स्थानीय जनता का समस्या विश्लेषण और योजना का मूल्यांकन एवं विरोध

पुपरी बाजार के पुराने समाजवादी नेता है रघुनाथ जिनके साथ लेखक को अधवारा समूह की घाटी के बहुत से स्थानों पर घूमने का मौका मिला। वे बताते हैं, ‘‘...1954-55 में समाजवादी पार्टी ने लोगों से देश के लिए दिन में ‘एक घंटा दो’ के नारे के साथ मुहम्मदपुर (बाजपट्टी प्रखंड) से मुहम्मदिया नदी, जो अधवारा ग्रुप की एक मृत धारा है, बर्री-बेहटा तक 13 मील लम्बाई में उड़ाही कर दी थी और उससे सिंचाई की व्यवस्था हुई थी। मगर ‘‘...अधवारा पर जब से बांध बना तब से यहाँ का किसान दरिद्र हो गया। बांध जब नहीं था तब बहुत फसल होती थी। यूं समझिये कि प्रायः हर किसान के यहाँ पूरे साल कोई न कोई सामाजिक आयोजन चलता ही रहता था मगर अनाज की कमी नहीं होती थी। आज स्थिति यह है कि किसानों को अपने उपयोग के लिए अनाज खरीदना पड़ता है। पाँच-पाँच चावल मिलें थीं पुपरी में और यह सब अब बंद हो गयी हैं। धान का कटोरा था हमारा इलाका। नदी पर तटबंध बनने के बाद खेतों को ताज़ा मिट्टी मिलनी बंद हो गयी। जरूरत के समय पानी मिलना बंद हो गया तब धान या कोई फसल कहाँ से बचेगी? बाढ़ के मौसम में बाजपट्टी से इधर का इलाका अक्सर कमर भर पानी में डूबा रहता है। सारे रास्ते बंद और दुनियाँ ठहर जाती है हमारे लिए। एक ओर नदी में बाढ़ तो दूसरी ओर ऊपर से बारिश। बाजपट्टी के पास एक नहरनुमा नाला देखा होगा आपने। उसमें लखनदेई का पानी आता है और वह नाला नदी बन जाता है। पुपरी में बुढ़नद नदी का पानी मिल कर और भी ज्यादा तबाही पैदा करता है। बुढ़नद के बायें किनारे पर कभी निलहे गोरों की कोठी हुआ करती थी जिनकी जमीन नदी के दोनों ओर थी। उनकी खेती को बुढ़नद से पानी मिलता था।

यहाँ चौधन्ना धान की दो फसलें होती थीं। इसमें तुलसी फूल, बासमती, परवापंख शामिल था। भदई फसल अप्रैल में बोई जाती थी और जुलाई में काट ली जाती थी। जुलाई में फिर अगहनी धान लगाया जाता था और यह फसल दिसम्बर में काटी जाती थी। एक कट्टे में 2 मन से ढाई मन धान हो जाता था और कभी खाद नहीं देनी पड़ती थी। तब न सिंचाई की चिंता थी और न ही कोई दवा देनी पड़ती थी। अगहनी धान के साथ-साथ मसूर और खेसारी भी बो दी जाती थी। एक-एक मर्द जितना ऊँचा उनका लत्तर फैलता था कि उसमें अगर जानवर चला जाए तो उसमें से उसका निकलना और उसे खोज पाना दोनों ही मुश्किल होता था। अरहर, मटर और चना भी खूब होता था। गन्ना भी होता था और यह गन्ना रैयाम और रीगा चीनी मिल में जाता था। रैयाम की चीनी मिल तो बंद हो गयी मगर रीगा चीनी मिल का अभी भी पुपरी में कांटा लगता है और गन्ना वहाँ जाता है। मगर गन्ना उगाना यहाँ लोगों ने अब बहुत कम कर दिया है क्योंकि एक तो रीगा मिल वालों को गन्ने की जरूरतें उनके आस-पास के इलाकों से पूरी हो जाती हैं और दूसरे वे भुगतान के नाम पर पुर्जी काट देते थे उससे पैसा मिलने में अनावश्यक विलम्ब होता था। सरसों, तोरी, राई और तीसी की भी यहाँ अच्छी खासी फसल हो जाती थी।

