बताया जाता है कि सुंदरबन के लगभग पाँच प्रतिशत बाघ आदमखोर हैं। यह अनुमान उम्मीद से ज्यादा भी हो सकता है क्योकि पिछले दो सालों में प्रतिबंधित क्षेत्र में अवैध तरीके से लोगों की घुसपैठ बढ़ी है।
प्राकृतिक आपदाओं से बचाव : समुद्र तट को ताकतवर लहरों, तूफानों, यहाँ तक कि सुनामी तक से बचाने वाली इस मैंग्रोव रक्षापंक्ति का निर्माण होता है ताजे पानी और खारे पानी के मिलन से बनने वाले तलछ्ट पर। इसकी दलदली मिट्टी अत्यंत उपजाऊ होती है और मैंग्रोव के लिए आदर्श मानी जाती है। स्थानीय लोगों के मुताबिक इस क्षेत्र में बहुतायत से मिलने वाले सुंदरी (मैंग्रोव की एक प्रजाति) के वृक्षों के नाम पर इसे सुंदरबन कहा जाता है। इसका एक बड़ा क्षेत्र बांग्लादेश में है।
पिछले 2000 सालों के विकासक्रम से गुजर चुके सुंदरवन मैंग्रोव क्षेत्र में पशु-पक्षियों की अनेकों प्रजातियों को आसरा मिला हुआ है। इसे 1973 में टाइगर रिजर्व के रूप में घोषित कर दिया गया था और 1984 में इसे सुंदरवन राष्ट्रीय उद्यान बनाया गया। 1997 में इसे यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर का दर्जा दिया गया।
घटती तादाद पर चिंता : सुंदरबन के बाघों की घटती तादाद पर 'टाइगर कंसर्वेशन लैंडस्केप ऑफ ग्लोबल प्रायोरिटी' के एक विस्तृत अध्ययन पर आधारित रिपोर्ट बनाई जा रही है। इस अध्ययन का मकसद है मैंग्रोव जंगलों में बाघों की विकास-प्रक्रिया को समझना, उनकी संख्या की सही जानकारी तथा बाघों और मनुष्यों के बीच लगातार बढ़ती मुठभेड़ों के कारणों को पता करना। इसका एक और मकसद यह भी पता लगाना है कि सुंदरबन के अस्तित्व के लिए बाघों का होना कितना जरूरी है।
हाल के वर्षों में सुंदरबन में बाघों द्वारा लोगों पर हमले की घटनाओं में अचानक इजाफा हुआ है। अमूमन हर साल 15-20 से अधिक ऐसी घटनाएँ दर्ज की जाती हैं जिनमें से कुछ में ही भाग्यशाली मनुष्य जिंदा बच पाते हैं। दूरस्थ इलाकों की घटनाएँ तो अकसर पता ही नहीं चल पातीं या लोग इन्हें दर्ज नहीं करवाते। दरअसल सुंदरबन का बहुत-सा क्षेत्र लोगों के लिए प्रतिबंधित है, पर मछुआरे और लकड़ी तथा शहद बटोरने वाले अकसर चोरी-छिपे इन जंगलों में घुस जाते हैं।
यह क्षेत्र जो कि रिजर्व का बफर जोन है, दरअसल टाइगर टेरिटरी होता है। आमतौर पर हर बाघ अपने इलाके अपने मूत्र या मल से चिह्नित करते हैं, पर सुंदरबन में हर रोज आने वाले ज्वार व इस क्षेत्र में अकसर होने वाली भारी बरसात इन निशानों को धो देती है जिस वजह से यहाँ बाघ अपना क्षेत्र चिह्नित नहीं कर पाते और अकसर भटकते हुए मानव बस्ती या जंगल के किनारे रहने वालों के पास पहुँच जाते हैं।
आतंक के प्रतीक : बताया जाता है कि सुंदरबन के लगभग पाँच प्रतिशत बाघ आदमखोर हैं। यह अनुमान उम्मीद से ज्यादा भी हो सकता है क्योकि पिछले दो सालों में प्रतिबंधित क्षेत्र में अवैध तरीके से लोगों की घुसपैठ बढ़ी है। इसका एक कारण यह भी है कि अंडमान-निकोबार में आई सुनामी के बाद काफी बड़े स्तर पर निर्माण कार्य जारी था जिसमें बड़ी संख्या में सुंदरबन के लोगो को वहाँ रोजगार मिला था पर काम के पूरे होने के बाद लोग वापस अपने क्षेत्रों में लौट आए हैं और रोजी-रोटी की तलाश में प्रतिस्पर्धा के चलते बहुत से लोग प्रतिबंधित क्षेत्रों में जाने से भी गुरेज नहीं करते हैं। गैरसरकारी आँकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि पिछले साल कुल 50 से अधिक लोग बाघ के हमलों में मारे गए व ज्यादातर हमले उत्तर-पश्चिम में हुए जो कि 1225 वर्ग किलोमीटर में फैले बफर जोन में आता हैं।
