महाराष्ट्र में गणेश चतुर्थी पर गणपति की पूजा बड़ी धूमधाम से की जाती है और इस अवसर पर लाखों मूर्तियां खरीदी व बेची जाती हैं। परंतु पिछले एक दशक से गणपति की मिट्टी से बनी मूर्तियों का स्थान ‘प्लास्टर आफ पेरिस’ से बनी मूर्तियों ने ले लिया था। इन मूर्तियों का उपयोग सरल था। ये हल्की व सस्ती भी थीं परंतु इससे वे नदियां व तालाब प्रदूषित हो रहे थे, जहां इन्हें विसर्जित किया जाता था और इनके कारण स्थानीय व पारंपरिक कुम्हार बेरोजगार हो गए थे।
मगन संग्रहालय समिति मुख्य रूप से एक ऐतिहासिक संग्रहालय चलाती है। इस संग्रहालय में विभिन्न प्रकार के ग्रामोद्योगों व खादी का सदियों पुराना इतिहास दर्शाया गया है। इसके ग्रामीण प्रौद्योगिकी विभाग में ग्राम आधारित, कम लागत वाली, पर्यावरण के अनुकूल और ऊर्जा व पानी का संरक्षण करने वाली 18 प्रौद्योगिकियों की झांकी प्रस्तुत की गई है। देश की स्वाधीनता की लड़ाई में महात्मा गांधी के प्रमुख सिद्धांत यदि सत्य और अहिंसा थे तो प्रमुख हथियार थे खादी और ग्रामोद्योग। महात्मा गाँधी अंग्रेजों से ज्यादा अंग्रेजी व्यवस्थाओं, सभ्यता व संस्कृति से आजादी चाहते थे। दुर्भाग्यवश स्वाधीनता के बाद गांधी के नामलेवा नेताओं व सरकारों ने खादी व ग्रामोद्योग को विकास में बाधक मानते हुए पूरी तरह उपेक्षित कर दिया। खादी और ग्रामोद्योग विभाग होने के बावजूद सरकार का मुख्य ध्यान मशीनीकरण व भारी औद्योगीकरण पर ही केंद्रित रहा। ग्राम की बजाए शहरों को विकास का केंद्र बनाया गया। आज स्थिति यह हो गई है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी की दौड़ में खादी और गांव के कुटीर उद्योग-धंधों व कारीगरों को पिछड़ा समझा जाता है। ऐसे में यह जानकर किसी को अजीब लग सकता है कि 1938 में महात्मा गांधी ने जिस पहले खादी व ग्रामोद्योग संग्रहालय की स्थापना की, उसका नाम एक ग्रामीण वैज्ञानिक मगनलाल गांधी के नाम पर रखा था और उसके विकास में अपना जीवन खपाने वाले व्यक्ति डा. देवेंद्र कुमार एक युवा तेल प्रौद्योगिकीविद् थे।
मगन संग्रहालय खादी व ग्रामोद्योग का पहला संग्रहालय था। महात्मा गांधी इसे ग्रामोद्योगों की एक जीवंत झांकी बनाना चाहते थे जहां उत्पादन की ऐसी नई पद्धतियां विकसित की जाएं जिनसे भारत के गरीब लोगों का जीवन स्तर सुधारा जा सके। 1949 में डा. देवेंद्र कुमार ने एक वैज्ञानिक के रूप में अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ में कार्य करते हुए विज्ञान प्रौद्योगिकी के बल पर गरीबी की रेखा के नीचे रह रहे लोगों की सहायता के लिए इस रचनात्मक आंदोलन को बल दिया। 1978 में देवेंद्र भाई ने मगन संग्रहालय को अपनी गतिविधियों का केंद्र बनाया। उन्होंने इसके माध्यम से देश भर में विविध क्षेत्रों में कार्यरत वैज्ञानिकों, प्रौद्योगिकीविदों, अर्थशास्त्रियों व अन्य विशेषज्ञों में महात्मा गांधी के मूल्यों के प्रति नई चेतना जागृत करने की कोशिश की।
मगन संग्रहालय समिति का मूल उद्देश्य ग्रामीण कारीगरों के पारंपरिक ज्ञान पर आधारित देशज कौशल को उभारना और नवीनतम विज्ञान व प्रौद्योगिकी के साथ उसका सामंजस्य बिठाते हुए ऐसी नई प्रौद्योगिकी व तकनीकें विकसित करना है जिससे स्थानीय स्तर पर ग्रामीणों को उद्यम या व्यवसाय के स्थाई अवसर उपलब्ध कराए जा सकें। इसके अतिरिक्त खादी ग्रामोद्योग, कृषि व डेयरी आदि पर शोध, विकास व प्रचार कार्य और उत्पादन पद्धतियों का प्रदर्शन करना भी समिति के उद्देश्य हैं।