नदी के किनारे तटबंध बनाने का प्रस्ताव सरकार का था, यह कभी जनता की मांग नहीं थी। बर्री-बेहटा में अधवारा नदी पर तटबंध बनाये जाने के खिलाफ एक सम्मेलन हुआ था जिसमें तत्कालीन सिंचाई मंत्री राम चरित्र सिंह भी आये थे और सम्मेलन में उनसे तटबंध योजना वापस लेने की अपील की गयी थी। सरकार लेकिन अपने फैसले पर डटी रही। यह 1954 के पहले या उसके आस-पास की बात है। सम्मेलन का आयोजन मुहम्मदपुर के राम चरित्र मंडल ने किया था जिन्होंने ‘एक घंटा देश को देने’ का कार्यक्रम चलाया था।

अधवारा योजना पर जब काम शुरू हुआ तब गंगटी तथा बर्री-बेहटा गाँव के पास योजना के विरोध में कुछ दिनों तक काम रोका भी गया था। हरिहरपुर के किसानों ने भी इसका विरोध किया था मगर सरकार इसे किसानों के हित की योजना मानती थी और अपना निर्णय बदलने या उसका पुनरीक्षण करने के लिए तैयार नहीं थी। 1960 से 1962 तक यह काम पूरा कर लिया गया। यह काम केवल अधवारा नदी पर ही किया गया, उसकी सहायक धाराओं पर नहीं।’’

अधवारा की पुरानी धार और रातो तथा माढ़ा के बीच की दूरी बहुत कम है और यहाँ के किसान बताते हैं कि इनके बीच अगर एक सम्पर्क नहर बना दी जाए तो इससे बहुत ज्यादा क्षेत्र पर सिंचाई हो सकती है। यह पहले नाला था मगर अब पट गया है। आज से कोई पचास साल पहले इस (अधवारा की पुरानी धार) की उड़ाही की गयी थी। इसको अगर गंगटी से जोड़ दिया जाए तो यह पुरानी धार जिंदा हो जायेगी। ऐसा कर देने पर नारायणपुर पंचायत, राजनगर पंचायत, पुपरी पंचायत, हरिहरपुर पंचायत और बर्री-बेहटा समेत कोई सात पंचायतों में सिंचाई की व्यवस्था हो जाती। इस प्रस्ताव को स्थानीय लोगों ने सरकार के सामने कई बार रखा, आन्दोलन भी किया मगर सरकार है कि सुनती ही नहीं है। गंगटी में जो स्लुइस बना है वह जाम है और काम नहीं करता। जब स्लुइस काम नहीं करता तो लोगों ने नहरें तक जोत लीं। जब तक इसे सुधारा नहीं जायेगा तब तक हमारी हालत यही रहेगी।

हरिहरपुर के किसान राम चन्द्र सिंह कहते हैं, ‘‘...यह बांध तो हमारे लिए अभिशाप बन गया है। तटबंध तो बना है केवल भारतीय भाग में। नेपाल में तो सब खुला हुआ है। नेपाल वाला पानी तो अनियंत्रित भाव से यहाँ आता है और जहाँ अभी हम खड़े हैं वहाँ महीने भर से ज्यादा डेढ़ मर्द पानी रहता है। धारा में तेजी इतनी होती है कि आप उससे नजर नहीं मिला सकते। यह सारा पानी पुपरी की तरफ जाता है। अगर कोई बीमार पड़ गया तो उसे इसी तेज धारा में पुपरी या उससे आगे ले जाना पड़ेगा। पुपरी से आगे मरीज नहीं जाता, उसकी लाश ही जाती है बरसात में। हम लोगों की मांग है कि जो कुछ भी पानी का नियंत्रण या वितरण करना है वह यथा संभव ऊपर की ओर कीजिये जिससे उसका वितरण आसान हो सके। सरकार कहती है कि हम नियंत्रण नीचे करेंगे और पानी को ऊपर भेजने का प्रयास करेंगे।

