अब हम सतलज के काफी निकट पहुंचे गए थे। उसका विशाल स्वरूप दिखने लग गया था। वह शोर करती हुई आगे बढ़ रही थी। उसका पाट काफी चौड़ा दिखाई दे रहा था। जैसे-जैसे हम सतलज के पास पहुंच रहे थे, हरियाली कम दिखाई देने लगी। सतलज की धड़-धड़ की आवाजें करीब होती जा रही थी। अब हम सतलज की कुछ दूरी पर समानांतर पर चल रहे थे। बारिश के कारण सतलज का प्रवाह काफी तेज था। उसका रूप रंग भी मटमैला था। आगे चलकर हम सतलज के बिल्कुल किनारे पहुंच गए। जगह-जगह छोटे-छोटे गदेरे जहां पर भी सतलज में मिल रहे हैं, अपने साथ ढेर सारा मलबा भी धकेल कर लाए हैं। ऐसा लक्षण यत्र-तत्र देखने को मिलता है।
सिंधु नदी एवं उसकी सहायक धारा स्योक, सुरू, जन्सकार, द्रास, झेलम, सिंध की यात्रा तो मैंने एक बार नहीं दो बार-तीन बार कर चुका था। व्यास नदी के पनढाल में दो बार जा चुका था, लेकिन सतलज के मैंने दर्शन भर भी नहीं किए थे। सन् 2000 तथा सन् 2004 के बाद सतलज नदी काफी चर्चा में रही। सन् 2000 में सतलज की बाढ़ से कौन परिचित नहीं है। 2003 एवं 2004 के बाद पारिचू में हुए भूस्खलन एवं उसमें बने ताल के कारण आगे भी वह चर्चा में रही। सन् 2000 में जब सतलज में बाढ़ आई तो उस समय मैंने मंत्रीमंडलीय सचिव एवं कृषि सचिव भास्कर बरूवा जी के पत्र लिखा था। “सतलज बराबर बौखलाती रहती है, इसलिए इन नदियों के पनढालों के बारे में विज्ञान सम्मत ढंग से जानकारी होनी चाहिए। हम तिब्बत वाले क्षेत्र के बारे में भले ही समझ न बना सके, पर अपने देश में प्रवेश वाले क्षेत्र से लेकर के उसके बेसिन के बारे में जानकारी हासिल होनी चाहिए। ताकि जिससे इसकी बौखलाहट के बारे में हम सावधान हो सके तथा इसके पनढालों एवं संवेदनशील क्षेत्र को चिह्नित किया जाना चाहिए।” मंत्रीमंडलीय सचिव की ओर से तो कोई जवाब नहीं मिला था, लेकिन तत्कालीन कृषि सचिव बरूवा के अध्ययन के लिए वैज्ञानिकों की समिति बनाने की सहमति जताते हुए, मुझसे वैज्ञानिकों के नाम भी मांगे थे, लेकिन कुछ दिन बाद बरूवा जी रिटायर्ड हो गए। जैसा कि होता है कि उस दिशा में कोई भी कार्यवाही आगे नहीं हुई, लेकिन मेरे मन में सतलज को देखने और समझने की तमन्ना थी। मैं चौथी अवस्था में प्रवेश कर चुका हूं। इसलिए उतावला तो मैं हो ही रहा था।सतलज यात्रा के लिए पिछले तीन वर्षों से लगातार कार्यक्रम बनाया, लेकिन वह टलता ही रहा। इस वर्ष के आरंभ में ही मैंने महेंद्र सिंह कुंवर से इस बारे में चर्चा की तो उन्होंने सहमति जता दी। आखिर में महेंद्र ने वंदना थपलियाल से कार्यक्रम बनाने को कहा तो प्रवीन थपलियाल, जो कि मुख्य वन संरक्षक शिमला में हैं, ने एक सप्ताह का यात्रा कार्यक्रम बनाकर भेजा। महेंद्र ने ईमेल से मुझे कार्यक्रम की जानकारी दी। एक बार तारीख आगे पीछे करने की बात हुई लेकिन निश्चय हुआ कि अन्य मीटिंग टाली जा सकती है, किंतु यह कार्यक्रम टाला नहीं जाना चाहिए। इस प्रकार 29 अगस्त 2009 को मेरे साथ रूद्रप्रयाग से रमेश पहाड़ी, प्रताप सिंह पुष्पवाण तथा श्रीनगर से डॉ. अरविंद दरमोड़ा भी देहरादून हार्क के कार्यालय में पहुंच गए। वहां पर पहले से ही सूरत सिंह रावत पहुंच गए थे। इस प्रकार हिमालय एक्सन रिसर्च सेंटर की ओर से यात्रा का प्रबंध किया गया। हम पांचों के अलावा दल नायक महेंद्र सिंह कुंवर, प्रकाश रतूड़ी तथा जगदंबा प्रसाद सहित हम कुल आठ लोग थे। दो ड्राइवर सहित दस लोग हो गए थे।
30 अगस्त की सुबह 5 बजे हमने देहरादून से दो कारों में प्रस्थान किया। मुझे सुबह कुछ खाना पड़ता है, दवा लेने के लिए वसंत विहार में सुषमा ने सूप तैयार कर रखा था। जल्दी में सूप पीने के बाद हम सीधे नहान के आगे बागी धार (दो बाटा) में रूके, जहां से रेणुका देवी जी के लिए रास्ता जाता है। वहां पर नाश्ते में परोठे लिए। थोड़ी देर बाद हमारे दो-तीन साथियों का पेट गड़बड़ाने लगा। ऐसा लगा कि नाश्ता बासी रहा होगा। सोलन के बाद एक बड़े चौरास में सेब और मक्का का बाजार लगा हुआ था। हमारे साथियों ने भी रास्ते के लिए 35 रुपए प्रति किलो के हिसाब से सेब खरीदे। गोपेश्वर में इस तरह के सेब एक सौ रुपया प्रति किलो के हिसाब से बिक रहे थे। बारिश लगनी शुरू हो गई थी। धीरे-धीरे बढ़ती गई। 1 बजे हम शिमला में वन विभाग के अधिकारियों की आवासीय कालोनी में पहुंचे, जहां पर वंदना जी तथा प्रवीण थपलियाल जी हमारा इंतजार कर रहे थे। प्रवीण जी ने आगे के कार्यक्रम के बारे में विस्तार से जानकारी दी। कहां-कहां रूकना है क्या-क्या देखना है।
प्रवीण जी ने बताया कि पहले शिमला में घासनियाँ थी। इन घासनियों को देवदार के जंगल में तब्दील करने का काम अंग्रेजों ने किया। उन्होंने निजी पट्टों को खरीदा। आज शिमला देवदार के जंगलों से आच्छादित है। बारिश और तेज होती गई। हम कमरे के अंदर थे, इसलिए लग नहीं रहा था। भोजन पर उन्होंने अपने एक मित्र जो कि विद्युत निगम के प्रबंधक निदेशक हैं, को भी बुलाया था। उनसे जल विद्युत परियोजनाओं के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त की। इस बीच हिमाचल विश्वविद्यालय में अंग्रेजी की प्रोफेसर जयवंती डिमरी जी भी वहां मिलने आ गई थीं। उन्होंने भूटान पर उनके द्वारा अनुवादित पुस्तक भेंट की। जयवंती डिमरी भूटान के कांगलुंग के महाविद्यालय में कुछ वर्ष पहले अध्यापिका रह चुकी हैं। हमारी भूटान यात्रा के बारे में चर्चा हुई। वंदना जी ने बड़ी मेहनत से हमारे दल के लिए दिन का भोजन तैयार किया था, जो बहुत स्वादिष्ट था। कुछ पदार्थ मेरे लिए स्वास्थ्य के कारण वर्जित थे फिर भी मैंने उन्हें चख ही लिया। पहाड़ी जी और रावत जी तो अपने को रोक नहीं पा रहे थे। उन्होंने कई वस्तुएं चट कर दी। दांत के दर्द के बावजूद पहाड़ी जी खट्टा मीठा सब लेते रहे। खाने के मामले में महेंद्र जी काफी काफी कंजूस दिखे। वे भी परहेज करते रहे।
