सतत कृषि विकास की दिशा में पहल

सतत कृषि विकास की दिशा में पहल,फोटो क्रेडिट: विकिपीडिया
सतत कृषि विकास की दिशा में पहल,फोटो क्रेडिट: विकिपीडिया

भारत में कृषि क्षेत्र आज बदलाव की राह पर है। हरितक्रांति भारत के दौर में कृषि क्षेत्र में हम आधुनिक कृषि तकनीक, उच्च उत्पादकता वाले बीजों तथा उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग के साक्षी रहे हैं। परंतु अब खाद्य सुरक्षा और सतत कृषि की ओर बढ़ती वैश्विक जागरूकता के दौर में भारतीय कृषि क्षेत्र के भविष्य को पुनः परिभाषित करने की आवष्यकता है।ऊर्जा, पर्यावरण एवं जल परिषद के एक अध्ययन के अनुसार भारत में 5 प्रतिशत से भी कम किसान सतत कृषि पद्धतियों का उपयोग कर रहे हैं। भारत में जलवायु से प्रभावित कृषि तथा नागरिकों हेतु खाद्य व पोषण के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए सतत कृषि को बढ़ावा देना अवश्यंभावी हो गया है जिस प्रकार वैश्विक जनसंख्या बढ़ती जा रही है और प्राकृतिक संसाधनों में निरंतर कमी आती जा रही है, धरती की सुरक्षा के लिए सतत कृषि का महत्व एक मजबूत विकल्प के रूप में सामने आ रहा है।
कृषि के बेहतर और सतत मॉडल से जुड़ी मौजूदा चुनौतियों का जमीनी स्तर पर समाधान करने के लिए प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और तकनीक की मदद से खेती को बेहतर बनाने की दिशा में काम करने की जरूरत है। पर्यावरण संरक्षण और समावेशी विकास को प्राप्त करने के लिए कृषि से संबंधित गतिविधियों को निकटता से सतत विकास लक्ष्यों के साथ जोड़ना होगा। कृषि में समग्र, सतत व समावेशी विकास प्राप्त करने के लिए किसानों को खेती में संसाधन कुशल बनाकर उन्हें पर्यावरण परिवर्तन के अनुकूल खेती को अपनाने की पद्धतियों में दक्ष करने की आवश्यकता है।

कृषि को 'पर्यावरण अनुकूल' बनाने के लिए केंद्र सरकार, राज्य सरकारों और कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा लगातार कोशिशें की जा रही हैं। प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और कृषि पर बदलती जलवायु के प्रभावों को कम करने के लिए तकनीकी विकसित कर किसानों को सतत खेती से जोड़ने के प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन अभी भी बहुत से किसानों को सतत खेती के बारे में अधिक जानकारी नहीं है। ऐसे में किसानों को पर्यावरण अनुकूल नई कृषि तकनीक और खेती के नए तरीके अपनाने के लिए प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।

बदलते पारिस्थितिकी तंत्र में सतत खेती

पृथ्वी जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता का ह्यस और बिगड़ते पारिस्थितिकी तंत्र के तिहरे संकट से गुजर रही है जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान बढ़ रहा है, मौसम में चरम बदलाव की स्थितियां देखी जा रही हैं जो कि पर्यावरण, कृषि, पशुपालन, मानव समाज व भावी पीढ़ियों के लिए बड़ा खतरा बनता जा रहा है। पारिस्थितिकी तंत्र से मानव जीवन के लिए आवश्यक सेवाएं उपलब्ध होती है जैसे स्वच्छ वायु, स्वच्छ जल, फसलों का परागण, जलवायु पैटर्न का नियमन और मृदा उर्वरकता बनाए रखना आदि। एक ओर पृथ्वी जलवायु सकट से जूझ रही है वहीं दूसरी ओर, किसान व खेती पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। अतः ग्रह के स्वास्थ्य के लिए पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण और बहाली को प्राथमिकता देने हेतु सतत कृषि की ओर कदम तीव्र करने की आवश्यकता है।