प. बंगाल सरकार द्वारा हर साल 40 हजार से ज्यादा लोगो को जंगल से शहद व वनोपज एकत्र करने, मछली पकड़ने का परमिट दिया जाता है, पर पैसा कमाने के लालच में हजारों लोग अवैध रूप से इन जंगलों और तटों पर वनोपज इकट्ठा करने व मछली पकड़ने जाते हैं।इसकी और भी कई वजहें हैं जैसे अधिकतर हमले अप्रैल-मई में हुए हैं जब मैंगोव के खिलने का समय होता है और लोग शहद एकत्र करने जंगल में जाते हैं, पर इसी मौसम में बाघिन अपने बच्चों को जन्म देती है और अत्यधिक खतरनाक होती है। इसी वजह से कई बार बाघों द्वारा मारे गए व्यक्ति की बिना खाई लाश मिलती है, वे सिर्फ मारने के लिए हमला करते हैं खाने के लिए नहीं। वन्यजीव विशेषज्ञ बताते हैं कि अधिकतर मामलों में मनुष्य को मारने वाली बाघिन अपने शावक को भी आदमखोर बना सकती है।
प्राकृतिक कारण : अकेले रहने के आदी बाघ अपने क्षेत्र में घुसने वाले किसी भी प्राणी को बरदाश्त नहीं करते और एक बार मनुष्य को मारने के बाद उन्हें वह अपने प्राकृतिक शिकारों जंगली सूअर और हिरन की बनिस्बत काफी आसान शिकार लगता है। इसी वजह से उम्रदराज बाघ खासतौर पर आदमखोर होते पाए गए हैं। समुद्री जलस्तर के बढ़ने से मैंग्रोव में मिलने वाले अपने प्राकृतिक आहार में आई कमी से भी बाघों के भोजन स्त्रोत पर काफी असर पड़ा है। अपने घटते भोजन से बाघ भी अब मानव बस्तियों तथा गाय-भैंस जैसे आसान शिकार की ओर ज्यादा आकर्षित होने लगे हैं।
बेबस जनता : बरसों से उपेक्षित, घोर गरीबी व अशिक्षा के कारण भारत के इस मुहाने के लोग अल्पतम साधनों से बसर करते हैं। इनकी जीविका का मुख्य साधन गाय-भैंस व भेड़-बकरियाँ हैं जिन्हें चरने के लिए जंगल के किनारे छोड़ दिया जाता है जो बाघ के लिए आसान शिकार हैं। अपने क्षेत्र को चिह्नित करने में असमर्थ बाघ कई बार भटकते हुए जंगल के किनारे पहुँच जाते हैं और अगर एक बार उन्होंने इन घरेलू जानवरों का शिकार कर लिया तो फिर मनुष्य पर उनके हमले की संभावना बढ़ जाती है।
विलक्षण व्यवहार : आमतौर पर वन्यपशु इनसानों से डरते हैं और उनका सामना करने से बचते हैं पर यहाँ के बाघों के बारे में कहा जाता है कि वे बहुत ही अधिक खूँखार हैं। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार कई बार बाघ बीच नदी में मछली पकड़ते मछुआरों को उनकी नौकाओं तक से खींच ले गए हैं, उनका इस कदर ताकतवर होना इसलिए भी लाजमी है कि इन्हें शिकार अकसर दलदली क्षेत्र में करना पड़ता है जिसमें बहुत ताकत की आवश्यकता होती है। सुंदरबन में ताजे पानी के स्रोत बहुत ही कम हैं और बाघों को अकसर खारा पानी पीना पड़ता है जो शायद उनके इस खूँखार व्यवहार का कारण है। पर उनके इस व्यवहार के चलते ही लोग इन जंगलों में जाते डरते हैं और इस विलक्षण प्राणी को बाघादेव मान पूजते हैं, इस वजह से अब तक सुंदरबन मानव गतिविधियों से काफी हद तक अछूता रहा है।
