ग्रामीण विकास मंत्रालय ग्राम पंचायत के स्तर पर स्वच्छता से जुड़े मुद्दे के कार्यान्वयन पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। ग्रामीण स्वास्थ्य सुरक्षा के साथ ही लोगों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने की दिशा में कई कल्याणकारी योजनाएं चलाई जा रही हैं। ग्रामीण इलाकों में इन योजनाओं का असर भी दिखने लगा है। गांवों में साफ-सफाई व्यवस्था में सुधार हआ है तो लोगों को पीने के लिए शुद्ध पानी मिलने लगा है।केंद्र सरकार की हमेशा से कोशिश रही है कि ग्रामीण भारत स्वच्छ एवं स्वस्थ हो। इसके तहत ग्रामीण विकास मंत्रालय के जरिए गांवों को संवारने की दिशा में प्रयास किया जा रहा है। केंद्र सरकार ने भारत निर्माण योजना के तहत 2012 तक देश के सभी जिलों में शुद्ध पेयजल आपूर्ति का लक्ष्य निर्धारित किया और उसे हकीकत में बदल कर ग्रामीण जनजीवन को राहत देने के काम में जुटी हुई है। ग्रामीण इलाके में पक्की नालियां, पीने के लिए शुद्ध पेयजल एवं साफ-सफाई व्यवस्था को बखूबी देखा जा सकता है। बस्तियों के बीच पक्की नालियों का निर्माण होने से गंगा पानी बस्तियों में फैलने के बजाय सीधे गांव से बाहर निकल जाता है। इससे कई तरह के फायदे हो रहे हैं। एक तो गलियों में प्रदूषण नहीं फैलता। लोगों को गंदे पानी में से होकर नहीं आना-जाना पड़ता। दूसरी तरफ गंदा पानी हमारे पेयजल स्रोत को प्रभावित नहीं करता है। सरकार की पहल पर ग्राम पंचायत स्तर पर स्वास्थ्य एवं साफ-सफाई निगरानी समितियों का गठन किया गया है। ये समितियां ग्रामीण स्वास्थ्य एवं सफाई व्यवस्था सुधार में अहम भूमिका निभा रही हैं। इन समितियों की बदौलत ग्रामीण भारत की स्थिति में काफी सुधार हुआ है।
सरकार की हमेशा कोशिश रही है कि वह ग्रामीणों के स्वास्थ्य की देखभाल करे। इसी के तहत ग्रामीण इलाके में स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ाया जा रहा है तो दूसरी तरफ समय-समय पर सर्वे करके स्वास्थ्य को प्रभावित होने वाले कारकों के बारे में भी जानकारी ली जाती है। सर्वे रिपोर्ट के आधार पर ही केंद्र सरकार अपनी योजना बनाती है और शत-प्रतिशत लक्ष्य हासिल करने की कोशिश करती है। यह कोशिश ग्रामीण भारत के विकास में अहम भूमिका निभा रही है।
वर्ष 2011 में किए गए एक सर्वे में पाया गया कि बिहार के 18,431 गांव ऐसे हैं जहां शुद्ध पेयजल आपूर्ति नहीं है। इसमें से 1112 गांव आर्सेनिक और 3339 गांव फ्लोराइड तथा 13,980 गांव आयरन की अधिकता से प्रभावित मिले। असम में बिहार से अधिक आर्सेनिक से प्रभावित गांव पाए गए। उड़ीसा में आर्सेनिक प्रभावित गांव तो 475 ही हैं पर आयरन की अधिकता वाले गांवों की संख्या 13,216 पाई गई। इसी तरह राजस्थान के 10,059 गांव फ्लोराइड और 20,795 गांव नमक की अधिकता से प्रभावित पाए गए। इन सभी गांवों में अभियान के तहत शुद्ध पानी उपलब्ध कराने की कवायद की जा रही है। इन गांवों में पेयजल के दूसरे स्रोत भी विकसित किए गए ताकि लोगों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध हो सके।
ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड के मुताबिक एक लीटर पानी में 0.05 मिलीग्राम आर्सेनिक तक किसी तरह की दिक्कत नहीं होती है, लेकिन इससे अधिक होने पर मानव जीवन के लिए नुकसानदायक होता है। आर्सेनिक की अधिकता वाले पानी को पेयजल में इस्तेमाल किए जाने से त्वचा, खून और फेफड़े के कैंसर तथा बच्चों में कार्डियो वैस्कुलर सिस्टम प्रभावित होता है। फ्लोराइड की अधिकता से दांत और हड्डियों की बीमारी होती है। इसे ध्यान में रखते हुए सरकार की कोशिश है कि लोगों को शुद्ध पानी उपलब्ध कराया जाए ताकि वे विभिन्न बीमारियों से प्रभावित न हो।