राम चन्द्र सिंहराम चन्द्र सिंहउस हालत में जब नीचे एक मर्द पानी खड़ा होगा तब तो हमारे यहाँ टखने भर पानी पहुँचेगा। यह छोटी सी बात हम उन्हें कैसे समझायेंगे? नीचे अगर इतना पानी खड़ा होगा तो क्या उधर के गाँव वाले बांध को रहने देंगे? वह उसे काट देंगे। यह सारी योजना बनायी गयी नेताओं और अफसरों की जेब भरने के लिए। आम लोगों पर इसका कितना बुरा असर पड़ेगा, यह किसी ने नहीं सोचा? नदी को छेड़ना नहीं चाहिये और अगर छेड़ते हैं तो फिर उसे छोड़ना नहीं चाहिये। आधी-अधूरी योजनाओं का परिणाम बहुत बुरा होता है। हमने अपने बचपन में जितना धान, दलहन और तेलहन अपने घर में देखा है वह अब देखने को नसीब नहीं होता। सरकार ने गेहूँ का मूल्य 1085 रुपये प्रति क्विंटल रखा है और खरीद करने की कोई व्यवस्था ही नहीं है। तब हमें 850 रुपये पर भी खरीदार नहीं मिलता। अरहर अब हमारी पहुँच से बाहर है। एक बार जरूरत पड़ी तो बाजार में पता लगाया था तब 5700 रुपये क्विंटल अरहर और 3400 रुपये क्विंटल चने की दाल की कीमत थी। अब यह दालें केवल विवाह-शादी की शोभा हैं। एक बार हम लोगों ने सीतामढ़ी में बैठ कर प्रस्ताव किया था कि एक युवक सेना बने जो इन सारे बांधों को ढाह दे या जगह-जगह काट दे। बाढ़ तो अभी भी आती ही है मगर उसकी मिट्टी हमें नहीं मिलती है। पुपरी में मिलने वाला रोजगार खतम हो गया है-चमक दमक जरूर बढ़ी है।’’

फुलवरिया (हरिहरपुर) के किसान दिलीप कुमार सिंह का कहना है, ‘‘शिवहर चलिये मेरे साथ, मैं आप को एक-एक हाथ की मकई की बाल दिखाऊँगा जो कि बिना खाद या दवाई की होती है।... यहाँ हमारी कोशिश अब यह है कि खेती करना छोड़ दें। बहुत से लोगों ने आपस में मिल कर जमीन में पेाखरी खुदवा भी दी है। मछली पालने में खेती से कहीं ज्यादा फायदा मिलता है उन लोगों को। मछली पालने के साथ बस एक ही परेशानी है कि उसके लिए कहीं से ऋण नहीं मिलता है क्योंकि उसका बीमा नहीं होता। अगर आपके पास अपनी पूंजी नहीं है तो फिर कर्ज के भरोसे यह काम नहीं हो सकता। खेती को अगर उद्योग घोषित नहीं करेंगे तो किसान बच नहीं पायेगा। मजदूर मांगता है सौ रुपये रोज और अनाज हमारा बिकता ही नहीं है, तब उतनी मजदूरी कहाँ से देंगे? इस बार सरकार ने बाढ़ राहत के नाम पर फसल के नुकसान का कुछ लोगों को मुआवजा दिया। किसान तो यहाँ सारे हैं, उसमें छोटे-बड़े का क्या मतलब होता है? सौ लोगों को नुकसान पहुँचा और पंचायत में खबर आती है कि बीस लोगों के लिए मुआवजे की रकम आयी है। अब किसे मिलेगी और किसे नहीं? जाहिर है जो नेता का करीबी है उसे मिलेगी और जो पिछलग्गू नहीं है वही छूटेगा। आप पुराने नक्शे देखेंगे तो पता लगेगा कि बागमती पहले इधर होकर ही बहती थी। 1934 के भूकम्प के बाद उसकी धारा सूख गयी और शिवहर की तरफ चली गयी।

जब तक बागमती यहाँ थी तब तक यह इलाका खुशहाल था। वह गयी तो खुशहाली गयी। सिंचाई की तो यहाँ जरूरत ही नहीं पड़ती थी। धान, जौ, भदई का मक्का, चना, खेसारी, मसूर आदि सभी कुछ हो जाता था। रबी की फसलों के लिए पानी बहुत कम लगता था। अब तो पानी भी चाहिये। 10 किलो प्रति कट्टा डी.ए.पी. दे रहे हैं। 6 किलो प्रति कट्टा यूरिया देते हैं, तब जाकर 9 से 10 पसेरी (सवा मन से डेढ़ मन) अनाज पैदा होता है। डी.ए.पी. का दाम 12 से 14 रुपये प्रति किलो बैठता है और यूरिया 6 से 6.5 रुपये प्रति किलो मिलता है। 1.5 से 2 किलो पोटाश लग जाता है। यह 9 रुपया किलो मिलता है। इस तरह से एक कट्टे में 165-170 रुपया केवल खाद पर खर्च होता है। यह खर्च पहले तो नहीं था। गेहूँ में दवा तभी देनी पड़ती है जब पत्ते पीले पड़ने लगते हैं। उस समय जिंक की फुहार देनी पड़ती है। सिंचाई बोरिंग से होती है, यह एक से दो बार करनी पड़ती है। 70 रुपया प्रति घंटे के हिसाब से सिंचाई का खर्च आता है। मिट्टी की गुणवत्ता के आधार पर 3 से 5 कट्ठा जमीन एक घंटे में सींची जा सकती है। थ्रेशर वाले को देना पड़ता है। इसके बाद मजदूरी है। यह सब जोड़ कर देख लीजिये, कितना पड़ता है। इसमें किसान के समय और श्रम की कीमत शामिल नहीं है। किसानों के हित में किसी राजनैतिक पार्टी का संगठन नहीं है। पार्टियों में किसानों के मोर्चे हैं, सब वोट ठगने का जरिया है। यह मोर्चे वाले लोग एक दिन खेत में कुदाल चला कर दिखायें न?’’