बारिश जोर से हो रही थी लेकिन अपने अगले पड़ाव पर समय पर पहुंचने की दृष्टि से हम निकल पड़े। वंदना जी ने जाते-जाते राहुल सांकृत्यायन की ‘किन्नर देश’ पुस्तक के अलावा दो अन्य अंग्रेजी की पुस्तकें साथ पढ़ने के लिए दे दी। बारिश जोरो से हो रही थी। कुहरा कभी ऊपर कभी नीचे पहाड़ियों को घेरे हुए था। हम एक मोड़ से दूसरे मोड़ को पार करते हुए आगे बढ़ रहे थे। कैल, फर, स्प्रूस से घिरे जंगलों से आच्छादित चोटियां, उसके बाद सेब के बाद के बीच-बीच में इक्का-दुक्का मकान। रास्ते में जहां-तहां ट्रक सेब की पेटियां ढोने के लिए खड़े मिले। 6 बजे सायं के लगभग हम नारकंडा पहुंचे। यहां पर भी कई ट्रक खड़े मिले। ये सेब और सब्जी लादने का इंतजार करते दिखाई दिए। नारकंडा से लगभग एक किलोमीटर आगे ढाल पर हमारी कारें रूकी। यहां हिमाचल वन निगम का नेचर कैंप धामड़ी है। यह मोटर मार्ग के ऊपरी भाग में स्थित एक ढालदार बुग्याल में स्थित है। इसके दोनों ओर फर, स्प्रूस के विशाल वृक्ष खड़े हैं। नारकंडा सतलज और यमुना का जल विभाजक भी है। एक तरफ के पनढाल का पानी टौंस की सहायक में जाता है। दूसरे ढाल का पानी सतलज की सहायक में जाता है। वन निगम ने 6 लकड़ी के हट बनाए हैं जो काफी आराम देह हैं। 10 टेंट कॉलोनी हैं। यहां पर 32 लोग एक साथ रह सकते हैं। भोजनालय अलग से है। इसकी देख-रेख एक डिप्टी रेंज अधिकारी के. आर. कश्यप के जिम्मे है। बारिश हो रही थी इसलिए उनके पास छातों का भी पूरा प्रबंध था। बारिश के कारण ठंड काफी बढ़ गई थी। हमारे साथ गैस सिलेंडर और एक बर्तन भी था इसलिए मैं तो चार बजे उठकर काढ़ा बनाकर पी लेता था। काफी लोग उसके बाद ही उठते थे।
अगले दिन सुबह ही हमने 6 बजे प्रस्थान किया। बादल कुछ-कुछ छट गए थे। बारिश के बाद का दृश्य बहुत सुहावना था। जंगल के बाद खेत बगीचे, उनके बीच सुंदर से मकान। बारिश ने उन्हें नहला दिया था। सड़क के आजू-बाजू के सेब के वृक्षों पर लदे फल बहुत ही आकर्षक लग रहे थे। कुछ मोड़ नीचे आने के बाद एक तिरछी पतली सी रेखा दिखाई दी। पता चला कि यही सतलज नदी है। मेरी आंखे बार-बार उसे देखती रही। वह कभी मोड़ों पर ओझल हो जाती थी। अब हम सतलज के काफी निकट पहुंचे गए थे। उसका विशाल स्वरूप दिखने लग गया था। वह शोर करती हुई आगे बढ़ रही थी। उसका पाट काफी चौड़ा दिखाई दे रहा था। जैसे-जैसे हम सतलज के पास पहुंच रहे थे, हरियाली कम दिखाई देने लगी। सतलज की धड़-धड़ की आवाजें करीब होती जा रही थी। अब हम सतलज की कुछ दूरी पर समानांतर पर चल रहे थे। बारिश के कारण सतलज का प्रवाह काफी तेज था। उसका रूप रंग भी मटमैला था। आगे चलकर हम सतलज के बिल्कुल किनारे पहुंच गए। जगह-जगह छोटे-छोटे गदेरे जहां पर भी सतलज में मिल रहे हैं, अपने साथ ढेर सारा मलबा भी धकेल कर लाए हैं। ऐसा लक्षण यत्र-तत्र देखने को मिलता है।
सांगला के ऊपर कामरू गांव है, जिसे राजा का गांव कहते हैं। बताया जाता है कि राजा का तिलक यहीं होता है। यहां पर मंदिर भी हैं। स्त्री-पुरुष सभी टोपी पहनते हैं। पहनावे में अधिकांश ऊनी वस्त्र ही पहनते हैं। स्थानीय ऊन के साल दुपट्टे एवं कोट, जवाहर कट पहनने का खूब रिवाज है। सांगला घाटी के बीचों-बीच वास्पा नदी बहती है। इसके आगे इसका प्रवाह मिट्टी को काटकर नीचे चला गया है। दोनों ओर से अर्ध्यनुमा घाटी है। इसके आजू-बाजू में पूर्व में हुई गड़बड़ी के चिह्नि दिखाई देते हैं। जहां से सांगला में प्रवेश करते हैं। वहां पर भी पूर्व में नाले के बौखलाने के चिह्न साफ दिखाई देते हैं। यह कोई बहुत पुरानी बात नहीं होगी। अभी इसमें पुल का निर्माण कार्य चल ही रहा है।
आगे सतलज जलविद्युत परियोजना दत्त नगर मिला। वहां पर कार्य तेजी से हो रहा है। पता चला कि यहां से रामपुर कोई पांच किलोमीटर की दूरी पर है। नदी सड़क से बिल्कुल सट गई थी। आगे पोपुलस के पेड़ नदी से सटे हुए देखे गए। वहां से नदी मुड़ जाती है। इसलिए दिख नहीं रही थी। इधर हमारा जलपान का समय हो रहा था। कल के अनुभव से हम बाज आ गए थे। पहाड़ी जी के एक पुरोहित देवेंद्र प्रसाद मलेठा, जोकि रामपुर में रहते हैं, को पहाड़ी जी ने फोन से आने की सूचना दी। यह भी बताया कि हम वहां नाश्ता करेंगे। हम नाश्ता होटल में नहीं तुम्हारे यहां करेंगे। वह पहाड़ी जी से कह रहा था कि वी.आई.पी. लोग हैं मेरे यहां? लेकिन पहाड़ी जी ठहरे, वे उन्हें छोड़ने को तैयार नहीं थे। आगे हमने मोड़ को पार किया तो वहां सड़क के किनारे पर देवी का बहुत सुंदर मंदिर बना हुआ था। मंदिर के प्रांगण में देवेंद्र प्रसाद खड़ा था। पहाड़ी जी ने उसे पहचान लिया। मंदिर में गए दर्शन किए। यहां पर सतलज नदी कुछ मीटर नीचे बह रही थी। सामने रामपुर नगर दिखाई दे रहा था। प्राचीन एवं आधुनिक का मिश्रण लिए हुए। नदी के दायीं ओर शिमला जिले में रामपुर तथा बायीं ओर कुल्लू जिले में ब्रौ पड़ता है पर दोनों हैं एक ही सतलज को पार करने के लिए सतलज पर पुल बना हुआ है।देवेद्र प्रसाद हमें मंदिर से दौ सौ मीटर आगे रोकते हैं और अपने साथ चलने के लिए कहते हैं। बारिश अभी भी हो रही थी। देवेंद्र प्रसाद के पीछे-पीछे सौ मीटर ऊपर एक दुमंजिले मकान के अंदर पहुंचे। उनकी पत्नी अंदर जलपान तैयार कर रही थी। देवेंद्र प्रसाद जी बड़े संकोच में दिख रहे थे। उनके मन में वी.आई.पी. आ रहे हैं का बहुत दबाव था। थोड़ी देर बाद उनकी पत्नी भी बाहर आई। वे नम्रता की प्रतिमूर्ति दिख रही थी। उनकी आंखों में पहाड़ी जी के प्रति अपनत्व का भाव दिख रहा था। पहाड़ी जी ने एक-एक करके सबका परिचय करवाया। देवेंद्र तो चकरा सा रहा था। जलपान हमारे मनपसंद का परोसा गया। सादी रोटी, सब्जी जिसकी कि पहले ही पहाड़ी जी ने फरमाइश कर दी थी। उन्होंने सब्जी भी दो तीन प्रकार की बनाई थी। घर का मक्खन साथ ही घी में चीनी मिलाकर परोसा गया। पर यह सब एक के बाद एक कर ही दिया गया। हमारे साथियों ने छक कर खाया। बहुत ही स्वादिष्ट, पौष्टिक नाश्ता किया। मैंने देवेंद्र की पत्नी को पूछ लिया कि बेटी तुम्हारा मायका कहां है। पता चला कि रतूड़ा में है। मैंने अपनी भानजी का ससुराल होने की बात कहकर दूरी को तोड़ा। दोनों पति पत्नि हमें छोड़ने नीचे सड़क तक आए। मैं देख रहा था कि हमारे प्रस्थान के समय उनकी आंखे छलछलाने लग गयी थीं। देवेंद्र बार-बार कह रहा था कि तुम्हारे पसंद का नाश्ता नहीं हुआ। पर हम कैसे समझाते कि आज तो हमें तृप्त करने वाला जलपान मिला। उन्होंने हमें रास्ते के लिए सेब भी दे दिए थे।
रामपुर के बाद सतलज नदी गहरी घाटी में बहती है। आगे हमें नाथपा झाकरी जलविद्युत परियोजना दिखाई दी। बताया जाता है कि सन् 2000 की सतलज की बाढ़ से यह प्रभावित हुई थी। पारिचू में बने ताल के टूटने के बाद यह परियोजना एवं घाटी प्रभावित हुई थी। आगे नदी द्वारा जगह-जगह टो कटिंग किया गया दिखा। स्थान-स्थान पर भूस्खलन भी दिखाई दिए। आगे जलविद्युत परियोजनाओं का कार्य भी जारी है। इधर टनल से निकाला गया मलबा एवं परियोजना स्थल का मलबा, जो नदी के किनारे-किनारे जमा किया गया है, नदी में आने से रोकने के लिए जगह-जगह उसकी सुरक्षा के लिए ऊंची दीवार बनाई गई है ताकि मलबा नदी में न बहे। आगे करछम वांगटू जलविद्युत परियोजना भी दिखाई दी। बताया जाता है कि यह परियोजना 1000 मेगावाट की है। यह परियोजना जे.पी. एसोसीएट्स ने बनाई है।
