स्थानीय संसाधनों के सतत प्रबन्धन में स्व-सहायता समूह

सतत विकास की परम्परागत अवधारणा आर्थिक विकास की दो दिशाओं में बढ़ती है। इसका अधिकांश केन्द्रीकरण भविष्य पर है जिसका उद्देश्य ऐसा विकास सुनिश्चित करना है जो भावी पीढ़ियों की जरूरतों और अनुमान योग्य हितों को नुकसान न पहुँचाए। दूसरे, यह सिर्फ आर्थिक लक्ष्यों पर ध्यान केन्द्रित नहीं करती, बल्कि सामाजिक और पर्यावरण की रक्षा का भी ध्यान रखती है।विकासशील देशों के सामने इस समय गरीबी और भूख कम करना प्रारम्भिक चुनौतियाँ हैं। हाल में भारत की आर्थिक विकास दर ऊँची होने के बावजूद हमारी आबादी के करीब 35 करोड़ लोग प्रतिदिन एक डॉलर से कम पर जीवन व्यतीत कर रहे हैं। भारत के गरीबों का लगभग 72 प्रतिशत लोग ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं और बुनियादी तौर पर अपने गुजर-बसर के लिए खेती और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर करते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में व्याप्त गरीबी की बात मानते हुए भारत सरकार ने ग्रामीण क्षेत्र के विकास को राष्ट्रीय प्राथमिकता घोषित किया है (न्यूनतम राष्ट्रीय साझा कार्यक्रम, 2004)। इस सन्दर्भ में सबसे महत्वपूर्ण बात यह लक्ष्य है कि सभी को सक्षम और सतत रूप से स्थानीय संसाधनों के समतामूलक प्रबन्धन में हिस्सा मिल सके।

सतत विकास की परम्परागत अवधारणा आर्थिक विकास की दो दिशाओं में बढ़ती है। इसका अधिकांश केन्द्रीकरण भविष्य पर है जिसका उद्देश्य ऐसा विकास सुनिश्चित करना है जो भावी पीढ़ियों की जरूरतों और अनुमान योग्य हितों को नुकसान न पहुँचाए। दूसरे, यह सिर्फ आर्थिक लक्ष्यों पर ध्यान केन्द्रित नहीं करती, बल्कि सामाजिक और पर्यावरण की रक्षा का भी ध्यान रखती है। सतत विकास का उद्देश्य विकास और आर्थिक प्रगति को उसके पर्यावरण पर दुष्प्रभावों से अलग करना है। अलग करने की यह प्रक्रिया बहुत कुछ नवाचार के साथ काम करने पर निर्भर करती है। पर्यावरण की रक्षा के लिए संसाधनों के इस्तेमाल में कुशलता बढ़ाने और सभी स्तरों पर बर्बादी कम करने में नवाचार की जरूरत है।

योजना आयोग के कार्यदल ने अनुदान और सब्सिडी की संस्कृति से धीरे-धीरे हटने और वर्ष 2017 तक जनता का अभिदान 50 प्रतिशत तक बढ़ाने की जरूरत पर जोर दिया है। इसके लिए कृषि, गैर-कृषि क्षेत्रों के नए मॉडलों और कार्यक्रमों के वित्त पोषण और प्रबन्धन के विकास की जरूरत पड़ेगी। कृषि और ग्रामीण विकास के सन्दर्भ में संसाधन के रूप में मुख्यतः भूमि, जल, वन, ऊर्जा तथा जैविक व जलवायु सम्बन्धी संसाधन शामिल हैं जिनके जरिये लोगों के रहन-सहन की गुणवत्ता सुधारी जा सकती है। उधर संसाधन प्रबन्धन में चेतना पैदा करने, क्षमता निर्माण तथा लोगों की सतत जीविका चलाने के लिए प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग और प्रबन्धन हेतु प्रौद्योगिकी और सूचना की जरूरत है। जीविका उद्यम में क्षमता और परिसम्पत्तियाँ आती हैं जिनके अन्तर्गत भौतिक और सामाजिक संसाधनों दोनों को शामिल किया जाता है। इसी वर्ग में जीविका चलाने की गतिविधियाँ भी आएँगी। जीविका तभी चल पाती है जब वह थकावट और सदमे का सामना करते हुए वर्तमान और भविष्य में क्षमताएँ बढ़ा सके अथवा बनाए रख सके, साथ ही, प्राकृतिक संसाधन आधार पर आँच न आने दे। इस सन्दर्भ में निम्नलिखित बातों का उल्लेख करना उपयोगी होगा :

1. स्वयं पोषित होने वाले जीविका अवसरों में निरन्तरता बनाए रखने के लिए जरूरी प्राकृतिक संसाधनों में सुधार, उनका संरक्षण और उनके समीचीन उपयोग को बढ़ावा देने और नियोजन में सहायता।
2. संसाधन आधार और जीविका अवसरों की गुणवत्ता तथा उत्पादकता में सुधार लाने के लिए नये नवाचारी उपायों को प्रेरणा देना।
3. सतत संसाधन प्रबन्धन में समान और स्वावलम्बी भागीदार बनने के लिए स्थानीय समुदायों का सशक्तीकरण।