आमने-सामने : पर अब हालात बिगड़ रहे हैं। प. बंगाल सरकार द्वारा हर साल 40 हजार से ज्यादा लोगो को जंगल से शहद व वनोपज एकत्र करने, मछली पकड़ने का परमिट दिया जाता है, पर पैसा कमाने के लालच में हजारों लोग अवैध रूप से इन जंगलों और तटों पर वनोपज इकट्ठा करने व मछली पकड़ने जाते हैं।
इसी तरह कई गाँव जैसे शमशेरनगर, कालीताला, कुलताली तथा झारखाली ठीक जंगल के किनारे पर बस गए हैं। कुछ गाँवों की दूरी तो घने जंगल से बस इतनी ही है जितनी बाघ एक छ्लाँग में पार कर ले। यह नजदीकियाँ अब बाघ व मनुष्य दोनों के लिए मुसीबतें ला रही हैं और बढ़ते टकराव के नतीजे में अब लोग ‘बाघादेव’ के खिलाफ लामबंद होने लगे हैं जिसके कारण अब बाघों की भी जान जाने लगी है।
इनसान और जानवर की इस लड़ाई में नुकसान जो भी हो, एक बात तो साफ है कि जंगल और बाघ का रिश्ता ठीक वैसा ही है जैसे जंगल और वर्षा का। दोनों में से एक का भी अनुपात बिगड़े तो पूरे पारिस्थिति तंत्र पर असर पड़ना तय है।
कम होते बाघों से सिकुड़ता 'समुद्रवन'
बंगाल की खाड़ी के मुहाने पर स्थित 7,900 वर्ग मील क्षेत्रफल में फैला सुंदरबन मैंग्रोव पारिस्थिति तंत्र दुनिया का सबसे बड़ा मैंग्रोव क्षेत्र तथा भारत और बांग्लादेश का एकमात्र मैंग्रोव जंगल है, जहाँ आज भी बाघ (टाइगर) अपनी दहाड़ से अपने अस्तित्व का परिचय देते यहाँ स्वछंद विचरण करते हैं। दुरूह दलदली क्षेत्र में फैले और 'बाघादेव' द्वारा संरक्षित सुंदरबन के बारे में भारत तथा बांग्लादेश में बहुत चर्चा नहीं है पर इतना तो पता चल ही चुका है कि सुंदरबन के इस रक्षक को अब कम होते क्षेत्र, घटते शिकार और शिकारियों के कारण भारी नुकसान हो रहा है। इसी तरह प्राकृतिक आपदाओं व मनुष्य की गतिविधियों से बाघों की शरणस्थली मैंग्रोव जंगल भी अब तेजी से खत्म होते जा रहे हैं।प्राकृतिक आपदाओं से बचाव : समुद्र तट को ताकतवर लहरों, तूफानों, यहाँ तक कि सुनामी तक से बचाने वाली इस मैंग्रोव रक्षापंक्ति का निर्माण होता है ताजे पानी और खारे पानी के मिलन से बनने वाले तलछ्ट पर। इसकी दलदली मिट्टी अत्यंत उपजाऊ होती है और मैंग्रोव के लिए आदर्श मानी जाती है। स्थानीय लोगों के मुताबिक इस क्षेत्र में बहुतायत से मिलने वाले सुंदरी (मैंग्रोव की एक प्रजाति) के वृक्षों के नाम पर इसे सुंदरबन कहा जाता है। इसका एक बड़ा क्षेत्र बांग्लादेश में है।
पिछले 2000 सालों के विकासक्रम से गुजर चुके सुंदरवन मैंग्रोव क्षेत्र में पशु-पक्षियों की अनेकों प्रजातियों को आसरा मिला हुआ है। इसे 1973 में टाइगर रिजर्व के रूप में घोषित कर दिया गया था और 1984 में इसे सुंदरवन राष्ट्रीय उद्यान बनाया गया। 1997 में इसे यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर का दर्जा दिया गया।