करछम से हम सांगला घाटी की ओर मुड़े। यह रास्ता बहुत संकरा है। मीलों तक चट्टान को काटकर रास्ता बना है। सड़क के ऊपर झूलती हुई चट्टानें हैं। आगे चलकर वास्पा नदी बहती है। उसमें कई छोटे नाले जगह-जगह पर मिलते दिखाई दिए। उनमें कई जगह रेंड़े भी दिखाई दिए, जिससे मुख्य नदी को रोकने के लक्षण साफ दिखाई देते हैं। करछम से सांगला 16 किमीटर दूर है। नदी के दोनों ओर बड़े-बड़े भूस्खलन हैं। कोई गांव ऐसा नहीं है जो ग्रेवटी रोप वे से मोटर सड़क तक न जुड़ा हो। उससे वहां की उत्पाद साग-सब्जी एवं फलों का ढुलान होता है। वहीं ग्रामीणों की दैनिक उपयोग की वस्तुएं भी ढोयी जाती हैं। यह काफी सस्ता भी पड़ता है। लोगों के मकान मुख्यतः टिन, पत्थर एवं लकड़ी के बने हैं और बहुत सुंदर हैं। इनकी छत काफी ढालदार है, जिन्हें परेक से ठोका गया है। घरों के अंदर सुधरा हुआ निर्धूम चूल्हा लगा हुआ है, जिससे भोजन पकाने के अलावा कमरे गर्म हो जाते हैं। फर्श अधिकांश लकड़ी के बने हुए हैं। सफाई अच्छी है।
सांगला पर्यटक स्थल है। यह घाटी आगे भी बहुत सुंदर बताई जाती है। यह इस इलाके का मुख्य बाजार है। यहां पर लोग अपना माल बेचते हैं। तथा यहां से अपनी आवश्यकता के अनुरूप माल भी खरीदते हैं। यहां पर छोटे-बड़े कई रेस्तरां हैं। रहने के होटल भी हैं। पर्यटकों की भारी भीड़ है। विदेशी पर्यटक भी काफी देखे गए। सरकारी गेस्ट हाउस भी हैं। मांसाहार ज्यादा परोसा जाता है। इसलिए हमें तो थोड़ी दिक्कत हुई। लेकिन एक बहिन के आश्वासन पर हमें सादा एवं स्वादिष्ट भोजन मिल गया था। सांगला के ऊपर कामरू गांव है, जिसे राजा का गांव कहते हैं। बताया जाता है कि राजा का तिलक यहीं होता है। यहां पर मंदिर भी हैं। स्त्री-पुरुष सभी टोपी पहनते हैं। पहनावे में अधिकांश ऊनी वस्त्र ही पहनते हैं। स्थानीय ऊन के साल दुपट्टे एवं कोट, जवाहर कट पहनने का खूब रिवाज है। सांगला घाटी के बीचों-बीच वास्पा नदी बहती है। इसके आगे इसका प्रवाह मिट्टी को काटकर नीचे चला गया है। दोनों ओर से अर्ध्यनुमा घाटी है। इसके आजू-बाजू में पूर्व में हुई गड़बड़ी के चिह्नि दिखाई देते हैं। जहां से सांगला में प्रवेश करते हैं। वहां पर भी पूर्व में नाले के बौखलाने के चिह्न साफ दिखाई देते हैं। यह कोई बहुत पुरानी बात नहीं होगी। अभी इसमें पुल का निर्माण कार्य चल ही रहा है।
हमें सांगला में प्रवेश करते हुए फॉरेस्ट गार्ड मिल गया था। बाद में वह हमें वास्पा जलविद्युत परियोजना में ले गया। यह परियोजना जेपी कंपनी की है। यहां पर इसका बैराज है। बैराज के पास ही उनके तीन-चार विश्राम गृह है। इनके बीचों-बीच सेब का बाग है। परियोजना के मुख्य अभियंता भी हमें मिले। बता रहे थे कि वे पहले हरियाणा सरकार के सिंचाई विभाग में मुख्य अभियंता रह चुके हैं। सेवानिवृत्ति के बाद जे.पी. की परियोजना में कार्यरत हैं। उन्होंने बताया कि उत्तराखंड से इस परियोजना में काफी लोग कार्यरत हैं। दो व्यक्ति हमें मिलने भी आए। एक चमोली जिले के घाट का तथा दूसरा रुद्रप्रयाग के पास का था। उन्होंने बताया कि प्रारंभ में स्थानीय लोगों के कारण कुछ परेशानी जरूर हुई पर बाद में सब ठीक हो गया। वास्पा नदी के भूदृश्य को देखकर लगता है कि यह परियोजना काफी जोखिम भरी है। यहां की ऊंचाई 8 हजार फीट से अधिक होगी।
अगले दिन सुबह जलपान छक कर किया। 8.30 बजे हमने पास में ही स्थित पालमपुर कृषि विश्वविद्यालय के पर्वतीय कृषि अनुसंधान परिषद एवं प्रसार केंद्र को देखने गए। यहां डॉ. नानक नेगी तथा डॉ. सुरेंद्र शर्मा मिले। उन्होंन बताया कि इस केंद्र के माध्यम से मुख्य रूप से काला जीरा तथा केशर की खेती का अनुसंधान एवं विस्तार किया जा रहा है। पास के गांव में हर परिवार को इसकी खेती से हजारों रुपयों की आय हो रही है। उन्होंने यह भी बताया कि काला जीरा का पौधा वल्व के द्वारा उसी साल पैदावार दे देता है। बीज बोने में तीन साल लगते हैं। पता चला कि 125 केशर के फूलों से एक ग्राम केशर निकलती है। यहां पर ओगल और फाफर की प्रजाति पर भी शोध हो रहा है। साथ ही याक ब्रिडिंग सेंटर भी है। अभी तक आठ याक हैं। याक ऊंचाई वाले स्थान पर गए हैं। सांगला के पास की यह बस्ती कुपा कहलाती है। डॉ. नेगी ने बताया कि इस इलाके में 90 प्रतिशत परिवार अद्यान पर अवलंबित हैं। लगभग एक लाख रुपया तक की प्रति परिवार आय हो जाती है। राजमा, ओगल, फाफर भी पेडों के नीचे उगाए जाते हैं।
यहां से हम कुपा गांव के ही एक परिवार के यहां गए। यहां पर हमें सुदर्शना देवी जी मिली। बता रहीं थीं कि उनके परिवार की 33 कनाल भूमि है, जिसमें से 15 कनाल में सेब का बाग है। इस वर्ष नौ लाख पचास हजार रुपए के सेब उनके बगीचे से बिक्री हुए। राजमा, ओगल, फाफर भी हो जाता है। इसके अलावा सब्जी भी खूब होती है। उनकी मांजी ऊमा 90 वर्ष से अधिक की है। दो मकान हैं, जिन पर लकड़ी का प्रयोग अधिक है। लकड़ी को जोड़-तोड़ कर लगाया गया है। एक तरफ से यह भूकंप को सहन करने वाली शैली है। घर के अंदर निर्धूम चुल्हे स्थापित किए गए हैं। भोजन बनाने के साथ-साथ कमरा भी गर्म होता है। फर्स पूरी तरह से लकड़ी का बना हुआ है। सुदर्शना देवी जी ने हमें किन्नौरी टोपी भेंट की। टोपी पर ऊपर से परंपरागत फूलों का गुच्छा भी लगाया। उन्होंने टोपी खुद अपने हाथ से हमें पहनाई इससे उन्हें बड़ा संतोष हुआ। उन्होंने भोजाई से ताजा सेब पेड़ों से तोड़कर मंगाया भी। जो लगभग आठ-दस किलो होगें। फिर कार तक भेजने भी आई। बता रहीं थीं कि वे कुछ वर्ष पहले बदरीनाथ जी के दर्शन करने गई थी।