स्व-सहायता समूह आन्दोलन और ग्रामीण विकास


भारतीय गाँवों में स्व-सहायता समूह आन्दोलन बड़े पैमाने पर शुरू हो चुका है और भारत सरकार तथा बैंकों की अनगिनत ग्रामीण विकास परियोजनाओं का रास्ता बन गया है। वर्ष 1992 में जहाँ 500 स्व-सहायता समूह थे और 68 लाख स्व-सहायता समूह बैंक व्यवस्था से जुड़े हुए थे, वहीं पिछले 18 वर्षों में स्व-सहायता समूहों में उल्लेखनीय और बेतहाशा वृद्धि हुई है। लेकिन, जो समूह उद्यमिता गतिविधियों से जुड़े हुए हैं, (चाहे वे संसाधन आधारित अथवा माँग आधारित गतिविधियों वाले हों) वे सतत विकास की ओर बढ़ते जान पड़ते हैं। दरअसल, स्व-सहायता समूह स्थानीय संसाधनों और स्थानीय संसाधन आधारित गतिविधियों के विकास को बढ़ावा देते हैं। सर्व समावेशी प्रगति को प्रोत्साहित करने के लिए ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना का दृष्टिकोण पत्र देखना चाहिए जिसमें स्थानीय संसाधनों और उनके कुशल उपयोग में उपेक्षित वर्गों — अजा, अजजा और महिला वर्गों की पहुँच बढ़ाने की बात कही गई है।

स्व-सहायता समूह आन्दोलन की जड़ें उस सन्दर्भ में निहित हैं, जिसमें व्यापारिक बैंकों तक आमजन और उपेक्षित वर्ग की पहुँच नहीं थी। इन वर्गों मे खासतौर से महिलाओं का नाम लिया जा सकता है जो वैसे भी खर्च करने में ज्यादा सावधान रहती हैं और जिनकी बचत की आदत सराहनीय होती है।स्व-सहायता समूह आन्दोलन की जड़ें उस सन्दर्भ में निहित हैं, जिसमें व्यापारिक बैंकों तक आमजन और उपेक्षित वर्ग की पहुँच नहीं थी। इन वर्गों मे खासतौर से महिलाओं का नाम लिया जा सकता है जो वैसे भी खर्च करने में ज्यादा सावधान रहती हैं और जिनकी बचत की आदत सराहनीय होती है। विभिन्न एजेंसियों से जुड़े उत्पादक पक्ष को बेहतर समझती हैं और साथ ही, उपभोक्ता और बाजार की उभरती जरूरत को समझने की क्षमता रखती हैं। उनकी बचत और ऋण चुकाने की क्षमता इसी बात से स्पष्ट है कि ग्रामीण क्षेत्रों में सशक्त स्व-सहायता समूह उभरे हैं जो ऋण की अपनी जरूरतें गैर-सरकारी संगठनों की देख-रेख में पूरी कर सकते हैं और जो सूक्ष्म उद्यमिता के व्यापार संचालन की तरफ धीरे-धीरे बढ़ने में समर्थ हैं। लेकिन इन स्व-सहायता समूहों के सामने बहुराष्ट्रीय निगमों और कॉर्पोरेट घरानों से प्रतियोगिता की बड़ी समस्या भी है। बहुराष्ट्रीय निगमों ने इन स्व-सहायता समूहों की सम्भावित क्षमता को पूरी तरह से पहचान लिया है और सूक्ष्म ऋण और सूक्ष्म उद्यमों से उन्हें बहुराष्ट्रीय उत्पादों के विपणन की तरफ आकर्षित कर रहे हैं। ये बहुराष्ट्रीय निगम अपनी योजनाएँ तैयार करने और ग्रामीण क्षेत्रों में इन स्व-सहायता समूहों को अपना विपणन प्रतिनिधि बना लेने में चतुर हैं। इस प्रकार से वे उन्हें परम्परागत शिल्प की वस्तुएँ तैयार करने से रोकने में कामयाब हो जाते हैं और इसका परिणाम होता है स्थानीय संसाधनों का उपयोग न हो पाना।

स्व-सहायता समूहों के पोषण में एनजीओ की भूमिका


संसाधन आधारित गतिविधियों को कामयाब और कारगर बनाने में गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उन्होंने स्थान और संसाधनों की पहचान करने, प्रोत्साहन-पूर्व गतिविधियों, भावी गतिविधियों के चयन, उद्यमियों के प्रशिक्षण, मॉनिटरिंग और बाद की गतिविधियों में महत्वपूर्ण काम किया है। एनजीओ स्व-सहायता समूहों को स्थानीय संसाधनों से तैयार माल बनाने का प्रशिक्षण देने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस लेख में कुछ कामयाब स्व-सहायता समूहों के विवरण दिए गए हैं जो जाने-माने एनजीओ के मार्गदर्शन में स्थानीय संसाधनों के सतत प्रबन्धन के जरिये सफल हुए हैं।

