सरस्वती: द लॉस्ट रिवर ऑफ थार डेजर्ट

अब सेटेलाईट चित्रों द्वारा इसकी पुष्टि होती है कि लूनी नदी के पश्चिम की ओर चलने वाली जोजरी नदी प्राचीन सरस्वती नदी की एक धारा है जो खेड़ तिलवाड़ा के निकट लूनी नदी में मिल जाती है। अब जोजरी नदी का प्रवाह पथ नाममात्र का शेष रह गया है। उपखण्ड के सिवाना, सिलोर, समदडी आदि क्षेत्रों मे लूनी नदी के किनारे पुराने चीजों के अवशेष मिलना साबित करता है कि इस क्षेत्र में सरस्वती नदी की धारा के किनारे प्राचीन सभ्यताएं पनपी होगी।

आज का उजाड़ और विराना थार का विषम परिस्थितियों से घिरा हुआ रेगिस्तान हजारों वर्षों पूर्व सरसब्ज इलाका था। थार का यह रेगिस्तान सदियों पूर्व वैदिककाल की विलुप्त नदी सरस्वती और इसकी सहायक दृषद्वति और आपया नदियों से सिंचित क्षेत्र था। यह सम्पूर्ण रेगिस्तानी भू-भाग सैकड़ो मीलों तक इन नदियों के विशाल जल तंत्र प्रवाह से सिंचित होता था। इन नदियों के किनारे सिन्धु, सरस्वती कालीन विश्व समृद्ध नगरीय सभ्यता विकसित हुई थी, जो कालान्तर में नदियों के जल प्रवाह के विलुप्त होने के साथ ही आर्थिक एवं सांस्कृतिक रूप से समृद्धि यह सभ्यताएं भी उजाड़ हो गई। हजारों वर्ष पूर्व विलुप्त हुई सरस्वती नदी की शोध के लिए सर्व प्रथम 1874 में एक अंग्रेज सर्वेयर सी.एफ. ओल्ड हम ने विस्तृत रूप से विलुप्त हुई सरस्वती नदी की प्रमाणिक तौर पर खोज की दिशा में शोध किया था।

सर्वेयर एवं पुरातत्वविद् विद्वान ओल्डहम ने अपने शोध द्वारा प्रमाणित किया कि हरियाणा के हिसार से निकलकर हनुमानगढ़ के निकट बहने वाले घग्गर नदी के सुखे पाट को सरस्वती का अपशिष्ट प्रवाह पथ माना जाता है, जो कि वर्तमान में सेटेलाईट चित्रों से भी प्रमाणित हो चुका है। ओल्डहम ने 1874 में सरस्वती नदी की विलुप्ति और उसके प्रवाह पथ पर एक विस्तृत रिपोर्ट रॉयल एशियाटिक सोसायटी कलकत्ता में द लास्ट रिवर ऑफ थार डेजर्ट एक प्रमाणिक लेख सरस्वती नदी पर प्रकाशित किया था। ओल्डहम ने कई वर्षों तक सरस्वती के प्रवाह के अलग-अलग पथ उनके विलुप्त होने के कारण, नदियों के किनारे, विलुप्त सभ्यताओं के अवशेषों पर शोध करते हुए एक ओर विस्तृत शोध कलकता रिव्यू पत्र में 1894 में प्रकाशित करते हुए सरस्वती शोध पर विशेष बल दिया। उनका शोध के आधार पर कहना है कि घग्गर और चोलंग नदी का सुखा पाट ही सरस्वती का अपशिष्ट है।

बाड़मेर जिले के जाने-माने पुरा इतिहासविद् व इंटेक चेप्टर संस्था के बालोतरा क्षेत्र प्रभारी राजेन्द्र सिंह मान सिलोर का भी कई प्रमाणों के आधार पर यह निश्चित मत है कि वैदिक नदी सरस्वती की पांच अलग-अलग धाराएं बाड़मेर, जैसलमेर एवं पाक सीमा पार क्षेत्र से होकर गुजरती थी। शिवालिक की पहाड़ियों से निकलकर एक विशाल जल तंत्र के रूप में लगभग 1700 किलोमीटर के भू-भाग को सिंचित करते हुई सिंधु सरस्वती की यह जल धाराएं कच्छ के रण में सिन्धु सागर में जाकर विलिन होती थी। बाड़मेर-जैसलमेर क्षेत्र मे कई स्थानों पर आज भी पत्थरों विशाल कोल्हू पड़े है। जिनमें गन्ना का जूस निकालकर गुड़ बनाया जाता था। हनुमानगढ़ से मेड़ता होकर जोधपुर बाड़मेर क्षेत्र में बहने वाली जोजरी नदी जो आगे आकर लूनी नदी में मिल जाती है, इसके क्षेत्र में आज भी धवा-कल्याणपुर सहित अन्य स्थानों पर बड़े कोल्हू यह प्रमाणित करते है कि सरस्वतीकालीन इस नदी के किनारे प्राचीनकाल में गन्ना, चावल और कपास की खेती होती थी।

अब सेटेलाईट चित्रों द्वारा इसकी पुष्टि होती है कि लूनी नदी के पश्चिम की ओर चलने वाली जोजरी नदी प्राचीन सरस्वती नदी की एक धारा है जो खेड़ तिलवाड़ा के निकट लूनी नदी में मिल जाती है। अब जोजरी नदी का प्रवाह पथ नाममात्र का शेष रह गया है। उपखण्ड के सिवाना, सिलोर, समदडी आदि क्षेत्रों मे लूनी नदी के किनारे पुराने चीजों के अवशेष मिलना साबित करता है कि इस क्षेत्र में सरस्वती नदी की धारा के किनारे प्राचीन सभ्यताएं पनपी होगी। मान का कहना है कि आज इन इलाकों मे प्राचीन मानव सभ्यताओं के पुरावशेष मिलते है जिन पर विस्तृत शोध करना आवश्यक है।

हरे रंग में सरस्वती नदी को दर्शाया गया हैहरे रंग में सरस्वती नदी को दर्शाया गया है
 

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