इस प्रकार हमने दिन के 12 बजे सांगला से प्रस्थान किया। आगे हम फिर से वास्पा नदी को छोड़कर सतलज के किनारे-किनारे आगे बढ़े। जगह-जगह भूस्खलन दिख रहा था। आगे हम पुल को पार करते हुए सतलज के बाएं तट से आगे चलते गए। दांयी ओर सतलज के ऊपरी भाग में एक बड़ा भूस्खलन दिखा। अब इस पर चिलगोजा के विकास मान वृक्ष दिख रहे थे। इसलिए आगे हमने मुख्य सड़क को छोड़ दिया था। बायीं ओर के अनेक मोड़ों को पार करते हुए चढ़ते गए। सामने की पहाड़ी चिलगोजा के वृक्षों से आच्छादित थी। बीच में सेब के बगीचे हैं। हरियाली अपने यौवन में दिख रही थी। एक और मोड़ पर करने के बाद हम किन्नौर जिले के मुख्यालय रिकौंगपियो पहुंच गए। रिकौंगपियो मेरे लिए खास नाम है। हमारे एक मित्र हंसराज सिंह नेगी, जो वर्षों तक गोपेश्वर में हमारे साथ रहे और बाद में पी.एच.डी. करने के बाद वे पालमपुर में वैज्ञानिक थे, दो वर्ष पूर्व पालमपुर से रिकौंगपियो जाते हुए कार दुर्घटना में पत्नी सहित मारे गए थे। जीवित रहते हुए कई बार रिकौंगपियो चलने को कहते थे। उनके जीते जी तो आने का मौका नहीं मिला। इस बार आया तो वह हमारे बीच नहीं रहे। उनके दो प्यारे से बच्चे हैं, जो मुझे दादा कहकर पुकारते थे। हंसराज सिंह की मांजी रिकौंगपियों में मिडवाईफ हैं तथा बाकी समय में वे स्थानीय वस्त्रों एवं मेवों की दुकान भी चलाती हैं। उन्हें ढूढ़ने में हमें देर नहीं लगी। एक अधेड़ उम्र की महिला उस दुकान पर खड़ी थी। मैने नर्तन देवी के बारे में पूछा तो उन्होंने हामी भरी। फिर मैंने हंसराज सिंह की याद दिलाई तो उनकी आखें भर आईं।
बाद में पता चला कि उसके दादा, जिन्होंने उसे पाला-पोसा, पढ़ाया था कुछ दिन बाद वह भी चल बसे। हंसराज अपने दादा के प्यार के कई किस्से सुनाते थे। पता चला कि उनके दोनों पुत्र विराज और रूद्राक्ष सरान में एक पब्लिक स्कूल में पढ़ते हैं। वे वहीं छात्रावास में रहते हैं। सरान पीछे छूट गया था। इसलिए उन दोनों से न मिल पाने का मुझे अफसोस हुआ। नर्तन देवी जी ने हमारे दल का अगली सुबह का नाश्ते का प्रबंध कर दिया था।रिकौंगपियो में हि.प्र. उद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय सोलन का अनुसंधान केंद्र है। उसे देखने गए। वहां पर फार्म के प्रभारी श्री जीतराम मिले। उनके साथ फार्म में घूमे। यहां पर पिस्ता, अंगूर, अनार, हैजलनट, सेब एवं हौप्स के विस्तार का कार्य हो रहा है, लेकिन फार्म की हालत ज्यादा अच्छी नहीं है। पता चला कि इस अनुसंधान केंद्र में पूरे वैज्ञानिक नहीं हैं। इस इलाके में सेब के बाग फैले हैं। चिलगोजा के पेड़ों से पहाड़ियां भरी पड़ी हैं। बताया गया कि चिलगोजा का संग्रह करने के लिए गांव वाले आपस में इलाके या पेड़ों को बांट देते हैं। यह व्यवस्था गांव वालों की है। आजकल चिलगोजा का भाग 500 रुपया प्रति किलो है। इससे जहां लोगों की आर्थिकी में सुधार हो रहा है, वहीं पेड़ों की सुरक्षा भी हो जाती है। इधर सेब भी 30 रुपया से लेकर 50 रुपया प्रति किलो के हिसाब से बिक रहा है। टमाटर 20 रुपया प्रति किलो तथा अखरोट 120 रुपया प्रति किलो के हिसाब से बिक रहा था।
थोड़ी देर रिकौंगपियो में रुकने के बाद हम कल्पा गए। कल्पा 12 हजार फुट की ऊंचाई पर देवदार, फर, स्प्रूष और चिलगोजा के वृक्षों से आच्छादित है। यहां पर जिस डाक बंगले में ठहरे थे, बताया गया कि यह बंगला पहले किन्नौर के जिलाधिकारी का था, किंतु जाड़ों में बर्फ अधिक पड़ने से वे रिकौंगपियो में चले गए हैं। कल्पा के रास्ते में जगह-जगह प्राइवेट विश्राम गृह बने हैं। यहां पर काफी पर्यटक आते रहते हैं। कल्पा से तीन ओर का दृश्य मनोहारी है। शांत वातावरण, खूब आकर्षित करता है। यहां का चौकीदार नेपाली उपाध्याय है। बता रहा था कि नेपाली लोग यहां काफी संख्या में हैं। मजदूरी का काम करने के लिए झारखंड के लोग भी बहुतायत में हैं। शाम को सर्वधर्म प्रार्थना एवं गीत गाने के बाद सब अपने-अपने घरोंदों में चले गए। इस इलाके में पहली बार काफी ठंड महसूस हुई। रात को रजाई और कम्बल ओढ़ने का इस महीने में पहली बार लुत्फ उठाया।
तिब्बत वाले क्षेत्र में कुछ वर्ष पूर्व भूस्खलन से पारिचू नदी का प्रवाह रूक गया तथा इसमें तालाब बन गया था। इसके टूटने से सतलज घाटी में बाढ़ आ गई थी। पारिचू भारत में कोरिंक से कुछ किलोमीटर पहले प्रवेश करती है। इसकी आई बाढ़ ने सतलज के किनारे की बस्तियों को प्रभावित किया था। पारिचू के स्पीति में समाहित होने के बाद स्पीति का पाट कई स्थानों पर काफी फैला है। इसके द्वारा टो कटिंग भी साफ देखा जा सकता है। पारिचू और स्पीति का संगम सुमदों में होता है। सुमदों से लाहौल स्पीति जिला शुरू हो जाता है। यहां पर गाड़ियों के नम्बर दर्ज किए जाते हैं।
अगले दिन सुबह जल्दी उठ गया था। 5 बजे तक शौच आधि से निवृत होकर हंसराज सिंह नेगी का स्मरण किया। पहाड़ी जी भी जाग गए थे। उनके दांत का दर्द जारी था। वह अपने दर्द को ओरों से कम बताने का प्रयास करते थे। मेरे आग्रह पर कभी-कभी महिला के कष्टों से संबंधित गीत ये “शिला पाखा” भी खुशी से सुना देते थे। काढ़ा पीने के बाद सभी बाहर निकले। सामूहिक चित्र खींचा। मौसम बहुत सुहावना था तथा आस-पास का दृश्य भी सुंदर था। 6.30 बजे प्रस्थान किया। रिकौंगपियों में आज भी छक कर नाश्ता किया। मैं नर्तन देवी जी को देख रहा था, पर वे आईं नहीं। शायद किसी कार्य में व्यस्त हो गई होंगी। होटल वाले ने नाश्ते के पैसे नहीं लिए। उन्हें नर्तन देवी जी ने स्वयं पैसे देने के लिए कहा था। 8.30 बजे पर हमने रिकौंगपियो से प्रस्थान किया। थोड़ी देर बाद हम फिर से सतलज के तटवर्ती क्षेत्र में पहुंचे गए। यहां भी रास्ता काफी संकरा मिला। दोनों ओर सीधी खड़े पहाड़ हैं। उनके बीचों-बीच सतलज बह रही है। इन चट्टानों एवं पहाड़ों में जहां जरा सी ढाल एवं मिट्टी है, वहां बरसात हैं। दूर-दूर तक मोटर सड़क तथा ग्रेवटी रोपवे से गांवों को जोड़ा गया है। रास्ता संकरा है। ऊपर से बड़े ट्रकों के टकराने का भय बना रहता है। परियोजना का सामान ले जाते हुए चार-पांच ट्रक रास्ते में फंस गए थे। इससे हमें भी देर तक रूकना पड़ा।आगे जहां चौंकी मिली। यहां पर कारों के नंबर दर्ज करने पड़े। आगे सतलज में छोटे बड़े नाले मिलते जा रहे थे। जिनके संगम पर ढेर सारा मलबा जमा दिखाई देता है। इधर के पहाड़ रंग-बिरंगे लगते हैं। एक जगह पर सतलज नदी के ऊपरी भाग में, जो लगभग 200 मीटर की ऊंचाई पर होगा और जिसका ढाल 60 डिग्री से अधिक है। सेब का बहुत बड़ा बाग घोषित किया जा रहा है। इस प्रकार के कार्य यत्र-तत्र देखने को मिले, जो लोक पुरूषार्थ का प्रतीक है। आगे जहां भी पानी है उसका उपयोग कर मानवकृत हरियाली फैलाई जा रही है। आगे फिर कठोर चट्टान को काटकर रास्ता बनाया गया है। कुछ ही दूरी पर सतलज और स्पीति नदी का संगम है। इस स्थान का नाम खाब है। सतलज का पानी गदला है। यह अपने साथ काफी मात्रा में साद बहाकर जा रही है। सतलज के पनढाल में ऊंचे-ऊंचे पहाड़ दिखाई दे रहे थे। दूर बर्फ जमी भी देखी। संगम के पास सतलज द्वारा लाया गया मलबे का ढेर भी दिखाई दे रहा था। पुल भी अस्थायी बना हुआ है। लगता है कि पूर्व में यहां पर बाढ़ आई होगी।