ग्रामीण समुदायों के पास जमीन, पानी संयन्त्र और वन संसाधन मौजूद हैं लेकिन अक्सर उनके पास दक्षता नहीं होती, जिसकी कमी ये संगठन पूरी करते हैं। इनकी मदद से ये समूह प्राकृतिक संसाधनों से प्रत्यक्ष परिसम्पत्तियां तैयार करते हैं। सामाजिक पूँजी भी बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह विकास के लिए लोगों की क्षमता को प्रभावित करती है। सामाजिक पूँजी इन समूहों के निम्नलिखित कार्य प्रभावी और कुशल ढंग से पूरा करने में सहायक होती है :

1. योजना बनाना और मूल्याँकन करना अर्थात निर्णय लेना।
2. संसाधन जुटाना और उनका प्रबन्धन सम्भालना।
3. एक दूसरे से सम्पर्क रखना और गतिविधियों में समन्वय लाना।
4. विवाद निपटाना।

स्व-सहायता समूह सामाजिक और वित्तीय मध्यस्थता के जरिये सामाजिक पूँजी के सृजन के बहुत प्रभावी साधन हैं और ये सूक्ष्म उद्यम शुरू करने के लिए अपने सदस्यों को संगठित करते हैं।

स्थानीय संसाधन प्रबन्धन के लिए स्व-सहायता समूहों की कार्यनीतियाँ


डिण्डीगुल जिले के रेडियारचटरम ब्लॉक स्थित कनीवाड़ी गाँव केले की खेती के लिए मशहूर है। इस इलाके में काम करने वाले स्व-सहायता समूह ने केले की फसल कटाई के बाद केले के पेड़ों के कचरे से सेवाग्राम में हाथ से कागज बनाने का काम शुरू किया। इस समूह को इस काम में एक महीने का प्रशिक्षण मिल चुका है। एम.एस. स्वामीनाथन अनुसन्धान प्रतिष्ठान की देख-रेख में इस समूह को स्क्रीन प्रिण्टिग भी सिखाई गई है। अब यह समूह हाथ से बने कागज, ग्रीटिंग कार्ड, लिफाफे, लेखन पैड बनाता है और इस काम में केले और कपास के कचरे का इस्तेमाल करता है। ऐसा करने में यह समूह किसी प्रकार के हानिकारक रसायन का प्रयोग नहीं करता। सारी प्रक्रिया हाथ से पूरी की जाती है और कागज धूप में सुखाए जाते हैं। इसके लिए 7 लाख रुपए कीमत वाली मशीनें एक बैंक से ऋण और एम.एस. स्वामीनाथन रिसर्च फाउण्डेशन से अनुदान के रूप में लेकर खरीदी गई हैं। इस समूह के सभी सदस्य अनुसूचित जाति के हैं और ये 2001 से सफलतापूर्वक यह काम कर रहे हैं।

रेगिस्तान फैलने और मिट्टी खराब होने की व्यापक समस्याओं से खेती को लगातार खतरा पैदा हो रहा है। लेकिन समझदारी से काम लेकर जैविक कचरे और कूड़े से कम्पोस्ट खाद तैयार करके यह समस्या दूर की जा सकती है। इससे तैयार होने वाली कम्पोस्ट खाद पौधों के लिए पोषक होती है और इसके इस्तेमाल से जमीन की उपज क्षमता बढ़ती है जिसका इस्तेमाल करते हुए लाभप्रद पौधे तैयार किए जा सकते हैं।

डिण्डीगुल जिले के ही अतहुर प्रखण्ड में गाँधीग्राम ट्रस्ट ने कम्पोस्ट खाद तैयार करने के लिए स्व-सहायता समूहों को प्रशिक्षित किया। उन्हें बेकार जाने वाली पत्तियों और फूलों, घरेलू कचरे और गाय के गोबर से ऑर्गेनिक खाद तैयार करने की ट्रेनिंग दी गई। ऐसी खाद तैयार करने की प्रक्रिया में कुछ जन्तु मददगार होते हैं और वे कचरे को उच्च गुणवत्ता वाली खाद में बदल देते हैं। इस प्रकार से तैयार होने वाली वर्मी कम्पोस्ट खाद की खूब माँग है और बाजार में यह 6 से 7 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बिक जाती है।

पहाड़ी और जंगल वाले इलाकों में औषधीय पौधे पाए जाते हैं जो जीविका की सुरक्षा के लिए बहुमूल्य स्थानीय संसाधन हैं।

