कोसी तटबन्धों के कुछ निर्माण स्थल ऐसे लोगों के लिए नियत कर दिये गये थे जहाँ मिट्टी डालने के लिए स्कूल-कॉलेज के छात्रों, शिक्षकों, ग्राम पंचायत के आम लोगों, युवक-युवतियों, महिलाओं तथा प्रबुद्ध नागरिकों का आह्नान किया जाता था। कोसी के पश्चिमी तटबन्ध पर निर्मली के पास भुतहा गाँव में एक किलोमीटर तटबन्ध की लम्बाई तथा पूर्वी तटबन्ध पर सुपौल के पास बैरिया गाँव में लगभग डेढ़ किलोमीटर लम्बा तटबन्ध श्रमदानियों के काम के लिए नियत किया गया था। देश के सारे कोनों से राष्ट्र निर्माण की इस मुहिम में नागरिकों ने भाग लिया था। संभ्रान्त परिवार की महिलाओं तक ने कोसी तटबन्ध पर कुदाल चला कर मिट्टी डाली थी। मिथिला के ब्राह्मणों ने यज्ञ करके, कौशिकी महात्म्य और दुर्गा सप्तशती का पाठ करने और कोसी की अर्चना-वन्दना के बाद 1955 में जानकी नवमी के दिन से मिट्टी काटी और तटबन्धों के निर्माण में योगदान किया।
भारत सेवक समाज ने जन-सहयोग के लिए केवल भारतीय भू-भाग में ही प्रयास नहीं किया। उसने नेपाल की कुछ संस्थाओं को भी इस पुनीत कार्य में हाथ बटाने के लिए प्रोत्साहित किया जिसके फलस्वरूप दो भूतपूर्व सैनिकों के संगठनों ने नेपाल में हनुमान नगर के पास श्रमदान में भाग लिया। इतना ही नहीं, राज्य जेल विभाग को तैयार कर के भारत सेवक समाज ने 300 सजायाफ्ता कैदियों को फॉरबिसगंज और पूर्णियाँ में नहर निर्माण के काम में लगाने में सफलता पाई थी। स्कूली बच्चों, ए.सी.सी. और एन.सी.सी. के कैडटों ने इस काम में हाथ बटाया और विदेशों से आये स्वयं सेवकों ने भी इस काम में सहयोग किया था। फ्रान्स की एक स्वयं सेवी संस्था सर्विस सिविल इन्टरनेशनल के कार्यकर्ताओं ने स्थानीय कार्यकर्ताओं को ट्रेनिंग देने का भी काम किया था।
यह ध्यान देने की बात है कि तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने 1934 के बिहार भूकम्प के राहत और पुनर्वास कार्यों में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और उस समय फ्रांस की इस संस्था के स्वयं सेवकों ने भी उनके साथ पुर्ननिर्माण में सहयोग किया था। जब कोसी योजना पर काम शुरू हुआ तो इस संस्था के कार्यकर्ता डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के निमंत्राण पर भारत आये थे। कुल मिला कर कोसी परियोजना के क्रियान्वयन के समय सभी का उत्साह अपने चरमोत्कर्ष पर था। शुद्ध श्रमदान के क्षेत्र में कोसी तटबन्धों पर काम करने के लिए सारे देश से श्रमदानियों का ताँता लगा रहता था। यह लोग अपने खर्चे से यहाँ आते और अपनी इच्छा और सामर्थ्य के अनुसार दो-चार-दस दिन रहते, अपना काम करते और वापस चले जाते थे।
सरकार की तरफ से इनके भोजन और आवास की व्यवस्था कर दी जाती थी मगर किसी तरह के पारिश्रमिक की कोई व्यवस्था नहीं थी। एक बार तो विद्यार्थी श्रमदानियों की संख्या इतनी बढ़ गई कि कोसी परियोजना अधिकारियों को समाचार पत्रों में विज्ञापन देना पड़ गया कि उनके पास केवल दस हजार श्रमदानियों को रखने की व्यवस्था है इसलिए बिना पूर्वानुमति के स्वंय सेवक श्रमदान के लिए न आयें। देखें- बॉक्स सहायक सैन्य दल के सैनिक ध्यान दें।