स्पीति का जल धवल है। इसमें साद की मात्रा कम दिखाई दे रही थी। संगम के बाद यहां भी चट्टान काट कर मोटर रोड बनाई गई है। आगे आठ मोड़ों के बाद ऊंचाई पर डोमरी गांव है। यहां पर मजनू और गढ़पीपल के तनों के बाहर से टाट एवं पुराने कपड़ों के चिथड़े बांधे गए हैं। कुछ पौधों को कंटर एवं बड़े डिब्बों से घेरा गया है। पौधों की सुरक्षा की यह सस्ती और सरल तकनीक लगती है, जिस पर खर्चा नाम मात्र का आता होगा। मकानों के ऊपर से मिट्टी बिछाई गई है। यहां पर कच्चे बादाम 200 रुपया किलो के हिसाब से बिक रहे थे। इसके थोड़ी दूर के बाद फिर अनेक घूमों को पार करते हुए नाको पहुंचे। नाकों में मुख्य मोटर मार्ग से हटकर गांव के पास एक बड़ा सा तालाब है, जिसे सजाया गया है। यहां पर सार्वजनिक निर्माण विभाग के डाक बंगले के अलावा टेंट कॉलोनी भी है। यह पर्यटक स्थल भी है। यह इलाका अपर किन्नौर के अंतर्गत आता है। फलदार पेड़ों के अलावा मजनू और पहाड़ी पीपल के वृक्ष भी लगाए गए हैं। इधर मटर की पैदावार काफी है। 35 रुपया किलो कि हिसाब से बेचा जा रहा है।
नाको की जग्मो देवी बता रही थी कि यहां जूनियर हाई स्कूल एवं इंटर कॉलेज है। आयुर्वेदिक चिकित्सालय भी है। यहां पर पर्यटकों के लिए गेस्ट हाउस बने हैं तथा हैलीपेड भी बना है। आलू, जौ, मटर के अलावा चूलु के पेड़ भी बहुतायत में हैं। सुखाई हुई खुमानी दो सौ रुपया प्रति किलो के हिसाब से बिक जाती है। लेकिन जिस प्रकार की स्वादिष्ट खुमानी लेह और कारगिल में मिलती है इतनी स्वादिष्ट यह नहीं है। आगे थोड़ा चढ़ने के बाद फिर उतर आए और स्पीति नदी के किनारे पर पहुंच गए। थोड़ी देर बाद पारिचू नदी दिखाई दी। पारिचू अपने साथ ढेर सारा मलबा लाई है यह साफ दिखाई दिया। तिब्बत वाले क्षेत्र में कुछ वर्ष पूर्व भूस्खलन से पारिचू नदी का प्रवाह रूक गया तथा इसमें तालाब बन गया था। इसके टूटने से सतलज घाटी में बाढ़ आ गई थी। पारिचू भारत में कोरिंक से कुछ किलोमीटर पहले प्रवेश करती है। इसकी आई बाढ़ ने सतलज के किनारे की बस्तियों को प्रभावित किया था। पारिचू के स्पीति में समाहित होने के बाद स्पीति का पाट कई स्थानों पर काफी फैला है। इसके द्वारा टो कटिंग भी साफ देखा जा सकता है। पारिचू और स्पीति का संगम सुमदों में होता है। सुमदों से लाहौल स्पीति जिला शुरू हो जाता है। यहां पर गाड़ियों के नम्बर दर्ज किए जाते हैं। लेकिन नदी के पार तो अभी भी किन्नौर जिला ही बताया गया। यहां शीत मरुस्थल विकास प्रोजेक्ट के एक कार्यकर्ता श्री ए.डी.नेगी बता रहे थे इस क्षेत्र में पेड़ लगाने एवं भूक्षरण को रोकने का काम तेजी से चल रहा है। पारिचू की प्रलयंकारी बाढ़ को लोग भूले नहीं हैं। आगे स्पीति नदी के दोनों पाटों की तरफ सेब के बाग दूर तक फैले हैं। बीच में अन्य फसलें भी दिखाई दी। पानी का उपयोग बेहतर ढंग से किया गया है। सेब ट्रकों में भरकर बाहर भेजा जाता है। पैकिंग की भी अच्छी व्यवस्था है।
स्पीति के किनारे ही ताबो एक बड़ी बस्ती मिली। यहां पर सा.नि.वि. का अच्छा सा डाक बंगला है। इसमें काफी चहल-पहल दिखी। पता चला कि संसदीय समिति भ्रमण पर आई है। उनके इंतजार में लोग खड़े हैं। यहां पर एक गोम्पा भी है, जो बहुत पुराना है। यहां अंदर जाने एवं चित्र लेने में कोई मनाही नहीं थी। बताया गया कि इस मठ में 40 के लगभग लामा रहते हैं। यहां मठ के आस-पास मूर्तियों एवं स्थानीय सामान की दुकानें भी हैं। आगे रंग-बिरंगे पहाड़ एवं शीत रेगिस्तान का नजारा अपूर्व था। बीचों-बीच स्पीति नदी अपने पूरे वेग से बह रही है। नदी के तटवर्ती क्षेत्र में अमेस (शिबकथार्न) बहुतायत में उगे हैं। यह दूर तक फैला हुआ है। उसके फलों में पीलापन आ गया है, जो कुछ ही दिनों में पक जाएगा। नदी के लगभग सौ दो सौ मीटर ऊंचाई के तप्पड़ों में गांव बसे हैं। वहां मटर की खेती देखी गई। पुह में तो शिबकथार्न का जंगल सा फैला देखा। रास्ते में लिंगती में सूक्ष्म जयविद्युत परियोजना भी देखी।
आगे हम काजा के छोर पर पहुंचे। दूर से ही बड़ी बस्ती का आभास हो रहा था। यह स्पीति प्रभाग का मुख्य केंद्र है। यहां पर अतिरिक्त जिलाअधिकारी सहित विकास से संबंधित विभागों के अधिकारी भी बैठते हैं। खूब चहल-पहल देखी गई। कई छोटे-बड़े होटल और रेस्तरां भी हैं। हर विभाग का अपना विश्रामगृह है। यह आस-पास के गांव वालों का बाजार है। जंगलात के रेंज अधिकारी शर्मा बता रहे थे कि उन्होंने पिछले वर्षों में शिबकथार्न, पोपलुस और विलो का खूब वनीकरण किया। यहां पर ठंड के कारण पौधों की बढ़त धीमी है। काम के भी कम महीने हैं। जड़ी-बूटी में सालम पंजा, अतिस, रतनजोत, सोमलता तथा बसाखा उगता है। जंगली जानवरों में हिमचितुवा, भरड़ के साथ ही पक्षियों में स्नो कौक पाया जाता है। थोड़ी-सी बारिश में सिल्ट बहुत बहती है। साथ ही हवा के द्वारा भी भूक्षरण बहुत होता है। लेकिन एक बात हमें जगह-जगह देखने को मिली। जहां भी ऊपर पहाड़ियों में बर्फ या हिमनद हैं। उससे बहने वाले पानी का अधिकतम उपयोग किया गया है। हरियाली खेती बाड़ी एवं पानी के एक-एक बूंद का अटूट संबंध दिखाई दिया।
काजा में हमारा दल दो अलग-अलग स्थानों का रुका। मेरे साथ पहाड़ी जी, पुष्पाण जी, डॉ. दरमोड़ा थे। हम सिंचाई विभाग के बंगले में रुके थे तथा महेंद्र सिंह कुंवर, सूरत सिंह रावत, रतूड़ी तथा जगदम्बा प्रसाद सा.नि.वि. के बंगले में रुके थे। अलग-अलग स्थान पर रुकने के कारण प्रार्थना भी हमने अकेले ही की। हमारा भोजन तो चौकीदार ने तैयार किया, लेकिनि दूसरे साथियों को ढाबे से मंगाना पड़ा। हम यात्रा में होटल के खाने से बचते रहते थे।आज हम को 6 बजे प्रस्थान करना था। महेंद्र जी ने रात को बता दिया था कि दो दर्रे पार करने हैं। रास्ता ठीक नहीं है। इसलिए जल्दी प्रस्थान करना चाहिए। मैं तो तीन बजे ही जाग गया था। पहाड़ी जी भी 4 बजे के लगभग जाग गए थे। वे काढ़ा लेकर के पुष्पाण जी तथा डॉ. दरमोड़ा के कमरे में गए तो पता चला कि दरमोड़ा को रात भयंकर सिर दर्द हो गया था। उन्हें दवा एवं छाती पर बाम की मालिस करने के लिए दिया गया। मैं बाहर आया तो देखा कि मौसम बहुत सुहावना है। सामने छोटे-बड़े हिमनद दिखाई दे रहे थे, कहीं-कहीं दूध की तरह जल धाराएं प्रवाहित हो रही थी। दूर हिमनद के बीचों-बीच की चोटी के ऊपर थोड़े से हल्के काले बादल छाए थे। आज की यात्रा का पथ कुमजुम पास (4550 मीटर) तथा रोहतांग पास (3980 मीटर को पार करते हुए मनाली तक था। इन दोनों पासों को देखने और पार करने के बारे में बड़ी उत्सुकता थी। रात को महेंद्र कुंवर ने सुबह जल्दी चलने के लिए कह दिया था। उनका इशारा इस ऊंचाई पर मौसम के बदलते स्वरूप के अनुभव को देखते हुए था। यद्यपि मैं भी कई बार 15 हजार फीट से लेकर 18 हजार फीट की ऊंचाई तक पैदल जा चुका था। लेकिन वाहन होने के बाद भी कुंवर जी को हमारी अवस्था का भी ध्यान रहा होगा। इसलिए उन्होंने स्पष्ट कह दिया था 6 बजे हर हाल में प्रस्थान करना है। 6 बजने को दस मिनट शेष थे कि महेंद्र की पार्टी तैयार होकर हमारे गेस्ट हाउस में पहुंच गई, हम तो तैयार थे ही। इधर पता चला कि पुष्पाण जी को तैयार होने में देरी है। इसलिए चाय मंगाई गई और निश्चित समय से पौने घंटे देर काजा से प्रस्थान किया।
