी जानता है कि जब बादल के घराने की बेटियां धरती के कणों पर मोहित होकर समर्पण करेंगी, अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देंगे तभी तो धरती का कुटुम्ब खिलेगा। इसलिए बादल से परिचय पहली जरूरत है।
एक किसान या खेती कर रहे आदिवासी के लिए पानी की बूंदों पर धरती के कणों का यह परिणय उतना ही महत्व रखता है जितना एक साधारण पिता का अपने बच्चों का ब्याह रचाना। उतना ही इंतजार, उतनी ही लालसा, उतनी ही उत्कंठा। इस लालसा, इस उत्कंठा के पीछे उतने ही कारण, उतने ही पहलू और उतने ही तर्क हो सकते हैं जितने एक पिता के अपने बच्चों को ब्याहने के होते हैं। एक पिता अपने बेटे के सिऱ सेहरा बंधने या बेटी के डोली में बैंठने का ख्वाब सिर्फ इसलिए नहीं देखता कि यह उसकी जिम्मेदारी है बल्कि इसके पीछे उसकी भावनाएँ, उसका स्नेह, उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा, व्यक्तिगत प्रतिबद्धता और भविष्य की उम्मीदें-यह सब होता है।
धरती के कण किसान/आदिवासी के बेटे की तरह ही तो हैं। एक पिता की जितनी उम्मीदें बेटों पर टिकी होती हैं उतनी ही एक आदिवासी की इन कणों पर होती है। उतने ही ख्वाब जुड़े होते हैं, उतनी ही प्रतिबद्धताएं भी। इसीलिए बादल से परिचय करके आदिवासी इन कणों के बूंदों के ब्याव की रूपरेखा तैयार करना चाहता है। प्रकृति से ऐसा रिश्ता, ऐसा सामीप्य इन अंचलों में ही देखने को मिलता है।
आदिवासी जीवन की हर गतिविधि बूंदों के आगमन से खिल उठती है और उनके न आने पर उदास हो जाती है। बूंदें भी कदाचित आदिवासियों के लगाव को समझती हैं इसलिए पहले मनुहार करवाती हैं और फिर आती है।
डंडा कुवाम पालो पाणी, काई करि भरुं रे।
मेघ बाबा दोड़ियों दोड़ियो।
खुदरया ने खाल्या सुकाम गया
लावरान – तितरान तिस्मा भरे
गाय गोड़ा भूखा मरे, बरस रे मेघ बाबा
दोड़ियो दोड़ियो।
आदिवासी कई बातों की दुहाई देकर बूंदों को मनाते हैं। वे कहते हैं कि कुआं बहुत गहरा और पानी उसमें बहुत कम है। नदी, नाले और खाल सूख गये हैं। लावरा और तीतर प्यासे मर रहे हैं। गाय के बछड़े घास के बिना भूख से व्याकुल हैं। इसलिए हे पानी बाबा, तू आ जा।
आदिवासी भाई बताते हैं- ऐसा गुनगुनाकर हम बूंदों को यह अहसास करवा देते हैं कि प्रकृति की सेहत की मूलकारक वहीं है। उनके बिना प्रकृति उदास है और इसलिए हम भी। क्योंकि हमारी आवश्यकताओं का कुआं गहरा हो चला है। और पूर्ति नहीं हो रही है।
एक भील युवा अपनी उम्र के अनुरूप तरीके से बूंदों को बुलाता है-
माल मा मीठी मोवड़ी रे जुवान छोरी
मोवड़ा बितवा चाले रे, जुवान छोरी
तारो बापो ग्योसे मालवे रे, जुवान छोरी
आवता, आवता बिसुड़ा लाव जेरे, जुवान छोरी
बिसुड़ा बागे, बादल गाजे रे, जुवान छोरी
बादल गाजे बिजला झाजो, पारियां खुशी थाहे रे।
माल मा मीठी मोवड़ी रे, जुवान छोरी
वह अपनी बांसुरी बजाते हुए अपनी प्रेमिका से कहता है खेत में एक मीठे महुए का वृक्ष है, वहां तू आना पैरों में बिछुड़ी पहनकर। हम आधी रात को महुए बीनने जायेंगे। बिछुओं की आवाज से बादल गरज उठेंगे और बिजली चमकने के साथ ही वर्षा होगी, बच्चे खुशी से झूम उठेंगे।
दरअसल जल और जमीन से आदिवासियों की भूख ही नहीं जुड़ी होती, उनकी भंगिमाएं, भावनाएं, भविष्य और भाग्य सभी कुछ वर्षा ही तय करती है। इसलिए बूंदों के बरसते ही उनका जीवन खिल उठता है और गुनगुनाते लगता है-
सुरंगी रुत आई म्हारे देस
भलेरी रुत आई म्हारे देस
मोटी-मोटी छांटयां ओसरयां ए बदली
तो छांट घड़े के मान, मेवा मिसरी
सुरंगी रुत आई म्हारे देस।
एक-एक बूंद उन्हें एक-एक घड़े के समान लगती है और यह ऋतु उन्हें मेवा और मिश्री के समान प्यारी लगती है।
ऐसे में जागती है खुशी, ऐसे में जागती है उम्मीदें और ऐसे में ही जागता है प्रेम। मेघ तो शुरू से ही प्रेम के दूत रहे हैं। बूंदों के उघाड़े बदन पर कदाचित वे ऐसे प्रेमगीत लिख भेजते हैं कि जिस पर भी पड़ती हैं वह प्रेम पानी और न्यौछावर होने को लालायित हो उठता है। प्रेम की चाह तब पराकाष्ठा पर पहुँच जाती है जब प्रेमी ऐसे समय में दूर हो-
डेडरा न डेडरी एक होयग्या
बोर-वाट हेर यावे रे म्हारा जुवान्या।
भारी मनुहार के बाद आने वाली, सबको महकाने, चहकाने वाली और प्रेमियों के मदमाने या तड़पाने वाली इन बादलों की बेटियों का महत्व आदिवासी समाज बखूबी जानता है। इसलिए वह उन्हें जिस मनुहार से साथ बुलाता है उसी मनुहार के साथ रोकने का भी भरसक प्रयास करता है। एक आदिवासी ललना की इस चिंता पर गौर फरमाइये-
नीला कछु हेट ढोलियो पानी जाई व समंदर मा
ढोलियों जाईव समंदर सा रेलियो झेलियो माई
कोई गोबर हेऊ काही दलनों दलों काईतलियों मसो
काही पाणी भरो ढोलियो जाई व समंदर मा।
ललना की चिंता है कि पानी लहराता हुआ समुद्र में जा रहा है। उसके पास काम इतने अधिक हैx कि वह मेड़ बांधकर उसे रोक भी नहीं पा रही है। यहीं चिंता आज एक आम आदिवासी में जागी है। झाबुआ अंचल के भ्रमण में इसके पुख्ता प्रमाण हमें मिले। इसी चिंता में आदिवासियों को बूंदों को रोकने के कई तरीके सुझाये हैं। वह नये-नये तरीके सोच रहा है, वह जान गया है कि जल और जीवन की लय साथ-साथ ही चल सकते हैं। ये दोनों एक ही हैं। बूंदों की मनुहार ही जीवन का आधार है।
.......और हमने पाया बूंदों के मनुहार ने उनके जीवन को प्रेम प्रतिष्ठा और प्राप्तियों से परिपूर्ण कर दिया है।
बूँदों की मनुहार (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) |
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