हरितक्रांति के बाद देश खाद्य सुरक्षा में आत्मनिर्भर तो हो गया लेकिन खेती में रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों और खरपतवारनाशकों का अत्यधिक उपयोग होने लगा है जिससे मानव स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव, मृदा की गुणवत्ता में कमी एवं पर्यावरण को नुकसान हुआ है। अब कृषि को 'पर्यावरण अनुकूल' बनाने की आवश्यकता है इस हेतु केंद्र सरकार, राज्य सरकारों और कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा लगातार कोशिशें की जा रही है। प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और कृषि पर बदलती जलवायु के प्रभावों को कम करने के लिए तकनीकी विकसित कर किसानों को सतत खेती से जोड़ने के प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन अभी भी बहुत से किसानों को सतत खेती के बारे में अधिक जानकारी नहीं है, अतः किसानों को पर्यावरण अनुकूल नई कृषि तकनीक और खेती के नए तरीके अपनाने के लिए प्रोत्साहित करने की जरूरत है।

सतत कृषि के विकास में चुनौतियाँ

कृषि क्षेत्र में सराहनीय उपलब्धियों के बावजूद अभी भी तमाम चुनौतियाँ किसानों, कृषि वैज्ञानिकों और सरकार के समक्ष मौजूद हैं।

  • भारत की तेजी से बढ़ती जनसंख्या सतत कृषि के विकास में एक बहुत बड़ी बाधा है। बढ़ती जनसंख्या के दुष्प्रभावों में जल का तेजी से घटता स्तर, कृषि योग्य भूमि व वन क्षेत्र में कमी तथा अन्य उत्पन्न पर्यावरणीय समस्याएं हैं, जिससे कृषि के विकास का मार्ग अवरुद्ध हो रहा है।
  • खेती में जोतों के घटते आकार की वजह से कृषि उत्पादकता व कृषकों की आय में कमी आ रही है। परिणामस्वरूप खेती- किसानी में घटते निवेश व युवाओं के मोहभंग के दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं।
  • वर्ष दर वर्ष बढ़ती जा रही ग्लोबल वार्मिंग की समस्या कृषि उत्पादकता को निरंतर प्रभावित कर रही है और ये संकट आने वाले समय में और गंभीर होने वाला है। साल-दर-साल देश के विभिन्न राज्यों में अत्यधिक सूखा अथवा सामान्य से अधिक वर्षा की स्थितियां हमारे सामने आ रही हैं, जिससे खेती और किसान गंभीर रूप से प्रभावित हो रहे हैं।
  • घटती मृदा उत्पादकता के चलते बंजर भूमि का क्षेत्रफल बढ़ता जा रहा है। उर्वरकों एवं कीटनाशकों का बढ़ता उपयोग सतत कृषि की राह को बाधित कर रहा है हमें ऐसे उपाय खोजने होंगे जिससे इनके बढ़ते उपयोग पर रोक लगाई जाये ताकि धीरे- धीरे इसमें कमी लाई जा सके।
  • कृषि आदानों की बढ़ती कीमतों के चलते किसानों को उनकी हासिल करना भी एक बड़ी चुनौती बन गया है । हालांकि सरकार द्वारा विभिन्न उपजों हेतु न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा, कृषि उपज विपणन समितियों, उपज मंडियों की स्थापना जैसे कदम उठाए गए हैं, परन्तु अभी भी इस दिशा में काफी कुछ किया जाना बाकी है।
  • शहरों में अच्छी आय रोजगार के अवसरों की तलाश ग्रामीण क्षेत्रों में निरंतर पलायन की स्थितियां उत्पन्न कर रही है।
  • इसके अलावा, पर्याप्त ऋण, सिंचाई व्यवस्था, सस्ती बिजली की उपलब्धता जैसी अन्य चुनौतियों सतत कृषि के मार्ग को प्रशस्त करने में रुकावट बन रही हैं। हम सभी को मिलकर वर्तमान समय में ऐसे उपाय तलाशने होंगे जिससे कृषि के प्रति लोगों के रुझान को कायम रखा जा सके। इन सभी चुनौतियों को दूर करने में अभी काफी कुछ कार्य किए जाने की आवश्यकता है।