होना चाहिये यह कि नदी में पानी की सतह उठायी जाए, चाहे वह संचय कर के हो या फिर जगह-जगह पर छोटे चेक बांध बना कर। यह कर लेने के बाद नहरें चाहिये। अगर जरूरत पड़े तो पानी का बटवारा या राशनिंग की जाए, बहुत से प्रान्तों में ऐसा हो भी रहा है। यह सब समाज पहले अपने दम पर कर लेता था और अब यह काम तब होगा जब व्यवस्था को कुछ करने की नीयत होगी।

बंध जाने के बाद नदी की गाद खेतों पर नहीं आ पाती है। जो कुछ भी खेतों में पहुँचता है वह छना हुआ पानी पहुँचता है जो नमी की जरूरत तो पूरा करता है मगर जमीन की उर्वरता पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अधवारा समूह की नदियाँ छोटी-छोटी हैं और पहले किसान इन नदियों पर बांध, बांध कर पानी इधर से उधर करके सिंचाई कर लेता था और एक नदी के पानी को दूसरी बगल की नदी में भेज देने की क्षमता रखता था। अब यह सारी व्यवस्था सरकार के पास चली गयी है। नदियों पर तटबंध बना कर पारम्परिक व्यवस्था को अगर भंग नहीं किया गया तो कम से कम विकृत जरूर किया गया है। सरकारी सिंचाई तो मिली नहीं, जो सामाजिक व्यवस्था थी वह भी कुर्बान हो गयी। अब सहारा लेना पड़ता है बोरिंग से सिंचाई का और रासायनिक खादों का। दोनों के लिए पैसा चाहिये जबकि यह सुविधायें पहले मुफ्त में मिला करती थीं। इस तरह से खेती घाटे का सौदा हो गयी।

भिट्टा मौजा के जलालपुर गाँव के पास से पिलोखर, रातो और अधवारा नदियाँ थोड़े-थोड़े फासले पर बहती थीं। उस नदी की सिंचाई की जरूरत पूरी कर लेने के बाद पिलोखर को मिट्टी के बांध से बांध कर पानी रातो में लाया जाता था। रातो के इलाके की सिंचाई कर लेने के बाद पानी को अधवारा में भेज दिया जाता था। इस तरह जहाँ-जहाँ छोटी नदियाँ थीं वहाँ सिंचाई की व्यवस्था किसानों द्वारा स्थानीय रूप से कर ली जाती थी। समय के साथ वह सारी व्यवस्था ध्वस्त हो गयी क्योंकि आज़ादी के बाद किसानों के योगक्षेम का जिम्मा सरकार ने अपने ऊपर ले लिया। जिम्मेवारी लेना और उसे निभाना अलग-अलग चीजें हैं और उसमें किसान धोखा खा गया।’’

धर्मनाथ प्रसादधर्मनाथ प्रसादपुपरी के किसान और उद्योगपति धर्मनाथ प्रसाद का कहना है, ‘‘...1960 के दशक के पहले श्रीकृष्ण सिन्हा के मुख्यमंत्रित्व काल तक यहाँ नदियों पर कोई तटबंध नहीं था उस समय खरीफ में धान, मक्का आदि और रबी में जौ, दलहन और तेलहन की जबर्दस्त फसल हुआ करती थी। तटबंध बना तो उसका टूटना भी शुरू हुआ। खेतों पर गाद की जगह बालू पड़ने लगा। इस परिस्थिति से निपटने के लिए किसानों की तैयारी नहीं थी जिससे किसानों को नुकसान पहुँचने लगा और उनकी हालत खराब होने लगी। स्थानीय रोजगार खतम हो गया और पहले मजदूर और बाद में किसान भी पलायन के लिए मजबूर हुए। उद्योग पर उसका बुरा असर पड़ा। पुपरी में चावल बनाने की पाँच मिलें थीं। हमारी जानकी राइस ऐण्ड ऑयल मिल सबसे पुरानी थी।