पहाड़ी और वन्य क्षेत्रों में उपलब्ध औषधीय पौधे लोगों की जीविका सुरक्षा के महत्वपूर्ण साधन बनते हैं। डिण्डीगुल जिले में कोडई हिल्स और सिरूमलाई के बीच का इलाका औषधीय पौधों और जड़ी-बूटियों की खेती की अपार सम्भावनाओं से भरपूर है। भारत सरकार के सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्मय मन्त्रालय ने मुम्बई के खादी एवं ग्राम उद्योग आयोग के जरिये लक्ष्मी सेवा संघम के लिए एक परियोजना स्वीकृत की है। स्कीम ऑफ फण्ड्स फॉर रि-जनरेशन ऑफ ट्रेडीशनल इण्डस्ट्रीज (स्फूर्ति) नाम की इस परियोजना के लिए एक करोड़ रुपए मन्जूर किए गए हैं। इसका उद्देश्य क्लस्टर आधारित सिद्ध और आयुर्वेदिक उद्योगों का विकास करना है। जरूरी पूँजी में 8.5 लाख रुपए का योगदान लक्ष्मी सेवा संघम ने किया है। यह परियोजना डिण्डीगुज जिले के अतहुर, निलाकोट्टय और कोडईकनाल तथा तेनी जिले के अण्डीपट्टी प्रखण्डों में लागू की जा रही है।

स्कीम ऑफ फण्ड्स फॉर रि-जनरेशन ऑफ ट्रेडीशनल इण्डस्ट्रीज (स्फूर्ति) नाम की इस योजना के अन्तर्गत जनजातीय लोगों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया जाता है कि वे मूल संवर्धन गतिविधियों में लगें और वन संसाधनों को हानि पहुँचाए बिना प्राकृतिक जड़ी-बूटियाँ इकट्ठा करने पर अपना ध्यान केन्द्रित करें।इस परियोजना के प्रमुख लाभार्थी वे लोग हैं जो तेनी और डिण्डीगुल जिलों में रहते हैं और जड़ी-बूटियाँ, पेड़ों की छालें और जड़ें इकट्ठा करने का काम करते हैं। ज्यादातर ये लोग अनुसूचित जनजाति वर्ग के हैं। इस योजना के अन्तर्गत जनजातीय लोगों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया जाता है कि वे मूल संवर्धन गतिविधियों में लगें और वन संसाधनों को हानि पहुँचाए बिना प्राकृतिक जड़ी-बूटियाँ इकट्ठा करने पर अपना ध्यान केन्द्रित करें। किसानों को भी बड़े पैमाने पर औषधीय पौधें उगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। ऐसा करके वे अपनी आमदनी बढ़ा सकते हैं। सुखाने के लिए जगह, गोदाम और प्रोसेसिंग यूनिट जैसी बुनियादी सुविधाएँ देकर स्व-सहायता समूहों को आकर्षित किया जाता है। इस उद्देश्य से विकास समन्वय समितियाँ गठित की गई हैं और योजना को लागू करने और प्रगति पर नजर रखने का तन्त्र विकसित किया गया है।

इस योजना के अन्तर्गत 41 स्व-सहायता समूह गठित किए गए हैं। लगभग 500 परिवार औषधीय पौधों की खेती करके अथवा उन्हें प्रोसेस करके या बेच कर अपनी जीविका अर्जित कर रहे हैं।

इस सन्दर्भ में अतहुर ब्लॉक में स्व-सहायता समूहों ने जो कामयाबी हासिल की है, वह बताने योग्य है। लक्ष्मी सेवा संघम के लिए कच्चा माल सिर्फ स्व-सहायता से खरीदा जाता है। वर्ष 2008-09 के दौरान 17 लाख रुपए का कच्चा माल सदस्यों से खरीदा गया जो कुल खरीदे गए माल के लगभग 20 प्रतिशत के बराबर है। स्व-सहायता समूह लक्ष्मी सेवा संघम को जलावन की लकड़ी, गोबर और दूध भी सप्लाई करते है। वे सिद्ध और आयुर्वेदिक औषधियाँ बनाने के लिए जड़ी-बूटियाँ तो देते ही हैं। स्व-सहायता समूहों के सदस्य 10 प्रतिशत ब्याज पर डायरेक्ट लिंकेज प्रोग्राम के तहत ऋण प्राप्त करते हैं और उससे दुधारू पशु खरीदकर लक्ष्मी संघम को दूध आपूर्ति करते है। विपणन सहायता के एक भाग के रूप में गाँधीग्राम बिक्री प्रतिनिधि की नियुक्ति की गई है। ऐसे हर प्रतिनिधि ने गाँधीग्राम के केनरा बैंक में अपना खाता खोला है और शुरुआती पूँजी के रूप में इस्तेमाल के लिए 10,000 रुपए के ऋण के लिए आवेदन किया है। चेक लक्ष्मी सेवा संघम के नाम जारी किया जाता है जहाँ से गाँधीग्राम बिक्री प्रतिनिधि बेचने के लिए माल खरीदते हैं। एक समूह ने लक्ष्मी सेवा संघम में कैण्टीन खोल दी है जिसे सभी ग्रुप सदस्य मिलकर चलाते और लाभ कमाते हैं। लाभ से समूह सदस्यों ने पास ही 4.5 एकड़ का एक भूखण्ड खरीद लिया है जिस पर वे मकान बनाएँगे।