कृषि के सतत विकास एवं कृषकों की सम्पन्नता सुनिश्चित करने के लिए की गई पहल

  • खेती में उर्वरकों की उचित मात्रा व अनुपात के लिए काश्तकार की भूमि के परीक्षण के उपरांत मृदा स्वास्थ्य कार्ड प्रदान करना।
  • सिंचाई के पानी के अनुकूलतम इस्तेमाल के द्वारा कृषि की आगत- लागत कम करने के लिए ड्रिप सिंचाई को बढ़ावा जिससे प्रत्येक बूँद पानी से अधिक पैदावार प्राप्त करना ।
  • किसानों को पूरक आय प्रदान करने तथा कृषिगत ज़रूरतों को पूरा करने में मदद के तौर पर प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना के तहत 6,000 रुपये की वार्षिक मदद प्रदान करना।
  • उपज का उचित मूल्य उपलब्ध कराने के लिए 'ई- नाम' योजना शुरू करना ।
  • कृषि अवसंरचना कोष के तहत बुनियादी ढाँचे का निर्माण ।
  • भारत में सतत कृषि से अधिक से अधिक किसानों को जोड़ने के लिए प्रशिक्षण प्रदान करने के साथ-साथ, स्थानीय घटकों को बढ़ावा
  • जैविक खाद, जैविक उत्पादों के लिए बाज़ार उपलब्ध करवाना।

रसायनमुक्त खेती की दिशा में पहल-सफलता की कहानी

राजस्थान के जयपुर जिले में ब्लॉक गोविंदगढ़ में  कीटनाशक व रसायनमुक्त खेती अपनाई जा रही है। ब्लॉक गोविंदगढ़ कृषि के मामले में राज्य में अपनी विशिष्ट पहचान रखता है, यहाँ के बेर, आँवला एवं सब्जियाँ राज्य भर में प्रसिद्ध हैं तथा इनकी मांग राज्य में निरंतर बनी रहती हैं। क्षेत्र में समय के साथ नदियाँ सूखती गई, जलस्तर निरंतर गिरता गया, और अधिक उपज की चाहत में अत्यधिक रसायनिक उर्वरक के उपयोग से खेती व किसानी पर गम्भीर संकट उत्पन्न हो गया है परन्तु यहाँ के किसानों ने हार नहीं मानी और कम पानी, रसायनमुक्त व पर्यावरण अनुकूल सतत खेती की ओर कार्य करना प्रारम्भ कर दिया है।

केन्द्र व राज्य सरकार द्वारा संचालित कृषि विज्ञान केन्द्रों के माध्यम से किसानों को जागरूक किया जा रहा है और सतत कृषि के लिए प्राकृतिक खेती व जैविक खेती को अपनाने के लिए किसानों को प्रशिक्षण दिया जा रहा है। गोविंदगढ़, जयपुर की ग्राम पंचायत ढोढ़सर में जैविक विधि से अनार का बगीचा तैयार किया गया है। बगीचे में कीटनाशक एवं रसायन मुक्त जैविक खाद का उपयोग किया जाता है। किसान रामसिंह शेखावत अनार की खेती से प्रति वर्ष 13 लाख रुपये का मुनाफा ले रहे हैं। उन्होंने दो बीघा खेत में अनार के 550 पौधे लगाए हैं जिससे अब प्रति वर्ष एक पेड़ से 30 किलो फल प्राप्त होते हैं जैविक विधि से तैयार अनार स्वाद में मीठे एवं रसीले होने से इनकी मंडी में मांग अधिक रहती है। उनके अनुसार अनार के पुष्प में खुशबू नहीं होती है। पुष्प परागण के लिए बगीचे के चार कोनों में गुड़ के पानी से भरे मटके रख दिए जाते हैं तथा कपड़े की छोटी-छोटी बात बनाकर मटके के छेद से बाहर की ओर लटका देते हैं मीठे की खुशबू से बगीचे में मधुमक्खियां आने लगती हैं तथा मधुमक्खियों के प्रचुर मात्रा में आने पर अनार के पेड़ों पर 200 लीटर पानी में 1 किलो गुड़, 3 किलो खट्टी छाछ, 100 ग्राम दाल चीनी का घोल बनाकर स्प्रे कर देते हैं।इससे मधुमक्खियों के फूलों पर बैठने के साथ ही परागण हो जाता हैं। अनार के फलों से टहनियों पर अधिक भार नहीं आए, इसके लिए फलों की पेड़ों पर ही ग्रेडिंग कर दी जाती है। खेत में बूँद-बूँद सिंचाई के साथ वेस्ट डी कंपोस्ट दिया जाता है जिससे पौधे की वृद्धि सही हो सके। इस प्रकार ब्लॉक की अन्य ग्राम पंचायतों के किसान इस मुहिम से निरंतर जुड़ते जा रहे है।
गोविंदगढ़, जयपुर की ग्राम पंचायत देवथला के जैविक किसान जगदीश प्रसाद के अनुसार ब्लॉक के किसान प्राकृतिक खेती किया करते थे परन्तु समय के साथ खाद्य मांग की आपूर्ति हेतु रसायनिक खेती पर जोर दिया जाने लगा। इसका कृषि व मृदा की उर्वरक शक्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ने लगा। अब किसान रसायनिक उर्वरकों के स्थान पर गाय के गोबर से निर्मित खाद एवं प्राकृतिक रूप में उपलब्ध वस्तुओं का उपयोग कर जैविक खाद व कीटनाशक तैयार कर रहे है जिवामृत, धनजिवामृत, नाडेय खाद,गोकृप्पा अमृतम, दशपर्णी कीटनाशी सुपर कम्पोस्ट खाद और वर्मीकम्पोस्ट खाद का गेहूँ, जौ, बाजरा व बागवानी फसलों के खेतों में उपयोग किया जा रहा है जैविक खेती करने वाले किसानों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है जैविक खाद से तैयार उत्पाद का मूल्य रासायनिक खाद से तैयार उत्पाद की तुलना में अधिक मिल रहा है। सरकार द्वारा सतत कृषि के लिए चलाए गए अभियानों से किसानों के साथ-साथ आम जन में भी जैविक उत्पाद के इस्तेमाल को लेकर जागरूकता आई है। आम जन स्वास्थ्य कारणों से जैविक उत्पादों को अपना रहे हैं। इसका सीधा फायदा किसान को मिलने से ब्लॉक के ज्यादातर किसान जैविक खेती को अपना रहे हैं।घटते जलस्तर के कारण गेहूँ, जौ, मूंगफली व बागवानी फसलों का बोया गया क्षेत्रफल घटता जा रहा था। इस समस्या के समाधान हेतु सरकार द्वारा संचालित योजनाओं का लाभ लेते हुए किसान अपने खेतों में फार्म पौण्ड या खेत तलाई का निर्माण करवा रहे है। इसमें संकलित वर्षा के जल का बूंद-बूंद सिंचाई के माध्यम से फसलों के उत्पादन में उपयोग किया जा रहा है।

