सुपरबग से कितना सुरक्षित दिल्ली

महाजीवाणु यानी एनडीएम-1 के फैलने का सबसे अधिक खतरा गंदे पानी से है। दिल्ली जलबोर्ड के पेयजल में हानिकारक रासायनिक तत्त्वों के घुले होने, क्षतिग्रस्त पाइपलाइनों में सीवर की गंदगी मिल जाने की शिकायतें अक्सर मिलती रहती हैं और एंटीबायोटिक दवाओं के अधिक इस्तेमाल का नतीजा यह होता है कि मनुष्य के शरीर की प्रतिरोधक क्षमता घटती जाती है और किसी नए जीवाणु या विषाणु का हमला झेल पाना मुश्किल हो जाता है। उस पर दूसरी दवाओं का असर नहीं होता।

आखिरकार दिल्ली सरकार ने माना कि हमारे यहां महाजीवाणु यानी सुपरबग का खतरा मौजूद है। पिछले साल जब ब्रितानी शोधकर्ताओं ने इसकी तरफ संकेत किया तो पहले इसके नाम को लेकर बहस शुरू हो गई, फिर सरकार ने घोषणा की कि ऐसे किसी जीवाणु का खतरा हमारे यहां नहीं है। महाजीवाणु ऐसे बैक्टीरिया को कहते हैं, जिस पर एंटीबायोटिक दवाओं का असर नहीं होता। इसका सबसे बड़ा कारण एंटीबायोटिक दवाओं का ज्यादा और बेवजह इस्तेमाल होता है। यह किसी से छिपा नहीं है कि भारत में मामूली तकलीफ में भी डॉक्टर एंटीबायोटिक दवाएं लेने की सलाह देते हैं। शोधकर्ताओं ने बताया है कि दिल्ली की रिहाइशी कॉलोनियों और अस्पतालों वगैरह से निकलने वाले पानी में एंटीबायोटिक की मात्रा अधिक होने की वजह से उनमें पलने वाले बैक्टीरिया इस कदर ताकतवर हो चुके हैं कि उन्हें नष्ट करना काफी मुश्किल हो चुका है।

दिल्ली सरकार ने सभी अस्पतालों को इस समस्या से पार पाने के लिए तैयार रहने को कहा है। हालांकि उसका दावा है कि अभी तक महाजीवाणु का प्रभाव किसी रोगी पर नहीं देखा गया है। मगर इससे लोगों को सरकार की तैयारियों पर कितना भरोसा बन पाएगा, कहना मुश्किल है। महाजीवाणु यानी एनडीएम-1 के फैलने का सबसे अधिक खतरा गंदे पानी से है। दिल्ली जलबोर्ड के पेयजल में हानिकारक रासायनिक तत्त्वों के घुले होने, क्षतिग्रस्त पाइपलाइनों में सीवर की गंदगी मिल जाने की शिकायतें अक्सर मिलती रहती हैं। मगर इस दिशा में भरोसेमंद काम नहीं हो पाया है। आज भी हजारों लोग खुले गंदे नालों के किनारे, यमुना की तलहटी और कचराघरों के आसपास जिंदगी बसर करने को मजबूर हैं। घरों और अस्पतालों आदि से निकलने वाले कचरे के सुव्यवस्थित निपटान की कोई योजना कारगर नहीं हो पाई है। ऐसे में महाजीवाणु के खतरे को रोकने की तैयारी सरकार किस तरह करती है, देखने की बात है।

चिकित्सा विज्ञानियों और शोधकर्ताओं ने भारत में एंटीबायोटिक के अतार्किक उपयोग पर चिंता जाहिर की तो स्वास्थ्य मंत्रालय ने आदेश जारी किया कि बेवजह ऐसी दवाओं की सलाह देने वाले डॉक्टरों और दवा विक्रेताओं के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की जाएगी। मगर इस पर कितना अमल हो पा रहा है, इसका अध्ययन-आकलन उपलब्ध नहीं है। आज भी आर्थिक रूप से कमजोर तबके और दूर-दराज के पिछड़े इलाकों के बहुत सारे लोग अप्रशिक्षित डॉक्टरों की सलाह और सेवाओं पर निर्भर हैं। बहुत सारे लोग सर्दी-खांसी-जुकाम, सामान्य बुखार आदि में अपनी आजमाई किसी दवाई पर भरोसा ज्यादा करते हैं। दवा विक्रेता भी उनकी इस प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं। ऐसे में एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल खूब होता है।

एंटीबायोटिक दवाओं के अधिक इस्तेमाल का नतीजा यह होता है कि मनुष्य के शरीर की प्रतिरोधक क्षमता घटती जाती है और किसी नए जीवाणु या विषाणु का हमला झेल पाना मुश्किल हो जाता है। उस पर दूसरी दवाओं का असर नहीं होता। तमाम अध्ययनों से जाहिर हो चुका है कि पिछले कुछ सालों से बदलती जीवनशैली के कारण पैदा होने वाली बीमारियां तेजी से फैल रही हैं। उन पर काबू पाना स्वास्थ्य विभाग के लिए बड़ी चुनौती है। जापानी बुखार, चिकुनगुनिया, स्वाइन फ्लू, डेंगू जैसी बीमारियों से पार पाने में हम लगातार विफल रहे हैं। ऐसे में महाजीवाणु के खतरे से लड़ना आसान नहीं होगा। जरूरत है कि फौरी उपायों के बजाय सरकार इसकी वजहों के निराकरण और स्थायी समाधान पर गंभीरता से विचार करें।

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