घटती तादाद पर चिंता : सुंदरबन के बाघों की घटती तादाद पर 'टाइगर कंसर्वेशन लैंडस्केप ऑफ ग्लोबल प्रायोरिटी' के एक विस्तृत अध्ययन पर आधारित रिपोर्ट बनाई जा रही है। इस अध्ययन का मकसद है मैंग्रोव जंगलों में बाघों की विकास-प्रक्रिया को समझना, उनकी संख्या की सही जानकारी तथा बाघों और मनुष्यों के बीच लगातार बढ़ती मुठभेड़ों के कारणों को पता करना। इसका एक और मकसद यह भी पता लगाना है कि सुंदरबन के अस्तित्व के लिए बाघों का होना कितना जरूरी है।
हाल के वर्षों में सुंदरबन में बाघों द्वारा लोगों पर हमले की घटनाओं में अचानक इजाफा हुआ है। अमूमन हर साल 15-20 से अधिक ऐसी घटनाएँ दर्ज की जाती हैं जिनमें से कुछ में ही भाग्यशाली मनुष्य जिंदा बच पाते हैं। दूरस्थ इलाकों की घटनाएँ तो अकसर पता ही नहीं चल पातीं या लोग इन्हें दर्ज नहीं करवाते। दरअसल सुंदरबन का बहुत-सा क्षेत्र लोगों के लिए प्रतिबंधित है, पर मछुआरे और लकड़ी तथा शहद बटोरने वाले अकसर चोरी-छिपे इन जंगलों में घुस जाते हैं।
यह क्षेत्र जो कि रिजर्व का बफर जोन है, दरअसल टाइगर टेरिटरी होता है। आमतौर पर हर बाघ अपने इलाके अपने मूत्र या मल से चिह्नित करते हैं, पर सुंदरबन में हर रोज आने वाले ज्वार व इस क्षेत्र में अकसर होने वाली भारी बरसात इन निशानों को धो देती है जिस वजह से यहाँ बाघ अपना क्षेत्र चिह्नित नहीं कर पाते और अकसर भटकते हुए मानव बस्ती या जंगल के किनारे रहने वालों के पास पहुँच जाते हैं।
आतंक के प्रतीक : बताया जाता है कि सुंदरबन के लगभग पाँच प्रतिशत बाघ आदमखोर हैं। यह अनुमान उम्मीद से ज्यादा भी हो सकता है क्योकि पिछले दो सालों में प्रतिबंधित क्षेत्र में अवैध तरीके से लोगों की घुसपैठ बढ़ी है। इसका एक कारण यह भी है कि अंडमान-निकोबार में आई सुनामी के बाद काफी बड़े स्तर पर निर्माण कार्य जारी था जिसमें बड़ी संख्या में सुंदरबन के लोगो को वहाँ रोजगार मिला था पर काम के पूरे होने के बाद लोग वापस अपने क्षेत्रों में लौट आए हैं और रोजी-रोटी की तलाश में प्रतिस्पर्धा के चलते बहुत से लोग प्रतिबंधित क्षेत्रों में जाने से भी गुरेज नहीं करते हैं। गैरसरकारी आँकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि पिछले साल कुल 50 से अधिक लोग बाघ के हमलों में मारे गए व ज्यादातर हमले उत्तर-पश्चिम में हुए जो कि 1225 वर्ग किलोमीटर में फैले बफर जोन में आता हैं।
प. बंगाल सरकार द्वारा हर साल 40 हजार से ज्यादा लोगो को जंगल से शहद व वनोपज एकत्र करने, मछली पकड़ने का परमिट दिया जाता है, पर पैसा कमाने के लालच में हजारों लोग अवैध रूप से इन जंगलों और तटों पर वनोपज इकट्ठा करने व मछली पकड़ने जाते हैं।इसकी और भी कई वजहें हैं जैसे अधिकतर हमले अप्रैल-मई में हुए हैं जब मैंगोव के खिलने का समय होता है और लोग शहद एकत्र करने जंगल में जाते हैं, पर इसी मौसम में बाघिन अपने बच्चों को जन्म देती है और अत्यधिक खतरनाक होती है। इसी वजह से कई बार बाघों द्वारा मारे गए व्यक्ति की बिना खाई लाश मिलती है, वे सिर्फ मारने के लिए हमला करते हैं खाने के लिए नहीं। वन्यजीव विशेषज्ञ बताते हैं कि अधिकतर मामलों में मनुष्य को मारने वाली बाघिन अपने शावक को भी आदमखोर बना सकती है।