देवेंद्र भाई ने मगन संग्रहालय में ‘ग्रामोपयोगी विज्ञान केंद्र’ की स्थापना की। दृढ़निष्ठ व संकल्पित वैज्ञानिकों व तकनीकविदों के अपने दल के कारण इस केंद्र ने ऐसी 75 प्रौद्योगिकियां विकासित कीं, जिन्होंने ग्रामीणजन को व्यवसाय के अवसर प्रदान किए। साथ ही संस्था ने 30,000 सस्ते मगर टिकाऊ व पर्यावरणनुकूल मिट्टी के घर, 10,000 स्वच्छ शौचालय तथा 20,000 गोबर गैस संयंत्रें का निर्माण किया। इसी के साथ लगभग 30, 000 ग्रामीण कारीगरों को उन्नत वैज्ञानिक तकनीकों का प्रशिक्षण दिया। देवेंद्र भाई ने मगन संग्रहालय समिति द्वारा ग्रामीण व स्थानीय कारीगरों का एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन शुरू किया जिसका नाम है कारीगर पंचायत। इस आंदोलन के तहत देश के कुल 22 राज्यों में कारीगर संघ बनाए गए हैं, जिससे दो लाख से भी ज्यादा कारीगर जुड़े हुए हैं।
मगन संग्रहालय समिति मुख्य रूप से एक ऐतिहासिक संग्रहालय चलाती है। इस संग्रहालय में विभिन्न प्रकार के ग्रामोद्योगों व खादी का सदियों पुराना इतिहास दर्शाया गया है। इसके ग्रामीण प्रौद्योगिकी विभाग में ग्राम आधारित, कम लागत वाली, पर्यावरण के अनुकूल और ऊर्जा व पानी का संरक्षण करने वाली 18 प्रौद्योगिकियों की झांकी प्रस्तुत की गई है। महात्मा गांधी प्रभाग में महात्मा गांधी के दैनिक प्रयोग की वस्तुओं और उन्हें भेंट में मिली सामग्रियों का संकलन है। महात्मा गांधी पर ही यहां एक चित्र प्रदर्शनी भी है जो सेवाग्राम के सहयोग से चलाई जा रही है। समिति द्वारा वर्ष में एक बार संग्रहालय में ‘वर्धा-वर्धन’ नामक सप्ताह भर का मेला आयोजित किया जाता है। यहां जैविक, पर्यावरणानुकूल और स्थानीय ग्रामोद्योगों के उत्पादों की हाट लगती है। इस मेले में स्वयंसेवी संगठन, सक्रिय समूह, किसान और ग्रामीण कारीगर व कलाकार अपने शिल्प व कौशल का प्रदर्शन करते हैं तथा अपने उत्पादों की बिक्री भी। वर्धा-वर्धन आम जनता को वैकल्पिक जीवन शैली, पर्यावरणानुकूल उत्पादों, विचारों व प्रकृति संरक्षण की पद्धतियों को जानने के लिए एक अवसर प्रदान करता है और उन लोगों से मिलने का भी मौका देता है जो नए विकल्पों की खोज में अग्रणी रहे हैं। वर्ष 2004 व 2005 में 22 राज्यों के 150 संगठनों ने इसमें सहभागिता की थी।
मगन संग्रहालय समिति का दूसरा अनूठा प्रयास है कारीगर पंचायतों के रूप में कारीगर आंदोलन। आधुनिक विज्ञान व तकनीकी ने स्थानीय व ग्रामीण कारीगरों को किस प्रकार बेरोजगार व भूखे मरने पर मजबूर कर दिया है, यह आज किसी से नहीं छिपा है। मिट्टी के कुल्हड़ों को प्लास्टिक के ग्लासों ने विस्थापित कर दिया और देश के लाखों कुम्हार एक साथ बेरोजगार हो गए। कुछ ऐसी ही स्थिति महाराष्ट्र में भी थी। महाराष्ट्र में गणेश चतुर्थी पर गणपति की पूजा बड़ी धूमधाम से की जाती है और इस अवसर पर लाखों मूर्तियां खरीदी व बेची जाती हैं। परंतु पिछले एक दशक से गणपति की मिट्टी से बनी मूर्तियों का स्थान ‘प्लास्टर आफ पेरिस’ से बनी मूर्तियों ने ले लिया था। इन मूर्तियों का उपयोग सरल था। ये हल्की व सस्ती भी थीं परंतु इससे वे नदियां व तालाब प्रदूषित हो रहे थे, जहां इन्हें विसर्जित किया जाता था और इनके कारण स्थानीय व पारंपरिक कुम्हार बेरोजगार हो गए थे। केवल वर्धा में ही ऐसे 200 कुम्हार भूखे मरने की कागार पर पहुंच गए थे। ऐसी परिस्थिति में समिति ने कारीगर पंचायत के माध्यम से जन जागृति फैलाई।