आगे सपाट मैदान में हमारी कारें आगे बढ़ रही थी। स्पीति नदी को फिर पार किया। नदी के बांयी ओर जहां से हमारी कारें दोड़ रही थी, वह एक लम्बा चोड़ा तप्पड़ था। लगभग 20 किलोमीटर लम्बाई का उसके ऊपर नीचे सामलिंग, फिर मोरंग आदि गांव जहां दूर से पानी की गूल लाई गई है दूर-दूर तक खेत फैले हैं जोकि फसल की कटाई हो चुकी है। मटर तैयार है। बताया गया कि हर परिवार की मटर की बिक्री से एक लाख रुपया की आमदनी हो जाती है। जौ का सत्तू बनाते हैं। बड़े-बड़े तप्पड़ों के बाद फिर खड्ड जहां पतली सी नदी बह रही है उसी का पानी दूर गांवों को पहुंचाया गया है। बीच-बीच में वन विभाग द्वारा वनीकरण किए गए हैं। जिनकी बढ़ोतरी बहुत धीमी दिखाई दी। ऊपर पहाड़ियों में छोटे-छोटे हिमनद दिखाई दे रहे थे, जिनकी धारा से गांवों में हरियाली फैली है। आगे पुल के बाद चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। 6-7 मोड़ों के बाद क्याटो हैं, जो 4070 मीटर ऊंचाई पर है। फिर आगे लोसर पहुंचते हैं। दूर पहाड़ियों पर बर्फ गिर रही है। आसमान काले बादलों से घिर गया है। लोसर और उसके बाद टाकना से फिर ऊपर चढ़ते हैं। इस बीच आसमान से हल्की बर्फ की फुलझड़ी शुरू हो जाती है।
चार-पांच मोड़ों के बाद हम एक लंबे-चौड़े तप्पड़ के बीचों-बीच पहुंचते हैं। बर्फ की झड़ियां तेज हो गई हैं। हम 4551 मीटर की ऊंचाई पर पहुंच गए हैं। इसकी विशालता ने मन मोह लिया। कुहरा धरती को छू रहा था। फिर एक जगह लिखा था कुमजुम पास। हम रोमांचित हुए। कुमजुम पास से कुछ मीटर पहले से बर्फ गिरनी शुरू हो गई थी। कुमजुम पास का तप्पड़ काफी लम्बा चौड़ा है। बादल धरती को छू रहे थे। पहले तो बर्फ का बूरा पड़ रहा था, लेकिन जैसे ही हमने पास को पार किया तो नीचे मोड़ों की ओर बढ़े तो बर्फ तेजी से गिरने लगी। मोड़ों के ऊपर नीचे लाल, गुलाबी रंग की कुकड़ी माकुड़ी (आईरस) एवं सफेद बुकला (एनीसलिस) के फूल बर्फ से आच्छादित थे। बर्फ से ऊपर के पुष्प बहुत ही खूबसूरत लग रहे थे। ऐसा लग रहा था कि वे उसकी प्रतिक्षा कर रहे हैं। इसी प्रकार से सफेद फूलों ने तो अपने को बर्फ जैसा ही बना दिया था। उनकी अलग पहचान नहीं लग रही थी। आगे भी बर्फ गिरती जा रही थी। थोड़ी देर बाद चंद्रा नदी के दर्शन हुए। ऊपर से चंद्रा नदी धवल मनमोहक दिख रही थी। उसकी दाएं-बाएं दूध की धारा की तरह अनेकों धाराएं चंद्रा नदी में समाहित हो रही थीं।
कुमजुम पास के कुछ आगे बढ़े थे कि दाईं ओर चंद्रा ग्लेशियर दिखाई दिया। कुछ देर बाद उसका अधिकांश भाग बादलों से ओझल हो गया था। लगभग आठ दस मोड़ों के बाद चंद्रा ताल को मोटर मार्ग जाता है। वहां पर से 12 किलोमीटर तक वाहन से जाया जा सकता है। आगे 1.5 किलोमीटर तालाब की स्वच्छता बनाए रखने के लिए पैदल चलना पड़ता है। बर्फ की अधिक्यता के कारण हमने वहां जाने का इरादा छोड़ दिया था। पिछले दिनों अंतरिक्ष उपयोग केंद्र (इसरो) के एक प्रस्तुतीकरण में बताया गया था कि चंद्रा नदी के बेसिन के 116 हिमनदों के अध्ययन में पाया गया कि इनका कुल क्षेत्रफल 1962 में 696 वर्ग किलोमीटर था जो वर्ष 2004 में 554 वर्ग किलोमीटर रह गया है। इस प्रकार इन ग्लेशियरों के क्षेत्रफल में 20 प्रतिशत की कमी बताई गई है। इसी प्रकार भागा नदी की स्थिति भी कोई अच्छी नहीं बताई गई है। भागा के 111 हिमनदों का क्षेत्रफल सन् 1962 में 363 किलोमीटर था, वहीं 2004 में 254 वर्ग किलोमीटर रह गया है। इस प्रकार यहां के हिमनदों में भी 30 प्रतिशत कि कमी बताई गई है। यही हाल बड़ा सिंगरी हिमनद की भी है। इस प्रकार इन हिमनदों के पीछे हटने से चंद्रभागा नदी पर किस प्रकार का प्रभाव पड़ेगा यह एक विचारणीय बिंदु है।
चंद्रा मीलों लम्बे तप्पड़ के बीचों-बीच बह रही थी। हम भी चंद्रा के तट से थोड़ी दूर आगे-पीछे भाग रहे थे। आगे चंद्रा को लौह पुल से पार कर वातल नामक स्थान पर पहुंचे। यहां पर टेंटों में रेस्तरां चल रहे हैं, खाने का भी प्रबंध है। बसें एवं पर्यटकों के वाहन भी रुकते हैं। पर्यटकों में विदेशियों की संख्या भी काफी है। यहां से आगे हमें रास्ते में भेड़ और बकरियों के तीन झुंड मिले। बारिश और बर्फ के बीच ये अपने पड़ाव के लिए तेजी से आगे बढ़ रहे थे। बर्फ एवं ठंड के कारण अब वे बकरीवाले नीचे की ओर आ रहे हैं। हर दल में तीन चार पालसी, घोड़े एवं कुत्तों की संख्या भी दिखाई दे रही थी। छतड़ू के पास भी दुकान टेंटों के अंदर हैं।
वहां से हम फिर तेजी से आगे बढ़े। कई मोड़ों के बाद एक अंदर की टीले को पार करते हुए आगे बढ़े। फिर मोड़ों के बाद रास्ते में मोटर सड़क पर देखा कि बड़े-बड़े पत्थर गिरे हैं तथा और पत्थर भी गिरते जा रहे हैं। इसलिए रुकना पड़ा महेंद्र ने कहा कि गाड़ी को वापस ले चलो। चोटी पर पहुंचे तो वहां अरबिंद दरमोड़ा ने पी.डब्यू.डी. के मजदूरों से रास्ता साफ करना का अनुरोध किया। फिर यहां पर नीचे की तरफ तो मजदूरों के आवास हैं। मोटर सड़क के ऊपरी भाग में तिरपाल से बनी चाय एवं खाने पीने की दुकान है। इस दुकान को एक नेपाली दंपत्ति चलाते हैं। उनकी एक 20-22 वर्ष की लड़की इसे चलाती है। उसके साथ उसकी मां भी रहती है। उसके पिताजी अस्वस्थ हैं। टेंट के अंदर निर्धूम चूल्हा बना हुआ है। वहां पर हमारे साथियों ने चाय पी। मैंने बिना दूध की चाय पी। उस ठंड में उसका स्वाद ही निराला था। वहां पर एक चार-पांच वर्ष का बच्चा भी उनके साथ था। पूछने पर पता चला कि वह लड़का उनके रिश्तेदार का है, जो मनाली से यहां मिलने आया था। यहां एक प्यारा मोलू ठंड के कारण निर्धूम चूल्हे से चिपका हुआ था।