आम बजट में वित्तमंत्री ने शुद्ध पेयजल और स्वच्छता के मद में 27 फीसदी से अधिक की वृद्धि की है। इस मद में कुल 14 हजार करोड़ रुपये का इंतजाम किया गया है। पिछली बार यह बजट 11 हजार करोड़ रुपये का था। इससे साबित होता है कि केंद्र सरकार ग्रामीण पेयजल एवं स्वच्छता के मुद्दे पर काफी गंभीर है। इतना ही नहीं केंद्र सरकार इस वर्ष वार्षिक बजट में स्वच्छता परियोजनाओं के लिए 40 प्रतिशत वृद्धि पर गंभीरतापूर्वक विचार कर रही है।
विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में करीब साठ फीसदी बीमारियों की मूल वजह जल प्रदूषण है। जल प्रदूषण का मुख्य कारण मानव या जानवरों की जैविक या फिर औद्योगिक क्रियाओं के फलस्वरूप पैदा हुए प्रदूषकों को बिना किसी समुचित उपचार के सीधे जलधाराओं में विसर्जित कर दिया जाना है।केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री श्री जयराम रमेश ने पिछले दिनों कहा था कि निर्मल भारत अभियान नामक एक देशव्यापी स्वच्छता अभियान शुरू किया जाएगा। उन्होंने कहा था कि सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में व्यक्तिगत शौचालयों के निर्माण के लिए अनुदान राशि को 3000 रुपये से बढ़ाकर 7 से 8 हजार रुपये करने पर विचार कर रही है। निश्चित रूप से इससे ग्रामीण स्वच्छता अभियान को बल मिलेगा।
पानी की खराब गुणवत्ता से निपटने के लिए सरकार ने वरीयता क्रम में आर्सेनिक और फ्लोराइड प्रभावित बस्तियों को ऊपर रखा है। इन बस्तियों में समय-समय पर आर्सेनिक एवं फ्लोराइड की जांच की जा रही है। ग्रामीणों को इस बात के लिए भी जागरूक भी किया जा रहा है कि वे शुद्ध जल का ग्रहण कैसे करें। तमाम इलाके में इस संबंध में प्रशिक्षण कार्यक्रम भी आयोजित किए गए। ताकि लोगों को शुद्ध जल मिल सके।
इसी तरह लोहे, खारेपन, नाइट्रेट और अन्य तत्वों से प्रभावित पानी की समस्या से निपटने का भी लक्ष्य बनाया गया है। इन तत्वों से प्रभावित होने वाले इलाके में भी सरकार की ओर से विशेष अभियान चलाया जाता है। इस अभियान के जरिए न सिर्फ ग्रामीणों को जागरूक किया जाता है बल्कि वे किस तरह से इस समस्या से निजात पाते हुए शुद्ध जल हासिल कर सकते हैं इसके लिए भी प्रशिक्षण दिया जाता है।
एक बार जिन बस्तियों को पेयजल आपूर्ति की उपलब्धता सुनिश्चित की जा चुकी है उन्हें पुनः ऐसी समस्या का सामना न करना पड़े इसके लिए जल स्रोतों के संरक्षण को विशेष महत्व दिया गया है। ग्रामीणों को बताया जाता है कि वे किस तरह से पेयजल एवं पर्यावरण को शुद्ध रख सकते हैँ।
पर्यावरण संबंधी तमाम अध्ययन इस बात की गवाही दे रहे हैं कि देश में जल प्रदूषण के खतरे दिनोंदिन भयावह होते जा रहे हैं। इसके लिए बार-बार चेतावनी भी दी जा रही है। इस चेतावनी के मद्देनजर भी सरकार शुद्ध एवं स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने की दिशा में प्रयासरत है। कुछ दिन पहले नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने भी इस बारे में आगाह किया है कि ग्रामीणों को शुद्ध पेयजल एवं स्वच्छता के प्रति जागरूक करके तमाम समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।
सरकार को भेजी गई रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि ग्रामीण शुद्ध पेयजल ग्रहण करें एवं स्वच्छता का पूरा ध्यान रखें तो तमाम बीमारियों को दूर किया जा सकता है। इससे मृत्यु दर में ही कमी नहीं आएगी बल्कि ग्रामीणों के जीवन-स्तर में भी उत्तरोत्तर वृद्धि होगी क्योंकि विभिन्न प्रकार के रासायनिक खादों और कीटनाशकों के व्यापक इस्तेमाल ने खेतों को इस हालत में पहुंचा दिया है कि उनसे होकर रिसने वाला बरसात का पानी जहरीले रसायनों को नदियों में पहुंचा देता है।