मंहगे हाइब्रिड बीज, रासायनिक खाद व कीटनाशक खरीदने में किसान धीरे-धीरे कंगाल होते गए और आत्महत्या को विवश हो गए। समिति ने किसानों को लगभग शून्य लागत वाली जैविक व प्राकृतिक खेती की नई तकनीकों से परिचय कराया। इसका लाभ वहां के 2000 से अधिक किसानों को मिला। वर्तमान में वहां 700 एकड़ खेत में प्राकृतिक खेती हो रही है।
उनके निरंतर व अथक परिश्रम से आज वर्धा में प्लास्टर आफ पेरिस की मूर्तियों का उपयोग बंद हो गया है और 200 कुम्हारों का जीवन बच गया। इसके साथ ही कारीगर पंचायत देश भर में कारीगरों की दशा सुधारने, उनका जीवन स्तर ऊपर उठाने और उन्हें नई व पर्यावरणानुकूल प्रौद्योगिकी से लैस करने में जुटा हुआ है। मगन संग्रहालय ने अनेक प्रौद्योगिकियां विकसित की हैं। जैसे समिति ने मोटा सूत काटने वालों की उत्पादकता व आमदनी बढ़ाने के लिए एक चार तकुए वाला उन्नत चरखा विकसित किया है जिसका नाम मगन चरखा रखा गया है। इन चरखों में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मंहगे ‘तोपर्म’ के बदले देशी ‘तोपर्म’ लगाया गया है जिसे न केवल स्थानीय स्तर पर बनाना आसान है, बल्कि जिसकी मरम्मत कोई भी ग्रामीण कारीगर आसानी से कर सकता है। इस मगन चरखे से चार गुना अधिक उत्पादन होता है और चौगुनी कमाई भी। इसी प्रकार समिति ने पर्यावरण संरक्षण व जैव अनुकूल वन्य कपड़े के प्रयोग को प्रोत्साहन देने के लिए रासायनिक रंगों के विकल्प के रूप में 200 रंगों की जैविक डाई तैयार की है। इसमें से अधिकांश रंग स्थानीय वन उत्पादों आम, पलाश, बेहड़ा, बित्त आदि से बनते हैं। इसी प्रकार ब्लाक प्रिंटिंग का भी एक सस्ता पर्यावरणानुकूल विकल्प विकसित किया गया है। इस अभिनव छपाई तकनीक में ताजे हरे पत्तों का प्रयोग किया जाता है और इस तकनीक में केवल एक पत्ते से एक डिजाइन को न्यूनतम 200 बार कपड़े पर छापा जा सकता है।
समिति ने एक और अभिनव प्रयास निजी शौचालयों के क्षेत्र में किया। वर्धा जिले के भवानपुर गांव में 100 परिवार हैं। दो वर्ष पहले तक अन्य गांवों की तरह इस गांव में भी साफ-सफाई की स्थिति काफी दयनीय थी और ग्रामीण लोग शौच हेतु गांव की सड़कों पर निकल जाते थे। समिति ने गांव में कई बैठकें कीं और सभी परिवारों को एक शौचालय व स्नानघर का सेट बनाने के लिए तैयार कर लिया। प्रत्येक परिवार ने हजार रुपए प्रति परिवार के हिसाब से कुल एक लाख रुपए स्टेट बैंक आफ इंडिया की स्थानीय शाखा में जमा किए ताकि उन्हें दस लाख रुपए का कर्ज मिल सके। यह कर्ज 11 प्रतिशत ब्याज पर दिया गया और इसका भुगतान 7 वर्ष में करना है। मगन संग्रहालय समिति के स्थानीय कार्यकर्ताओं व राजमिस्त्रियों को उड़ीसा की ‘ग्राम विकास संस्था’ ने शौचालय निर्माण का प्रशिक्षण दिया। पचास परिवारों ने बैंक से कर्ज लिया और समिति ने उनके लिए शौचालय व स्नानगृह के सेट बनाए। इस प्रकार पहली बार बिना सरकारी सहायता के ग्रामवासियों ने स्वयं अपने संसाधनों से स्वच्छ शौचालय व स्नानघर बनाए।