इधर श्री कुंवर जी का आदेश हुआ कि आगे जाना है, सभी अपनी-अपनी गाड़ियों में बैठ गए। बर्फ के थुप्पे अब बड़े-बड़े पड़ने लग गए थे। हमारी गाड़ी के छत में भी बर्फ जमने लग गई थी। तीन मोड़ों के बाद हम पुराने भूस्खलन वाले स्थान पर आ गए। महेंद्र छाता लेकर देखने गए। पता चला कि पत्थर गिर रहे हैं। इसलिए मजदूरों ने पत्थर हटाना छोड़ दिया है। कुछ देर बाद बर्फ गिरना रुक गई थी। कुछ विदेशी पर्यटक उतरे और उन्होंने भी पत्थर हटाना शुरू कर दिया। इस बीच दो छोटी गाड़ियों ने भूस्खलन वाले स्थान को पार किया किंतु वे कारें आगे दो सो मीटर पर रुक गई। वहां पर ऊपर से एक बड़ा जलप्रपात गिर रहा था। उससे वहां पर भी रास्ता बंद हो गया। हमारी कारें पहले भूस्खलन वाली जगह पर ही इसलिए रुक गई कि कहीं हम जलप्रपात और भूस्खलन वाले स्थान के बीच न फंस जाए।
2 बजे से हम बुलडोजर का इंतजार कर रहे थे। मजदूरों ने बताया था कि टेलीफोन से उसे रास्ता साफ करने के लिए कहा गया है। आखिर में चार बजे के लगभग बुजडोजर दूर से आता हुआ दिखाई दिया। सांस में आस की किरण दिखाई दी। आधे घंटे में जलप्रपात वाला रास्ता साफ हो गया। वहां से दो वाहन अपनी मंजिल की ओर दौड़ने लगे। 15-20 मिनट बाद उसने हमारे आगे का रास्ता भी साफ कर दिया। हमारी पहली कार ने दोनों स्थानों को पार किया। उसके पीछे-पीछे हमारी कार भी दौड़ती रही। पांच बज चुके थे। नीचे चंद्रा नदी का शोर सुनाई दे रहा था। आस-पास की पहाड़ियों बर्फ की सफेद चादर से आच्छादित हो गई थी। इन पहाड़ियों के बीच-बीच में हिमनद होने का आभास हो रहा था, जहां से सफेद दूधिया रंग की जल धाराएं चंद्रा में समाहित होने के लिए आतुर दिख रही थी। ऊपरी भाग बादल से आच्छादित थे। हम तेजी से आगे बढ़ते जा रहे थे।
एक मोड़ के बाद ऊपर की तरफ बहुत घना एवं सुंदर भोज पत्र का जंगल दिखाई दे रहा था। वह दूर तक फैला हुआ है। उसके ऊपरी भाग में बुग्याल है। दो-तीन मोड़ आगे तक हम उतरते गए। चंद्रा के करीब पहुंचे फिर हम चढ़ते गए। चंद्रा हमसे दूर होती चली गई। हल्के बादल एवं बर्फ की नदियों के बीच आखिर चंद्रा ओझल हो गई। दूर हम से दूर बह रही थी। नीचे-नीचे मात्र सम्यार (आभास) पांच मोड़ों के बाद हम ग्राम्फू पहुंचे। यहां पर कुछ ऊंचाई पर अस्थायी टेंट दिखाई दिए। पता चला कि ये दुकानें हैं। कुछ दूरी पर एक सड़क आगे की ओर कैलांग तथा लेह की ओर जा रही थी। दूसरी ऊपर पहाड़ी पर चढ़ रही थी। हमारी आगे वाली कार रुकी महेंद्र ने उतर कर पूछा कि आगे पांच-सात किलोमीटर की दूरी पर विश्राम गृह है। हमें वहां चलना चाहिए। अन्य लोगों ने सहमति जतायी थी, इसलिए आगे बढ़ते गए। बर्फ गिरती जा रही थी। 2 इंच के करीब जम भी गई थी।
हम व्यास नदी के पनढाल में थे। मैंने सोचा था कि व्यास के किनारे मां का स्मरण करूं। बाहर आया तो आसमान साफ था। रोहतांग दर्रा पूरा हिमाच्छादित हो गया था। दूसरी ओर सीधी खड़ी चट्टान उसके बीच में देवदार की वृक्षावली दिख रही थी। उसकी जड़ पर व्यास नदी प्रवाहित हो रही थी। दूर नीचे मनाली के ऊपर एक पहाड़ी हिमाच्छादित थी। उसके नीचे हिमनद, जंगल और बस्ती तीनों का दृश्य मन मोह रहा था। सूर्य की किरणें बर्फानी चोटियों पर पड़ रही थीं, मानों चांदी से सजाई गई हों। जिस डाक बंगले में हम ठहरे थे उसका चौक काफी बड़ा था और फूलों से लदा था, बहुत सुंदर लग रहा था।
आगे फिर टेंटों के अंदर चलने वाली दो दुकाने मिलीं। वहां पर पहले से कुछ पर्यटक रुके हुए थे। महेंद्र ने दुकानदार से आगे रास्ते के बारे में जानकारी ली। उसने कह दिया कि आगे बढ़ना जोखिम भरा है। रोहतांग दर्रे में भारी बर्फबारी हो रही है। सबकी राय को तवज्जो देते हुए अरविंद दरमोड़ा हमारी कार की ओर आए और कहा कि एक शब्द में कहो कि क्या करना चाहिए? आगे बढ़ना चाहिए या रुकना चाहिए? पहाड़ी जी ने एक शब्द में कहा, बढ़ते चलो। फिर तेजी के साथ हमारी दोनों कारें बर्फ को चीरती हुई आगे बढ़ती जा रही थी। बर्फ गिरती जा रही थी। जैसे-जैसे हम मोड़ों को पार करते हुए आगे बढ़ रहे थे बर्फ की चादर मोटी होती जा रही थी। एक के बाद एक लगभग दस से अधिक मोड़ हमने पार कर दिए थे। बर्फ की मोटाई भी 8 इंच से ऊपर पहुंच गई थी। हमारे से आगे तीन चार कार और ट्रक थे। इसलिए बर्फ के बीच में लकीर बनी हुई थी। हमारी कार को लकीर पर चलने से सुविधा थी। पहाड़ी जी के दांतों का दर्द तो बिना दवा के बढ़ता ही जा रहा था, किन्तु इस रोमांचक दृश्य से वे दर्द भी भूल गए थे। हम बीच-बीच में ‘क्रान्ति के सिपाही चले’ वाला गाना गाते हुए बर्फ का अद्भुत आनंद उठा रहे थे। बर्फ की फुलझड़ियां लगातार गिर रही थीं। इस प्रकार का नजारा 20 वर्ष पहले उत्तराखंड के मनपाई बुग्याल से रुद्रनाथ आते हुए देखा था, लेकिन वह अक्टूबर के दूसरे सप्ताह की बात थी इस बार तो हमें यह दृश्य सितंबर के प्रथम सप्ताह में देखने को मिला।कुछ ही देर बाद हम पहाड़ के ऊपर पहुंच गए। एक मैदान में ऐसा लग रहा था कि रोहतांग दर्रा अब आने ही वाला है। अंधेरा हो चला था। बर्फ की चादर बिछी होने से अंधेरा जैसा लग नहीं रहा था। आगे देखा कि दस-बारह कार और ट्रक रुके हुए हैं। पता चला कि वे बर्फ में फंस गए हैं। लोग उतर कर उनकी कार पर धक्का मार रहे थे। पर कारें टस से मस नहीं हो रही थीं। हमारे साथी बर्फ का आनंद लेने के लिए बाहर गए।
विदेशी पर्यटक भी उतरकर बर्फ से आपस में खेल रहे थे। एक घंटे से अधिक रुकने के बाद फंसी हुई कार और ट्रक निकल गए। हम भी धीरे-धीरे आगे बढ़ते गए। कुछ दूरी पर बोर्ड जो आधा बर्फ से ढका था देखा। इस प्रकार हम 13 हजार फुट से अधिक ऊंचे रोहतांग दर्रे पर पहुंच गए थे। फिर हम उतार की ओर चले। इसी उतार पर सड़क साफ करने वाले वाहन, टेंट एवं पर्यटकों के वाहन खड़े मिले। टेंटों एवं वाहनों के ऊपर से बर्फ की ढेर जमी थी। फिर एक के बाद एक मोड़ों को पार करते हुए आगे बढ़ रहे थे कि हमारे ड्राइवर ने कहा कि अब गए, बर्फ में कार फिसल रही थी। वह काबू नहीं कर पा रहा था। किसी प्रकार से वह लाईन पर आया। 18 किलोमीटर के लगभग आगे बढ़े। हमारे आगे के सभी वाहन रुके हुए थे। पता चला कि आगे भारी भूस्खलन हो गया था। दलदल और उसमें कारें फंस गई थी। हमारे साथियों ने देखा तो पता चला कि रास्ता खुलने की कोई गुंजाइश नहीं है। हम बर्फ की सीमा रेखा पर खड़े थे। यहां से 2 किलोमीटर की दूरी पर मढ़ी बस्ती थी। वहां पर उजाला दिख रहा था। नीचे से गाड़ियों की आवाजाही साफ दिखाई दे रही थी। हमने रास्ते से बर्फ एवं भूस्खलन के बारे में सुधीर भट्ट, जो ई.टी.वी. के संवाददाता हैं, को बताया। इसी प्रकार अपने एक मित्र श्री जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार को भी जानकारी दी। उन्होंने इसकी जानकारी संचार माध्यम वालों को दे दी, जिसके बाद हमारे मोबाइलों की घंटियां खनखनाने लगी।