जैविक खेती का प्रचार-प्रसार करने के लिए ब्लॉक, पंचायत और ग्राम स्तर तक जैविक प्रमुख नियुक्त किए गए हैं। ये किसानों को बिना किसी स्वार्थ के जैविक खेती के लिए प्रशिक्षण, जागरूकता व आवश्यक तकनीक उपलब्ध करवाने का कार्य करते हैं। ब्लॉक में कृषि विज्ञान केन्द्र, कृषि पर्यवेक्षक, स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से प्रत्येक ग्राम पंचायत पर विशेष अभियान चलाकर प्रत्येक माह किसानों को सतत कृषि के फायदे बताए जाते है। किसानों में इससे जागरूकता का संचार हुआ है और ज्यादा- से ज्यादा किसान जैविक खेती से जुड़ते जा रहे हैं।
गोविंदगढ़ के किसानों को जैविक खेती के लिए किए जा रहे नवाचार के लिए राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया गया है। गोविंदगढ़ के किसानों द्वारा इस बदलते परिवेश में अपने आप को ढालते हुए टिकाऊ खेती की ओर मार्ग प्रशस्त किया जा रहा है।"

सतत कृषि के लिए पर्यावरण अनुकूल कृषि तकनीकें

जैविक खेती 

जैविक खेती जैव विविधता संरक्षण, पर्यावरण को रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के प्रतिकूल प्रभावों से करती है। इससे सिंचाई में होने वाले पानी का उपयोग 30 प्रतिशत से 60 प्रतिशत तक कम हो जाता है। इस प्रकार जैविक खेती किसानों की आजीविका बढ़ाने, आम जन के स्वास्थ्य और पृथ्वी कल्याण के लिए श्रेष्ठ हैं। 