उधार स्व-सहायता समूह संघ ने तेनी जिले के अण्डीपट्टी ब्लॉक में अपने नाम पर जमीन खरीद ली है और इस पर सुविधाएँ विकसित करने के लिए स्फूर्ति को सौंप दिया है। 7.5 हॉर्स पावर की मोटर वाली एक तेलघानी, एक से.मी. ऑटोमेटिक तेल भरने की मशीन और ढक्कन बन्द करने की मशीन तथा 15 लाख रुपए से गोली बनाने की मशीन खरीदी और लगाई गई है। दवा की सूखी पत्तियों से पाउडर बनाने की एक मशीन खरीदने की भी योजना बनाई गई है।

तेनी जिले में स्व-सहायता समूह द्वारा स्थापित कपास धुनने की इकाई


गाँधीग्राम ट्रस्ट की देख-रेख में और उसी की वित्तीय सहायता से टी. सुबुलापुरम में स्व-सहायता समूहों ने रेशम और रुई धुनने की इकाई लगाई है जो आमदनी बढ़ाने का अच्छा स्थानीय संसाधन बन गया है।

कुरुबाचीअम्मन स्व-सहायता समूह की स्थापना वर्ष 2002 में की गई थी। इसमें 18 सदस्य हैं। इन सदस्यों ने हर महीने 50 से 100 रुपए तक बचत करके 1.25 लाख रुपए इकट्ठा किए। समूह के 18 में से 12 सदस्य पहले ही बुनाई का काम करते थे। बाकी सदस्यों ने भी तकिया और गद्दे बनाने की यूनिट शुरू करने का फैसला किया। इस इलाके में रेशम और कपास खूब होता है।

गाँधीग्राम ट्रस्ट ने 55 हजार की मशीनें खरीदने में समूह की सहायता की। उधार उसीलमपट्टी के इण्डियन बैंक ने भी इस समूह को 60 हजार रुपए की सहायता दे दी जिसे कार्यकारी पूँजी के रूप में इस्तेमाल किया गया। इस यूनिट के सदस्यों ने गाँधीग्राम ट्रस्ट के मार्गदर्शन में सुबुलापुरम में आसपास के गाँवों से रुई खरीदना शुरू किया। सदस्यों को मशीनें चलाना भी सिखाया गया और गाँधीग्राम ट्रस्ट ने उत्पादन के तौर-तरीके सिखाए। अब इस समूह के सदस्य हर महीने 1200 रुपए कमा रहे हैं।

समूह के लिए महिलाएँ भी काम करती हैं। वे मशीन में रूई डालती हैं, साफ रुई इकट्ठा करती हैं और बिनौले अलग करती हैं। ये इकाइयाँ कदमलईकुण्डू और आसपास के गाँवों से खुले बाजार में किसानों से कच्ची रुई खरीदती हैं। उन्हें गद्दे और तकिये बनाने का प्रशिक्षण दिया गया है। खरीदी गई रुई का कुछ हिस्सा गाँधीग्राम भेज दिया जाता है जहाँ उससे गद्दे बनाए जाते हैं। रुई और बिनौले का कचरा बेच दिया जाता है जो 7.50 से 10 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से आसानी से बिक जाता है।

सुबुलापुरम में नीम का तेल निकालने की इकाई


अंगलेश्वरी स्व-सहायता समूह की स्थापना वर्ष 2000 में सुबुलापुरम में की गई थी। इसमें 15 सदस्य हैं। समूह के सदस्यों ने 75 रुपए महीने की बचत करके 60,800 रुपए की पूँजी इकट्ठा कर ली। इस गाँव में नीम के पेड़ बहुत हैं। स्व-सहायता को बढ़ावा देने वाले संस्थानों की देख-रेख में इस समूह ने नीम के तेल निकालने की इकाई शुरू करने का फैसला किया। यहाँ नीम की खली का पाउडर भी बनाया जाता है।

15 में से 7 सदस्य हर साल जुलाई से अगस्त तक आसपास के गाँवों से बीज इकट्ठा करते हैं। कई अन्य सदस्य इन बीजों की सफाई करते हैं और बारी-बारी से तेल निकालने का काम करते हैं। इस्तेमाल के लिए कच्चा माल यानी नीम के बीज 4.5 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से स्व-सहायता समूह सदस्यों से खरीदा जाता है। यह यूनिट दो खास काम करती है। पहला है नीम का तेल निकालना और दूसरा नीम की खली से पाउडर बनाना। इस उद्देश्य से 1,10,670 रुपए की लागत से गाँधीग्राम ट्रस्ट ने मशीनें लगवा दी है। समूह के सदस्यों को इण्डियन बैंक से 1.25 लाख रुपए का दूसरा कर्ज भी मिल गया जिसका इस्तेमाल उन्होंने पशुपालन के काम में किया। उसिलमपट्टी के इण्डियन बैंक ने भी अंगलेश्वरी समूह को 90 हजार रुपए काम चलाऊ पूँजी के रूप में दिए। यह इकाई नीम का तेल तैयार करके गाँधीग्राम भेज देती हैं जहाँ गाँधीग्राम ट्रस्ट उससे नीम का साबुन और अन्य माल बनाता है। नीम की खली का पाउडर इलाके के किसान खरीद लेते हैं और 7 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से इसे प्राप्त करके वे अपने खेतों में खाद के रूप में डालते हैं।