भूजल के गिरते स्तर और उसकी गुणवत्ता में कमी को लेकर कई अध्ययन सामने आ चुके हैं जिसमें कहा गया है कि देश में चौदह बड़ी, पचपन लघु और कई सौ छोटी नदियों में मल-जल और औद्योगिक कचरा लाखों लीटर पानी के साथ छोड़े जाते हैं। जाहिर है कि यह कचरा किसी न किसी रूप में पानी के जरिए हमें प्रभावित करता है।
एक अध्ययन के मुताबिक बीस राज्यों की सात करोड़ आबादी फ्लोराइड और एक करोड़ लोग सतह के जल में आर्सेनिक की अधिक मात्रा घुल जाने के खतरों से जूझ रहे हैं। इसके अलावा, सुरक्षित पेयजल कार्यक्रम के तहत सतह के जल में क्लोराइड, टीडीसी, नाइट्रेट की अधिकता भी बड़ी बाधा बनी हुई है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में करीब साठ फीसदी बीमारियों की मूल वजह जल प्रदूषण है। जल प्रदूषण का मुख्य कारण मानव या जानवरों की जैविक या फिर औद्योगिक क्रियाओं के फलस्वरूप पैदा हुए प्रदूषकों को बिना किसी समुचित उपचार के सीधे जलधाराओं में विसर्जित कर दिया जाना है।
हालांकि प्राकृतिक कारणों से भी जल की गुणवत्ता प्रभावित होती है लेकिन अपशिष्ट उपचार संयंत्र के बगैर फैक्ट्रियों से निकलने वाले अवशिष्ट का पानी में मिलना सबसे बड़ा कारण है। ये रासायनिक तत्व पानी में मिलकर मानव या जानवरों में जलजनित बीमारियां पैदा करते हैं। कैल्शियम, मैग्नीशियम, सोडियम, पोटेशियम, आयरन, मैग्नीज की अधिकता और क्लोराइड, सल्फेट, कार्बोनेट, बाई-कार्बोनेट, हाइड्राक्साइड, नाइट्रेट की कमी के साथ ही ऑक्साइड, तेल, फिनोल, वसा, ग्रीस, मोम, घुलनशील गैसें (आक्सीजन, कार्बन-डाइ-आक्साइड, नाइट्रोजन) आदि जल की वास्तविकता को प्रभावित करते हैं। जल प्रदूषण से बचने के लिए समय-समय पर नियम-कानून भी बनाए गए, लेकिन जिस अनुपात में जल प्रदूषण बढ़ रहा है, ये नियम कानून कारगर साबित नहीं हो पा रहे हैं।
गांवों और बस्तियों में पेयजल सुरक्षा स्तर बहाली के लिए वर्षा जल, सतही जल तथा भूगर्भीय जल के उचित उपयोग की व्यवस्था करना समय की मांग है।हमारे देश में नदी अधिनियम द्वारा जल प्रदूषण पर व्यवस्थित तरीके से नियंत्रण स्थापित किया गया। इसके बाद प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम 1984 बना लेकिन ये कानून पूरी तरह से जल प्रदूषण रोकने में कारगर साबित नहीं हो पा रहे हैं। ऐसी स्थिति में आम आदमी को जागरूक किए जाने की जरूरत महसूस हो रही है। जागरूकता के दम पर इस बड़ी समस्या का समाधान किया जा सकता है। गांवों और बस्तियों में पेयजल सुरक्षा स्तर बहाली के लिए वर्षा जल, सतही जल तथा भूगर्भीय जल के उचित उपयोग की व्यवस्था करना समय की मांग है।
गांवों में पेयजल उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए प्रबंधन, कार्यान्वयन और मरम्मत की ग्रामीण-स्तर पर विकेंद्रीकृत मांग आधारित और समुदाय प्रबंधित योजना के तहत स्वजलधारा प्रारंभ की गई है। इतना ही नहीं सरकार ने इस दिशा में गंभीरता दिखाते हुए पेयजल में सामुदायिक भागीदारी को और बढ़ाने तथा मजबूत बनाने के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल गुणवत्ता निगरानी और सतर्कता कार्यक्रम फरवरी 2006 में प्रारंभ किया। इसके तहत हर ग्राम पंचायत से पांच व्यक्तियों को पेयजल गुणवत्ता की नियमित निगरानी के लिए प्रशिक्षित किया गया। इस प्रशिक्षण का भी व्यापक तौर पर असर दिखा। तमाम गांव जो फ्लोराइड, आर्सेनिक सहित अन्य विभिन्न तत्वों की अधिकता वाले जल क्षेत्र में आते थे, वहां जागरूकता के बाद लोग शुद्ध पेयजल ग्रहण करने लगे। इससे विभिन्न तरह की बीमारियों में कमी आई। लोगों के जीवन-स्तर में भी सुधार हुआ।