इसी बीच रात के 12 बज गए थे। हिमाचल प्रदेश के तीन पुलिस के जवान आए और हमें मढ़ी के गेस्ट हाउस में चलने को कहा। महेंद्र ने कहा कि हम तीनों को जाना चाहिए। कारों में बैठे-बैठे दिक्कत हो जाएगी, लेकिन मुझे पुरी टीम में महेंद्र जी तथा पहाड़ी जी की ज्यादा चिंता थी क्योंकि यात्रा से दस दिन पहले महेंद्र अस्वस्थ थे तथा उन्हें ऊंचाई की समस्या भी थी। पहाड़ी जी के दांत का दर्द सता रहा था। इसके बावजूद वे इस यात्रा को छोड़ना नहीं चाहते थे। इसलिए मेरा ध्यान इन दोनों की ओर ज्यादा था। लेकिन महेंद्र को मेरी, पुष्पाण जी तथा पहाड़ी जी की ज्यादा चिंता थी। क्योंकि हम तीनों को बूढ़ों की श्रेणी में रखा गया था। बहुत आग्रह के बाद भी महेंद्र तैयार नहीं हुए। तय हुआ कि मेरे अलावा पहाड़ी जी तथा पुष्पाण जी एवं प्रकाश रतूड़ी को हमारी देख-रेख के लिए साथ चलने को कहा गया। महेंद्र, सूरत सिंह, अरविंद तथा जगदम्बा प्रसाद के साथ दो ड्राइवर कारों में ही रुक गए।
हम लोगों ने दलदल एवं भूस्खलन के मलबे को पार किया। वहां पर खड़ी रिस्क्यू वेन (एम्बूलेंस) से पुलिस सिपाही एवं फार्मेसिस्ट श्री ठाकुर के साथ डेढ़ किलोमीटर दूर मढ़ी पहुंचे। हमें गेस्ट हाउस में ले जाया गया। वहां पर न पानी था, न लाईट और नहीं शौचालय काम कर रहा था। इसलिए हमने उनसे वापस कारों में छोड़ने का आग्रह किया, लेकिन फॉर्मेसिस्ट ठाकुर, जो बहुत ही सेवा भावी लग रहा था, ने 15 किलोमीटर नीचे कोठी नामक स्थान पर चलने का आग्रह किया। हम तैयार हो गए और रात के 1 बजे हम कोठी नामक बाजार में पहुंचे। यहां पर डाक बंगला खोला गया। इसमें रहने का उचित प्रबंध था। ठाकुर के कारण चौकीदार ने हमें रात दो बजे गर्म पानी एवं काढ़ा पिला दिया था। लेकिन हमारा ध्यान अपने साथियों पर अटका हुआ था। फोन से मालूम हुआ कि उन्हें हमारे आने से कारों में कमर सीधी करने की काफी जगह मिल गई थी। तब हमें लगा कि हमने अच्छा ही किया जो नीचे आ गए। आज पहली बार हमने दिन में भोजन नहीं किया था, पर इस रास्ते के रोमांच ने हमारी भूख मिटा दी थी।
4 तारीख की सुबह जल्दी उठ गया था। आज पूर्णिमा को मेरी मां की पुण्यतिथि थी। हम व्यास नदी के पनढाल में थे। मैंने सोचा था कि व्यास के किनारे मां का स्मरण करूं। बाहर आया तो आसमान साफ था। रोहतांग दर्रा पूरा हिमाच्छादित हो गया था। दूसरी ओर सीधी खड़ी चट्टान उसके बीच में देवदार की वृक्षावली दिख रही थी। उसकी जड़ पर व्यास नदी प्रवाहित हो रही थी। दूर नीचे मनाली के ऊपर एक पहाड़ी हिमाच्छादित थी। उसके नीचे हिमनद, जंगल और बस्ती तीनों का दृश्य मन मोह रहा था। सूर्य की किरणें बर्फानी चोटियों पर पड़ रही थीं, मानों चांदी से सजाई गई हों। जिस डाक बंगले में हम ठहरे थे उसका चौक काफी बड़ा था और फूलों से लदा था, बहुत सुंदर लग रहा था। उसके पास ही एक छोटा सा मकान था। पता चला कि यहां पर बाडिया हिमालय भूगर्भ संस्थान ने भूकंप मापक यंत्र स्थापित किया है। पूछने पर पता चला कि 2 से 3,4 रिएक्टर स्केल के भूकंप इधर लगातार मापे गए हैं। जिसकी जानकारी लगातार देहरादून संस्थान को दी जाती है।
इधर मनाली से रोहतांग दर्रे की ओर सुबह से ही बसों, ट्रकों एवं कारों का तांता लगा हुआ था। अधिकांश लोग रोहतांग में बर्फ का लुत्फ उठाने के लिए भाग रहे थे। हमारा ध्यान तो अपने साथियों की ओर था। मोबाइल की घंटी बजी, तो पता चला कि 8 बजे रास्ता साफ करने के लिए बुलडोजर पहुंच गया है। हर 10 मिनट बाद हम फोन पर रास्ते के बारे में पूछताछ करते रहे। आखिर इंतजार की घड़ी खत्म हुई। 11.30 बजे पर फोन आया कि चल पड़े हैं। 12 बजे फिर फोन आया कि जाम लगा है। अंत में 12.30 बजे हमने ऊपर के मोड़ पर देखा कि हमारी दोनों कारें आ रही हैं। कोठी के एक रेस्तरां में हमने उनके लिए नाश्ते का प्रबंध किया था। जैसे ही यह मिलन हुआ, संतोष हुआ। वहां पर रुकते ही महेंद्र ने दोनों ड्राइवरों को स्नान करने के लिए कहा। वे दोनों रात भर जागरण से थके हुए थे। दोनों की आखें लाल हो गई थी। नाश्ता करने के बाद 1.30 बजे दिन में हमने आगे के लिए प्रस्थान किया। कल के रोमांच से हमारे सभी साथी प्रसन्न थे। फिर हम व्यास नदी के किनारे-किनारे बढ़े पहले व्यास के किनारे थोड़ी देर के लिए रुके, फिर बिना रुके 5 बजे सुंदर नगर के पास वन विश्राम गृह आए। रास्ते में जगह-जगह सेब के बाग, सब्जी के उद्यान, सब्जी एवं फलों को ढोने के लिए बनाए गए ऊर्जा रहित रोपवे देखते आगे बढ़े। गांव छोटा हो या बड़ा सभी को ग्रेवटी रोपवे से जोड़ा गया है। इस घाटी में ऊनी वस्त्र भी काफी प्रसिद्ध हैं। मुख्य रूप से कुल्लू के साल तो साथ पसंद किए जाते हैं।
अगले दिन 5 बजे प्रस्थान किया और बिना रुके हुए विलासपुर, नहान, पौठा साहब होते हुए यमुना नदी को पार किया। थोड़ी देर रुकने के बाद 1 बजे देहरादून पहुंचे, जहां पर 3 बजे से आपदाओं से संबंधित केंद्रीय मुख्य भ्रंश को चिंहित करने की मीटिंग में भाग लिया। कुछ साथियों ने अपने-अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान किया। सतलज की यात्रा कई दृष्टि से स्मरणीय रही। 80 किलोमीटर तक लगातार बर्फ की फुलझड़ी के बीच में चलना तथा तीन स्थानों पर भूस्खलन का सामना करने का रोमांच तो रहा ही, उच्च दर्रों को पार करना भी कम रोचक नहीं था। इस ठंडे रेतीले हिमालयी क्षेत्र में विचरण करना तथा यहां से उद्गमित सतलज, वास्पा, पारिचू, स्पीति, तथा चंद्रा नदियों सहित उनकी अनेकों धाराओं का दर्शन हमारे लिए स्फूर्तिदायक तो रहा ही, देश के इस अंतरवर्ती क्षेत्र से हमने बहुत कुछ सीखा। लोक पुरुषार्थ का जीता जागता उदाहरण देखने को मिला। लोगों ने यहां हरियाली, उद्यानिकी एवं वानिकी से अपनी आर्थिकी को मजबूत किया है, वहीं इस प्रदेश में इस प्रकार की हरियाली से पर्यावरण संवर्द्धन का महत्वपूर्ण कार्य हो रहा है। दूसरी ओर प्रकृति का अनुपम सौदर्य, हिमालय के इस भाग में होने वाली प्राकृतिक उथल-पुथल के लक्षणों को देखने का मौका मिला। एक प्रकार से लोगों का पुरुषार्थ, सरकार का सहयोग एवं प्रकृति की उदारता का मिला-जुला दर्शन इस यात्रा में हुआ। सतलज यात्रा का आयोजन हिमालय एक्सन रिसर्च सेंटर ने किया था। हार्क के निदेशक महेंद्र सिंह कुंवर ने इस अध्ययन में मुझे भी सम्मिलित होने का अवसर दिया, इसके लिए मैं उन्हें धन्यवाद ज्ञापित करता हूं।
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