एक अन्य अभिनव प्रयास के तहत समिति ने वर्धा जिले के सेल और समुद्रपुर प्रखंड के 100 गांवों की महिलाओं में जागृति फैलाई और 600 स्वयंसेवी समूह बनाने के लिए प्रेरित किया। इनमें से अधिकांश औरतें खेतीहर मजदूर, दिहाड़ी वाली या शारीरिक श्रम करने वाली हैं। इनमें से अधिकांश गरीबी रेखा के नीचे हैं। समिति के प्रयास, जागृति और प्रशिक्षणों का ही परिणाम हैं कि आज 12 स्वयंसेवी समूहों की औरतें सरपंच, ग्राम पंचायत सदस्य व जिला परिषद की सदस्य चुनी गई हैं। केवल चार वर्ष में ही इन स्वयंसेवी समूहों की मामूली बचत राशि कई गुना बढ़ चुकी है और 15 बैंकों में उनकी कुल बचत राशि है एक करोड़ पैंसठ हजार रुपए और उनका कुल आर्थिक लेन-देन पांच हजार करोड़ रुपए का आंकड़ा पार कर चुका है। समिति ने 760 महिला स्वयंसेवी समूहों की सदस्याओं को राष्ट्रीय स्तर के 50 तकनीकी संस्थानों में प्रशिक्षण दिलवाया। इसके परिणाम-स्वरूप 30 गांवों में 34 नई उद्यम इकाइयों की स्थापना की गइ। इनमें जैविक खाद, जड़ी-बूटियों से कीटनाशक, केले का रेशा, धूप में सुखाए खाद्य उत्पाद, सोयाबीन उत्पाद, मसाले, झाडू, दुग्ध चाकलेट, लकड़ी के खिलौने, दैनिक उपयोग की सामग्री, साबुन, कपड़े धोने का पाउडर, नील, फिनाइल, फर्नीचर, कृषि कचड़े से निर्मित ईंटें, कागज उत्पाद आदि सैकड़ों वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है। इनमें अभी 875 ग्रामीण औरतों को सहायक रोजगार मिला हुआ है।
समिति ने जैविक खेती के क्षेत्र में भी काम किया। समिति का कार्यक्षेत्र वर्धा है जो महाराष्ट्र के उस विदर्भ क्षेत्र में आता है जहां पिछले वर्ष आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या सर्वाधिक थी। मंहगे हाइब्रिड बीज, रासायनिक खाद व कीटनाशक खरीदने में किसान धीरे-धीरे कंगाल होते गए और आत्महत्या को विवश हो गए। समिति ने किसानों को लगभग शून्य लागत वाली जैविक व प्राकृतिक खेती की नई तकनीकों से परिचय कराया। इसका लाभ वहां के 2000 से अधिक किसानों को मिला। वर्तमान में वहां 700 एकड़ खेत में प्राकृतिक खेती हो रही है।
अब समिति ने एक बैल चालित पंप लगाया है। इसकी क्षमता तीन हार्सपावर प्रति घंटा है और 30 फीट की गहराई से 12000 लीटर पानी खींचता है। इस पंप में आठ फव्वारे चलते हैं जो पूरा खेत सींच देते हैं। इस पंप से कुट्टी काटने की मशीन या आटा चक्की जैसी अन्य मशीनें भी चलाई जा सकती हैं।
देवेंद्र भाई की मृत्यु के बाद उनकी सुपुत्री डा. विभा गुप्ता ने आज भी उस मशाल को जलाए रखा है जो लाखों लोगों को राह दिखा रही है। वे तकनीकी प्रयोगों द्वारा ग्रामीण भारत में स्थायी रोजगार के निर्माण में व्यस्त हैं। समिति की अध्यक्षा डा. गुप्ता का प्रमुख योगदान है ग्राम परिवर्तन की प्रक्रियाओं से महिलाओं को जोड़ना। समिति की असली ताकत स्थानीय स्वयंसेवी समूह हैं जिनके सदस्यों की संख्या और बाजार में साख निरंतर बढ़ रही है। डा. विभा गुप्ता ने आई.आई.टी. दिल्ली से ग्रामीण महिलाओं में प्रौद्योगिकी हस्तांतरण विषय पर पी.एच.डी. की है। उन्होंने कनाडा और स्वट्जरलैंड से भी कई डिग्रियां प्राप्त की हैं। वे अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कर चुकी हैं। कई आकर्षक नौकरियों को ठुकरा कर उन्होंने अपने ही गांव के लोगों के उत्थान के लिए कार्य करना स्वीकार किया है।
संपर्क : मगन संग्रहालय समिति
कुमारप्पा मार्ग, वर्धा, महाराष्ट्र – 442001
फोन : 07152-245082
ईमेल : ravinoy@gmail.com
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