पंजाब और हरियाणा के बीच सतलुज यमुना के जल-बँटवारे को लेकर विवाद पिछले 50 साल से भी ज्यादा समय से गहराया हुआ है। पंजाब सरकार का कहना है कि राज्य में जल का स्तर बहुत कम है। गोया हम सतलुज-यमुना नहर के जरिए हरियाणा को पानी देते हैं तो पंजाब में पानी का संकट पैदा हो जाएगा। वहीं हरियाणा सरकार सतलुज के पानी पर अपना अधिकार जता रही है।
ताजा विवाद सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को लेकर गहराया है। न्यायालय ने पंजाब सरकार को बड़ा झटका देते हुए, सतलुज का पानी हरियाणा को देने का आदेश दे दिया है। इसके चलते पंजाब में राजनीति गरमा गई और पंजाब के सभी 42 विधायकों ने इस मुद्दे पर अपने इस्तीफे विधानसभा सचिव को सौंप दिये। विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता चरणजीत सिंह चन्नी भी शामिल हैं। दूसरी तरफ कांग्रेस सांसद और पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने संसद की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया।
हालांकि सिंह की गिनती ऐसे सांसदों में है, जो संसद कम ही जाते हैं। सिंह ने पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल पर राज्य के हितों की सुरक्षा नहीं कर पाने का आरोप भी लगाया है। सतलुज-यमुना जोड़ नहर के निर्माण को लेकर भी पंजाब में विवाद चरम पर है।
दरअसल सतलुज-यमुना विवाद की बुनियाद 1 नवम्बर 1966 को पंजाब के पुनर्गठन के साथ ही पड़ गई थी। इस पुनर्गठन के तहत ही हरियाणा स्वतंत्र राज्य के रूप में अस्तित्व में आया। किन्तु उत्तराधिकारी राज्यों अर्थात पंजाब व हरियाणा के बीच नदियों के पानी का बँटवारा सुनिश्चित नहीं किया गया। केवल केन्द्र सरकार की एक अधिसूचना के जरिए कुल पानी 7.2 एमएएफ (मिलियन एकड़ फीट) में से 3.5 एमएएफ पानी हरियाणा को आबंटित कर दिया गया। इस पानी को पंजाब से हरियाणा लाने के लिये सतलुज-यमुना नहर (एसवाईएल) बनाने का फैसला हुआ। इस नहर की कुल लम्बाई 212 किलोमीटर है।
हरियाणा ने अपने हिस्से में आने वाली 91 किमी नहर का निर्माण समय-सीमा पूरा कर लिया गया, लेकिन पंजाब ने अपने हिस्से की 122 किमी लम्बी नहर का निर्माण अभी तक नहीं किया है। इसके उलट पंजाब सरकार ने मार्च 2016 में नहर निर्माण के लिये जो जमीन अधिग्रहण की थी, उसे वापस करने का फैसला ले लिया।
मसलन पानी देने की बात जड़ से ही खत्म कर देने की कोशिश कर दी गई थी। इस पर हरियाणा ने शीर्ष न्यायालय की देहरी पर दस्तक दी। न्यायालय ने पंजाब को यथास्थिति बनाए रखने का निर्देश दिया। लेकिन अब इस मामले पर अन्तिम फैसला सुनाते हुए न्यायालय ने नहर का निर्माण निर्बाध गति से पूरा करने का फैसला सुना दिया है।
हालांकि इसी तरह के रोड़े अटकाए जाने के दौरान अदालत 1996 और 2004 में भी यही फैसला सुना चुकी है। इस दौरान कांग्रेस और अकाली दल भाजपा गठबन्धन की सरकारें पंजाब में रहीं, लेकिन नहर के निर्माण को किसी ने गति नहीं दी। मसलन एक तरह से न्यायालय के आदेश की अवमानना की स्थिति बनाई जाती रही।
नहर का निर्माण शुरू करने और हरियाणा को पानी दिये जाने के स्पष्ट आदेश के बावजूद पंजाब में शिरोमणि अकाली दल-भाजपा गठबन्धन सरकार फैसले के विरोध में है। सरकार का कहना है, ‘नदी का पानी हमारा कानूनी अधिकार है, जो वैश्विक रूप से मान्य रिपेरियन सिद्धान्त पर आधारित है। यह सिद्धान्त कहता है कि नदी का पानी उस राज्य और देश या उन राज्यों और देशों का है, जहाँ से सम्बन्धित नदी बहती है। पंजाब खुद प्यासा है, इसलिये पानी की एक बूँद भी पंजाब से बाहर नहीं जाएगी। साथ ही नहर के निर्माण में एक ईंट भी नहीं लगाने दी जाएगी।’ यह बयान अदालत की अवमानना तो है ही, इससे यह भी पता चलता है कि आसन्न चुनाव के मद्देनजर पंजाब की मौजूदा सरकार को केवल वोट नजर आ रहे हैं।