फसल विविधता 

एक ही फसल की खेती करने से उत्पन्न होने वाली पर्यवारण संबधी समस्याओं के समाधान के लिए फसलों  में विविधता लाना सबसे अधिक महत्वपूर्ण कदम है।जिन  इलाकों में फसलों के लिए कुछ खरपतवार बड़ी समस्या बने हुए हैं, उनमें फसल चक्र में बदलाव और एक साथ कई फसले उगाने वाली प्रणाली में कुछ फसलों को शामिल करने से अनेक खतरनाक खरपतवार काफी हद तक कम किए जा सकते हैं। इससे खरपतवारनाशक रसायनों के उपयोग की आवश्यकता भी कम हो जाती है। 

फसल प्रणाली में फली वाली फसलों को शामिल करने से जमीन में नाइट्रेट की कमी की समस्या से कारगर तरीके से निपटने में मदद मिली है अनाज की फसलों के साथ चौड़ी कतारों में फलीदार फसलों को उगाना बड़ा उपयोगी साबित हुआ है। दलहन, तिलहन, रेशेवाली फसलों के साथ-साथ फल, सब्जियों, फूलों औषधीय व खुशबूदार पौधों और मसाले जैसी फसलें उगाकर विविधता लाने की आवश्यकता है। लेकिन यह कार्य कृषि जलवायु संबधी स्थितियों और प्राकृतिक संसाधनों के कुशल प्रबंधन में किसानों की सूझबूझ और उच्चतर उत्पादकता व लाभप्रदता को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। इससे खेतों की उत्पादकता बढ़ेगी और मृदा स्वास्थ्य तथा किसानों की आमदनी में सुधार होगा। 

स्मार्ट खेती

जलवायु परिवर्तन, पानी की कमी और जमीन की गुणवत्ता में गिरावट की वजह से भारत में खेती का कामजोखिमपूर्ण और जटिल हो गया है। कृषि | कृषि से जुड़ी शोध और विकास प्रणाली के जरिए भारत में स्मार्ट खेती का आधारभूत ढांचा तैयार किया जा रहा है।

'स्मार्ट खेती' एक वैश्विक पहल है, जिसका मकसद बेहतर और नवीन तकनीक के माध्यम से कृषि का बेहतर और टिकाऊ मॉडल तैयार करना है। कृषि प्रबंधन सूचना प्रणाली, कृत्रिम बुद्धिमत्ता, ड्रोन, स्वच्छ ऊर्जा, नैनो तकनीक और भौगोलिक सूचना प्रणाली के माध्यम से कृषि से जुड़े क्षेत्रों में बदलाव लाया जा सकता है। इन तकनीक से किसानों को मृदा, पानी, सिंचाई के पैटर्न, खाद के बेहतर इस्तेमाल और फसल में कीटाणुओं व अन्य बीमारियों की पहचान करने में मदद मिलती है।

शून्य बजट प्राकृतिक खेती 

सतत कृषि को बढ़ावा देने की दिशा में शून्य बजट प्राकृतिक खेती एक अहम भूमिका निभा सकती है। प्राकृतिक खेती को 'शून्य बजट खेती' भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें कीटनाशकों तथा उर्वरकों का उपयोग नहीं किया जाता है, जिससे कृषकों का खर्च बहुत कम होता है। इस प्रकार की खेती में प्राकृतिक खाद एवं कीटनाशकों जैसे गाय का गोबर, गौमूत्र, नीम तेल इत्यादि का प्रयोग किया जाता है, जिससे मिट्टी की सेहत और फसल उत्पादकता को बढ़ाने में तो सहायता मिलती ही है, साथ ही भारत जैसे देश में, जहां किसानों की आमदनी बहुत कम है, वहां इस प्रकार की खेती के माध्यम से सतत कृषि को बढ़ावा दिया जा सकता है।

पर्यावरण को बेहतर बनाने के साथ वर्तमान समय में सामने आ रहे ग्लोबल वार्मिंग के बड़े संकट से निपटने में यह तकनीक प्रभावकारी है भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति के अधीन 8 राज्यों आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, केरल, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, ओडिशा, मध्य प्रदेश और तमिलनाडु में 4.09 लाख हेक्टेयर भूमि को प्राकृतिक खेती के तहत लाया गया है।