इस यूनिट ने एक और खास काम यह किया है कि जो लोग स्व-सहायता समूह के सदस्य हैं लेकिन उत्पादन के काम में नहीं लगे हैं, उन्हे गाँधीग्राम बिक्री प्रतिनिधि योजना के तहत विपणन का काम सिखाया जाता है। ये सदस्य प्रशिक्षण लेकर विपणन तकनीकों का इस्तेमाल करते हुए कपड़े धोने और नहाने के हर्बल साबुन बेचते हैं। ये सदस्य तैयार माल को अपनी साइकिलों पर ले जाते हैं और आसपास के गाँवों में बेचते हैं। तेनी और डिण्डीगुल जिलों के गाँवों और पुरवों में गाँधीग्राम साबुन बहुत लोकप्रिय हो गए हैं।

भूमण्डलीकरण का प्रभाव


स्थानीय उद्योगों पर भूमण्डलीकरण का प्रभाव पड़ा है। लोगों की खेती और पशुपालन की परम्परागत गतिविधियाँ बदल गई हैं। कांचीपुरम जिला चेन्नई महानगर से लगा हुआ है। चेन्नई में आबादी बहुत बढ़ गई है और अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ वहाँ पहुँच गई हैं जिनका कांचीपुरम जिले के ग्रामवासियों पर असर पड़ा है।

इस जिले के मूल निवासी अपना स्थान छोड़ने को मजबूर हुए हैं और अनेक ने परम्परागत व्यवसाय बन्द कर दिया है। पैरानूर गाँव इस बात का ज्वलन्त उदाहरण है कि बहुराष्ट्रीय निगमों ने चरागाह की जमीन हड़प ली जिससे इलाके का पशुपालन का धन्धा चौपट हो गया।

तालिका-1

ग्रुप

कुल बचत (रुपए)

कोर्पस फण्ड (रुपए)

प्रिचालन

अन्नइ तेरेसा

53,500

4,94,450

9.24

एलाम्मन

62,950

3,62,500

5.76

रोजा

55,700

2,97,650

5.34

पूनिअम्मन

38,200

1,70,600

4.47

सरोजनी देवी

34,600

1,71,600

4.96


ओसुरम्मन स्व-सहायता समूह कटंगुलातुर ब्लॉक के पैरानूर गाँव में चल रहा है। इस समूह के 8 सदस्य दूध के पैकेट बेचने के काम में लगे हुए हैं। समूह की संचालिका 60 वर्षीय श्रीमती आदिलक्ष्मी ने दूध के पैकेटों की बिक्री की व्यवस्था की थी। इसके लिए उन्होंने हातसुन डेयरी से बड़े पैमाने पर दूध खरीदना शुरू किया। स्व-सहायता समूह के सदस्य बाजार से आदेश लेकर आदिलक्ष्मी से दूध खरीदते और अपने ग्राहकों को आपूर्ति करते। वे कारखानों को भी दूध के पैकेट बेचते थे। इस स्व-सहायता समूह ने चेंगलापेट स्टेट बैंक से ऋण लिया और 1.25 लाख रुपए की पूँजी इस कारोबार में लगाई। समूह के एक सदस्य ने कहा कि पहले हम खुद दूधारू पशु पालते थे और उनका दूध बेचते थे लेकिन अब चरागाह की जमीन पर कारखाने खुल गए हैं और हम लोग दूध बेचने के एजेण्ट मात्र बन गए हैं।

स्थानीय संसाधनों से सतत लाभ


अब से करीब 7 साल पहले कांचीपुरम जिले के वलजाबाद ब्लॉक में 16 सदस्यों के साथ वैगई स्व-सहायता समूह शुरू किया गया था। समूह ने जैसे-तैसे बचत करके 53, 500 रुपए की रकम इकट्ठा की। इसका हिसाब-किताब इस समूह के संचालक रखते थे और उसके एवज में कुछ भी नहीं लेते थे।

केले की खेती


इस समूह के 9 सदस्यों ने अपनी जानकारी का इस्तेमाल करते हुए केले की खेती शुरू की। समूह की बैठकों में पाया गया कि केले के पेड़ का हर हिस्सा — पत्तियाँ, तना, फूल, कच्चे फल और रेशे सभी उपयोगी हैं। इस समूह ने नीचे दिए गए विवरण के अनुसार जरूरी धन राशि इकट्ठा किया :

तालिका-2

ऋण का प्रकार

राशि (रुपए)

