केन्द्र और दिल्ली सरकार की टकराहट में एक महत्त्वपूर्ण खबर अखबारों के अन्दर के पृष्ठों में कहीं दबकर रह गई। यह खबर उन आठ सूखा प्रभावित राज्यों से सम्बन्धित थी, जहाँ पीड़ितों के परिवार में भोजन के अभाव में कुपोषण और भूखमरी का खतरा है।
जो देश बुलेट ट्रेन के सपने को पूरा करने वाला हो, सूचना प्रोद्योगिकी में पूरी दुनिया में एक बड़ा केन्द्र बनकर उभरा हो, वहाँ की बड़ी आबादी भूख और कुपोषण जैसे सवालों से टकरा रही है। यह सुनना भी विचित्र लगता है लेकिन यह इस देश की एक सच्चाई है। जिससे इन्कार नहीं किया जा सकता।
सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के अन्तर्गत सभी सूखा प्रभावित क्षेत्रों में निःशुल्क अनाज उपलब्ध कराने का निर्देश दिया है।
मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, ओडिसा और झारखंड वे आठ राज्य हैं, जिन राज्यों को निःशुल्क अनाज उपलब्ध कराने का निर्देश जारी हुआ है।
इन राज्यों की सरकार के अलावा न्यायाधीश मदन बी लोकूर और एस ए बोब्दे की बेंच ने कृषि मन्त्रालय को भी इस सम्बन्ध में नोटिस भेजा है।
न्यायालय ने स्वराज अभियान की जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए यह फैसला लिया। याचिका में किसानों को समय पर और उचित फसल बर्बादी के मुआवज़े की बात कही गई थी।
जिससे वे अपनी फसल बर्बाद होने के बाद अगली फसल की बुआई समय पर खेतों में कर पाएँ। इसलिये याचिका में सूखे से प्रभावित किसानों को अगली फसल के लिये और उनके पशुओं के चारे के लिये सब्सिडी की माँग की गई थी।
स्वराज अभियान एक सामाजिक-राजनीतिक अभियान है। जिसे आम आदमी पार्टी के पूर्व नेता और समाजवादी जन-परिषद से लम्बे समय तक जुड़े रहे योगेन्द्र यादव ने प्रारम्भ किया है।
स्वराज अभियान ने सूखा प्रभावित राज्यों में शासन कर रही राजनीतिक पार्टियों पर यह आरोप लगाया कि राज्य सरकारों की अनदेखी की वजह से किसानों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ा।
कई किसानों की जान भी इस अनदेखी की वजह से गई। वास्तव में यह संविधान के अनुच्छेद 21 और 14 में मिले अधिकारों का खुले तौर पर उल्लंघन है।
वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण इस जनहित याचिका को अभियान की तरफ से न्यायालय में लेकर गए थे। बकौल प्रशांत एनएफएसए (नेशलन फूड सेक्यूरिटी एक्ट) 2013 में सरकारों पर प्रत्येक माह प्रति परिवार तक पाँच किलो अनाज पहुँचाने का दायित्व देता है। दुर्भाग्यवश बहुत से राज्यों को इस बात की कोई परवाह नहीं है। उनपर जो दायित्व है, उसे वे पूरा कर रहे हैं या नहीं?
अध्ययन से यह बात निकल कर सामने आई है कि एपीएल और बीपीएल का अन्तर अधिकांश राज्यों में कोई अन्तर नहीं है। यह भेद अनुपयोगी साबित हुआ है।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून की सफलता की बात करें तो मध्य प्रदेश और बिहार में सकारात्मक परिणाम के साथ इसे सफलता मिली है। बाकि कई राज्यों में स्थिति चिन्ताजनक है।
चिन्ता की बात यह भी है कि सूखे की स्थिति से मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, ओडिसा और झारखंड की राज्य सरकारें अनभिज्ञ नहीं होगी। उसके बावजूद न्यायालय के फैसले का इन्तजार उन्हें क्यों करना पड़ा?
स्वराज अभियान के अनुसार इन आठ में से किसी राज्य ने अब तक सूखा ग्रस्त किसानों को मुआवजा नहीं दिया। ये सारी सरकारें क्या न्यायालय से आने वाले फैसले का इन्तजार कर रहीं थी? किसानों का फसल अभी बर्बाद हुई है। उन्हें मदद की जरूरत अभी है।
यदि समय पर उन्हें मदद नहीं मिली तो यह फसल तो जा ही चुकी है, वे समय पर अगली फसल की तैयारी भी नहीं कर पाएँगे।
पिछले दिनों एनडीआरएफ (नेशनल डिजास्टर रिस्पांस फोर्स) ने राज्य सभा को सूचना दी जिसमें सूखे से निपटने के लिये 24,000 करोड़ रुपए की वित्तीय सहायता की बात कही गई है।
कृषि मंत्री राधामोहन सिंह द्वारा राज्य सभा में दी गई जानकारी के अनुसार सूखे से निपटने के लिये सूखा प्रभावित राज्यों द्वारा जो वित्तीय सहायता की माँग की गई, उसकी जानकारी कुछ इस तरह है, कर्नाटक (3830.84 करोड़), छत्तीसगढ़ (6093.79 करोड़), मध्य प्रदेश (4821.64 करोड़), महाराष्ट्र (4002.82 करोड़), ओडिशा (1687.56 करोड़), उत्तर प्रदेश (2057.79 करोड़), तेलंगाना (1546.60 करोड़) यह जानकारी देते हुए कृषि मंत्री सिंह यह बताना नहीं भूले कि कृषि राज्य का विषय है लेकिन किसानों की समस्या को केन्द्र महत्त्वपूर्ण मानता है। इसलिये वह राज्य की सरकारों को मदद करता है।
बहरहाल, किसानों के पक्ष में आये न्यायालय के फैसले का हम सबको स्वागत करना चाहिए। उम्मीद करना चाहिए कि किसानों के सवाल पर केन्द्र की सरकार और राज्य की सरकारें आपसी भेद भाव को भूलाकर किसानों के हित में साथ-साथ मिलकर काम करेंगी।
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