एकीकृत कृषि प्रणाली 

स्थायी कृषि को आगे बढ़ाने के विभिन्न तरीकों में एकीकृत कृषि प्रणाली भी एक उपयुक्त मॉडल है, जिसमें कृषकों को अपने खेत में विभिन्न तरह की फसलें उगाने के साथ-साथ कृषि से जुड़ी अन्य गतिविधियों जैसे पशुपालन, मछलीपालन, मुर्गीपालन इत्यादि करने के लिए प्रेरित किया जाता है। इस प्रणाली के लोकप्रिय होने की मुख्य वजह यह है कि छोटे और सीमांत किसानों को जिनके पास खेती योग्य जमीन कम है, इसके माध्यम से खेती के अलावा आय के अन्य स्रोत प्राप्त होते हैं, जिससे कृषि व्यवसाय में निरंतर बढ़ते जा रहे जोखिम का मुकाबला करने में मदद मिलती है।

भारत जैसे देश में जहां अधिकतर किसानों की आय बहुत कम है, खेती के जोतों का आकार छोटा है तथा कृषि में मानसून पर अत्यधिक निर्भरता है, वहां यह मॉडल बहुत कारगर है। अच्छी आय और रोजगार से किसानों का शहरों की और पलायन रोकने में मदद तो मिलती ही है, साथ ही, मिट्टी की उत्पादकता को बरकरार रखकर पर्यावरण की सुरक्षा में भी सहायक होती है।

सतत जल प्रबंधन

भारत में लगभग 89 प्रतिशत भूजल का उपयोग सिंचाई के लिए किया जाता है। निरंतर जलदोहन से भूजल कम होता जा रहा है। अगर यही स्थिति बनी रही तो वर्ष 2050 तक भारत विश्व में जल सुरक्षाहीनता का केंद्रबिंदु बन जाएगा। कृषि एक ऐसा क्षेत्र है। जो कि अत्यधिक रूप से जल के उपयोग पर निर्भर है। भूमिगत जल का अत्यधिक दोहन व न्यूनतम पुर्नभरण के कारण खेती अत्यधिक संकट की स्थिति में है जिससे खाद्यान्न, तिलहन, फल व सब्जियों के उत्पादन और पशुपालकों की आय पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है।

वर्तमान परिस्थितियों में भूमिगत जल के विकल्पों पर विचार करने की आवश्यकता है। हमें वर्षा जल को संरक्षित कर उसे व्यर्थ बहने से रोकना होगा। वर्षा जल में वायुमंडल से घुले हुए पोषक तत्वों व खेतों से बहकर आए पोषक तत्वों का मिश्रण होता. है। इस गुणवत्तायुक्त जल का उपयोग उन्नत तकनीक को अपना कर फसलों का उत्पादन बढ़ाने में किया जा सकता है। छोटे और सीमांत किसानों को जल के किफायती उपयोग, जल का उचित प्रबंध करने एवं आम जन में चेतना का संचार करने के लिए प्रभावी प्रक्रिया अपनाने की आवश्यकता है।

जल स्तर घटने के साथ ही किसान वर्षा जल को संरक्षित करने हेतु फार्म पौण्ड का निर्माण करवा रहे हैं। इसमें संकलित पानी की हर बूंद से अधिक उपज प्राप्त करने के लिए ड्रिप सिंचाई, स्प्रिंकलर सिंचाई, टपक सिंचाई प्रणाली अपना कर अधिक क्षेत्र में सिंचाई सुविधा को विकसित किया जा रहा है। इस प्रणाली का विकास खेतों में सिंचाई के दौरान पानी की बर्बादी को रोकने, जल संरक्षण तथा कृषकों की इस मद पर होने वाली लागत में उल्लेखनीय कमी लाने के उद्देश्य से किया गया है। इसके अंतर्गत सिंचाई के लिए खेतों में मोटे पाइपों के प्रयोग के स्थान पर पौधों की जड़ों में बूंद-बूंद या टपक सिंचाई प्रणाली के उपयोग से लागत में भारी बचत के साथ संरक्षित जल को अन्य उपयोग में लाया जा सकता है। प्रति बूँद अधिक फसल योजना के तहत दिसम्बर 2022 तक 69.55 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को शामिल किया गया है।"