जिस तरह से आवास, बिजली, पानी आधारभूत विकास में जरूरी है, उसी तरह से स्वच्छता का मुद्दा भी सबसे अहम है। यही वजह है कि सरकार की ओर से स्वच्छता के मुद्दे पर गंभीरता दिखाई जा रही है और ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम शुरू किया गया है। राज्य सरकारों द्वारा इस दिशा में किए जा रहे प्रयासों को केंद्र सरकार केंद्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम के तहत तकनीकी और वित्तीय सहायता प्रदान कर और मजबूती प्रदान करती है। यह कार्यक्रम वर्ष 1986 में ग्रामीणों के जीवन-स्तर में सुधार करने तथा महिलाओं को निजता और सम्मान प्रदान कराने के लिए प्रारंभ किया गया। स्वच्छता के विचार को विस्तारित कर 1993 में इसमे व्यक्तिगत स्वच्छता, गृह स्वच्छता, सुरक्षित पेयजल तथा कूड़े-कचरे, मानव मलमूत्र और नाली के दूषित पानी के निस्तारण को भी शामिल किया गया है।
गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे परिवारों के लिए स्वच्छ शौचालयों का निर्माण, शुष्क शौचालयों का फ्लश शौचालयों में उन्नयन, महिलाओं के लिए ग्राम स्वच्छता भवनों का निर्माण, स्वच्छता बाजारों तथा उत्पादन केंद्रों की स्थापना, स्वास्थ्य शिक्षा और जागरूकता के लिए सघन अभियान चलाना आदि भी इस कार्यक्रम के अंग हैं। केंद्र, राज्य सरकारों, गैर-सरकारी संगठनों और अन्य निष्पादन संस्थाओं के अनुभवों को देखते हुए तथा ग्रामीण स्वच्छता पर आयोजित द्वितीय सेमीनार की अनुशंसाओं को ध्यान में रखते हुए नौवीं पंचवर्षीय योजना के ढांचे को 1 अप्रैल, 1999 को पुनःनिर्मित किया गया। नए बने कार्यक्रम में धन के गरीबी आधारित राज्यवार आवंटन को नकार कर मांग आधारित प्रक्रिया को चरणबद्ध तरीके से लागू करने की बात कही गई है। संपूर्ण स्वच्छता अभियान प्रारंभ किया गया और आवंटन आधारित कार्यक्रम को चरणबद्ध प्रक्रिया द्वारा 31 मार्च, 2002 तक समाप्त कर दिया गया।
केंद्र सरकार ने ग्रामीण मूलभूत सुविधाओं का विकास करने के उद्देश्य से 2005 में भारत निर्माण कार्यक्रम की शुरुआत की है जो वर्ष 2005-06 से 2008-09 तक की अवधि में लागू किया जा चुका है। ग्रामीण पेयजल भारत निर्माण कार्यक्रम के छह घटकों में से एक है। भारत निर्माण को लागू की गई इस अवधि में जहां जलापूर्ति बिल्कुल नहीं थी ऐसे 55,067 क्षेत्रों और 3.31 लाख ऐसे इलाकों जहां आंशिक रूप से जलापूर्ति की जा रही थी, शामिल करके पेयजल उपलब्ध कराया गया। 2.17 लाख ऐसे इलाकों में स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराया गया जहां गंदे पानी की सप्लाई की जाती थी।
पानी की खराब गुणवत्ता से निपटने के लिए सरकार ने वरीयता क्रम में आर्सेनिक और फ्लोराइड प्रभावित बस्तियों को ऊपर रखा है। इसके बाद लोहे, खारेपन, नाइट्रेट और अन्य तत्वों से प्रभावित पानी की समस्या से निपटने का लक्ष्य बनाया गया है। एक बार जिन बस्तियों को पेयजल आपूर्ति की उपलब्धता सुनिश्चित की जा चुकी है उन्हें पुनः ऐसी समस्या का सामना न करना पड़े इसके लिए जल स्रोतों के संरक्षण को विशेष महत्व दिया गया है। गांवों और बस्तियों में पेयजल सुरक्षा स्तर बहाली के लिए वर्षा जल, सतही जल तथा भू-गर्भीय जल के उचित उपयोग की व्यवस्था की गई है। गांवों में पेयजल उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए प्रबंधन, कार्यान्वयन और मरम्मत की ग्रामीण-स्तर पर विकेंद्रीकृत, मांग आधारित और समुदाय प्रबंधित योजना स्वजलधारा प्रारंभ की गई है।
पेयजल में सामुदायिक भागीदारी को और बढ़ाने तथा मजबूत बनाने के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल गुणवत्ता निगरानी और सतर्कता कार्यक्रम फरवरी, 2006 में प्रारंभ किया गया। इसके तहत हर ग्राम पंचायत से पांच व्यक्तियों को पेयजल गुणवत्ता की नियमित निगरानी के लिए प्रशिक्षित किया जाएगा। इसके लिए शत-प्रतिशत आर्थिक सहायता, जिसमें पानी परीक्षण किट भी शामिल है, प्रदान की जाती है। इससे पहले वर्ष 1986 में राष्ट्रीय पेयजल परियोजना की शुरुआत की गई थी, वर्ष 1991 में इसका नाम बदलकर राजीव गांधी राष्ट्रीय पेयजल परियोजना कर दिया गया। इसका उद्देश्य है सभी गांवों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराना, पेयजल स्रोतों के अच्छे रखरखाव के लिए स्थानीय समुदायों को सहायता प्रदान करना एवं अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों की पेयजल संबंधी जरूरतों पर विशेष ध्यान देना।