एसजीएसवाई-रिवॉल्विंग फण्ड

25,000

एसजीएसवाई-ईए

1,50,000

सूक्ष्म उद्यम ऋण

100,000

ग्रामीण ऋण

45,000


समूह के सदस्यों ने 50 हजार रुपए प्रति वर्ष के खर्च पर तीन एकड़ जमीन पट्टे पर ली। खेती के लिए मजदूरी देकर श्रमिक लगाए गए। इस समूह ने हिसाब-किताब की खाता बहियाँ नियमित रूप से रखीं। तैयार फसल की पत्तियाँ और फल चेन्नई के थोक बाजार में बेचे गए। इससे 1,21,653 का लाभ हुआ जिसे बराबरी के आधार पर सदस्यों में बाँट दिया गया। हर सदस्य को 24,330.60 रुपए मिले। लाभ की यह रकम व्यापार शुरू करने में लगाई गई और उसकी मदद से कपड़े का व्यापार शुरू किया गया, छोटी दुकान खोली गई, ऑटो का रख-रखाव किया गया और साड़ियाँ बेची गईं। ऋण की वापसी 10 किस्तों में की गई।

संसाधनों के सतत प्रबन्धन के कारक


1. यह गतिविधियाँ स्थानीय संसाधनों पर आधारित है। वैगई एक ही जाति का समूह है। इसके सभी सदस्य रेड्डीयार समुदाय के हैं और उनमें अच्छा-खासा तालमेल है।
2. सभी सदस्य खेतिहर समुदाय के हैं और सबके पास आधी से 3 एकड़ तक जमीन है। सभी को खेती करना आता है और वे कामयाब होते हैं।
3. इस उद्यम में निवेश के लिए धनराशि सूक्ष्म उद्यम ऋण के रूप में प्राप्त की गई।

सदस्यों में उत्साह


कांचीपुरम जिले की ओतुकाडू पंचायत के ओतुकाडू गाँव में 8 समूह काम कर रहे हैं। इनका नेतृत्व एक महिला सामाजिक कार्यकर्ता के हाथ में है जिसकी समूह के हिसाब-किताब और संचालन पर पूरी पकड़ है। इस समूह के सदस्यों के बारे में कुछ जानकारियाँ तालिका-1 में दर्शाई गई हैं।

इस समूह ने सदस्यों के मकानों के पिछवाड़े किचन गार्डन गतिविधियाँ शुरू कर दीं और उनमे बैंगन, भिण्डी और पालक उगाई गई। उन्होंने हरी सब्जियों की खेती को बहुत लाभदायक पाया और इसी पर ध्यान देने का फैसला किया। इससे उन्हें पोषक तत्व मिलते थे और आर्थिक लाभ भी होता था। इस काम में स्थानीय संसाधनों का योगदान था। हरी सब्जियों की खेती के लिए वहाँ की मिट्टी बहुत माकूल है और ओतुकुड़ी इलाके का खारा पानी सिंचाई के काम आता है। हरी सब्जियों की बाजार में बहुत माँग है और इसे बेचना भी आसान है। कांचीपुरम, चेन्नई, पल्लावरम और तम्बारम जैसे शहर और कस्बे पास हैं जिससे तैयार माल बेचने में कोई परेशानी नहीं होती। बैंकों से ऋण सहायता मिल जाती है और ग्रुप के सदस्यों ने खुद ही एसजीएसवाई की आर्थिक सहायता से इसके लिए रिवॉल्विंग फण्ड बना लिया है।

तालिका-3: ऋण सब्सिडी विवरण

ऋण

राशि (रुपए)

सब्सिडी (रुपए)

रिवॉल्विंग फण्ड

25,000

10,000

लिंकेज ऋण

50,000

-

एसजीएसवाई-ईए

2,00,000

1,00,000


इस समूह ने तीन एकड़ जमीन 60 हजार रुपए पट्टे पर ली और भूस्वामी के साथ तीन साल का करार किया गया। पूरे भूखण्ड में कई तरह की क्यारियाँ और नालियाँ बनाई गईं। प्रत्येक क्यारी एक सदस्य के हवाले कर दी गई और जमीन समतल करने, जुताई करने, बुवाई करने, उर्वरक, निराई और सिंचाई तथा तैयार माल के विपणन का काम भी उन्हें सौंप दिया गया। निराई और सिंचाई करने का काम सदस्यों ने खुद सम्भाला और इसके लिए 100 रुपए प्रतिदिन पर मजदूर रखे गए। 250 रुपए प्रतिदिन पर मजदूर रखकर बुवाई कराई गई। जुताई, मेड़ बनाने और बुवाई करने में भी मजदूरों की मदद ली गई। सदस्यों ने बढ़िया लिफाफों में माल की पैकिंग की और इस तरह से उनके अथक प्रयासों से रेत से सोना पैदा होने लगा। भले ही यह एक समूह द्वारा शुरू किया गया काम था, लेकिन इसमें लोगों के व्यक्तिगत उत्साह ने भूमिका निभाई। सदस्यों ने खेतों में पहुँचकर खुद फसल काटी। अच्छे नतीजे के लिए मदर टेरेसा समूह को राज्य सरकार ने मणिमेखला पुरस्कार प्रदान किया।

सफलता के कारण


1. यह गतिविधि स्थानीय संसाधनों पर आधारित थी।
2. गतिविधि का चुनाव अच्छी माँग और लोगों की जरूरत समझकर किया गया।
3. समूह की गतिविधि का आधार व्यक्तिगत प्रयास था।
4. प्रभावी नेतृत्व।
5. स्वयंसेवी संगठनों का समर्थन।
6. ग्रुप की गतिशीलता।
7. बैंकों से ऋण सहायता मिलने में आसानी जिससे निवेश में दिक्कत नहीं आई।
8. अच्छी स्थिति का लाभ — पास के कस्बों और शहर में माल बेचा गया।