 भारत में 44.3 लाख किसान जैविक खेती में लगे हैं, जिनकी संख्या दुनिया में सबसे अधिक है, तथा वर्ष 2021-22 तक लगभग 59.1 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को जैविक खेती के अंतर्गत लाया गया है। सिक्किम राज्य में जैविक खेती को बढ़ावा देने हेतु ज़मीनी स्तर पर प्रयास किए गए हैं। परिणामस्वरूप यह पूर्णतया जैविक खेती करने वाला दुनिया का पहला राज्य बन गया है। त्रिपुरा और उत्तराखंड सहित अन्य राज्य समान लक्ष्य निर्धारित कर जैविक खेती को प्रोत्साहित कर रहे हैं। पूर्वोत्तर क्षेत्र के लिए जैविक मूल्य श्रृंखला विकास मिशन के अधीन 177 किसान उत्पादक संगठन बनाए गए हैं, जिसमें 1.5 लाख किसान और 1.7 लाख हेक्टेयर भूमि शामिल हैं।

प्रधानमंत्री कुसुम योजना

भारत में ऐसे कई राज्य हैं जहां पानी की कमी की वजह से फसल खराब हो जाती है या फिर किसान स्वयं के खर्च पर सोलर पैनल लगवाने में असमर्थ होते हैं इस बात को ध्यान में रखते हुए केन्द्र सरकार द्वारा प्रधानमंत्री कुसुम योजना प्रारम्भ की गई है। इस योजना के तहत किसानों के डीजल, पेट्रोल से चलने वाले पम्पों को सौर ऊर्जा पम्पों में बदलने का कार्य शुरू किया गया है। इन सोलर पैनलों द्वारा बिजली का निर्माण होगा जिसका इस्तेमाल किसान अपने खेत व घर में कर सकते हैं और अतिरिक्त बिजली सरकार को बेचकर अपनी आमदनी में वृद्धि कर सकते हैं। सौर पम्पों का छोटे किसान भी सरलता से उपयोग कर कृषि में आमदनी को बढ़ा सकते हैं। कृषकों को समय पर बिजली की निर्वाध आपूर्ति होती रहेगी तथा वे सही समय पर फसलों को पानी उपलब्ध करवा पाएंगे जिससे उत्पादन में वृद्धि होगी। साथ ही, किसान बागवानी फसलों का उत्पादन कर अपनी आमदनी को बढ़ा सकते हैं। सौर ऊर्जा की उपलब्धता सुनिश्चित होने से बिजली की अनियमितता व अनिश्चितता से किसानों को राहत मिलेगी।"

निष्कर्ष

सतत कृषि को सुदृढ़ करने के लिए हमें कृषि उत्पादकता को बढ़ाने, कृषि को लाभकारी बनाने तथा कृषि प्रणाली को अधिक मजबूत करने की दिशा में और अधिक कार्य करने होंगे। जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने हेतु उपायों जैसे जल संरक्षण प्रणालियों को बढ़ावा देना, फसल चक्र में परिवर्तन लाना, परम्परागत कृषि पद्धतियों को अपनाना, स्थानीय उपजों का अधिक इस्तेमाल, कृषि वानिकीकरण, कम पानी की फसलों का उपयोग, मिश्रित खेती इत्यादि को लोकप्रिय बनाए जाने हेतु प्रयास किए जाने चाहिए। इसके लिए केन्द्र और राज्य सरकारों को भी कृषि हेतु बनाए जाने वाली विभिन्न नीतियों योजनाओं में टिकाऊ कृषि को बढ़ावा देना चाहिए, जिसमें सतत कृषि हेतु अनुसंधान, बजटीय प्रावधानों में बढ़ोतरी, कृषि भूमि संबंधित कानूनी प्रावधान, आर्थिक प्रोत्साहन तथा बुनियादी ढांचागत विकास जैसे कदम शामिल हैं।

कृषि क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन के साथ ही ऐसे दृष्टिकोण को अपनाना होगा जिससे रसायनों व कीटनाशकों का कम उपयोग करते हुए प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण एवं सतत कृषि के माध्यम से पौष्टिक भोजन का उत्पादन किया जा सके। कृषि तकनीक से जुड़े शोध और विकास के क्षेत्र में हुई प्रगति के बारे में किसानों में
जागरूकता लाने की आवश्यकता है।

देश का सामाजिक और आर्थिक विकास तभी संभव होगा जब प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल बेहतर प्रबंधन और मैपिंग के जरिए भूख, कुपोषण और खाद्य असुरक्षा को दूर करने की दिशा में कदम उठाए जाएंगे, ताकि मौजूदा और आने वाली पीढ़ियों को इन कदमों का लाभ मिल सके।

सोर्स- कुरुक्षेत्र 

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