इसी तरह त्वरित ग्रामीण जलापूर्ति कार्यक्रम 1972-73 में प्रारंभ किया गया था। वर्तमान में यह राजीव गांधी राष्ट्रीय पेयजल परियोजना के तहत चलाई जा रही है। फिलहाल भारत निर्माण के तहत सरकारी आंकड़ों पर ध्यान दें तो अब तक तीन लाख 50 हजार से अधिक उन बस्तियों में पेयजल उपलब्ध कराया जा चुका है, जहां गुणवत्तायुक्त पानी उपलब्ध नहीं था।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
सरकार की हमेशा कोशिश रही है कि वह ग्रामीणों के स्वास्थ्य की देखभाल करे। इसी के तहत ग्रामीण इलाके में स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ाया जा रहा है तो दूसरी तरफ समय-समय पर सर्वे करके स्वास्थ्य को प्रभावित होने वाले कारकों के बारे में भी जानकारी ली जाती है। सर्वे रिपोर्ट के आधार पर ही केंद्र सरकार अपनी योजना बनाती है और शत-प्रतिशत लक्ष्य हासिल करने की कोशिश करती है। यह कोशिश ग्रामीण भारत के विकास में अहम भूमिका निभा रही है।
वर्ष 2011 में किए गए एक सर्वे में पाया गया कि बिहार के 18,431 गांव ऐसे हैं जहां शुद्ध पेयजल आपूर्ति नहीं है। इसमें से 1112 गांव आर्सेनिक और 3339 गांव फ्लोराइड तथा 13,980 गांव आयरन की अधिकता से प्रभावित मिले। असम में बिहार से अधिक आर्सेनिक से प्रभावित गांव पाए गए। उड़ीसा में आर्सेनिक प्रभावित गांव तो 475 ही हैं पर आयरन की अधिकता वाले गांवों की संख्या 13,216 पाई गई। इसी तरह राजस्थान के 10,059 गांव फ्लोराइड और 20,795 गांव नमक की अधिकता से प्रभावित पाए गए। इन सभी गांवों में अभियान के तहत शुद्ध पानी उपलब्ध कराने की कवायद की जा रही है। इन गांवों में पेयजल के दूसरे स्रोत भी विकसित किए गए ताकि लोगों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध हो सके।
ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड के मुताबिक एक लीटर पानी में 0.05 मिलीग्राम आर्सेनिक तक किसी तरह की दिक्कत नहीं होती है, लेकिन इससे अधिक होने पर मानव जीवन के लिए नुकसानदायक होता है। आर्सेनिक की अधिकता वाले पानी को पेयजल में इस्तेमाल किए जाने से त्वचा, खून और फेफड़े के कैंसर तथा बच्चों में कार्डियो वैस्कुलर सिस्टम प्रभावित होता है। फ्लोराइड की अधिकता से दांत और हड्डियों की बीमारी होती है। इसे ध्यान में रखते हुए सरकार की कोशिश है कि लोगों को शुद्ध पानी उपलब्ध कराया जाए ताकि वे विभिन्न बीमारियों से प्रभावित न हो।
आम बजट में वित्तमंत्री ने शुद्ध पेयजल और स्वच्छता के मद में 27 फीसदी से अधिक की वृद्धि की है। इस मद में कुल 14 हजार करोड़ रुपये का इंतजाम किया गया है। पिछली बार यह बजट 11 हजार करोड़ रुपये का था। इससे साबित होता है कि केंद्र सरकार ग्रामीण पेयजल एवं स्वच्छता के मुद्दे पर काफी गंभीर है। इतना ही नहीं केंद्र सरकार इस वर्ष वार्षिक बजट में स्वच्छता परियोजनाओं के लिए 40 प्रतिशत वृद्धि पर गंभीरतापूर्वक विचार कर रही है।
विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में करीब साठ फीसदी बीमारियों की मूल वजह जल प्रदूषण है। जल प्रदूषण का मुख्य कारण मानव या जानवरों की जैविक या फिर औद्योगिक क्रियाओं के फलस्वरूप पैदा हुए प्रदूषकों को बिना किसी समुचित उपचार के सीधे जलधाराओं में विसर्जित कर दिया जाना है।केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री श्री जयराम रमेश ने पिछले दिनों कहा था कि निर्मल भारत अभियान नामक एक देशव्यापी स्वच्छता अभियान शुरू किया जाएगा। उन्होंने कहा था कि सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में व्यक्तिगत शौचालयों के निर्माण के लिए अनुदान राशि को 3000 रुपये से बढ़ाकर 7 से 8 हजार रुपये करने पर विचार कर रही है। निश्चित रूप से इससे ग्रामीण स्वच्छता अभियान को बल मिलेगा।