प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी ने अपने कार्यकाल में इस मुद्दे को सामूहिक समन्वय से सुलझाने की कोशिश की थी। 31 दिसम्बर 1981 को उन्होंने पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई। बैठक में रावी-व्यास नदियों में अतिरिक्त पानी की उपलब्धता का भी अध्ययन कराया गया।
इस समय पानी की उपलब्धता 158.50 लाख एमएएफ से बढ़कर 171.50 लाख एमएएफ हो गई थी। इसमें से 13.2 लाख एमएएफ अतिरिक्त पानी पंजाब को देने का प्रस्ताव मंजूर करते हुए तीनों राज्यों ने समझौता-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये। समझौते में यह शर्त भी रखी गई कि पंजाब अपने क्षेत्र में आने वाली सतलुज-यमुना जोड़ नहर का निर्माण करेगा। इन मुद्दों से जुड़े प्रकरण भी सुप्रीम कोर्ट से वापस ले लिये गए।
कार्य को गति देने की दृष्टि से इन्दिरा गाँधी ने 8 अप्रैल 1982 को पटियाला जिले के कपूरी गाँव के पास नहर की खुदाई के काम का भूमि-पूजन किया। किन्तु तभी सन्त हरचंद सिंह लोंगोवाल की अगुवाई में अकाली दल ने नहर निर्माण के खिलाफ धर्म-युद्ध छेड़ दिया। नतीजतन पूरे पंजाब में इस नहर के खिलाफ वातावरण गरम होता चला गया।
इसी दौरान पंजाब उग्रवाद की चपेट में आ गया और इन्दिरा गाँधी की हत्या उनके ही निवास स्थल पर सुरक्षाकर्मियों ने कर दी। राजीव गाँधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद 24 जुलाई 1985 को राजीव गाँधी और अकाली दल प्रमुख सन्त लोंगोवाल ने राजीव-लोंगोवाल समझौते पर हस्ताक्षर किये।
समझौते की शर्तों में अगस्त 1986 तक नहर का निर्माण पूरा करने की शर्त पर सहमति बनी। दूसरी तरफ जल-बँटवारे को लेकर पंजाब और हरियाणा के दावों पर सहमति व विचार-विमर्श करने के लिये सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश की अध्यक्षता में प्राधिकरण गठित करने का निर्णय लिया गया। प्राधिकरण ने 1987 में रावी-व्यास के अतिरिक्त पानी को पंजाब व हरियाणा दोनों ही राज्यों को देने का तार्किक फैसला लिया। किन्तु इस फैसले की अधिसूचना पंजाब सरकार के राजपत्र में जारी नहीं की गई।
राजीव-लोंगोवाल समझौते के तहत सरदार सुरजीत सिंह बरनाला के मुख्यमंत्री रहते हुए नहर का निर्माण कार्य शुरू कर दिया गया। काम ने गति भी पकड़ ली, लेकिन पाकिस्तान से निर्यात उग्रवाद की छाया में चल रहे पंजाब में उग्रवादियों ने नहर निर्माण में कार्यरत 35 मजदूरों की एक साथ हत्या कर दी। काम फिर से शुरू होने की कारगार कोशिशें हो ही रही थीं कि नहर निर्माण से जुड़े दो इंजीनियरों की भी हत्या उग्रवादियों ने कर दी। इसके बाद काम लगभग बन्द हो गया।
1990 में तत्कालीन मुख्यमंत्री हुकुम सिंह ने केन्द्र सरकार की मदद से नहर का अधूरा कार्य किसी केन्द्रीय एजेंसी से कराने की पहल की। सीमा सड़क संगठन को यह काम सौंपा भी गया, किन्तु शुरू नहीं हो पाया। मार्च 2016 में तो पंजाब ने सभी समझौतों को दरकिनार करते हुए नहर के लिये की गई 5376 एकड़ भूमि के अधिग्रहण को निरस्त करने का ही फैसला ले लिया।
अब एक बार फिर शीर्ष न्यायालय ने दो प्रान्तों के बीच झुलस रहे पानी के मुद्दे को ठंडा करने का काम किया है, लेकिन पंजाब की गठबन्धन सरकार समेत कांग्रेस जैसा रुख प्रकट कर रहे हैं, उससे नहीं लगता कि यह मुद्दा तत्काल सुलझ जाएगा।
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