चिड़िया हमारे पर्यावरण की थर्मामीटर जैसी हैं। उनकी सेहत ,उनकी खुशी बताती हैकि जिस माहौल में हमरह रहे हैं , वह कैसा है।प्रदूषित हवा से होनेवाली तेजाबी बारिश काअसर हमारी जिंदगी मेंदेर से जाहिर होता है ,लेकिन इससे चिड़ियों केअंडे पतले पड़ने लगते हैंऔर उनकी आबादी घटने लगती है। मोबाइल फोन से निकलनेवाली तरंगें इंसान पर क्या प्रभाव छोड़ती हैं , इस पर रिसर्चअभी चल ही रही है। लेकिन गौरैया , श्यामा और अबाबील जैसीछोटी चिडि़यों को इनसे होने वाले नुकसान पर वैज्ञानिक अपनीमुहर लगा चुके हैं। एक समय था जब चिड़ियां हमारे जीवन काहिस्सा थीं , लेकिन आज वे हमसे काफी दूर चली गई हैं। उनसेदोबारा रिश्ता बनाना हमारी पर्यावरण चेतना का अहम हिस्साहोना चाहिए।
कुछ छोटी छोटी बातों से शुरू करें। मसलन , किताबों में पढ़कर यह राय बना ली गई है कि सबेरे सबसे पहले मुर्गा जागताहै और उसके बांग देने से बाकी सबकी नींद टूटती है। लेकिनगांवों में सबेरे उठने वाले लोग मुर्गे की नहीं , कौए की आवाजपर उठते हैं। कौओं का घोसला पेड़ पर बाकी सारी चिड़ियों सेऊपर होता है और भोर की रोशनी सबसे पहले उसी तक पहुंचतीहै। सुबह -सुबह बोलने वाली चिड़िया का नाम भुजंगा है ,जिसकी बोली की व्याख्या लोग अपनी - अपनी रुचि के अनुसारकरते हैं। कोई कहता है कि वह सी .. त्ताराम बोल रहा है तोकिसी को इसमें ठा….कुरजी सुनाई पड़ता है।
शहरों में लोगों की नींद न कौओं की कांव - कांव से खुलती है ,न मुर्गे की कुकडूं - कूं से। अलबत्ता सुबह घर का दरवाजाखुलते ही कबूतरों के जोड़े खिड़कियों के छज्जों और बालकनी केबारजों पर एक - दूसरे की पांखें खुजाते जरूर नजर आ जातेहैं। गांवों में कबूतरों की आमदरफ्त पता नहीं क्यों आज भीकाफी कम है , हालांकि ज्यादातर मामलों में अब शहरों औरगांवों के बीच का फर्क मिट चला है।
कौओं को पक्षियों में सबसे चालाक माना जाता रहा है।वैज्ञानिकों की राय भी यही है कि परिस्थिति के अनुरूप खुद कोढालने की क्षमता उनमें बाकी सभी चिड़ियों से ज्यादा है। लेकिनतेज शहरीकरण के बीच खुद को बचा ले जाने में कौए कबूतरोंसे काफी पीछे छूट चुके हैं। उनकी सबसे बड़ी मुश्किल यह हैकि कबूतरों की तरह वे इंसानों पर भरोसा नहीं कर पाते।घोसला बनाने में ये दोनों चिड़ियां एक ही जैसी बेतरतीब हैं। दो- चार टहनियां , दस - बीस तिनके , और बन गया घोसला।लेकिन कौए हर हाल में अपने घोसले पेड़ों पर ही बनाते हैं औरसबसे ऊपर की जगह पाने की कोशिश में अक्सर चीलों के साथलड़ते नजर आते हैं।
कुछ साल पहले तक गांवों और शहरों में एक सी नजर आनेवाली गौरैया आंगन की चिड़िया मानी जाती थी। कच्चे घरों कीभीतरी दीवार के किसी छेद में जैसा - तैसा घोसला और चलतेहुए सूप तक से चावल बीन कर खा जाने की ढिठाई। लेकिनवही गौरैया आजकल भारत के संरक्षण योग्य प्राणियों में गिनीजानी लगी है। शहरों में उसकी जाति नष्ट हो जाने का खतराबताया जा रहा है क्योंकि यहां अब उसे न तो कहीं घोसलाबनाने की जगह मिलती है , न ही खाने को कोई दाना।