पानी की खराब गुणवत्ता से निपटने के लिए सरकार ने वरीयता क्रम में आर्सेनिक और फ्लोराइड प्रभावित बस्तियों को ऊपर रखा है। इन बस्तियों में समय-समय पर आर्सेनिक एवं फ्लोराइड की जांच की जा रही है। ग्रामीणों को इस बात के लिए भी जागरूक भी किया जा रहा है कि वे शुद्ध जल का ग्रहण कैसे करें। तमाम इलाके में इस संबंध में प्रशिक्षण कार्यक्रम भी आयोजित किए गए। ताकि लोगों को शुद्ध जल मिल सके।
इसी तरह लोहे, खारेपन, नाइट्रेट और अन्य तत्वों से प्रभावित पानी की समस्या से निपटने का भी लक्ष्य बनाया गया है। इन तत्वों से प्रभावित होने वाले इलाके में भी सरकार की ओर से विशेष अभियान चलाया जाता है। इस अभियान के जरिए न सिर्फ ग्रामीणों को जागरूक किया जाता है बल्कि वे किस तरह से इस समस्या से निजात पाते हुए शुद्ध जल हासिल कर सकते हैं इसके लिए भी प्रशिक्षण दिया जाता है।
एक बार जिन बस्तियों को पेयजल आपूर्ति की उपलब्धता सुनिश्चित की जा चुकी है उन्हें पुनः ऐसी समस्या का सामना न करना पड़े इसके लिए जल स्रोतों के संरक्षण को विशेष महत्व दिया गया है। ग्रामीणों को बताया जाता है कि वे किस तरह से पेयजल एवं पर्यावरण को शुद्ध रख सकते हैँ।
पर्यावरण संबंधी तमाम अध्ययन इस बात की गवाही दे रहे हैं कि देश में जल प्रदूषण के खतरे दिनोंदिन भयावह होते जा रहे हैं। इसके लिए बार-बार चेतावनी भी दी जा रही है। इस चेतावनी के मद्देनजर भी सरकार शुद्ध एवं स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने की दिशा में प्रयासरत है। कुछ दिन पहले नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने भी इस बारे में आगाह किया है कि ग्रामीणों को शुद्ध पेयजल एवं स्वच्छता के प्रति जागरूक करके तमाम समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।
सरकार को भेजी गई रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि ग्रामीण शुद्ध पेयजल ग्रहण करें एवं स्वच्छता का पूरा ध्यान रखें तो तमाम बीमारियों को दूर किया जा सकता है। इससे मृत्यु दर में ही कमी नहीं आएगी बल्कि ग्रामीणों के जीवन-स्तर में भी उत्तरोत्तर वृद्धि होगी क्योंकि विभिन्न प्रकार के रासायनिक खादों और कीटनाशकों के व्यापक इस्तेमाल ने खेतों को इस हालत में पहुंचा दिया है कि उनसे होकर रिसने वाला बरसात का पानी जहरीले रसायनों को नदियों में पहुंचा देता है।
भूजल के गिरते स्तर और उसकी गुणवत्ता में कमी को लेकर कई अध्ययन सामने आ चुके हैं जिसमें कहा गया है कि देश में चौदह बड़ी, पचपन लघु और कई सौ छोटी नदियों में मल-जल और औद्योगिक कचरा लाखों लीटर पानी के साथ छोड़े जाते हैं। जाहिर है कि यह कचरा किसी न किसी रूप में पानी के जरिए हमें प्रभावित करता है।
एक अध्ययन के मुताबिक बीस राज्यों की सात करोड़ आबादी फ्लोराइड और एक करोड़ लोग सतह के जल में आर्सेनिक की अधिक मात्रा घुल जाने के खतरों से जूझ रहे हैं। इसके अलावा, सुरक्षित पेयजल कार्यक्रम के तहत सतह के जल में क्लोराइड, टीडीसी, नाइट्रेट की अधिकता भी बड़ी बाधा बनी हुई है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में करीब साठ फीसदी बीमारियों की मूल वजह जल प्रदूषण है। जल प्रदूषण का मुख्य कारण मानव या जानवरों की जैविक या फिर औद्योगिक क्रियाओं के फलस्वरूप पैदा हुए प्रदूषकों को बिना किसी समुचित उपचार के सीधे जलधाराओं में विसर्जित कर दिया जाना है।