प्राकृतिक कारण : अकेले रहने के आदी बाघ अपने क्षेत्र में घुसने वाले किसी भी प्राणी को बरदाश्त नहीं करते और एक बार मनुष्य को मारने के बाद उन्हें वह अपने प्राकृतिक शिकारों जंगली सूअर और हिरन की बनिस्बत काफी आसान शिकार लगता है। इसी वजह से उम्रदराज बाघ खासतौर पर आदमखोर होते पाए गए हैं। समुद्री जलस्तर के बढ़ने से मैंग्रोव में मिलने वाले अपने प्राकृतिक आहार में आई कमी से भी बाघों के भोजन स्त्रोत पर काफी असर पड़ा है। अपने घटते भोजन से बाघ भी अब मानव बस्तियों तथा गाय-भैंस जैसे आसान शिकार की ओर ज्यादा आकर्षित होने लगे हैं।
बेबस जनता : बरसों से उपेक्षित, घोर गरीबी व अशिक्षा के कारण भारत के इस मुहाने के लोग अल्पतम साधनों से बसर करते हैं। इनकी जीविका का मुख्य साधन गाय-भैंस व भेड़-बकरियाँ हैं जिन्हें चरने के लिए जंगल के किनारे छोड़ दिया जाता है जो बाघ के लिए आसान शिकार हैं। अपने क्षेत्र को चिह्नित करने में असमर्थ बाघ कई बार भटकते हुए जंगल के किनारे पहुँच जाते हैं और अगर एक बार उन्होंने इन घरेलू जानवरों का शिकार कर लिया तो फिर मनुष्य पर उनके हमले की संभावना बढ़ जाती है।
विलक्षण व्यवहार : आमतौर पर वन्यपशु इनसानों से डरते हैं और उनका सामना करने से बचते हैं पर यहाँ के बाघों के बारे में कहा जाता है कि वे बहुत ही अधिक खूँखार हैं। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार कई बार बाघ बीच नदी में मछली पकड़ते मछुआरों को उनकी नौकाओं तक से खींच ले गए हैं, उनका इस कदर ताकतवर होना इसलिए भी लाजमी है कि इन्हें शिकार अकसर दलदली क्षेत्र में करना पड़ता है जिसमें बहुत ताकत की आवश्यकता होती है। सुंदरबन में ताजे पानी के स्रोत बहुत ही कम हैं और बाघों को अकसर खारा पानी पीना पड़ता है जो शायद उनके इस खूँखार व्यवहार का कारण है। पर उनके इस व्यवहार के चलते ही लोग इन जंगलों में जाते डरते हैं और इस विलक्षण प्राणी को बाघादेव मान पूजते हैं, इस वजह से अब तक सुंदरबन मानव गतिविधियों से काफी हद तक अछूता रहा है।
आमने-सामने : पर अब हालात बिगड़ रहे हैं। प. बंगाल सरकार द्वारा हर साल 40 हजार से ज्यादा लोगो को जंगल से शहद व वनोपज एकत्र करने, मछली पकड़ने का परमिट दिया जाता है, पर पैसा कमाने के लालच में हजारों लोग अवैध रूप से इन जंगलों और तटों पर वनोपज इकट्ठा करने व मछली पकड़ने जाते हैं।
इसी तरह कई गाँव जैसे शमशेरनगर, कालीताला, कुलताली तथा झारखाली ठीक जंगल के किनारे पर बस गए हैं। कुछ गाँवों की दूरी तो घने जंगल से बस इतनी ही है जितनी बाघ एक छ्लाँग में पार कर ले। यह नजदीकियाँ अब बाघ व मनुष्य दोनों के लिए मुसीबतें ला रही हैं और बढ़ते टकराव के नतीजे में अब लोग ‘बाघादेव’ के खिलाफ लामबंद होने लगे हैं जिसके कारण अब बाघों की भी जान जाने लगी है।
इनसान और जानवर की इस लड़ाई में नुकसान जो भी हो, एक बात तो साफ है कि जंगल और बाघ का रिश्ता ठीक वैसा ही है जैसे जंगल और वर्षा का। दोनों में से एक का भी अनुपात बिगड़े तो पूरे पारिस्थिति तंत्र पर असर पड़ना तय है।
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