इधर कुछ लोगों ने अपने घरों के बाहर लकड़ी के घोसले ठोंकनेशुरू कर दिए हैं , जिसके नतीजे अच्छे आ रहे हैं। छोटी होने केबावजूद गौरैया एक जीवट वाली चिड़िया है और वह अपने बचनेका कोई न कोई रास्ता खोज लेगी। किलहँटी और पंडूक हमारेइर्द - गिर्द हमेशा मौजूद रहने वाली ऐसी चिड़ियां हैं , जिन परलेखकों की कृपा सबसे कम हुई है। किलहँटी यानी जंगली मैनागर्मियों में अपनी पीली चोंच लगभग पूरी खोले हर कहीं नजरआती है।
शाम के वक्त जब किसी घने बरगद के पेड़ पर इनके झुंड जमाहोते हैं तो शोर मचा - मचा कर आसमान सिर पर उठा लेते हैं।पंडूक को कुमाऊंनी - गढ़वाली में घुघूती और उर्दू में फाख्ताकहते हैं। गर्मियों की दोपहर के आलस भरे माहौल में स्थिर लयके साथ लगातार चलने वाला इनका एकरस सुर पहाड़ी लोककवियों को विरहिणी के दुख की याद दिलाता रहा है। इधर -उधर फुदकती रहने वाली झगड़ालू चिड़िया सिर्फ अपने न्यूसेंसवैल्यू के लिए जानी जाती है और इसे आमफहम शब्दावली मेंअभी तक अपना कोई अलग नाम भी नहीं मिल पाया है।
मुर्गा - मुर्गी , कुछेक कबूतर और तोता - मैना पालतू चिडि़योंकी श्रेणी में आते हैं। जब तक शहरों में मोहल्लेदारी बची थीतब तक छतों पर लगे बांस के अड्डों पर पलने वाले कबूतरअपने मालिकों के बीच होड़ का सबब बने रहते थे। पिंजड़ों मेंबंद तोते - मैना पड़ोसियों के बीच सौहार्द का जरिया होते थे ,और मुर्गे - मुर्गियां अक्सर आपसी कलह के। लेकिन जब सेकॉलोनियां शहरों की पहचान बनी हैं और परिवार पति - पत्नीऔर बच्चों तक सिमट गए हैं तब से समाज में पालतू पक्षियोंकी जगह काफी कम हो गई है।
गांवों में तोतों की पहचान शोर मचाने वाले और झुंड में चलनेवाले पक्षियों की है। इनके झुंड को डार कहते हैं - देखो , तोतोंकी डार उतर रही है। मकई के भुट्टे बर्बाद करने में इनका कोईसानी नहीं है और इनसे अपने आम - अमरूद बचाने में भीखासी मशक्कत करनी पड़ती है।
घर से थोड़ा दूर रहने वाले पक्षियों में मोर , कठफोड़वा , बुलबुल, नीलकंठ , बया , टिटिहरी , बनमुर्गी , बत्तख , बगुला औरकौडि़न्ना यानी किंगफिशर का किसान जीवन में काफी दखल है।इनमें पहले पांच का गुजारा खेतों और पेड़ों पर होता है जबकिबाद के चार ताल - पोखरों यानी वेटलैंड्स पर निर्भर करते हैं।
बीच में पड़ने वाली टिटिहरी वेटलैंड्स के करीब रहती है लेकिनअंडे सूखी जमीन पर देती है। उल्लू के अलावा यह अकेलीचिडि़या है , जिसकी आवाज पूरी रात सुनाई देती है। ज्यादातरशहरी बच्चों का परिचय इनमें सिर्फ मोर से है , वह भीचिड़ियाघरों में। लेकिन मोर देखने का मजा तब है जब उसेबादलों के मौसम में खुले खेत में देखा जाए।
कुछ खास मौसमों में नजर आने वाले माइग्रैंट पक्षियों को अपनेयहां कुछ ज्यादा ही इज्जत हासिल रही है। कोयल , पपीहा ,खंजन , दोयल और श्यामा यानी हमिंग बर्ड जाड़ा बीतने केसाथ अचानक दिखने लगते हैं , या पेड़ों से उनका गाना सुनाईदेने लगता है। सारस और जांघिल जैसे विशाल माइग्रैंट पक्षी भीसुबह - शाम अपने परफेक्ट फॉर्मेशन में जोर - जोर से कें - केंकरते हुए अपनी लंबी यात्रा पर निकले दिखाई देते हैं। गहरेतालों में कभी - कभी इन्हें बसेरा करते हुए भी देखा जा सकताहै।