इतना जरूर था कि शुद्ध श्रमदान के इस काम में व्यवस्था पर सरकार का जितना खर्च हुआ उसके अनुपात में काम निबटाया नहीं जा सका क्योंकि शायद इस रूप से काम करने वाले लोग पेशेवर मिट्टी काटने वाले नहीं थे जिसके लिए सरकार और भारत सेवक समाज को आलोचना का भी सामना करना पड़ा। मगर इसके साथ यह भी सच था कि श्रमदानियों में जिस उत्साह, आत्म-विश्वास, राष्ट्रीय कार्य में सहयोग करने का संतोष तथा योजनाओं और सरकारी कार्यक्रमों से अपनापन की जो भावना पैदा हुई होगी, उसका मूल्यांकन पैसों में नहीं किया जा सकता और ‘ऐसी जागृति पैदा करने के लिए करोड़ों का भी मूल्य अधिक नहीं माना जा सकता’।
भारत सेवक समाज ने जन-सहयोग के लिए केवल भारतीय भू-भाग में ही प्रयास नहीं किया। उसने नेपाल की कुछ संस्थाओं को भी इस पुनीत कार्य में हाथ बटाने के लिए प्रोत्साहित किया जिसके फलस्वरूप दो भूतपूर्व सैनिकों के संगठनों ने नेपाल में हनुमान नगर के पास श्रमदान में भाग लिया। इतना ही नहीं, राज्य जेल विभाग को तैयार कर के भारत सेवक समाज ने 300 सजायाफ्ता कैदियों को फॉरबिसगंज और पूर्णियाँ में नहर निर्माण के काम में लगाने में सफलता पाई थी। स्कूली बच्चों, ए.सी.सी. और एन.सी.सी. के कैडटों ने इस काम में हाथ बटाया और विदेशों से आये स्वयं सेवकों ने भी इस काम में सहयोग किया था। फ्रान्स की एक स्वयं सेवी संस्था सर्विस सिविल इन्टरनेशनल के कार्यकर्ताओं ने स्थानीय कार्यकर्ताओं को ट्रेनिंग देने का भी काम किया था।
यह ध्यान देने की बात है कि तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने 1934 के बिहार भूकम्प के राहत और पुनर्वास कार्यों में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और उस समय फ्रांस की इस संस्था के स्वयं सेवकों ने भी उनके साथ पुर्ननिर्माण में सहयोग किया था। जब कोसी योजना पर काम शुरू हुआ तो इस संस्था के कार्यकर्ता डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के निमंत्राण पर भारत आये थे। कुल मिला कर कोसी परियोजना के क्रियान्वयन के समय सभी का उत्साह अपने चरमोत्कर्ष पर था। शुद्ध श्रमदान के क्षेत्र में कोसी तटबन्धों पर काम करने के लिए सारे देश से श्रमदानियों का ताँता लगा रहता था। यह लोग अपने खर्चे से यहाँ आते और अपनी इच्छा और सामर्थ्य के अनुसार दो-चार-दस दिन रहते, अपना काम करते और वापस चले जाते थे।
सरकार की तरफ से इनके भोजन और आवास की व्यवस्था कर दी जाती थी मगर किसी तरह के पारिश्रमिक की कोई व्यवस्था नहीं थी। एक बार तो विद्यार्थी श्रमदानियों की संख्या इतनी बढ़ गई कि कोसी परियोजना अधिकारियों को समाचार पत्रों में विज्ञापन देना पड़ गया कि उनके पास केवल दस हजार श्रमदानियों को रखने की व्यवस्था है इसलिए बिना पूर्वानुमति के स्वंय सेवक श्रमदान के लिए न आयें। देखें- बॉक्स सहायक सैन्य दल के सैनिक ध्यान दें।
इतना जरूर था कि शुद्ध श्रमदान के इस काम में व्यवस्था पर सरकार का जितना खर्च हुआ उसके अनुपात में काम निबटाया नहीं जा सका क्योंकि शायद इस रूप से काम करने वाले लोग पेशेवर मिट्टी काटने वाले नहीं थे जिसके लिए सरकार और भारत सेवक समाज को आलोचना का भी सामना करना पड़ा। मगर इसके साथ यह भी सच था कि श्रमदानियों में जिस उत्साह, आत्म-विश्वास, राष्ट्रीय कार्य में सहयोग करने का संतोष तथा योजनाओं और सरकारी कार्यक्रमों से अपनापन की जो भावना पैदा हुई होगी, उसका मूल्यांकन पैसों में नहीं किया जा सकता और ‘ऐसी जागृति पैदा करने के लिए करोड़ों का भी मूल्य अधिक नहीं माना जा सकता’।
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