यहाँ से लेकर नरकटियागंज तक प्रायः सभी रेलवे स्टेशनों के पास एक न एक मिल जरूर थी। घोड़ासाहन, छौड़ादानों, अदापुर, नरकटियागंज और भैरोगंज आदि सभी जगहों पर राइस मिलें थीं। सीतामढ़ी में 7-8 मिलें थीं। अब सब की सब बंद हो चुकी हैं। अब धान आता ही नहीं है कि हम चावल बनायें। कच्चा माल ही खत्म हो गया तो कारखाना कहाँ से चलेगा? बनने के बाद तटबंध अगर टूटता है तो एक तरह की परेशानी होती है और अगर बचा रह जाता है तो पानी निकल नहीं पाता और जल-जमाव बढ़ता है। इन दोनों में से ही कुछ हर जगह होना है। नदियाँ छिछली हो गईं और उनकी तलहटी ऊपर उठने लगी। पहले बाढ़ के पानी का तीन-चार दिन से ज्यादा ठहरना नहीं होता था। फसल पूरी होती थी। रबी में मसूर और तीसी जबर्दस्त होती थी। कलकत्ता की अनाज मंडी तक यहाँ की मसूर की दाल भरी रहती थी। यह माल ट्रेन से जाया करता था। उस वक्त चीनी मिलें भी बहुत थीं और वह सब की सब चालू हालत में थीं। 1947-1960 का समय बिहार में कृषि का स्वर्णिम काल था। नेपाल तक से चावल बनाने के लिए यहाँ धान आया करता था। अब मसला ठीक उलट गया है। अब यहाँ का धान नेपाल जाता है।

राइस मिल बंद होने के पीछे कई कारण थे। एक तो सरकार ने लेवी वसूल करना शुरू कर दिया जो मिलों के काम में बेवजह दखलअंदाजी थी। इसके अलावा नेपाल में सड़कें पहले बहुत कम थीं जिसकी वजह से उन्हें आसान पड़ता था कि अपना माल इधर लायें। अब वहाँ रास्ते सुधर गए हैं और उनकी मिलें भी चालू हालत में हैं। इसके अलावा यहाँ तो धान का उत्पादन घटा ही है। अब बिहार में मुख्यतः बक्सर, सासाराम और भभुआ आदि में राइस मिलें बाकी बची हैं। शायद यह सोन नहर की कृपा से होता हो। अब वहीं से चावल इधर और नेपाल में आता हैं और यही बिहार की त्रासदी है। यहाँ का मजदूर पंजाब, हरियाणा जा रहा है। अगर वह वहाँ न काम करे तो पंजाब, हरियाणा की खेती का भट्टा बैठ जाए। मजदूर महाराष्ट्र और असम में भी जाता है यानी अब हमलोग अनाज निर्यात करने की जगह लेबर सप्लायर हो गए। वर्तमान सरकार कहती जरूर है कि बिहार में ही रोजगार उपलब्ध करवायेंगे। ऐसा हो तो कितना अच्छा हो। अभी तो सरकार का किया हुआ दिखायी पड़ने लगा है, वर्षों से यह सब बंद था।’’

सरकार का किया दिखायी तो जरूर पड़ रहा है मगर 2007 के बाद जिस तरह से सड़कों और तटबंधों के निर्माण में तेजी आयी है उसका परिणाम दिखायी पड़ने में अभी थोड़ा समय लगेगा। यह सभी काम अपरिहार्य है और इन्हें रोका नहीं जा सकता और रोकना भी नहींचाहिये मगर उनमें जल-निकासी की कितनी व्यवस्था की गयी है और इसका क्या असर पड़ने वाला है यह अभी भविष्य के गर्भ में है।