हम नहीं जानते कि इनमें से कौन - कौन से पक्षी किन - किनखतरों का सामना कर रहे हैं और दस - बीस साल बाद इन्हेंदेखने का मौका भी हमें मिलेगा या नहीं। इसलिए इनसेनजदीकी बनाने का , इनकी मदद करने का एक भी मौका हमेंखोना नहीं चाहिए।
कुछ छोटी छोटी बातों से शुरू करें। मसलन , किताबों में पढ़कर यह राय बना ली गई है कि सबेरे सबसे पहले मुर्गा जागताहै और उसके बांग देने से बाकी सबकी नींद टूटती है। लेकिनगांवों में सबेरे उठने वाले लोग मुर्गे की नहीं , कौए की आवाजपर उठते हैं। कौओं का घोसला पेड़ पर बाकी सारी चिड़ियों सेऊपर होता है और भोर की रोशनी सबसे पहले उसी तक पहुंचतीहै। सुबह -सुबह बोलने वाली चिड़िया का नाम भुजंगा है ,जिसकी बोली की व्याख्या लोग अपनी - अपनी रुचि के अनुसारकरते हैं। कोई कहता है कि वह सी .. त्ताराम बोल रहा है तोकिसी को इसमें ठा….कुरजी सुनाई पड़ता है।
शहरों में लोगों की नींद न कौओं की कांव - कांव से खुलती है ,न मुर्गे की कुकडूं - कूं से। अलबत्ता सुबह घर का दरवाजाखुलते ही कबूतरों के जोड़े खिड़कियों के छज्जों और बालकनी केबारजों पर एक - दूसरे की पांखें खुजाते जरूर नजर आ जातेहैं। गांवों में कबूतरों की आमदरफ्त पता नहीं क्यों आज भीकाफी कम है , हालांकि ज्यादातर मामलों में अब शहरों औरगांवों के बीच का फर्क मिट चला है।
कौओं को पक्षियों में सबसे चालाक माना जाता रहा है।वैज्ञानिकों की राय भी यही है कि परिस्थिति के अनुरूप खुद कोढालने की क्षमता उनमें बाकी सभी चिड़ियों से ज्यादा है। लेकिनतेज शहरीकरण के बीच खुद को बचा ले जाने में कौए कबूतरोंसे काफी पीछे छूट चुके हैं। उनकी सबसे बड़ी मुश्किल यह हैकि कबूतरों की तरह वे इंसानों पर भरोसा नहीं कर पाते।घोसला बनाने में ये दोनों चिड़ियां एक ही जैसी बेतरतीब हैं। दो- चार टहनियां , दस - बीस तिनके , और बन गया घोसला।लेकिन कौए हर हाल में अपने घोसले पेड़ों पर ही बनाते हैं औरसबसे ऊपर की जगह पाने की कोशिश में अक्सर चीलों के साथलड़ते नजर आते हैं।
कुछ साल पहले तक गांवों और शहरों में एक सी नजर आनेवाली गौरैया आंगन की चिड़िया मानी जाती थी। कच्चे घरों कीभीतरी दीवार के किसी छेद में जैसा - तैसा घोसला और चलतेहुए सूप तक से चावल बीन कर खा जाने की ढिठाई। लेकिनवही गौरैया आजकल भारत के संरक्षण योग्य प्राणियों में गिनीजानी लगी है। शहरों में उसकी जाति नष्ट हो जाने का खतराबताया जा रहा है क्योंकि यहां अब उसे न तो कहीं घोसलाबनाने की जगह मिलती है , न ही खाने को कोई दाना।
इधर कुछ लोगों ने अपने घरों के बाहर लकड़ी के घोसले ठोंकनेशुरू कर दिए हैं , जिसके नतीजे अच्छे आ रहे हैं। छोटी होने केबावजूद गौरैया एक जीवट वाली चिड़िया है और वह अपने बचनेका कोई न कोई रास्ता खोज लेगी। किलहँटी और पंडूक हमारेइर्द - गिर्द हमेशा मौजूद रहने वाली ऐसी चिड़ियां हैं , जिन परलेखकों की कृपा सबसे कम हुई है। किलहँटी यानी जंगली मैनागर्मियों में अपनी पीली चोंच लगभग पूरी खोले हर कहीं नजरआती है।