इस समूह ने दूधारू पशु खरीद कर एक छोटी सहकारी दुग्ध समिति बनाने का फैसला किया है। समिति ने कम्पोस्ट खाद तैयार करने की भी योजना बनाई है जिसे खेती में इस्तेमाल किया जाएगा।

पर्यावरण-हितैषी उत्पाद


आजकल चारों तरफ पर्यावरण के पक्ष में आवाज उठाई जा रही है। सरकारी और गैर-सरकारी समूहों में पर्यावरण-हितैषी सुरक्षित चीजें इस्तेमाल करने की जरूरत बताई जा रही है। इसे देखते हुए कुछ स्व-सहायता समूहों ने ऐसे उत्पाद बनाने की तैयारी की है।

कांचीपुरम जिले की थिम्मसमुद्रम पंचायत के ओमशक्ति समूह में 17 सदस्य हैं। समूह की स्थापना वर्ष 2001 में की गई थी। सदस्यों ने हर महीने 50 से 100 रुपए तक की बचत करके 58,000 रुपए इकट्ठा किए और इससे कोई ऐसा काम करने का फैसला किया जिससे उनकी आय बढ़े। काम तय करने के लिए उन्होंने आसपास के स्व-सहायता समूहों का दौरा किया और आखिरकार सुपारी से उत्पाद बनाने का फैसला किया। इसके लिए 20,000 रुपए की शुरुआती पूँजी इकट्ठा की गई। समूह ने 40,000 रुपए एक वित्त कम्पनी से 3 प्रतिशत ब्याज पर उधार लिए। मशीनें कोयम्बटूर से खरीदी गईं और कच्चा माल वाझापाड़ी से मिलने लगा। माल बेचने की कोई समस्या नहीं थी क्योंकि बाजारों, होटलों, मन्दिरों और पर्यटन स्थलों में इसकी बहुत माँग है।

इस समूह ने स्व-सहायता समूहों को बढ़ावा देने वाले संस्थान स्टार की देख-रेख में एसजीएसवाई योजना के तहत आवेदन किया। वहाँ से 1.5 लाख रुपए की सहायता मिली जिससे अतिरिक्त मशीनें खरीदी गईं और व्यापार की कार्यकारी पूँजी जुटाई गईं।

इस समूह ने तरह-तरह के उत्पाद तैयार किए जिनकी होटलों, बेकरी और शादी-ब्याह के समारोहों में बहुत माँग है। समूह के एक सदस्य ने कहा कि हम बिना बर्बादी किए तरह-तरह के उत्पाद तैयार करते हैं। हमने इस धन्धे के गुर सीख लिए हैं और बैंक से लिए गए कर्ज के 4,000 रुपए हर महीने वापस कर रहे हैं। इस समूह ने ग्रामीण विकास मन्त्रालय द्वारा दिल्ली में आयोजित कपार्ट मेले और 2007 के अन्तरराष्ट्रीय व्यापार मेले में भाग लिया है।

ऊपर दिए गए विवरणों के विश्लेषण से एक आम निष्कर्ष यह निकलता है कि केवल स्थानीय संसाधनों से ही और बिना प्रशिक्षण के जीविका के नये उद्यम शुरू नहीं किए जा सकते। इसके लिए जरूरी टेक्नोलॉजी और विपणन सहायता भी बहुत महत्वपूर्ण है।

समन्वित कार्यनीतियों की मदद से ही स्व-सहायता समूहों ने स्थानीय संसाधनों का कारगर ढंग से प्रबन्धन किया। इन प्रयोगों से यह भी साबित हो गया है कि जहाँ भी गैर-सरकारी संगठनों ने उत्साह से कोशिश की और लोगों में चेतना जगाई, वहाँ उन्होंने समन्वित और गतिशील समूह बनाने में सफलता पाई। ये समूह स्थानीय संसाधनों को बेहतर ढंग से इस्तेमाल करते हैं। अगर इन संसाधनों के इस्तेमाल में दूर-दृष्टि से काम लिया जाए तो इनकी मदद से अच्छी आय अर्जित की जा सकती है जिससे महिलाओं जैसे कमजोर वर्गों का सशक्तीकरण हो सकता है। स्थानीय संसाधनों के प्रभावी और कुशल प्रबन्धन में स्वयंसेवी संगठन, स्व-सहायता समूह, बैंक और तकनीकी संस्थान जैसे विभिन्न हितधारक भी प्रभावी भूमिका निभा सकते हैं। सरकार का नीतिगत समर्थन भी इनके लिए बहुत उपयोगी होगा।

(लेखिका गाँधीग्राम ग्रामीण संस्थान, गाँधीग्राम, तमिलनाडु के ग्रामीण विकास विभाग की अध्यक्ष हैं)
ई-मेल : drnlalitha.@yahoo.com

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