मार्च 2008 में रामचन्द्र पूर्वे ने बिहार विधान सभा में एक ध्यानाकर्षण प्रस्ताव रखते हुए कहा, ‘‘...सीतामढ़ी, दरभंगा, मुजफ्फरपुर जिला के 11 प्रखंडों की 70 लाख आबादी प्रतिवर्ष अधवारा समूह की नदियों की बाढ़ की विभीषिका से तबाह होती रहती है। बड़े पैमाने पर इन प्रखंडों में फसलों की क्षति होती है। ग्रामीण सड़कें तहस नहस हो जाती हैं। झोंपड़ीनुमा घर की जल-समाधि होने के कारण विस्थापित लोगों को बांधों तथा सड़कों के किनारे खुले आकाश में अपना जीवन बिताना पड़ता है।’’

वे चाहते थे कि बाढ़ की इस त्रासदी से इस क्षेत्र को बचाने तथा बाढ़ के पानी का सही प्रबंधन कर सिंचाई की समुचित व्यवस्था हेतु अधवारा नदी समूह की एक समेकित योजना बने। इसके उत्तर में रामाश्रय प्रसाद सिंह, मंत्री ने कहा, ‘‘...यह समस्या तो है और सच्चाई है इसको इनकार नहीं किया जा सकता। सिंचाई सुविधा प्रदान करने के पूर्व अधवारा बेसिन को बाढ़ मुक्त किया जाना आवश्यक है। अतः अधवारा समूह बाढ़ प्रबंधन की विस्तृत योजना प्रतिवेदन तैयार कर गंगा बाढ़-नियंत्रण आयोग, भारत सरकार को समर्पित है। आयोग से योजना की स्वीकृति प्राप्त करने की कार्यवाही की जा रही है। योजना के कार्यान्वयन हेतु वित्तीय वर्ष 2008-09 में आवश्यक बजट प्रावधान भी किये गए हैं। जहाँ तक सिंचाई सुविधा प्रदान करने का प्रश्न है उसके लिए भी डी.पी.आर. तैयार करने की कार्यवाही की जा रही है।’’ ऐसी बातें 1950 के दशक में भी सिंचाई विभाग के मंत्री कहा करते थे। इसी से यहाँ के बाढ़ नियंत्रण और सिंचाई की प्रगति का अंदाजा भी लग जाता है।

संदर्भ:


1. सिन्हा, सुआ लाल; The Adhwara Basin Problems, The Searchlight पटना, जनवरी 12-1954, पृष्ठ 4-5
2. सिंह, छोटे प्रसाद; बिहार विधान सभा वादवृत्त, 21 जून 1957, पृष्ठ 22
3. सिंह, दीप नारायण; उपर्युक्त, 7 अप्रैल 1958, पृष्ठ 96
4. पूर्वे, राज कुमार; उपर्युक्त, 31 जुलाई 1965, पृष्ठ 54
5. झा, तेज नारायण; उपर्युक्त, 8 सितंबर 1966, राज्य में बाढ़, अनावृष्टि और सिंचाई पर विचार विमर्श, पृष्ठ 39
6. देवी, श्रीमती प्रतिभा; उपर्युक्त, 31 जुलाई 1967, पृष्ठ 57
7. मिश्र, डॉ. जगन्नाथ, भूतपूर्व मुख्यमंत्री, बिहार, व्यक्तिगत संपर्क
8. Report of the Second Bihar Irrigation Commission, Water Resources Department, Government of Bihar, Appendix 4/53-55.
9. मिश्र, दिनेश कुमार; बाढ़ से त्रस्त-सिंचाई से पस्त-उत्तर बिहार की व्यथा-कथा (1990), समता प्रकाशन, पटना, पृष्ठ 87
10. रघुनाथ, ग्रा./पो. पुपरी, जिला सीतामढ़ी से व्यक्तिगत संपर्क
11. सिंह, रामचन्द्र; ग्राम हरिहरपुर, प्रखंड पुपरी, जिला सीतामढ़ी से व्यक्तिगत संपर्क
12. सिंह, दिलीप कुमार; ग्राम फुलवरिया, प्रखंड पुपरी, जिला सीतामढ़ी से व्यक्तिगत संपर्क
13. प्रसाद, धर्मनाथ, पो. पुपरी, जिला सीतामढ़ी से व्यक्तिगत संपर्क
14. अधवारा समूह की नदियों पर ध्यानाकर्षण प्रस्ताव और सरकार का उत्तर, बिहार विधान सभा, 12 मार्च 2008, पृष्ठ 32-33

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