शाम के वक्त जब किसी घने बरगद के पेड़ पर इनके झुंड जमाहोते हैं तो शोर मचा - मचा कर आसमान सिर पर उठा लेते हैं।पंडूक को कुमाऊंनी - गढ़वाली में घुघूती और उर्दू में फाख्ताकहते हैं। गर्मियों की दोपहर के आलस भरे माहौल में स्थिर लयके साथ लगातार चलने वाला इनका एकरस सुर पहाड़ी लोककवियों को विरहिणी के दुख की याद दिलाता रहा है। इधर -उधर फुदकती रहने वाली झगड़ालू चिड़िया सिर्फ अपने न्यूसेंसवैल्यू के लिए जानी जाती है और इसे आमफहम शब्दावली मेंअभी तक अपना कोई अलग नाम भी नहीं मिल पाया है।
मुर्गा - मुर्गी , कुछेक कबूतर और तोता - मैना पालतू चिडि़योंकी श्रेणी में आते हैं। जब तक शहरों में मोहल्लेदारी बची थीतब तक छतों पर लगे बांस के अड्डों पर पलने वाले कबूतरअपने मालिकों के बीच होड़ का सबब बने रहते थे। पिंजड़ों मेंबंद तोते - मैना पड़ोसियों के बीच सौहार्द का जरिया होते थे ,और मुर्गे - मुर्गियां अक्सर आपसी कलह के। लेकिन जब सेकॉलोनियां शहरों की पहचान बनी हैं और परिवार पति - पत्नीऔर बच्चों तक सिमट गए हैं तब से समाज में पालतू पक्षियोंकी जगह काफी कम हो गई है।
गांवों में तोतों की पहचान शोर मचाने वाले और झुंड में चलनेवाले पक्षियों की है। इनके झुंड को डार कहते हैं - देखो , तोतोंकी डार उतर रही है। मकई के भुट्टे बर्बाद करने में इनका कोईसानी नहीं है और इनसे अपने आम - अमरूद बचाने में भीखासी मशक्कत करनी पड़ती है।
घर से थोड़ा दूर रहने वाले पक्षियों में मोर , कठफोड़वा , बुलबुल, नीलकंठ , बया , टिटिहरी , बनमुर्गी , बत्तख , बगुला औरकौडि़न्ना यानी किंगफिशर का किसान जीवन में काफी दखल है।इनमें पहले पांच का गुजारा खेतों और पेड़ों पर होता है जबकिबाद के चार ताल - पोखरों यानी वेटलैंड्स पर निर्भर करते हैं।
बीच में पड़ने वाली टिटिहरी वेटलैंड्स के करीब रहती है लेकिनअंडे सूखी जमीन पर देती है। उल्लू के अलावा यह अकेलीचिडि़या है , जिसकी आवाज पूरी रात सुनाई देती है। ज्यादातरशहरी बच्चों का परिचय इनमें सिर्फ मोर से है , वह भीचिड़ियाघरों में। लेकिन मोर देखने का मजा तब है जब उसेबादलों के मौसम में खुले खेत में देखा जाए।
कुछ खास मौसमों में नजर आने वाले माइग्रैंट पक्षियों को अपनेयहां कुछ ज्यादा ही इज्जत हासिल रही है। कोयल , पपीहा ,खंजन , दोयल और श्यामा यानी हमिंग बर्ड जाड़ा बीतने केसाथ अचानक दिखने लगते हैं , या पेड़ों से उनका गाना सुनाईदेने लगता है। सारस और जांघिल जैसे विशाल माइग्रैंट पक्षी भीसुबह - शाम अपने परफेक्ट फॉर्मेशन में जोर - जोर से कें - केंकरते हुए अपनी लंबी यात्रा पर निकले दिखाई देते हैं। गहरेतालों में कभी - कभी इन्हें बसेरा करते हुए भी देखा जा सकताहै।
हम नहीं जानते कि इनमें से कौन - कौन से पक्षी किन - किनखतरों का सामना कर रहे हैं और दस - बीस साल बाद इन्हेंदेखने का मौका भी हमें मिलेगा या नहीं। इसलिए इनसेनजदीकी बनाने का , इनकी मदद करने का एक भी मौका हमेंखोना नहीं चाहिए।
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