हालांकि प्राकृतिक कारणों से भी जल की गुणवत्ता प्रभावित होती है लेकिन अपशिष्ट उपचार संयंत्र के बगैर फैक्ट्रियों से निकलने वाले अवशिष्ट का पानी में मिलना सबसे बड़ा कारण है। ये रासायनिक तत्व पानी में मिलकर मानव या जानवरों में जलजनित बीमारियां पैदा करते हैं। कैल्शियम, मैग्नीशियम, सोडियम, पोटेशियम, आयरन, मैग्नीज की अधिकता और क्लोराइड, सल्फेट, कार्बोनेट, बाई-कार्बोनेट, हाइड्राक्साइड, नाइट्रेट की कमी के साथ ही ऑक्साइड, तेल, फिनोल, वसा, ग्रीस, मोम, घुलनशील गैसें (आक्सीजन, कार्बन-डाइ-आक्साइड, नाइट्रोजन) आदि जल की वास्तविकता को प्रभावित करते हैं। जल प्रदूषण से बचने के लिए समय-समय पर नियम-कानून भी बनाए गए, लेकिन जिस अनुपात में जल प्रदूषण बढ़ रहा है, ये नियम कानून कारगर साबित नहीं हो पा रहे हैं।
गांवों और बस्तियों में पेयजल सुरक्षा स्तर बहाली के लिए वर्षा जल, सतही जल तथा भूगर्भीय जल के उचित उपयोग की व्यवस्था करना समय की मांग है।हमारे देश में नदी अधिनियम द्वारा जल प्रदूषण पर व्यवस्थित तरीके से नियंत्रण स्थापित किया गया। इसके बाद प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम 1984 बना लेकिन ये कानून पूरी तरह से जल प्रदूषण रोकने में कारगर साबित नहीं हो पा रहे हैं। ऐसी स्थिति में आम आदमी को जागरूक किए जाने की जरूरत महसूस हो रही है। जागरूकता के दम पर इस बड़ी समस्या का समाधान किया जा सकता है। गांवों और बस्तियों में पेयजल सुरक्षा स्तर बहाली के लिए वर्षा जल, सतही जल तथा भूगर्भीय जल के उचित उपयोग की व्यवस्था करना समय की मांग है।
गांवों में पेयजल उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए प्रबंधन, कार्यान्वयन और मरम्मत की ग्रामीण-स्तर पर विकेंद्रीकृत मांग आधारित और समुदाय प्रबंधित योजना के तहत स्वजलधारा प्रारंभ की गई है। इतना ही नहीं सरकार ने इस दिशा में गंभीरता दिखाते हुए पेयजल में सामुदायिक भागीदारी को और बढ़ाने तथा मजबूत बनाने के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल गुणवत्ता निगरानी और सतर्कता कार्यक्रम फरवरी 2006 में प्रारंभ किया। इसके तहत हर ग्राम पंचायत से पांच व्यक्तियों को पेयजल गुणवत्ता की नियमित निगरानी के लिए प्रशिक्षित किया गया। इस प्रशिक्षण का भी व्यापक तौर पर असर दिखा। तमाम गांव जो फ्लोराइड, आर्सेनिक सहित अन्य विभिन्न तत्वों की अधिकता वाले जल क्षेत्र में आते थे, वहां जागरूकता के बाद लोग शुद्ध पेयजल ग्रहण करने लगे। इससे विभिन्न तरह की बीमारियों में कमी आई। लोगों के जीवन-स्तर में भी सुधार हुआ।
केंद्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम
जिस तरह से आवास, बिजली, पानी आधारभूत विकास में जरूरी है, उसी तरह से स्वच्छता का मुद्दा भी सबसे अहम है। यही वजह है कि सरकार की ओर से स्वच्छता के मुद्दे पर गंभीरता दिखाई जा रही है और ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम शुरू किया गया है। राज्य सरकारों द्वारा इस दिशा में किए जा रहे प्रयासों को केंद्र सरकार केंद्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम के तहत तकनीकी और वित्तीय सहायता प्रदान कर और मजबूती प्रदान करती है। यह कार्यक्रम वर्ष 1986 में ग्रामीणों के जीवन-स्तर में सुधार करने तथा महिलाओं को निजता और सम्मान प्रदान कराने के लिए प्रारंभ किया गया। स्वच्छता के विचार को विस्तारित कर 1993 में इसमे व्यक्तिगत स्वच्छता, गृह स्वच्छता, सुरक्षित पेयजल तथा कूड़े-कचरे, मानव मलमूत्र और नाली के दूषित पानी के निस्तारण को भी शामिल किया गया है।
गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे परिवारों के लिए स्वच्छ शौचालयों का निर्माण, शुष्क शौचालयों का फ्लश शौचालयों में उन्नयन, महिलाओं के लिए ग्राम स्वच्छता भवनों का निर्माण, स्वच्छता बाजारों तथा उत्पादन केंद्रों की स्थापना, स्वास्थ्य शिक्षा और जागरूकता के लिए सघन अभियान चलाना आदि भी इस कार्यक्रम के अंग हैं। केंद्र, राज्य सरकारों, गैर-सरकारी संगठनों और अन्य निष्पादन संस्थाओं के अनुभवों को देखते हुए तथा ग्रामीण स्वच्छता पर आयोजित द्वितीय सेमीनार की अनुशंसाओं को ध्यान में रखते हुए नौवीं पंचवर्षीय योजना के ढांचे को 1 अप्रैल, 1999 को पुनःनिर्मित किया गया। नए बने कार्यक्रम में धन के गरीबी आधारित राज्यवार आवंटन को नकार कर मांग आधारित प्रक्रिया को चरणबद्ध तरीके से लागू करने की बात कही गई है। संपूर्ण स्वच्छता अभियान प्रारंभ किया गया और आवंटन आधारित कार्यक्रम को चरणबद्ध प्रक्रिया द्वारा 31 मार्च, 2002 तक समाप्त कर दिया गया।
ग्रामीण जल प्रदाय
केंद्र सरकार ने ग्रामीण मूलभूत सुविधाओं का विकास करने के उद्देश्य से 2005 में भारत निर्माण कार्यक्रम की शुरुआत की है जो वर्ष 2005-06 से 2008-09 तक की अवधि में लागू किया जा चुका है। ग्रामीण पेयजल भारत निर्माण कार्यक्रम के छह घटकों में से एक है। भारत निर्माण को लागू की गई इस अवधि में जहां जलापूर्ति बिल्कुल नहीं थी ऐसे 55,067 क्षेत्रों और 3.31 लाख ऐसे इलाकों जहां आंशिक रूप से जलापूर्ति की जा रही थी, शामिल करके पेयजल उपलब्ध कराया गया। 2.17 लाख ऐसे इलाकों में स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराया गया जहां गंदे पानी की सप्लाई की जाती थी।
पानी की खराब गुणवत्ता से निपटने के लिए सरकार ने वरीयता क्रम में आर्सेनिक और फ्लोराइड प्रभावित बस्तियों को ऊपर रखा है। इसके बाद लोहे, खारेपन, नाइट्रेट और अन्य तत्वों से प्रभावित पानी की समस्या से निपटने का लक्ष्य बनाया गया है। एक बार जिन बस्तियों को पेयजल आपूर्ति की उपलब्धता सुनिश्चित की जा चुकी है उन्हें पुनः ऐसी समस्या का सामना न करना पड़े इसके लिए जल स्रोतों के संरक्षण को विशेष महत्व दिया गया है। गांवों और बस्तियों में पेयजल सुरक्षा स्तर बहाली के लिए वर्षा जल, सतही जल तथा भू-गर्भीय जल के उचित उपयोग की व्यवस्था की गई है। गांवों में पेयजल उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए प्रबंधन, कार्यान्वयन और मरम्मत की ग्रामीण-स्तर पर विकेंद्रीकृत, मांग आधारित और समुदाय प्रबंधित योजना स्वजलधारा प्रारंभ की गई है।
पेयजल में सामुदायिक भागीदारी को और बढ़ाने तथा मजबूत बनाने के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल गुणवत्ता निगरानी और सतर्कता कार्यक्रम फरवरी, 2006 में प्रारंभ किया गया। इसके तहत हर ग्राम पंचायत से पांच व्यक्तियों को पेयजल गुणवत्ता की नियमित निगरानी के लिए प्रशिक्षित किया जाएगा। इसके लिए शत-प्रतिशत आर्थिक सहायता, जिसमें पानी परीक्षण किट भी शामिल है, प्रदान की जाती है। इससे पहले वर्ष 1986 में राष्ट्रीय पेयजल परियोजना की शुरुआत की गई थी, वर्ष 1991 में इसका नाम बदलकर राजीव गांधी राष्ट्रीय पेयजल परियोजना कर दिया गया। इसका उद्देश्य है सभी गांवों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराना, पेयजल स्रोतों के अच्छे रखरखाव के लिए स्थानीय समुदायों को सहायता प्रदान करना एवं अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों की पेयजल संबंधी जरूरतों पर विशेष ध्यान देना।
इसी तरह त्वरित ग्रामीण जलापूर्ति कार्यक्रम 1972-73 में प्रारंभ किया गया था। वर्तमान में यह राजीव गांधी राष्ट्रीय पेयजल परियोजना के तहत चलाई जा रही है। फिलहाल भारत निर्माण के तहत सरकारी आंकड़ों पर ध्यान दें तो अब तक तीन लाख 50 हजार से अधिक उन बस्तियों में पेयजल उपलब्ध कराया जा चुका है, जहां गुणवत्तायुक्त पानी उपलब्ध नहीं था।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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Post By: pankajbagwan